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(ए) मन गरो वचनसें, सेवक अपनां कह दश्ये ॥षज॥५॥ त्रिजुवन ईश सुहंकर स्वामी, अंतरजामी तुं कहीयें ॥ जब हमकुं तारो प्रजुसें, मनकी वात सकल कहीयें॥ षनः ॥६॥ कल्पतरु चिंतामणि जाशो, आज निरासें ना रहीयें ॥ तुं चिंतित दायक दासकी, अरजी चित्तमें दृढ गहीयें ॥षजादीनहीन परगुण रस राची, शरण रहित जगमें रहीयें ॥ तु करुणा सिंधु दासका, करुणा क्यु नहि चित ग्रहीयें ॥ षन ॥॥ तुम विन तारक को न दीसे, होवे तुमकू क्यु कहीयें ॥ इह दिलमें गनी तार के, सेवक जगमें जश लहीयें ॥ षन ॥ए॥ सात वार तुम चरणे आयो, दायक शरण जगत क. हियें ॥अब धरणे बेशी नाथसें, मनवंबित सब कुछ लहियें ॥षन ॥ १० ॥ अवगुण मानी परिहरशो तो, आदिगुणी जग को करीयें ॥ जो गुणीजन तारियें तो, तेरी अधिकता क्या कहीयें ॥षना ॥ ११॥ श्रातम घटमें खोज प्यारे, बाह्यजटकते ना रहीयें। तुम अज अविनाशी धार निज, रूप आनंद घनरस लहीयें ॥ षन ॥१५॥ श्रातमानंदी प्रथम जिनेश्वर, तेरे चरण शरण रहीयें॥ सिझाचल
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