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“અહો ! શ્રુતજ્ઞાન” ગ્રંથ જીર્ણોદ્ધાર ૧૭૮ જ્યોતિષસાર
: દ્રવ્ય સહાયક :
પૂજ્ય આચાર્ય શ્રી નીતિસૂરિજી મ. સા.ના સમુદાયના પૂ.સાધ્વી શ્રી લલિતપ્રભાશ્રીજી મ.સા.,પૂ.સાધ્વી શ્રી કલ્પશીલાશ્રીજી મ.સા., પૂ.સાધ્વી શ્રી કીર્તિશીલાશ્રીજી મ.સા., પૂ.સાધ્વી વિનયશીલાશ્રીજી મ.સા. ની પ્રેરણાથી રાની સ્ટેશન શ્રાવિકા ઉપાશ્રયની જ્ઞાનખાતાની ઉપજમાંથી
: સંયોજક :
શાહ બાબુલાલ સરેમલ બેડાવાળા શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાનભંડાર
શા. વિમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન
હીરાજૈન સોસાયટી, સાબરમતી, અમદાવાદ-૫
(મો.) 9426585904 (ઓ.) 22132543
સંવત ૨૦૬૯
ઈ. ૨૦૧૩
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
પૃષ્ઠ
___84
___810
010
011
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com
शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६५ (ई. 2009) सेट नं.-१ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। ક્રમાંક પુસ્તકનું નામ
ता-टी515ार-संपES | 001 | श्री नंदीसूत्र अवचूरी
| पू. विक्रमसूरिजी म.सा.
238 | 002 | श्री उत्तराध्ययन सूत्र चूर्णी
| पू. जिनदासगणि चूर्णीकार
286 003 श्री अर्हद्गीता-भगवद्गीता
प. मेघविजयजी गणि म.सा. 004 | श्री अर्हच्चूडामणि सारसटीकः
पू. भद्रबाहुस्वामी म.सा. | 005 | श्री यूक्ति प्रकाशसूत्रं
पू. पद्मसागरजी गणि म.सा. | 006 | श्री मानतुङ्गशास्त्रम्
| पू. मानतुंगविजयजी म.सा. | 007 | अपराजितपृच्छा
श्री बी. भट्टाचार्य 008 शिल्प स्मृति वास्तु विद्यायाम्
श्री नंदलाल चुनिलाल सोमपुरा 850 | 009 | शिल्परत्नम् भाग-१
श्रीकुमार के. सभात्सव शास्त्री 322 शिल्परत्नम् भाग-२
श्रीकुमार के. सभात्सव शास्त्री 280 प्रासादतिलक
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
162 | 012 | काश्यशिल्पम्
श्री विनायक गणेश आपटे
302 प्रासादमजरी
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
156 014 | राजवल्लभ याने शिल्पशास्त्र
श्री नारायण भारती गोंसाई
352 | शिल्पदीपक
श्री गंगाधरजी प्रणीत
120 | वास्तुसार
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई दीपार्णव उत्तरार्ध
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
110 જિનપ્રાસાદ માર્તણ્ડ
શ્રી નંદલાલ ચુનીલાલ સોમપુરા
498 | जैन ग्रंथावली
श्री जैन श्वेताम्बर कोन्फ्रन्स 502 | હીરકલશ જૈન જ્યોતિષ
શ્રી હિમતરામ મહાશંકર જાની 021 न्यायप्रवेशः भाग-१
श्री आनंदशंकर बी. ध्रुव 022 | दीपार्णव पूर्वार्ध
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई 023 अनेकान्त जयपताकाख्यं भाग-१
पू. मुनिचंद्रसूरिजी म.सा.
452 024 | अनेकान्त जयपताकाख्यं भाग-२
श्री एच. आर. कापडीआ
500 025 | प्राकृत व्याकरण भाषांतर सह
श्री बेचरदास जीवराज दोशी
454 026 | तत्त्पोपप्लवसिंहः
| श्री जयराशी भट्ट, बी. भट्टाचार्य
188 | 027 | शक्तिवादादर्शः
| श्री सुदर्शनाचार्य शास्त्री
214 | क्षीरार्णव
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
414 029 | वेधवास्तु प्रभाकर
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
___192
013
454 226 640
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824
288
30 | શિન્જરત્નાકર
प्रासाद मंडन श्री सिद्धहेम बृहदवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-१ | श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-२ श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-३
श्री नर्मदाशंकर शास्त्री | पं. भगवानदास जैन पू. लावण्यसूरिजी म.सा. પૂ. ભાવસૂરિની મ.સા.
520
034
().
પૂ. ભાવસૂરિ મ.સા.
श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-3 (२)
324
302
196
039.
190
040 | તિલક
202
480
228
60
044
218
036. | श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-५ 037 વાસ્તુનિઘંટુ 038
| તિલકમન્નરી ભાગ-૧ તિલકમગ્નરી ભાગ-૨ તિલકમઝરી ભાગ-૩ સખસન્ધાન મહાકાવ્યમ્ સપ્તભફીમિમાંસા ન્યાયાવતાર વ્યુત્પત્તિવાદ ગુઢાર્થતત્ત્વલોક
સામાન્ય નિર્યુક્તિ ગુઢાર્થતત્ત્વાલોક 046 સપ્તભીનયપ્રદીપ બાલબોધિનીવિવૃત્તિઃ
વ્યુત્પત્તિવાદ શાસ્ત્રાર્થકલા ટીકા નયોપદેશ ભાગ-૧ તરષિણીકરણી નયોપદેશ ભાગ-૨ તરકિણીતરણી ન્યાયસમુચ્ચય ચાદ્યાર્થપ્રકાશઃ
દિન શુદ્ધિ પ્રકરણ 053 બૃહદ્ ધારણા યંત્ર 05 | જ્યોતિર્મહોદય
પૂ. ભાવસૂરિની મ.સા. પૂ. ભાવસૂરિન મ.સા. પ્રભાશંકર ઓઘડભાઈ સોમપુરા પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. વિજયઅમૃતસૂરિશ્વરજી પૂ. પં. શિવાનન્દવિજયજી સતિષચંદ્ર વિદ્યાભૂષણ શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા) શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા) પૂ. લાવણ્યસૂરિજી. શ્રીવેણીમાધવ શાસ્ત્રી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. દર્શનવિજયજી પૂ. દર્શનવિજયજી સ. પૂ. અક્ષયવિજયજી
045
190
138
296
(04)
210
274
286
216
532
113
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|
શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાન ભંડાર
ભાષા |
218.
|
164
સંયોજક – બાબુલાલ સરેમલ શાહ શાહ વીમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન
हीशन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, महावाह-04. (मो.) ८४२७५८५८०४ (यो) २२१३ २५४३ (5-मेल) ahoshrut.bs@gmail.com महो श्रुतज्ञानमjथ द्धिार - संवत २०७5 (5. २०१०)- सेट नं-२
પ્રાયઃ જીર્ણ અપ્રાપ્ય પુસ્તકોને સ્કેન કરાવીને ડી.વી.ડી. બનાવી તેની યાદી.
या पुस्तsी www.ahoshrut.org वेबसाईट ५२थी ugl stGirls sी शाशे. ક્રમ પુસ્તકનું નામ
ता-टी815२-संपES પૃષ્ઠ 055 | श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहदन्यास अध्याय-६
| पू. लावण्यसूरिजी म.सा.
296 056 | विविध तीर्थ कल्प
प. जिनविजयजी म.सा.
160 057 लारतीय टन भए। संस्कृति सनोमन
पू. पूण्यविजयजी म.सा. 058 | सिद्धान्तलक्षणगूढार्थ तत्त्वलोकः
श्री धर्मदत्तसूरि
202 059 | व्याप्ति पञ्चक विवृत्ति टीका
श्री धर्मदत्तसूरि જૈન સંગીત રાગમાળા
श्री मांगरोळ जैन संगीत मंडळी | 306 061 | चतुर्विंशतीप्रबन्ध (प्रबंध कोश)
| श्री रसिकलाल एच. कापडीआ 062 | व्युत्पत्तिवाद आदर्श व्याख्यया संपूर्ण ६ अध्याय |सं श्री सुदर्शनाचार्य
668 063 | चन्द्रप्रभा हेमकौमुदी
सं पू. मेघविजयजी गणि
516 064| विवेक विलास
सं/. | श्री दामोदर गोविंदाचार्य
268 065 | पञ्चशती प्रबोध प्रबंध
| पू. मृगेन्द्रविजयजी म.सा.
456 066 | सन्मतितत्त्वसोपानम्
| सं पू. लब्धिसूरिजी म.सा.
420 06764शमाता वही गुशनुवाह
गु४. पू. हेमसागरसूरिजी म.सा. 638 068 | मोहराजापराजयम्
सं पू. चतुरविजयजी म.सा. 192 069 | क्रियाकोश
सं/हिं श्री मोहनलाल बांठिया
428 070 | कालिकाचार्यकथासंग्रह
सं/. | श्री अंबालाल प्रेमचंद
406 071 | सामान्यनिरुक्ति चंद्रकला कलाविलास टीका | सं. श्री वामाचरण भट्टाचार्य
308 072 | जन्मसमुद्रजातक
सं/हिं श्री भगवानदास जैन
128 मेघमहोदय वर्षप्रबोध
सं/हिं श्री भगवानदास जैन
532 on જૈન સામુદ્રિકનાં પાંચ ગ્રંથો
१४. श्री हिम्मतराम महाशंकर जानी 376
060
322
073
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'075
374
238
194
192
254
260
| જૈન ચિત્ર કલ્પદ્રુમ ભાગ-૧ 16 | જૈન ચિત્ર કલ્પદ્રુમ ભાગ-૨ 77) સંગીત નાટ્ય રૂપાવલી 13 ભારતનાં જૈન તીર્થો અને તેનું શિલ્પ સ્થાપત્ય 79 | શિલ્પ ચિન્તામણિ ભાગ-૧ 080 | બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૧ 081 બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૨
| બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૩ 083. આયુર્વેદના અનુભૂત પ્રયોગો ભાગ-૧
કલ્યાણ કારક 085 | વિનોરન શોર
કથા રત્ન કોશ ભાગ-1
કથા રત્ન કોશ ભાગ-2 088 | હસ્તસગ્નીવનમ
238 260
ગુજ. | | श्री साराभाई नवाब ગુજ. | શ્રી સYTમારું નવાવ ગુજ. | શ્રી વિદ્યા સરમા નવીન ગુજ. | શ્રી સારામારું નવીન ગુજ. | શ્રી મનસુબાન મુવામન ગુજ. | શ્રી નન્નાથ મંવારમ ગુજ. | શ્રી નન્નાથ મંવારમ ગુજ. | શ્રી ગગન્નાથ મંવારમ ગુજ. | . વન્તિસાગરની ગુજ. | શ્રી વર્ધમાન પર્વનાથ શત્રી सं./हिं श्री नंदलाल शर्मा ગુજ. | શ્રી લેવલાસ ગીવરાન કોશી ગુજ. | શ્રી લેવલાસ નવરીન લોશી સ. પૂ. મેનિયની સં. પૂ.વિનયની, પૂ.
पुण्यविजयजी आचार्य श्री विजयदर्शनसूरिजी
114
'084.
910
436 336
087
2૩૦
322
(089/
114
એન્દ્રચતુર્વિશતિકા સમ્મતિ તર્ક મહાર્ણવાવતારિકા
560
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
क्रम
272 240
सं.
254
282
466
342
362 134
70
316
224
612
307
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com
शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६७ (ई. 2011) सेट नं.-३ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। | पुस्तक नाम
कर्ता टीकाकार भाषा संपादक/प्रकाशक 91 | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-१
वादिदेवसूरिजी सं. मोतीलाल लाघाजी पुना 92 | | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-२
वादिदेवसूरिजी
| मोतीलाल लाघाजी पुना 93 | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-३
बादिदेवसूरिजी
| मोतीलाल लाघाजी पुना 94 | | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-४
बादिदेवसूरिजी
मोतीलाल लाघाजी पुना | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-५
वादिदेवसूरिजी
| मोतीलाल लाघाजी पुना 96 | पवित्र कल्पसूत्र
पुण्यविजयजी
साराभाई नवाब 97 | समराङ्गण सूत्रधार भाग-१
भोजदेव
| टी. गणपति शास्त्री 98 | समराङ्गण सूत्रधार भाग-२
भोजदेव
| टी. गणपति शास्त्री 99 | भुवनदीपक
पद्मप्रभसूरिजी
| वेंकटेश प्रेस 100 | गाथासहस्त्री
समयसुंदरजी
सं. | सुखलालजी 101 | भारतीय प्राचीन लिपीमाला
| गौरीशंकर ओझा हिन्दी | मुन्शीराम मनोहरराम 102 | शब्दरत्नाकर
साधुसुन्दरजी
सं. हरगोविन्ददास बेचरदास 103 | सबोधवाणी प्रकाश
न्यायविजयजी ।सं./ग । हेमचंद्राचार्य जैन सभा 104 | लघु प्रबंध संग्रह
जयंत पी. ठाकर सं. ओरीएन्ट इन्स्टीट्युट बरोडा 105 | जैन स्तोत्र संचय-१-२-३
माणिक्यसागरसूरिजी सं, आगमोद्धारक सभा 106 | सन्मति तर्क प्रकरण भाग-१,२,३
सिद्धसेन दिवाकर
सुखलाल संघवी 107 | सन्मति तर्क प्रकरण भाग-४.५
सिद्धसेन दिवाकर
सुखलाल संघवी 108 | न्यायसार - न्यायतात्पर्यदीपिका
सतिषचंद्र विद्याभूषण
एसियाटीक सोसायटी 109 | जैन लेख संग्रह भाग-१
पुरणचंद्र नाहर
| पुरणचंद्र नाहर 110 | जैन लेख संग्रह भाग-२
पुरणचंद्र नाहर
सं./हि पुरणचंद्र नाहर 111 | जैन लेख संग्रह भाग-३
पुरणचंद्र नाहर
सं./हि । पुरणचंद्र नाहर 112 | | जैन धातु प्रतिमा लेख भाग-१
कांतिविजयजी
सं./हि | जिनदत्तसूरि ज्ञानभंडार 113 | जैन प्रतिमा लेख संग्रह
दौलतसिंह लोढा सं./हि | अरविन्द धामणिया 114 | राधनपुर प्रतिमा लेख संदोह
विशालविजयजी सं./गु | यशोविजयजी ग्रंथमाळा 115 | प्राचिन लेख संग्रह-१
विजयधर्मसूरिजी सं./गु | यशोविजयजी ग्रंथमाळा 116 | बीकानेर जैन लेख संग्रह
अगरचंद नाहटा सं./हि नाहटा ब्रधर्स 117 | प्राचीन जैन लेख संग्रह भाग-१
जिनविजयजी
सं./हि | जैन आत्मानंद सभा 118 | प्राचिन जैन लेख संग्रह भाग-२
जिनविजयजी
सं./हि | जैन आत्मानंद सभा 119 | गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-१
गिरजाशंकर शास्त्री सं./गु | फार्वस गुजराती सभा 120 | गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-२
गिरजाशंकर शास्त्री सं./गु | फार्बस गुजराती सभा 121 | गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-३
गिरजाशंकर शास्त्री
फार्बस गुजराती सभा 122 | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-१ | पी. पीटरसन
रॉयल एशियाटीक जर्नल 123|| | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-४ पी. पीटरसन
रॉयल एशियाटीक जर्नल 124 | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-५ पी. पीटरसन
रॉयल एशियाटीक जर्नल 125 | कलेक्शन ऑफ प्राकृत एन्ड संस्कृत इन्स्क्रीप्शन्स
पी. पीटरसन
| भावनगर आर्चीऑलॉजीकल डिपा. 126 | विजयदेव माहात्म्यम्
| जिनविजयजी
सं. जैन सत्य संशोधक
514
454
354
सं./हि
337 354 372 142 336 364 218 656 122
764 404 404 540 274
सं./गु
414 400
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
754
194
3101
276
69 100 136 266
244
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com
शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६८ (ई. 2012) सेट नं.-४ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। क्रम | पुस्तक नाम
कर्ता / संपादक
भाषा | प्रकाशक 127 | महाप्रभाविक नवस्मरण
साराभाई नवाब गुज. साराभाई नवाब 128 | जैन चित्र कल्पलता
साराभाई नवाब गुज. साराभाई नवाब 129 | जैन धर्मनो प्राचीन इतिहास भाग-२
हीरालाल हंसराज गुज. हीरालाल हंसराज 130 | ओपरेशन इन सर्च ओफ सं. मेन्यु. भाग-६
पी. पीटरसन
अंग्रेजी | एशियाटीक सोसायटी 131 | जैन गणित विचार
कुंवरजी आणंदजी गुज. जैन धर्म प्रसारक सभा 132 | दैवज्ञ कामधेनु (प्राचिन ज्योतिष ग्रंथ)
शील खंड
सं. | ब्रज. बी. दास बनारस 133 || | करण प्रकाशः
ब्रह्मदेव
सं./अं. | सुधाकर द्विवेदि 134 | न्यायविशारद महो. यशोविजयजी स्वहस्तलिखित कृति संग्रह | यशोदेवसूरिजी गुज. | यशोभारती प्रकाशन 135 | भौगोलिक कोश-१
डाह्याभाई पीतांबरदास गुज. | गुजरात बर्नाक्युलर सोसायटी 136 | भौगोलिक कोश-२
डाह्याभाई पीतांबरदास गुज. | गुजरात वर्नाक्युलर सोसायटी 137 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-१ अंक-१,२
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 138 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-१ अंक-३, ४
जिनविजयजी
हिन्दी । जैन साहित्य संशोधक पुना 139 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-२ अंक-१, २
जिनविजयजी हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 140 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-२ अंक-३, ४
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 141 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-३ अंक-१,२ ।।
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 142 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-३ अंक-३, ४
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 143 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-१
सोमविजयजी
गुज. शाह बाबुलाल सवचंद 144 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-२
सोमविजयजी
| शाह बाबुलाल सवचंद 145 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-३
सोमविजयजी
गुज. शाह बाबुलाल सवचंद 146 | भाषवति
शतानंद मारछता सं./हि | एच.बी. गुप्ता एन्ड सन्स बनारस 147 | जैन सिद्धांत कौमुदी (अर्धमागधी व्याकरण)
रत्नचंद्र स्वामी
प्रा./सं. | भैरोदान सेठीया 148 | मंत्रराज गुणकल्प महोदधि
जयदयाल शर्मा हिन्दी | जयदयाल शर्मा 149 | फक्कीका रत्नमंजूषा-१, २
कनकलाल ठाकूर सं. हरिकृष्ण निबंध 150 | अनुभूत सिद्ध विशायंत्र (छ कल्प संग्रह)
मेघविजयजी
सं./गुज | महावीर ग्रंथमाळा 151 | सारावलि
कल्याण वर्धन
सं. पांडुरंग जीवाजी 152 | ज्योतिष सिद्धांत संग्रह
विश्वेश्वरप्रसाद द्विवेदी सं. बीजभूषणदास बनारस 153| ज्ञान प्रदीपिका तथा सामुद्रिक शास्त्रम्
रामव्यास पान्डेय सं. | जैन सिद्धांत भवन नूतन संकलन | आ. चंद्रसागरसूरिजी ज्ञानभंडार - उज्जैन
हस्तप्रत सूचीपत्र हिन्दी | श्री आशापुरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार २ | श्री गुजराती श्वे.मू. जैन संघ-हस्तप्रत भंडार - कलकत्ता | हस्तप्रत सूचीपत्र हिन्दी | श्री आशापुरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
274 168
282
182
गुज.
384 376 387 174
320 286
272
142 260
232
160
Page #8
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
संयोजक - शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543ahoshrut.bs@gmail.com
शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05.
अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार
क्रम
विषय
संपादक/प्रकाशक
प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। पुस्तक नाम 154 उणादि सूत्रो ओफ हेमचंद्राचार्य 155 | उणादि गण विवृत्ति
कर्त्ता / संपादक पू. हेमचंद्राचार्य
पू. हेमचंद्राचार्य
156 प्राकृत प्रकाश-सटीक
157 द्रव्य परिक्षा और धातु उत्पत्ति
158 आरम्भसिध्धि सटीक
159 खंडहरो का वैभव
160 बालभारत
161 गिरनार माहात्म्य
162 | गिरनार गल्प
163 प्रश्नोत्तर सार्ध शतक
164 भारतिय संपादन शास्त्र
165 विभक्त्यर्थ निर्णय
166 व्योम वती - १
167 व्योम वती - २ 168 जैन न्यायखंड खाद्यम् 169 हरितकाव्यादि निघंटू 170 योग चिंतामणि- सटीक 171 वसंतराज शकुनम् 172 महाविद्या विडंबना 173 ज्योतिर्निबन्ध 174 मेघमाला विचार 175 मुहूर्त चिंतामणि- सटीक
176 | मानसोल्लास सटीक - १ 177 मानसोल्लास सटीक - २ 178 ज्योतिष सार प्राकृत
179 मुहूर्त संग्रह
180 हिन्दु एस्ट्रोलोजी
भामाह
ठक्कर फेरू
पू. उदयप्रभदेवसूरिजी
पू. कान्तीसागरजी
पू. अमरचंद्रसूरिजी दौलतचंद परषोत्तमदास
पू. ललितविजयजी
पू. क्षमाकल्याणविजयजी
मूलराज जैन
गिरिधर झा
शिवाचार्य
शिवाचार्य
संवत २०६९ (ई. 2013) सेट नं. ५
- -
यशोविजयजी
व्याकरण
व्याकरण
व्याकरण
धातु
ज्योतीष
शील्प
प्रकरण
साहित्य
न्याय
न्याय
न्याय
उपा.
न्याय
भाव मिश्र
आयुर्वेद
पू. हर्षकीर्तिसूरिजी
आयुर्वेद
ज्योतिष
पू. भानुचन्द्र गणि टीका
ज्योतिष
पू. भुवनसुन्दरसूरि टीका शिवराज
ज्योतिष
ज्योतिष
पू. विजयप्रभसूरी रामकृत प्रमिताक्षय टीका
ज्योतिष
भुलाकमल्ल सोमेश्वर
ज्योतिष
भुलाकमल्ल सोमेश्वर
ज्योतिष
भगवानदास जैन
ज्योतिष
अंबालाल शर्मा
ज्योतिष
पिताम्बरदास त्रीभोवनदास ज्योतिष
काव्य
तीर्थ
तीर्थ
भाषा
संस्कृत
संस्कृत
प्राकृत
संस्कृत/हिन्दी
संस्कृत
हिन्दी
संस्कृत
संस्कृत / गुजराती
संस्कृत/ गुजराती
हिन्दी
हिन्दी
संस्कृत
संस्कृत
संस्कृत
संस्कृत / हिन्दी
संस्कृत/हिन्दी
संस्कृत / हिन्दी
संस्कृत
संस्कृत
संस्कृत
संस्कृत/ गुजराती
संस्कृत
संस्कृत
संस्कृत
प्राकृत / हिन्दी
गुजराती
गुजराती
जोहन क्रिष्टे
पू. मनोहरविजयजी
जय कृष्णदास गुप्ता
भंवरलाल नाहटा
पू. जितेन्द्रविजयजी
भारतीय ज्ञानपीठ
पं. शीवदत्त
जैन पत्र
हंसकविजय फ्री लायब्रेरी
साध्वीजी विचक्षणाश्रीजी
जैन विद्याभवन, लाहोर
चौखम्बा प्रकाशन
संपूर्णानंद संस्कृत युनिवर्सिटी
संपूर्णानंद संस्कृत विद्यालय
बद्रीनाथ शुक्ल
शीव शर्मा
लक्ष्मी वेंकटेश प्रेस
खेमराज कृष्णदास सेन्ट्रल लायब्रेरी
आनंद आश्रम
मेघजी हीरजी
अनूप मिश्र
ओरिएन्ट इन्स्टीट्यूट
ओरिएन्ट इन्स्टीट्यूट
भगवानदास जैन
शास्त्री जगन्नाथ परशुराम द्विवेदी पिताम्बरदास टी. महेता
पृष्ठ
304
122
208
70
310
462
512
264
144
256
75
488
226
365
190
480
352
596
250
391
114
238
166
368
88
356
168
Page #9
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________________
श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543. E-mail : ahoshrut.bs@gmail.com
शाह विमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-380005. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०७१ (ई. 2015) सेट नं.-६
प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की डिजिटाइझेशन द्वारा डीवीडी बनाई उसकी सूची।
यह पुस्तकेwww.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं।
क्रम
विषय
|
भाषा
पृष्ठ
पुस्तक नाम काव्यप्रकाश भाग-१
| संपादक / प्रकाशक पूज्य जिनविजयजी
181
| संस्कृत
364
182
काव्यप्रकाश भाग-२
222
183
काव्यप्रकाश उल्लास-२ अने ३
330
184 | नृत्यरत्न कोश भाग-१
156
185 | नृत्यरत्र कोश भाग-२
___ कर्ता / टिकाकार पूज्य मम्मटाचार्य कृत पूज्य मम्मटाचार्य कृत उपा. यशोविजयजी श्री कुम्भकर्ण नृपति श्री कुम्भकर्ण नृपति
श्री अशोकमलजी | श्री सारंगदेव श्री सारंगदेव श्री सारंगदेव श्री सारंगदेव
248
504
संस्कृत
पूज्य जिनविजयजी संस्कृत यशोभारति जैन प्रकाशन समिति संस्कृत श्री रसीकलाल छोटालाल संस्कृत
श्री रसीकलाल छोटालाल संस्कृत /हिन्दी | श्री वाचस्पति गैरोभा संस्कृत/अंग्रेजी | श्री सुब्रमण्यम शास्त्री संस्कृत/अंग्रेजी | श्री सुब्रमण्यम शास्त्री संस्कृत/अंग्रेजी | श्री सुब्रमण्यम शास्त्री संस्कृत/अंग्रेजी | श्री सुब्रमण्यम शास्त्री संस्कृत श्री मंगेश रामकृष्ण तेलंग गुजराती मुक्ति-कमल-जैन मोहन ग्रंथमाला
448
188
444
616
190
632
| नारद
84
| 244
श्री चंद्रशेखर शास्त्री
220
186 | नृत्याध्याय 187 | संगीरत्नाकर भाग-१ सटीक
| संगीरत्नाकर भाग-२ सटीक 189 | संगीरत्नाकर भाग-३ सटीक
संगीरनाकर भाग-४ सटीक 191 संगीत मकरन्द
संगीत नृत्य अने नाट्य संबंधी 192
जैन ग्रंथो 193 | न्यायबिंदु सटीक 194 | शीघ्रबोध भाग-१ थी ५ 195 | शीघ्रबोध भाग-६ थी १० 196| शीघ्रबोध भाग-११ थी १५ 197 | शीघ्रबोध भाग-१६ थी २० 198 | शीघ्रबोध भाग-२१ थी २५ 199 | अध्यात्मसार सटीक 200 | छन्दोनुशासन 201 | मग्गानुसारिया
संस्कृत हिन्दी
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा
422
हिन्दी
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा
304
श्री हीरालाल कापडीया पूज्य धर्मोतराचार्य पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य गंभीरविजयजी एच. डी. बेलनकर
446
|414
हिन्दी
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा हिन्दी
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा हिन्दी
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा संस्कृत/गुजराती | नरोत्तमदास भानजी
409
476
सिंघी जैन शास्त्र शिक्षापीठ
444
संस्कृत संस्कृत/गुजराती
श्री डी. एस शाह
| ज्ञातपुत्र भगवान महावीर ट्रस्ट
146
Page #10
--------------------------------------------------------------------------
________________
क्रम
पुस्तक नाम
202 | आचारांग सूत्र भाग - १ नियुक्ति + टीका
203 | आचारांग सूत्र भाग - २ निर्युक्ति+ टीका
204 | आचारांग सूत्र भाग - ३ निर्युक्ति+टीका
205 | आचारांग सूत्र भाग-४ नियुक्ति+टीका 206 | आचारांग सूत्र भाग - ५ निर्युक्ति+ टीका
207 सुयगडांग सूत्र भाग - १ सटीक
208 | सुयगडांग सूत्र भाग - २ सटीक 209 सुयगडांग सूत्र भाग - ३ सटीक
210 सुयगडांग सूत्र भाग-४ सटीक
211 सुयगडांग सूत्र भाग - ५ सटीक
212 रायपसेणिय सूत्र
213 प्राचीन तीर्थमाळा भाग १
214 धातु पारायणम्
215 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग - १
216 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-२
217 | सिद्धम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-३ 218 तार्किक रक्षा सार संग्रह
219
श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
संयोजक - शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543. E-mail : ahoshrut.bs@gmail.com शाह विमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद - 380005.
अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०७२ (ई. 201६) सेट नं.-७
प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की डिजिटाइझेशन द्वारा डीवीडी बनाई उसकी सूची ।
220
221
वादार्थ संग्रह भाग - १ (स्फोट तत्त्व निरूपण, स्फोट चन्द्रिका, प्रतिपादिक संज्ञावाद, वाक्यवाद, वाक्यदीपिका)
| वादार्थ संग्रह भाग - २ ( षट्कारक विवेचन, कारक वादार्थ, समासवादार्थ, वकारवादार्थ)
वादार्थ संग्रह भाग-३ (वादसुधाकर, लघुविभक्त्यर्थ निर्णय, शाब्दबोधप्रकाशिका)
222 | वादार्थ संग्रह भाग-४ (आख्यात शक्तिवाद छः टीका)
कर्त्ता / टिकाकार
भाषा
श्री शीलंकाचार्य
गुजराती
श्री शीलंकाचार्य
गुजराती
श्री शीलंकाचार्य
गुजराती
श्री शीलंकाचार्य
गुजराती
श्री शीलंकाचार्य
गुजराती
श्री शीलंकाचार्य
गुजराती
श्री शीलंकाचार्य
गुजराती
श्री शीलंकाचार्य
गुजराती
श्री शीलंकाचार्य
गुजराती
श्री शीलंकाचार्य
गुजराती
श्री मलयगिरि
गुजराती
श्री बेचरदास दोशी
आ. श्री धर्मसूरि
सं./ गुजराती श्री यशोविजयजी ग्रंथमाळा संस्कृत
श्री हेमचंद्राचार्य
आ. श्री मुनिचंद्रसूरि
श्री हेमचंद्राचार्य
सं./ गुजराती
श्री बेचरदास दोशी
श्री हेमचंद्राचार्य
सं./ गुजराती
श्री हेमचंद्राचार्य
सं./ गुजराती
आ. श्री वरदराज
संस्कृत
विविध कर्ता
संस्कृत
विविध कर्ता
संस्कृत
विविध कर्ता
संस्कृत
रघुनाथ शिरोमणि संस्कृत
संपादक / प्रकाशक
श्री माणेक मुनि
श्री माणेक मुनि
श्री माणेक मुनि
श्री माणेक मुनि
श्री माणेक मुनि
श्री माणेक मुनि
श्री माणेक मुनि
श्री माणेक मुनि
श्री माणेक मुनि
श्री माणेक मुनि
श्री बेचरदास दोशी
श्री बेचरदास दोशी
राजकीय संस्कृत पुस्तकालय
महादेव शर्मा
महादेव शर्मा
महादेव शर्मा
महादेव शर्मा
पृष्ठ
285
280
315
307
361
301
263
395
386
351
260
272
530
648
510
560
427
88
78
112
228
Page #11
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________________
22
०
श्रीवीतरागाय नमः ।
जैनाचार्य प्रणीत
ज्योतिषसार प्राकृत
हिन्दी सानुवाद
अनुवादक
पण्डित भगवानदास जैन
प्रथमावृत्ति २००० ]
वीरनिर्वाण सं० २४४६ विक्रम सं० १६८० ई० सन् १६२३
-www
ঋG
[ मूल्य १२ आना
Page #12
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________________
'प्रकाशकपण्डित भगवानदास जैन,
कलकत्ता २०१हरिसन रोड के "नरसिंह प्रेस" में मैनेजर-पण्डित काशीनाथ जैन,
द्वारा मुद्रित ।
Page #13
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________________
प्रस्तावना
aasarai आज यह ज्योतिषसार :नामक ग्रन्थ पाठकोंके सामने उपस्थित करते हुए मुझे बड़ा ही श्रानन्द होता है। यों तो भारतीय प्राचीन ज्योतिषसाहित्य में फलादेश के भी कई छोटे मोटे अन्य विद्यमान है जिनमें अनेक प्रकट भी हो चुके हैं और हो भी रहे हैं। परन्तु यह कहने की कोई भावश्यकता नहीं, यह ग्रन्थ अपने ढङ्गको एक अनोखी चीज है, यह पाठकोंको माद्यन्त पढ़नेसे स्वयं ज्ञात होगा। ज्योतिषके फलित विषयसे संबन्ध रखनेवाली प्रायः सभी बातोंका इसमें संक्षेप में किन्तु सुचारुरूप से समावेश किया गया है। - मुझे खेद है कि इस ग्रन्थके प्रणेताके संबन्धमें कुछ भी ऐतिहासिक प्रकाश नहीं डाल सकता,क्योंकि ग्रन्थकारने स्वयं न अपने नामका ही कही पर स्पष्टरूप से उल्लेख किया है और न तो ग्रंथ-रचनाके समय का ही निर्देश किया है। हां, मंगलाचरण देखनेसे यह बात निर्विवाद है कि ग्रंथकर्ता जैन थे और ज्योतिष विषयका उनका ज्ञान असाधारण था। ___ ग्रन्थके अन्तमें प्रथम प्रकोणक समाप्तम्' यह लिखा है, इससे यह स्पष्ट होता है कि इस ग्रन्थके और भी प्रकरण होंगे, परंतु बहुत खोज करने पर भी मैं सम्पूर्ण ग्रन्थको प्राप्त नहीं कर सका हूं, इसलिये मैं लाचार हूं। इस प्रथम प्रकीर्णकी सिर्फ एक ही प्रति अहमदावाद निवासी श्रीयुत वकील केशवलालभाई प्रेमचन्द मोदी B. A. L. L. B. द्वारा मुझे प्राप्त हुई थी, इसलिये मैं उनका कृतज्ञ हूं।
मूल ग्रन्थकी भाषा प्राकृत होनेसे इसका हिंदी अनुवाद भी कर दिया गया है, जिससे सर्व साधारणको इसे समझने में सुगमता हो।
भाशा हैं कि ज्योतिषके प्रेमी-गण इस ग्रन्थको पपनाकर मेरे परिश्रम को सफल करेंगे और अनुवादकी त्रुटियों पर ख्याल न देकर सज्जनता का परिचय देंगे। कलकत्ता।
भगवानदास जैन ता० ५-७-१६२३
Page #14
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________________
SHAयानुक्रमणिका।
पृष्ठांक
१६
पथविचार
१६
......
.
.
.
.
.
.
......
......
विषय
पृष्ठांक | विषय इष्टदेवको नमस्कार
| बारह राशिके नाम ...... द्वार गाया
नक्षत्रके चरणसे राशिविचार शुभाशुभ तिथि
য়িকা तिशिके नाम
| जन्मनक्षत्र फल वर्जनीय तिथि
| लघु दिन शुद्धि रविदग्धा तिथि
४ | बड़ीदिन शुद्धि चन्द्रदग्धा तिथि
| २८ उपयोगके नाम ...... क्रूर तिथि
६ | उपयोगके फल कर तिथि यन्त्र स्थापना पुरुष नव वाहनफल ..... सातवारके नाम ___प्रकारान्तरे १२ बाहन ..... कौन कार्यमें कौन ग्रह सबल है । स्वरज्ञान वारका प्रारंभ ....... | चन्द्रनाडी फल वारके शुभ चौघड़ियों...... | सूर्य नाडी फल कालहोरा
१० स्वरदिशाशूल दिनहोरायन्त्र
११ स्वर द्वारा गर्भज्ञान रात्रोहोरायन्त्र
| स्वरद्वारा ऋतुदान सिद्धछायालग्न
स्वरफल अभिजितलग्न ...... | वत्सचक्र नक्षत्रकेनाम ....... १४ | शिवचक्र नक्षत्रके ताराकी संख्या ... तत्काल योगिनी स्थापना... नक्षत्र संज्ञा
१६ | मासराहु फल दिनयोग
वारराहु फल योग की दुष्ट घड़ी ..... भर्द्ध प्रहरी राहुफल ...... होडाचक्र
१८ शुक्रफल
.
.
..
.
.
.
.
..
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.
.
.
.
.
.
.
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Page #15
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________________
विषय
कीलक फल
परीघदंड
परीघमाहात्म्य
पंचक फल
त्रिविध दिशाशुल
नक्षत्र दिशाशूल
वारदिशाशूल
विदिशाशूल दिशाशूल परिहार
रविवासा
दिशा विदिशामें रवि प्रहर
रवि फल
वत्स रवि राहु फल स्थिर योग
सर्वाङ्ग योग
रवि योग
राज योग
कुमार योग
ज्वालामुखी योग अशुभ योग
शुभ योग
त्रिशुद्धि योग
तिथि वार नक्षत्र अशुभयोग अमृत सिद्धि योग
...
*****
...
******
......
......
( २ )
पृष्ठांक
विषय
३४ |
३४ कालवेलायोग
३५ कुलिकयोग
३५ उपकुलिकयोग
३६ | कंटकयोग
३७ : कर्कटयोग
-३७ यमघंटयोग
३७ | उत्पातयोग
३८ | वार नक्षत्र मृत्युयोग ३८ तिथिवार मृत्युयोग
३६ | काणयोग
३६
हरयोग
४४
४४
४६
४५
वार नक्षत्र सिद्धियोग
तिथिवार सिद्धियोग
४०
४०
४१ संवर्तकयोग
४२ शूलयोग
४२ शत्रु योय
४३ | भस्म और दण्ड योग ......
त्रिपुष्करयोग
४३ कालमुखीयोग
४४
......
नक्षत्र
व्रतादि लेनेका मुहूर्त
क्षौर कर्म मुहूर्त्त
भद्रा फल
......
......
वज्रमुसल योग याने ग्रह जन्म
******
पृष्ठांक
४६
......
20 20 2
४६
५०
५०
५०
x x
५१
५१
५२
५२
५३
x
५४
५४
५४
५५
५५
娱
બજ રૂ
५७
५६
५६
५६
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________________
३० घडी में भद्रा वनविभाग
भद्रावास
संमुखी भद्रा विचार
कुंभचक्र
यमदंष्ट्रायोग
चर योग
तिथिकाल पाश
वारकाल पाश
छींक विचार विजय मुहूर्त
प्रस्थान मुहूर्त्त
प्रस्थान निषेध
मध्यम प्रस्थान
उत्तम प्रस्थान
ताराबल
ताराके नाम
विषय बुधशुभाशुभ
६१ | गुरु शुभाशुभ
६२ | शुक्र शुभाशुभ
६३ | शनि शुभाशुभ
६४ | राहुकेतु शुभाशुभ
६४ | नवग्रह राशि प्रमाण
६५ | नवग्रहके नवमांश
रवि शुभाशुभ
चंद्र शुभाशुभ चन्द्रवास फल भौम
शुभाशुभ
......
६५
ग्रह फल
६५ पंचग्रहयकी तथा अतिचार के दिन संख्या.......
६६
६७ | रविवासचक्र
६७ चंद्रवासचक्र
६८ भौमवासचक्र
६८ | बुधवासचक्र
६६ | गुरुत्रासचक्र
७०
शुक्रवासचक्र ७० | शनिवासचक्र
७०
शनिदृष्टि तिथि ७१ | राहुकेतु वास चक्र चन्द्रावस्था
७२
जैनाचार्य प्रणीत ज्योतिष की प्राचीन पुस्तकें |
......
......
पृष्ठांक
७२
७२
७२
७३
७३
७३
७४
७५
७५
७६
७७
७७
७८
७६
७६
८०
५१
८१
८२
( हिन्दी अनुवाद समेत छपेगी )
१ गणितसार संग्रह - श्री महावीराचार्य प्रणीत गणितशास्त्रका पूर्वग्रन्थ । २ मेघमहोदय ( वर्ष प्रबोध ) - महामहोपाध्याय श्री मेघविजयगणि प्रणीत फलादेश का अत्युत्तम पंथ । ३ त्रैलोक्य प्रकाश - प्रतिभा सर्वज्ञ श्री देवेन्द्रसूरिके शिष्य श्रीहैमप्रभसूरि प्रणीत ताजिक प्रश्नका बड़ा चमत्कारी ग्रन्थ ।
-
Page #17
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________________
॥ ऐ नमः श्रीजिनवराय በ
अथ श्री ज्योतिषसारः प्रारभ्यते ।
नत्वा,
श्रीमदर्हत्प्रभु केवलज्ञानभास्करम् । कुर्वे ज्योतिषसारख्य, भाषां बालावबोधिकाम् ॥ १ ॥
ग्रन्थकार अपने इष्टदेव को नमस्कार करते हैं ।
पण परमिट्ट णमेयं, समरिय सुहगुरु य सरस्साई सहियं | कहिथं जोइसहीरं, गाथा - छंदेण बंधेण ॥ १ ॥
भावार्थ - श्री पंच परमेष्ठी ( अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उ. पाध्याय और सर्व साध ु को नमस्कार करके और सरस्वती के साथ सद्गुरु का भी स्मरण करके गाथा बंध छंद से ज्योतिहीर ( ज्योतिषसार ) का मैं कहता हूँ ॥ १ ॥
द्वार गाथा कहते है
तिहि वार रिक्ख जोगं, होडाचक्कम्मि रासि दिणसुद्धी । वाहण हंसो वच्छो, सिवचक्क जोगिणी राहो ॥ २ ॥ भिगु कील परिघ पंचग, सूलं रविचारु थिवर सव्वंकं 1 रवि राज कुमार जाला, सुभ असुभ जोग भमियाय ॥ ३ ॥
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________________
ज्योतिषसारः ।
कुलकं अवकुलकं
अधपुहर कालवेल, कक्कड यमघंटा यं, उपाय मिच काण
कंटकं जोगं । सिद्धं ॥ ४ ॥
मसम दंडायं ।
जिमदाढं ॥ ५ ॥
खंजो यमल संवत्तः सूलं सत्तू य कालमुही वजमुसलं, भद्दा कुभोइ चरजोग कालपास, छीया विजया य गमन तारबलं / गह सिसिवत्था गुणसट्टि, भणियं बोले हि अणुक्कम सो ||६|| भावार्थ - तिथि १, वार २, नक्षत्र ३, योग ४, होडाचक्र ५, राशि ६, दिनशुद्धि ७, वाहन ८, हंस ६, वत्स १०, शिवचक्र ११, योगिणी १२, राहु १३, भृगु १४, कीलक १५, परीघ १६, पंचक १७, शूल १८, रविचार १६, स्थिर योग २०, सर्वाक योग २१, रवियोग २२, राजयोग २३, कुमारयोग २४, ज्वालामुखीयोग २५, शुभयोग २६, अशुभयोग २७, अमृतादियोग २८, अर्द्धपहर २६, कालवेला ३०, कुलिक ३१, उपकुलिक ३२, कंटकयोग ३३, कर्कटयोग ३४, यमघटयोग ३५, उत्पातयोग ३६, मृत्युयोग ३७, काणयोग ३८, सिद्धियोग ३६, खंजयोग ४०, यमलयोग ४१, संवर्त्तकयोग ४२, शूलयोग ४३, शत्रुयोग ४४, भस्मयोग ४५. दंडयोग ४६, कालमुखीयोग ४०, वज्रमूसलयोग ४८, सदाफल ४६, कुंभचक्र ५०, यमदाढचक्र ५१, चरयोग ५२, कालपाश ५३, छौंकफल ५४, विजय मुहूर्त्त ५५, गमनफल ५६, ताराबल, ५७, नवग्रह ५८, चन्द्रावस्था ५६ इत्यादि गुनसठ द्वार अनुक्रम से कहते हैं ।। २-३-४–५–६॥
Page #19
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________________
हिन्दी भाषाटीका समेतः
तिथि द्वारशुभाशुभ तिथि कहते हैंपक्खे पडिवा सिद्ध, बीया सिट्ठी तीयाइ खेमाय । चउत्थी य धणं खीया, पंचमी सेया असुह छट्ठी ॥७॥ सुहदाइया सत्तमि, अट्ठमि वाही नवमि या मिञ्च । दसमि ग्गारिसि लाहो, जीवो संसाइ बारसी या ॥ ८॥ सव्वसुहा तेरसिया, उज्जल अह किण्ह वजि चवदिसिया। पुनिम अमावसिया, गमणं परिहरिय सयकज ॥६॥
भावार्थ-पक्षमें एकम श्रेष्ठ, दूज श्रेष्ठ, तीज कल्याणकारी, चौथ धनका नाश कारक, पांचम श्रेष्ठ, छट्ठ अशुभ, सातम सुखदायक, आठम व्याधिकारक, नवम मृत्युदायक, दशम ग्यारस लाभ कारक, बारस प्राण संदेह कारक, तेरस सुखकारी, चौदस पूर्णिमा और अमावास्या गमन में और सभी शुभकार्यों में वर्जनीय हैं । ये कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष दोनों पक्ष के तिथियों का फल जानना ।। ७-८-६॥ तिथि के नामनंदाइ छट्टि गारिसि, भदा बिय सत्तमि य बारिसिया। तिय अट्ठमि तेरसि जया, रित्ता चउ नवमि चवदिसिया॥१० पंचमि दसमि य पुन्निम, पुन्ना पण नाम जोग अजोग। तिहि सुद्धी सवि सुद्ध', भणिया विबुहाइ जोइसियं ॥ ११ ॥ भावार्थ-एकम छट्ट और ग्यारस नंदा तिथि है, दूज सातम
Page #20
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________________
ज्योतिषसारः ।
और बारस भद्रातिथि है, तीज आठम और तेरस जया तिथि है, चौथ नवम और चौदश रिक्ता तिथि है, पांचम दशम और पूनम पूर्णातिथि है । ये पांच तिथि के नाम हैं इसका शुभाशुभ विचार करना, तिथि शुद्ध होने से बाकी सर्व शुद्ध होते हैं ऐसे विद्वान ज्योतिषी कहते हैं ।। १०-११ ॥
सब शुभकार्य में वर्जनीय तिथि
रित्ता छट्ठि अमावस, अट्ठमि बारसि य दद्ध कुराए । तिय वार फरस तिहि, ते सव्वे वज्जिय सुहकम्मे ॥ १२ ॥ भावार्थ - रिक्ता तिथि ( ४ ६-१४ ), छठ, अमावास्या, आ. उम, बारस, दग्धातिथि, क्रूरतिथि और तीन वार स्पर्शी तिथि ये सभी शुभकार्यों में वर्जनीय हैं ॥ १२ ॥
रविदग्धा तिथि—
1
बीयाइ मीन धण रवि, चउत्थी तिहि भाणु वसह कुंभाए । छुट्टी य मेस करकं, अट्ठमि कन्नाइ मिहु हि ॥ १३ ॥ दसमीइ विच्छि सिंहो, बारसि अरके य तुले मकरे ये रवि दद्धा तिहि एए, वज्जेयं सव्व सुह कज्जायं ॥ १४ ॥ भावार्थ-- धन और मीन का सूर्य्य हो तो दूज, वृष और कुंभ का रवि हो तो चौथ, मेष और कर्क का रवि हो तो छट्ठ, कन्या ओर मिथुन का रवि हो तो आठम, सिंह और वृश्चिक का रवि हो तो दशम, तुला और मकर का रवि हो तो बारस, इन छ तिथि को रविदग्धा तिथि कहते हैं ये सभी शुभकार्यों में वर्जनीय हैं ॥ १३ = १४ ॥
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धनुर्मनि वृषकुंभे मेष कर्के
...
...
हिन्दी भाषाटीका समेतः
I
कुंभधनुषि
मेष मिथुने तुलसिंहे
रविदग्धा तिथिः
मिथुनकन्ये सिंह वृश्चिके
तुला मकरे
४
...
चन्द्रदग्धा तिथि-
कुंभ धणे ससि बीया, मेषे मिथुने हि चंद चउत्थीया ।
अट्ठमिया ॥ १५ ॥
सिंह तुले हि छठ्ठी, मीने मकरे हि करके विस ससि दसमी, विच्छि कन्नाइ बारसी तिहिया । कज्जे य सव्वे वज्जं, ससिदद्धा एहि सड तिहिया ।। १६ ।। भावार्थ - धन और कुंभका चंद्रमा हो तो दूज, मेष और मिथुनका चन्द्रमा हो तो चौथ, सिंह और तुला का चन्द्रमा हो तो छट्ट, मीन और मकर का चन्द्रमा हो तो आठम, कर्क और वृषका चंद्रमा हो तो दशम, वृश्चिक और कन्या का चन्द्रमा हो तो बारस, इन छ तिथियों को चन्द्रदग्धा तिथि कहते है ये सभी शुभकार्यों में वर्जनीय है ॥ १५-१६ ॥
चन्द्रदग्धा तिथिः 1
...
:
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:
२ मकरमीने
४
वृषकर्के
६ वृश्चिक कन्ये ....
१०
१२
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८
१०
१२
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ज्योतिषसारः ।
क्रूर तिथि—
1
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मेस रवि पडिवा तिहि, पंचमि पढमोइ पाय कूरायं । हे रवि तिहि बीया, दुगपायं पंचमी कूरं ॥ १७ ॥ मिहुणे हि अरकि तीया, पंचमी तियपाय क्रूर भणिए हि करके अरके चउत्थी, क्रूरो चपाइ पंचमियं ॥ १८ ॥ सिंहे छट्ठी भणियं, दसमी धरिपाइ कूर उग्गे हि । कन्नाइ तिही सत्तमि, पाइदुगं दस मि रुद्द गणिए हिं ॥ १६ ॥ तुल संकते अट्ठमि, तियपायं दसमि रुद्दवहिए हि' । अलि संकते नवमी, अंतो पय दसमि भयभीया ॥ २० ॥ धण सूरो इगारसि, पुन्निम इगपाय वजि सव्व कज्जे । मकरे सूरो बारसि, पुन्निम दुयपाय वज्जे हि ॥ २१ ॥ कुंभोइ भाणु तेरसि, तिय पायें पुम्निमी य परिवज्जे । मीणो भाण चवदिसि, चउरो पय वजि पुन्निमी या ॥ २२ ॥
भावार्थ- जो मेषादि बारह राशि है उसका चार चार के तीन भाग (मेषादि सिंहादि और धनादि ) होते हैं उस प्रत्येक भागको चतुष्क कहते है और चतुष्कके चौथे भागको पाद कहते है । मेषादि प्रथम चतुष्कके प्रथम पाद मेषका रवि हो तो पडिवा और पंचमी, दूसरा पाद वृषका रवि हो तो दूज और पांचम, तिसरा पाद मिथुन का रवि हो तो तीज और पांचम, चौथा पाद कर्कका रवि हो तो चौथ और पांचम । सिंहादि दूजा चतुष्कके प्रथम पाद सिंहका रवि हो तो छट्ठ और दशम, दूसरा पाद कन्या का
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हिन्दी भाषाका समेत: '
रवि हो तो सातम और दशम, तीसरा पाद तुलाका रवि हो तो आठम और दशम, चौथ पाद वृश्चिक का रवि हो तो नवमी और दशमी । धनादि तीजा चतुष्क के प्रथम पाद धनका रवि हो तो इग्यारस और पूनम, दूसरा पाद मकर का रवि हो तो बारस और पूनम, तीसरा पाद कुंभका रवि हो तो तेरस और पूनम, चौथा पाद मीनका रवि हो तो चौदश और पूनम ये सभी क्रूर तिथि हैं ।। १७ से २२ । *
पाठान्तरे क्रूर
तिथि यंत्र रचना
पंचमि दसमि य पुन्निम, वज्जिय तिहि वार बार संकेति । मेबाई पडिवाई, कूरा वज्जे सुह कज्जे ॥ १ ॥ पंचमि चउभागे हि, ठवियं संकंति मेस अरकाई ।
तह दसम सिंह विच्छिय, पुन्निम चउभाग धण मीणं ॥ २ भावार्थ- पांचम दशम और पूनम को छोडकर बाकी की बारह तिथि अनुक्रम से बारह संक्रान्तिमें स्थापन करो और मेष से कर्क तक इन चार में पांचम, सिहसे वृश्चिक तक इन चारमें दशम, और धनसे मीन तक इन चारमें पूनम स्थापन करो देखो यंत्र में। ये सभी क्रूर तिथि है वे सभी शुभकार्यों में वर्जनीय है । १-२ | मेषादि र तिथि यंत्र स्थापना
६- १०. धन
ܘ
मेष
नोट---8 प्रारंभ सिद्धिमें प्रथम विमर्श के श्लो० ८ में कहा है कि मेषादि राशि क्रूर वारमें लगी हो तो उक्त तिथि क्रूर होती है ।
१-५ सिंह
११-१५
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ज्योतिषसारः। . वृष ... २५ कन्या ... ७-१० मकर ... ११-१५ मिथुन ... ३-५ तुला ... ८-१० कुंभ ... १३-१५ कर्क ... ४-५ वृश्चिक ... -१० मीन .... १४-१५
अथ वार द्वार॥
सात वार के नाम
वार-रवि सोम मंगल, बुध गुरु सुक्केइ थावर प्पमार्ण । सोमा-ससि बुध गुरु भिगु, कूरा-रवि मंद भोमाई ।। २३ ॥
भावार्थ-रविवार, सोमवार, मंगल वार, बुधवार, गुरुवार, शुक्रवार और शनिवार ये सात वार है, इसमें सोम, बुध, गुरु, और शुक्र, ये चार वार सौम्य (शुभ ) है, रवि, मंगल और शनि ये तीन वार कर ( अशुभ ) है ।। २३ ॥
कौन कार्यमें कौन ग्रह सबलहै-- गमणं भिगु बुध नाणं, निवमिलणं सूर गुरु य वीवाहे। शनि थाधनू युद्ध भौमे, ससिबल सव्वे हि कज्जे हिं ॥२४॥ न हु वारदोस रयणी, विसेस भूमेहि मंदवारे हि । 'सनि सुत्त भूम भुत्तं,' सुहदाई सयल कज्जे हि ॥ २५ ॥
भावाथ-गमन ( प्रयाण ) में शुक्रका बल, विद्याभ्यासमें बुधका बल, राजाआदिकी मुलाकात में सूर्यका बल, विवाह में गुरुका बल, दीक्षामें शनिका बल, युद्ध में मंगलका बल, और सर्व
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हिन्दी भाषाटीका समेतः । कार्यमें चंद्रमाका बल देखना। रात्रिके विषे वार का दोष नहीं है और मंगलवार शनिवार को तो विशेष करके दोष नहीं ।
वारका प्रारम्भसंकन्ति कुंभविच्छी, मीने मेने हि संभवारे हिं। करके तुल धन वसह, वार निसि मभि लग्गे : ॥२६॥ सूरे उग्गे वारं, कन्ना मकरे हि मिथुन सिंह य। संकंति वार तिहुपरी, लग्गं तिय जोइस हीरं ।। २७॥
भावार्थ-कुंभ मीन मेष और वृश्चिक की संक्रांतिमें सन्ध्या समय से वार लगे, कर्क तुला धन और वृष की संक्रांतिमें अर्द्धरात्रि से वार लगे, और कन्या मकर मिथुन और सिंह की सक्रांतिमें दिन उदय से वार लगे॥
सातवारमें शुभ चौघडीया कहते है-- सग वारे चउघडिया, उत्तम आइश्व एग बिय सडे। ससि इग पण अट्ट हि, मंगल चउ सत्त अड लहियं ।। २८ ।। बुद्धोइ तीय सड अड, सुरगुरु बीओइ पंच सत्तमियं । भिगु इगु चउ सड अट्टम, ती पण सग अट्ट रविपुत्तो॥२६ ।।
भावार्थ--रविवार को पहिला दूजा और छट्ठा, सोमावारको पहिला पांचवां और आठवाँ, मंगलवार को चौथा सातवां और आठवा, बुधवारको तीजा छट्ठा और आठवाँ, गुरुवारको दूजा पाँचा और सातवाँ, शुक वारको पहिला चौथा छट्टा और आठवाँ शनिवारको तीजा पाँचवाँ सातवाँ और आठवाँ चौघडीया शुभ है ।।.
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१०
रवि
साभ
मंगल
बुध
गुरु
शुक्र
शनि
:
...
ज्योतिषसार: 1
शुभ चौघडिया यंत्र
ધ્ર
:
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. उत्तम
८
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कालहोरा कहते है
होराइ रवि उद्देगं, सोम अमी भूम रोग बुध लाई । गुरु सुभ भिगु चलयं, थावर कल होइ दिण उग्गे ॥ ३० ॥ निसि सूर सुभो चल सिसि, कुज कलहि बुध उद्देग गुरु अमियं । भिगु रोग लाभ थावर, रयण पणं गिणे दिणे छट्ठ ॥ ३१ ॥
भावार्थ- सूर्योदयसे सात बार की आद्य होरा - रविवार को उद्वेग, सोमवार को अमृत, मंगलवार को रोग, बुध वारको लाभ गुरुवार को शुभ, शुक्रवारको चल और शनिवारको कलह, होरा है ॥ रातकी शरुआतसे आद्य होरा-रविवार को शुभ, सोमवार को चल, मंगलवारको कलह, बुधवारको उद्वेग, गुरुवार को अमृत शुक्रवार को रोग और शनिवारको लाभ, होरा है | ये अढाई अढाई घडीकी एक एक होरा होती है, उसमें आद्य होरा अपने अपने वारकी होती है । दिनमें जो वार हो उसकी ही आद्य होरा
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हिन्दी भाषाटीका समेतः।
होती है और दूसरी उससे छ? वारकी तीसरी उससे भी छट्टे वारकी इत्यादि समज लेना; रात्रिमें आद्य होरा तो अपने वारको ही होती है और दूसरी उससे पांचवें पांचवें वारकी होती है। विशेष यंत्र स्थापनासे देखो
दिन होरा यंत्र रवि सोम मंगल बुध गुरु शुक्र शनि १ उ० अ० रो० ला० श. २ च. का० उ० ३ ला०
का० ४ अ०
अ०
अ०
ला०
५ का०
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का०
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८ उ० ६ च० १० ला० ११ अ० १२ का०
अ० का० शु० रो० उ०
रो० उ० अ० रो० ला. शु० च० का० उ० अ० रा. ला० शु० च० का० उ० अ० रो० ला० शु० च० रात्री होरा यंत्र। मंगल बुध गुरु शुक्र शनि का० उ० अ० रो. ला. ला० शु० च. का० . उ० उ० अ० रो० ला० शु०
रवि १ शु० २ ० ३ च०
सोम च० रो० का०
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का०
ज्योतिषसारः। ४ रो० ला० शु० च०. का. ५ का० उ० अ० रो० ला. ६ ला० शु० च० का० उ० अ० ७ उ० अ० रो० ला० शु० च. ८. शु० च० का० उ० अ० रो० ला. ६ अ० रो० : ला० शु० च. का० १० ३० का० उ० अ० रो० ला० ११ रो० ला० . शु० १२ का० उ० अ० रो० ला० शु० च.
सिद्धछाया लग्नससि सुक्क सनी साढं, अड पाया नव भूमे य अड बुद्धे । रवि एगारस सग गुरु, तणु छाया मिण हु भूमि सुद्ध ॥ ३२ ॥
भावार्थ-सोमवार शुक्रवार और शनिवार को साढे आठ, मंगलवार को नव, बुधवारको आठ, रविवारको ग्यारह, गुरुवार को सात पाँव अपने शरीर की छाया हो तो उस समय शुभ लग्न जानना। इस छाया लग्नसे शुभ लग्नका अभावमें भी गमन प्रवेश प्रतिष्ठा दीक्षा आदि शुभ कार्य करना ऐसा विद्वानों का मत है ॥ आरम्भ सिद्धि आदि ग्रन्थों में कहा है कि
"सुहग्गह लग्गा भावे, विरुद्ध दिवसेऽवि तुरिअ कजम्मि । गमण पवेस पइट्ठा-दिक्खाई कुणसु इत्थ जओ ॥ १ ॥ एसं बुहे हि कहियं, छाया लग्गं धुवं सुहे कज्जे । सुह सउण निमित्त बलं, जोइसु पर सुलग्गेऽवि ॥२॥"
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हिन्दी भाषा टीका समेतः 1
१३
शुभग्रह
लग्नके अभाव में, विरुद्ध दिवसमें, आवश्यकीय कार्य में गमन प्रवेश प्रतिष्ठा दोक्षा आदि शुभ कार्य करना, विद्वानोंने कहा है कि शुभ शकुन निमित्त और सुलग्नका अभावमें भी इस छाया लग्नमें निश्चयसे शुभ कार्य करना चाहिये पुन: नरपति जयचर्या में भी कहा है
“नक्षत्राणि तिथि वारास्तारा चन्द्रबलं ग्रहाः । दुष्टान्यपि शुभं भावं भजन्ते सिद्धछायया ॥ १ ॥ इत्यादि विशेष खुलासा 'आरम्भसिद्धि वार्त्तिक' में दिया है ।
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तनुपाद छायालग्न यंत्र
चं मं बु गु
८ ॥ ६ ८
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८ || ८||
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११
अभिजित् लग्न
तिण मिण हु बार अंगुल छाया रवि वीस चंद सोलाणं । भूपनर बुध चवदह, गुरु तेरह बार भिगु मंदे ॥ ३३ ॥ बे वार अभीय दिण महि, मासा अभीयाइ उसा चउत्थापयं सवणाई घडी चार ही, लहियं करि कज्ज फल बहु ये ॥ ३४ ॥ घडियं ओणोसायं, अभीय भागाय करिय चउभा । पडणो पण घडियायं, जम्मोत्तरक्खरे नामं ॥ ३५ ॥ भावार्थ — बारह अंगुलके शंकुकी छाया रविवारको वोश, सोमवार को सोलह, मंगलवार को पंदरह, बुधवार को चौदह, गुरुवार को तेरह, शुक्रवार और शनिवार को बारह अंगुल की छाया हो तब शुभ कार्य करना । इस शंकुकी छाया को 'अभिजित छाया
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ज्योतिषसारः ।
१४
कहते हैं, यह दिनमें दो वार आती है । मासमें एक वार उत्तराढा के अन्त्यका चौथा पाद और श्रवण के आदि की चार घडी एवं १६ घडी अभिजित् होता है उसमें शुभकार्य करनेसे बहुत फल दायक होता है। अभिजित् की उन्नीस घडीके चार भाग पौनी पांच पांच घडी के होते है । उसका जन्माक्षर नाम-जु जे जो खा, है ॥
सप्तवारे अभिजित् अंगुलछाया यंत्र
र चं मं
अं २०
गु
शु
१६ १५ १४ १३ १२
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१२
नक्षत्र के नाम
अस्सनि भरणी कित्तग, रोहिणि मिग अद्द पुणव्वसं पुक्वं । असलेसा य मघा यं, पुव्वा उत्तरफग्गुणियं ॥ ३६ ॥ हत्थाय चित्त सायं, विवाह अणुराह जिट्ठ मूला यं । पुव्वा उत्तरसाढा, अभीय सवणं धणिट्ठा यं ॥ ३७ ॥ सर्याभिसह पुण्वभद्दपद, उत्तरभद्द रेवई य अडवीसं । निक्खत्ता अह तारा, कहियं जोइस पमाणम्मि ॥ ३८ ॥ भावार्थ- अश्विनी, भरणी, कृत्तिका, रोहिणी, मृगशीर्ष, आर्द्रा, पुनर्वसु, पुष्य, आश्लेषा, मघा, पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाति, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा, मूल, पूर्वाषाढा, उत्तराबाढा, अभिजित्, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वाभाद्रपदा, उत्तरा भाद्रपदा, और रेवती ये नक्षत्र के नाम है ।
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हिन्दी भाषाटीका समेतः ।
Tags तारा की संख्या
अस्सणि तिय भरणी तिय, कित्तिग सड रोहिणी य पण तारा । मिगसिर तिय अदा इंग, पुणव्वसु चउरोइ पुक्ख तियं ॥३॥ असलेसा य सड मघ पण, पुफा दो उफा दोय कर पण य । चित्त इग लाई इग, विसाह अणुराह च चउरो ॥ ४० ॥ जिट्ठ तिय मूल इगदस, चउ चउ पुसा उसाइ तिय अभियं । सवण तियं धणिट्ठा चड, सियमिल सउ पूभ उभदो दो ॥४१॥ रेवय बत्तीसाणं, तारा संख्याइ तिहि निसेयव्वो । सियभित दसमी नेया, रेवय बीया पमाण स्मि ॥ ४२ ॥ भावार्थ- अश्विनी नक्षत्रके तीन तारा, भरणी के तीन, कृष्तिकाके छ, रोहिणीके पांच, मृगशिर के तीन, आर्द्रा के एक, पुनर्वसु के चार, पुष्यके तीन, आश्लेषा के छ, मघाके पांच, पूर्वाफाल्गुनीके दो, उत्तराफाल्गुनी के दो, हस्ताके पांच, चित्राके एक, स्वाति के एक, वि. शाखाके चार, अणुराधा के चार, ज्येष्ठाके तीन, मूलके ग्यारह, पूर्वाषाढा के चार, उत्तराषाढाके चार, अभिजित् के तीन, श्रवणके तीन, धनिष्ठाके चार, शतभिषक् के सो, पूर्वाभाद्रपदा के दो, उत्तरा भाद्रपदा के दो, और रेवतीके बत्तीस तारा है । इनका प्रयोजन यह है कि जिस नक्षत्रके जितने तारा है उसके बराबर की तिथि अशुभ जानना, जैसे- अश्विनी के तीन तारा है तो अश्विनीको तृतीया अशुभ, कृत्तिके छ तारा है तो कृतिका को छह अशुभ, शतभिषक के सो तारा है तो उसको पंदरहसे भाग देनेसे शेष
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१६
ज्योतिषसारः ।
१० बचे सो शतभिषा को दशमी अशुभ, रेवती के बत्तीस तारा है तो उसको भी पंदरहसे भागदेने से शेष २ बचे सो रेवती को दूज अशुभ; इस मुआफिक सर्वत्र समज लेना चाहिये ||
नक्षत्र संज्ञा
जिट्ठद्दा ॥ ४४ ॥
चर चल य पंच कहियं, साई पुणव्वसु य तीय सवणाई । कुरा उग्गा पण रिक्ख, मघ भरणी तिन्नि पुव्वा यं ||४३|| थिर धुव य चउ भणियं, रोहिणि एगाइ उत्तरा तिण्णं । दारुण तिन्हं चउरो, मूलं असलेस लहु खिप्प चउ रिक्खं, पुक्खा हत्था य अस्सणि अभीयं । मिहुमित चउ रिसि यं, रेवय मिग चित्त अणुराहा ॥ ४५ ॥ मिस्सो साहारण दुग, विसाह कित्तिय अह फलं कहियं । रिसियाइ जे य कम्मं, नामं सरिसाइ कारेयं ॥ ४६ ॥ गमणं चर लहु कीरइ, संतिं कीरेइ उग्ग थिर मित्तं । वाही छेयी तिन्हं, मिस्सो साहारणं कम्मं ॥ ४७ ॥ भावार्थ-स्वाति पुनर्वसु श्रवण धनिष्ठा और शतभिषा ये पांच नक्षत्रोंको चर और चल संज्ञक कहते है । मघा भरणी और तीनों पूर्वा ये पांच नक्षत्रों को क्रूर और उग्र संज्ञक कहते है। रोहिणी और तीनों उत्तरा ये चार नक्षत्रों को स्थिर और ध्रुव संशक कहते हैं। मूल आश्लेषा ज्येष्ठा और आर्द्रा ये चार नक्षत्रों को दारुण और तीक्ष्ण संज्ञक कहते हैं। पुष्य हस्ता अश्विनी और अभिजित् ये चार नक्षत्रों को लघु और क्षिप्र संज्ञक है। रेवती
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हिन्दी भाषा-टीका समेतः मृगशिर चित्रा और अनुराधा ये चार नक्षत्र को मूदु और मित्र संज्ञक कहते है । विशाखा और कृत्तिका ये दोनों नक्षत्र को मिश्र और साधारण संक्षक कहते है ।। उसका फल-जैसे नक्षत्र के नाम है ऐसे कार्य करना; चरसंशक और लघुसंज्ञक नक्षत्रोंमें प्रयाण विद्यारंभ आदि कार्य करना; उग्र स्थिर और मित्र संज्ञक नक्षत्रोंमें मंगलिक अभिषेक आराम आदि शांतिक कार्य करना (किसोमें उग्र संज्ञक नक्षत्रमें वध बंधन शस्त्र बनाना अग्नि आदिके क्रूर कर्म करना ऐसे कहते हैं)। तीक्ष्ण संज्ञक नक्षत्रों में व्याधि प्रतीकार के कार्य करना । मिश्र संज्ञक नक्षत्रमें साधा. रण कार्य करना ॥ ४३ से ४७ ॥
दिन योगविक्खंभ पीय अक्खय, सोभागं सोभने हि अतिगंड। सोकम्मं घिति सूल, गंडो विद्धो धुवो वाधा ॥ ४८ ॥ हरसण वज्जो सिद्धो, वितिपातं विरिह परिघ सिव सिद्धं । साद्ध सुभो सुकलो, बम्हा इदं च विधिति य ॥४६॥
भावार्थ-विष्कभ,प्रीति, अक्षत (आयुष्यमान्) सोभाग्य,शोभन, अतिगंड, सुकर्मा, धृति, शूल, गंड, वृद्धि, ध्रुव, ध्याघात, हर्षण, का, सिद्धि, व्यतिपात, वरियान, परिघ, शिव, सिद्धि, साध्य शुभ, शुक्ल, ब्रह्मा, ऐन्द्र और वैधृति ये २७ योग है ॥ ४८.४६
योग की दुष्टघडीसम्वे हि धिती हि, सव्वे वितिपात परिध पद्धो हिं।
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ज्योतिषसारः ।
वज्जोयं नव घडियं, वाघाय नव घडिय परिमाणं ॥ ५० ॥ सूलोइ सत्त घडियं, गंडो अतिगंज छप घडियाइ' । पंचेवर विक्खभं सव्वे कज्जे विवज्जे हिं ॥ ५१ ॥
भावार्थ- वैधृति और व्यतिपात पूर्ण वर्जनीय हैं, परीघ पहिलेसे आधा, वज्र और व्याघात की पहिलेसे नव नव घड़ी, शूल योग की सात घड़ी, गंड और अतिगंड की छ छ घड़ी, और विष्कंभ की पांच घड़ी, ये सब शुभकार्य में वर्जनीय हैं ॥५० ५१ ॥ होडा चक्रम् —
१८
चुचेचोला अस्सणी, लीलूलेलो भरणि बीय freवायं । आईऊए कित्तिग, ओवावीवू रोहिणी चउरो ॥ ५२ ॥ aatent मिसिर, कूघङछ अद्दाइ छट्ठ रिसियायं ।
कोहाही पुणन्वसु, हुहेहोडा य पुषखायं ॥ ५३ ॥ डोडूडेडो असलेला, मामीमूमे मघ दसम संयुक्तं । मोटटीटू पूव्वफग्गुणी, टेटोपापीय उत्तराफग्गुणी ॥ ५४ ॥ पूसणठ हत्थ तेरम, पेपोरारी चित्त चवदमं भणियं रूरेता सायं, तीतूते तो विसाहा यं ॥ ५५ ॥ नानीनूने अनुराहा, नोयायीयू जिट्ठ दसम अड उचरिं । येयोभाभी मूलं, भूधाफढा पुव्वसाढा ये ।। ५७ ॥
भोजाजी उलाढा, जूजेजोखा अभीय बावीस' । सीखूखेखो सवणं, गागीगूगे धणिट्ठा यं ॥ ५७ ॥ गोसासी सियभिस, सेसोदादी पूण्त्रभद्द लहियं ।
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हिन्दी भाषा - टीका समेतः 1
५८ ॥
जैसे- चूचेचोला
दूथभाञ उत्तरभद्दपद, देदोचाची रेघई कहियं ॥ भावार्थ- दरेक नक्षत्रके चार चार चरण है, ये चार चरण अश्विनी नक्षत्र के हैं, लीलूलेलो ये चार चरण भरणी नक्षत्र के हैं, इस मुआफिक दरेकके चार चार चरण स्पष्ट हैं |
बारह राशिके नाम
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मेस विस मिहुन करके, सिंहो कन्नाइ तुला विच्छी य । धन मकर कुंभ मीनं, बारस रासी अणुक्कमलो ॥ ५६ ॥ भावार्थ-- मेष वृष मिथुन कर्क सिंह कन्या तुला वृश्चिक धम मकर कुंभ और मीन ये बारह राशि हैं ॥ ५६ ॥
नक्षत्र के चरण से राशि विचार
अश्विनी भरणीकृत्तिकापादे मेषः ॥ १ ॥ कृत्तिकानां त्रयः पादा रोहिणी मृगशिरोऽर्द्ध वृषः ॥ २ ॥ मृगशिरोऽर्द्धमार्द्रा पुनर्वसुपादत्रयं मिथुनं ॥ ३ ॥ पुनर्वसुपादमेकं पुष्याश्लेषान्तं कर्कः ॥ ४ ॥ मघा च पुर्वाफाल्गुनी उत्तराफाल्गुनीपादे सिंहः ॥ ५ ॥ उत्तराणां त्रयः पादा हस्तचित्रार्द्ध कन्या ॥ ५ ॥ चित्राद्धं खातिविसाखापादत्र यं तुला ॥ ७ ॥ विसाखापादमेकमनुराधा ज्येष्ठान्तं वृश्चिकः ॥ ८ ॥ मूलं च पूर्वाषाढा उत्तराषाढपादे धनुः ॥ ६ ॥ उत्तराणां त्रयः पादाः श्रवणधनिष्ठार्द्ध मकर: ॥ १० धनिष्ठार्द्ध शतभिषा पूर्वाभाद्रपादत्रयं कुंभः ॥ ११ ॥ पुर्वाभाद्रपादमेकमुत्तराभाद्रपद रेवत्यन्तं मीनः ॥ १२ ॥
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ज्योतिषसारः।
भावार्थ-अश्विनी भरणी और कृत्तिकाके एक पाद (चरण)का मेष राशि १ । कृत्तिका के तीन पाद रोहणी और मृगशिर के दो पाद का वृषराशि २ । मृगशिर के दो पाद आा और पुनर्वसु के तीन पाद का मिथुनराशि ३ । पुनर्वसु के एक पाद पुष्य और आश्लेषा का कर्कराशि ४। मधा पूर्वाफाल्गुनी और उत्तरा. फाल्गुनी के एक पाद का सिंहराशि ५। उत्तराफाल्गुनी के तीन पाद हस्त और चित्रा के दो पाद का कन्याराशि६ । चित्रा के दो पाद खाति और विशाखा के तीन पाद का तुलाराशि ७ । विशाखा के एक पाद, अनुराधा और ज्येष्ठाका वृश्चिकराशि ८। मूल पूर्वाषाढा और उत्तराषाढा के एक पाद का धनराशि है। उत्तराषाढा के तीन पाद श्रवण और धनिष्ठा के दो पाद का मकरराशि १० । धनिष्ठा के दो पाद शतभिषा और पूर्वाभाद्रपदा के तीन पाद का कुंभ राशि ११ । पूर्वाभाद्रपद का एक पाद उत्तराभाद्रपद और रेवती का मीन राशि १२ होते है ।
राशिकार्यगिह गाम खलय करसणि,विवाय निवमिलण मामिरासीणं । विवाह गहगोचरे, जम्मो रासीणं अंगलं ॥ ६०॥
भावार्थ-गृहकार्य, नगर प्रवेश, खला बनाना ( खेतमेंसे धान्य काट कर जिस जमीन पर इकट्ठा करते है वह ) और राजा की मुलाकात, इत्यादिको नाम राशि प्रशस्त है विवाह प्रहगोचर आदिको जन्मराशि प्रशस्त है ॥ ६ ॥
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हिन्दी भाषा-टीका समेतः।
२१
जन्म नक्षत्र फल
जम्म रिक्स ससि पसत्थं, सव्वे कम्मे हिं मंगलायारे । , अपसत्थ पौर भेसज, विवाय वापसु गमणेसु ॥ ६१ ॥
भावार्थ-जन्म के नक्षत्र और चंद्रमा सब मांगलिक कार्य में प्रशस्त हैं और नगर संबंधि कार्य औषध विवाद यात्रा (गमन) इत्यादिकमें अप्रशस्त हैं ॥ ६१॥
. लघुदिन शुद्धिः--
चित्ताइ मास उभयं, अहिया दिण मेलि भाग सग देखें। दिण नामसग विचारिय, सिरिय१ कलहे २ य आणंद॥६॥ मिय४ धम्म५ तपस६ विजयंड, सिरियं धन लाहु कलह जुद्धेयं । आणंदणंदकारी, मियउ मिश्चाई य होइ ॥६३ ॥ धम्मोइ धम्मभावं, तपसो समभावं विजय रिउनासं। दिण सुद्धी लहु एय, नेया सव्वे हिं कज्जे हिं ।। ६४ ।।
भावार्थ-चैत्रादि गत मासको द्विगुणा करना, उसमें वर्ग: मान मास के गत दिन मिलाकर सातका भाग देना जो शेष बचे उसका अनुक्रमसे सात नाम--श्री १ कलह २ आणंद ३ मृत्यु धर्म ५ तपस ६ विजय ७ । इनका फल-श्री-धनका लाभकारक, कलह-युद्धकारक, आणंद-आणंदकारक, मृत्यु-मृत्युकारक, धर्म 'धर्मभावकारक, तपस्-समभावकारक, विजय-शत्रुनाश कारक होते है ॥६२ से ६४ ॥
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२२
ज्योतिषसारः। ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~ mmmmmmmmmmmmmmmmm.in mar
बड़ी दिन शुद्धिःरवि अस्सणि ससि मिगसिर, भूमे असलेस बुद्ध हत्थाय । सुरगुरु अणुराहाय', मिगु उसा सनि सतभिसय ॥६५॥ एए हि वार रिक्खा, अडवीस णंद नाम उवजोगा। नाम सरिसा य फलं, कहिय अणुक्कम हि नामे हि ॥६६॥
भावार्थ-रविवार को अश्विनी से, सोमवारको मृगशीर्ष से, मंगलवारको आश्लेषा से, बुधवार को हस्त से, गुरुवार को अनुराधा से, शुक्रवार कोउत्तराषाढ़ासे और शनिवारको शतभिषा से गिणने से ये २८ उपयोग होते हैं उसके नाम सदश फल कहना । . २८ उपयोग के नाम--
आणंद कालदंडं, परिजा सुभ सोम धंस धज वच्छो। वज्जो मोगर छत्तो, मित्तो मनुन्नो य कंपोयं ॥ ६७ ॥ लंपक पवास मरणं, वाही सिद्धि अमिय सूल मुसलं । गजो मातंगो खय खिप्प, थिरो य वद्ध माण परियाण।। ६८ ॥
भावार्थ-आणंद, कालदंड, प्रजापत्य, शुभ, सौम्य, ध्वांक्ष, ध्वज, श्रीवत्स, वन, मुद्गर, छत्र, मित्र, मनोज्ञ, कंप, लुपक, प्रवास, प्ररण, व्याधि, सिद्धि, अमृत, शूल, मूसल, गज, मातंग, क्षय, क्षिप, स्थिर और वर्द्धमान ये २८ उपयोग हैं ॥ ६७.६८ ॥
२८ उपयोगके फल-- आनन्दो धनलाभाय, कालदण्डो महद्भयम् । प्रजापतिः सपुत्राय, शुभः सर्वशुभं दिशेत् ॥६६॥ .
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हिन्दी भाषा टोका समेतः ।
२३
सौम्ये सर्वक्रियासिद्धि-र्वाक्षे क्षुद्राय मानसः। ध्वजेन कोटिरथः स्यात्, श्रीवत्सो रत्नसञ्चयः ॥७॥ का वनभयं दद्याद्, मुद्गरे मरणं ध्रुवं । छत्रो नपमुखं दद्याद्, मित्रे मित्रसमागमः ।।७१॥ . मनोऽन्ये मनसा सौख्यं, कम्पोऽयं भयमापदः । लुम्पको लुण्टतं चोरान, प्रवासाच जनधु तिः ॥ ७२॥ मरणे मृत्युमाप्नोति, व्याधौ व्याधिमहापदः । सिद्धौ सर्वक्रियासिद्धिः, शूले शूलसमुद्रघम् ॥ ३ ॥ अमृतो हरते पापं, मुशले बन्धुनाशनम् । गजेन धनलाभः स्याद्, मातङ्गो नान्यलाभदः ॥ ७४ ।। क्षये क्षयो नरेन्द्रस्य, क्षिप्रे क्षिप्रशुभाशुभम् । स्थिरे च स्थिरकार्याणि, बर्द्धमाने विवईते ॥ ५ ॥ - भावार्थ-आणंद-धनलाभकारक, कालदंड-भयदायक, प्रजापति-पुत्र दायक, शुभ-सर्व शुभ कारक, सौम्य-सर्व कार्यसिद्धि कारक, ध्वाक्ष-दुष्ट मनःकारक, ध्वज-रथके लाभ कारक, श्रीवत्स. रत्न संचय कारक, वन-वनभय दायक, मुद्गर-मृत्युदायक, छत्रनपसुखदायक, मित्र-मित्र समागम कारक, मनोश-मनको सुख कारक, कंप-भय और दुःखदायक, लुपक-चोर भयकारक, प्रवासजन कांतिकारक, मरण मृत्युदायक, व्याधि-रोग कारक, सिद्धि. सर्वकार्य सिद्धिकारक, शूल-शूलरोगोत्पत्ति कारक, अमृत-दुःख नाश कारक, मूसल-बंधुनाशकारक, गज-धनलाभकारक, मातंग. नुकसान कारक, क्षय-नाश कारक, क्षिप्र-शुभाशुभ कारक, स्थिर.
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२४
ज्योतिषसारः। स्थिर कार्य कारक और वर्द्धमान-धनवृद्धि कारक है ॥
६से ७५॥ पुरुषनववाहनफलरवि रिक्वं सिरि धरिय, नाम रिषखाइ जोइ नवमागं । ठवियाय नव वाहण, लहिय फलं कहियं सव्वायं ॥ ७६ ॥ खर हय गय मेसाय, जम्बू सिहोइ काग मोरायं । हंसोयं नरवाहण, नारद पुच्छेइ हरि कहियं ॥ १७ ॥ लच्छी हीणि रासभ, धनलाहो हयगये हिं सुह बहुयं । मेसे मरण कीरइ, जंबू सुह हरइ सव्वायं ॥ ७८ ॥ सिहोइ पिसुण मरणं, कागो दुहदाह कीरइ विसेस । मोरोइ अत्यलाभ, हंसो सुह सयल वट्टेयं ॥ ७ ॥
भावार्थ-रविनक्षत्र और पुरुष नाम नक्षत्र ये दोनों मिलाकर नव का भाग देना, जो शेष बचे वह अनुक्रमसे ६ वाहन जानना ; उनके नाम-खर १, हय २, गज ३,मेष ४, जंबूक ५, सिंह ६, कौवा ७, मयूर ८ और हंस । इसका फल--स्वर वाहन हो तो लक्ष्मीका नाश, हय वाहन हो तो धनका लाभ, गज बाहन हो तो . बहूत सुख, मेष वाहन हो तो मरण करे, जंवूक वाहन होतो सुख हरे, सिंह वाहन हो तो दुष्ट मरण करे, काग वाहन हो तो विशेष दुःख दाह करे, मयूर वाहन हो तो धनलाभ करे, हंस वाहन हो तो संपूर्ण सुख रहे। ये वाहन संग्राम और कलह आदि में विशेष तया देखे जाते हैं ।। ७६ से ७६ ॥
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हिन्दी भाषा - टीका समेतः ।
२५
. प्रकारान्तरे पुरुषके बारह वाहन-
गय वसह महिस हंसो, साणो वाइस्ल हंस छग खरयं । जंबूग णाई गरुडं, वाहण ससि रिक्ख नररिक्खा ॥ ८० ॥ “चन्द्र नक्षत्र हुंती नरने नक्षत्र गिणता आवीइ नाम सरि फल विचारी ॥
भावार्थ- चन्द्रनक्षत्र से पुरुष नक्षत्र तक गिनने से जो संख्या होवे उसको बारह से भाग देना, जो शेष बचे वे वाहन जानना, उन के नाम - गज, वृषभ, महिष, हंस श्वान, वायस (काग), हंस, छाग (मेष), स्वर, जंबूक, नाग और गरुड । उसका फल नामसदृश जानना ॥
किंचित् स्वर ज्ञान
चंद्रनाडीफल
गमणेइ गिहपवेसे, वत्थुसंगहणे सामि दंसणे य । सुहकम्मि धम्मकारणं, वामा ससिनाडी सुह भणिया ॥ ८१ ॥
भावार्थ - गमन ( देशाटन ) में, गृह प्रवेशादिमें, वस्तु संग्रह में, स्वामी दर्शन में, शुभ कार्यमें और धर्म कार्यमें चन्द्रनाडी
शुभ जानना ॥। ८१ ।
सूर्यनाडीफल -
संगाम खुद्दकामे, विजारंभो विवाय विवहारं । भोयण सुरयप्पसंगे, दाहिण रविनाडि सुह भणिया ॥८२॥
भावार्थ- संग्राम शुद्रकार्य विद्यारंभ विवाद व्यवहार भोजन
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२६
ज्योतिषसाः। और स्त्रीसेवन इत्यादिकमें दक्षिण सूर्यनाडी शुभ जानना ॥८॥
स्वर दिशा शूलससिनाडि पुव्व उत्तर-दिसि सूल हवइ गमण वज्जेयं । रविनाडि दिसासूल, पच्छिम दक्षणयं तिजि गमणं ।।८।। __ भावाथ-जब चन्द्रनाडी चलती हो तब पूर्व और उत्तर दिशामें शूल है और जब सूर्य नाडी चलती हो तब पश्चिम और दक्षिण दिशामें शूल है तो उस समय उन दिशाओं में गमन (देशाटन ) नहीं करना ।। ८३ ॥
स्वर द्वारा गर्भज्ञानससि वाम सूर दाहिण, नाडि वहमाण ससि हवइ पुत्ती। रविनाडि पुत्त उभयं, गब्भविणासं गुरु भणियं ।। ८४ ॥
भावार्थ-वाम नासिका चले उसको चन्द्रनाडी और दक्षिण नासिका चले उसको सूर्यनाडी कहते है। जब कोई प्रश्न करे उस वक्त चन्द्रनाडी चलती हो तो पुत्री कहना, :सूर्य नाडी चलती हो तो पुत्र कहना और दोनों नाडी एक साथ चलती हो तो गर्भनाश कहना ॥ ८४ ॥
स्वर ऋतु दानरतिदान इथिएहि, नाडि ससि हवइ सुया उत्पत्ती। सूरो नाडी पुत्तं, गन्भं न धरेइ उभएहिं ॥ ८५ ॥
भावार्थ-स्त्री के ऋतुदान समय चन्द्रनाडी चलती हो तो गर्भ में पुत्री उत्पन्न होवे, सूर्य नाडी चलती होतो गर्भ में पुत्र उत्पन्न
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हिन्दी भाषा-टोका समेतः। होवे और दोनो नाडी एक साथ चलती हो तो गर्भ धारन करे नहीं ।। ८५॥
स्वर फलरविबल ससिबल तमबल, ताराबल पमुह वसइ अवगणियं। ससि सूर गहिय सरयं, उवियं सोपाय अग्गे हि ॥८६॥ गुरु सुक्क बुद्ध ससि दिण, वामा सुह किण्ह पक्ख सुविसेसं। रवि भूम मंद वासर, दाहिण सुह पक्ख धवले हिं । ८७॥ निसि ससि वासर सूरं, गमणं वजए तूरं । जे जे वहइ पुरं, ते ते पय ठविय रिउ दूरं ।। ८८॥
भावार्थ-शुभकार्य करने जाते समय सूर्य बल चन्द्रबल राहुबल और ताराबल आदिका विचार नहीं करना जो स्वर चलता हो उस तरफका पाँव प्रथम धरकर चले तो कार्य सिद्ध होता है। गुरुवार शुक्रवार बुधवार सोमवार और कृष्णपक्ष इनमें चन्द्रस्वर शुभ है ; रविवार मङ्गलवार शनिवार और शुलपक्ष इनमें सूर्य स्वर शुभ है। रात्रीमें चन्द्रस्वर और दिनमें सूर्य स्वर चले तब शीघही गमन करना अच्छा है, जो जो स्वर चले उस तरफ के पांव प्रथम उठाकर चले तो विजय प्राप्त करता है। दिन. शुद्धि प्रन्थ में भी कहा है कि
"पुननाडि दिशापाय, अग्गे किश्चा सया विऊ। पवेस गमणं कुजा, कुणतो साससंगहं ॥१॥ जिस तरफ की नाडी पूर्ण चलती हो उस तरफ का पांव
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ज्योतिषसारः ।
सर्वदा आगे कर श्वास संग्रह करता हुआ प्रवेश और गमन करे
॥ ८६ से ८८ ॥
२८
वत्स चक्र
वच्छो तिय संकतं, कन्ना तुल विच्छि उग्गए पुव्वं ।
धन मकर कुंभ दक्खणि, पच्छिम मीने हि छग वसहं ॥ ८६ ॥ मिथुनेइ कर सिंह, उत्तर मुह वच्छ बसइ नहु गमणं । नहु चेई घर बारं, बिंबं निय घरे न पवेसं ॥ ६० ॥ आऊय हरइ संमुह, वच्छो पुट्ठे करेइ धनहाणि । पासेइ वाम दाहिण, कज्जं सव्वे हि सारे यं ॥ ६५ ॥ भावार्थ-कन्या तुला और वृश्चिक ये तीन संक्रांति को पूर्व दिशामें वत्स उगता है, धन मकर और कुभ संक्रांति को दक्षिण दिशामें, मीन मेष और वृष संक्रान्ति को पश्चिम दिशामें, मिथुन - कर्क और सिंह संक्रांति को उत्तर दिशा में वत्स रहता है। सम्मुख वत्स में वास करना या देशाटन करना नहीं, नवीन मंदिर - बनाना नहीं, गृहवास्तु नहीं करना और जिनबिंब प्रवेश अपने घर में नहीं करना । सम्मुख वत्स हो तो आयुष्य का नाश करता है, पूठे वत्स हो तो धन का नाश करता है, बाँय और दक्षिण दोनों तरफ हो तो सब कार्य सिद्ध होते हैं ॥ ८६ से ६१ ॥ शिव चक्र
पुव्वाइ पोसमासे, वसए सिव माह फग्गुणि ईसाणे चित्ते वसई उत्तर, वाए वइसाह जिट्ठे हिं ॥ ६२ ॥
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हिन्दी भाषा-टीका समेतः।
२६ आसाढे पच्छिमयं, सावण भहव नेरई कूणे। दक्खण दिसे हि अस्सणि, कत्तिग मिगसिर हि अग्गी हिं॥३॥ दिसि मभि घडी अढीय, विदिसे पंचेव घडिय वसिएहिं । मासो फिरइ सिहार, सिट्ठोपरि भमइ घडियाइ ॥१४॥ गमणे य जुद्ध जए, पुरीपवेसे वणिज्ज आरंभे। सिवचक पुट्ठि मुठे, धरि भंजेइ पंचसयं (!)॥ १५॥
भावार्थ-पौष मासको पूर्व दिशामें शिवका वास है, माघ फाल्गुन मासको ईसान कोणमें, चैत्र मासको उत्तर दिशामें, वैशाख जेष्ठ मासको वायव्य कोणमें, आषाढ मासको पश्चिम दिशामें, श्रावण भाद्रपद मासको नैऋत कोणमें, आश्विन मासको दक्षिण दिशामें और कार्तिक मार्गशीर्ष मासको अग्नि कोणमें शिवका वास रहता है, दिशामें अढाई घडी और विदिशा ( कोण ) में पांच घडी तक प्रत्येक दिन शिवका वास होता है । यह देशाटन करना, युद्ध करना, जूगार (धुत) खेलना, नगर प्रवेश करना और व्यापार का आरंभ करना इत्यादिक में शिव वास पूठे या दक्षिण तरफ हो तो लाभ दायक है। अन्य ग्रन्थों में भी कहा है कि-यह शिव शुभ होनेसे स्वर शकुन भद्रा प्रहबले दिग्दोष और योगिनी आदि सब शुभ होते है ॥ १२ से १५ ॥
तत्काल जोगिनी स्थापनादिण दिसि धुरि चउ घडिया, पुरओ पुवुन दिसि हि अणुकमसो।
सकाल जोगिनी सा, वज्जेयख्या पयत्तेणं ॥ ६ ॥ चउरो य दिसा विदिसं, जोगिणी वसिपहिं सोडसा तिहियं ।
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ज्योतिषसारः।
पुध्विं पडिवइ नवमि य, अग्गीतीया इगारिसीए ॥ १७ ॥ दाहिणि पंचमि तेरसि, नेरय कुणे हि चउत्थि बारसिया। पच्छिम छट्ठि चहिसि, वाइव पडिपुन सत्तमि या ॥ १८ ॥ उत्तरी बीया दसमी, ईसाणे मावसी य अट्ठमिया। भणियं योगिणि सिह, गमणं वामो इजू पुट्ठ॥ ६ ॥
भावार्थ- जिस जिस दिनको जिस जिस दिशामें पूर्वोत्तर दिशाके अनुकमसे योगिनी का वास कहा है उस दिशामें प्रभात को चार घडी योगिनी रहती है, उसको तत्काल योगिनी कहते है। वह यात्रादि में प्रयत्नसे छोडना चाहिये। उसकी थापना यथाचार दिशा और चार विदिशा में योगिनी अनुक्रमसे सोलह तिथि रहती है जैसे-प्रतिपदा और नवमी को पूर्व दिशा में, तृतीया और एकादशी को अग्निकोणमें, पंचमी और प्रयोदशी को दक्षिण दिशामें, चतुर्थी और द्वादशी को नैर्धत कोणमें, षष्ठी और चतुर्दशी को पश्चिम दिशा में, सप्तमी और पूर्णिमा को वायव्य कोणमें, दशमी और द्वितीयाको उत्तर दिशामें, अष्टमी और अमावास्या को ईसान कोणमें योगिनी रहती है। वह पूठे हो या बांये तर्फ हो तो गमन करना श्रेष्ठ है १६ से १६ ॥
मास राहु फलपुष्वे विच्छीय नियं, दक्खणि कुंभाई तीयाई । वसहाइ तीय पच्छिम, उत्तरि सिंहाइ तिय राहो ॥१०॥ समुह राहो गमणं, न कीरए विग्गह होइ पिस्तुणाय ।
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हिन्दी भाषा टीका समेतः 1
गिहबार पमुहार्य, जे कीरह तहा असुहाय ॥ १०१ ॥ भावार्थ वृश्चिक धन और मकर राशिको पूर्व दिशामें, कुम्भ मीन और मेष राशि को दक्षिण दिशामें, वृष मिथुन और कर्क राशि को पश्चिम दिशामें, सिंह कन्या और तुला राशिको उत्तर दिशामें राहु रहता है। संमुख राहु हो तो देशाटन नहीं करना विग्रह और मत्युका भय रहता है और गृहद्वार आदि कराने से अशुभ फलदायक होता है ॥ १०० । १०१ ॥
३१
अथ वार राहु फल
अह वारे हिं राहो, नेरय आइश्च सोम उत्तरयं 1
अगनेय कूण मंगल, पच्छिम दिसिएहि बुद्धेहिं ॥ १०२ ॥ वाइव ईसाणं गुरु, दक्खणि सुक्केइ पुव्यदिसि मंदो । ठवियं दाहिणि पुट्ठे, कीरइ गमणं व फलदाई ॥ १०३ ॥ भावार्थ-रविवार को नैर्ऋत कोणमें, सोमवार को उत्तर दिशामें, मंगलवार को आग्नेय कोणमें, बुधवार को पश्चिम दिशा मैं, गुरुवार को ईसान कोणमें, शुक्रवार को दक्षिण दिशामें और शनिवार को पुर्व दिशामें राहु रहता है। उसको पूंठे और दक्षिण तरफ रखकर गमन करना शुभ फल दायक है ।। १०२ । १०३ ॥ अर्द्ध प्रहरी राहु फल --
पुव्वे वाइव दक्खणि, ईसाणे पच्छिमे य अग्गी हि ।
उत्तर नेरय राहू, वसए अधपुहर एणविहं ॥ १०४ ॥
L
भावार्थ- पूर्व वायव्य दक्षिण ईशान पश्चिम अग्नि उत्तर और नैर्ऋत इस अनुक्रमसे आठों ही दिशा में अहोरात्र में दो बार
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ज्योतिषसारः।
मधे प्रहर (चार चार घडो) राहु रहता है ॥ १०४ ॥
अथ शुक्र फलभिगु पुव्व हि उग्गइ, दीहा बावन बि सयहि व अत्थं । पण पक्व ति दिहि ऊणा, पुव्वे दिण तिन्न बालायं ॥ १५॥ सोलस दिण अमासा, पच्छिम दीसेइ तेर दिण अत्थं । बुडोइ पनर दिवसं, पुट्टि वामोइ भिगु सुक्खं ॥ १०६॥ संमुह भिगु नहु गमणं, गुठ्विण नारि य बालसहिया यं । नव परिणिय नरवरे यं, सुक्खं हारेइ हेलाई ।। १०७ ॥ गुब्धिणी गम्भ सवई, बालय सहियाइ बाल मरिजाई । नव परणीय वंज्मा, नरवर हेलाई दुक्खाई ॥१०८ ॥ .. सड बोले हिं न दोसं, गामं इग पुरइ गेहि वास वसे। वीवाहे कंतारे, विदुर निवदेव जाई हिं॥१०६ ।। सवि सुक्ख वित्तमासे , जि? आणंद जलहि आसाढे। बहु सोय पोह माहे, भदव वइसाह पसुपीडं ॥ ११०॥ विग्गह कत्ती फग्गुणी, मिगसिरनि भंग पररजदुह आसो। अन समग्छ सावण अत्थं भिगुए रिसं अङ्गं ॥ १११ ॥ भिगु चक्खु वाम कांणय, दाहिण चपखुइ रेवया तिनं । कितिगरिकवं इग पय, अधो मिगु किरइ नहु दोसं ॥११२॥
भावार्थ-पूर्व दिशामें शुक्र २५२ दिन उदय रहता है, ७२ दिन मस्त रहता है और उदयसे तीन दिन बाल्य रहता है। परिश्रम दिशामें २५६ दिन उदय रहता है और १३ दिन अस्त रहता है;
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हिन्दी भाषा- टीका समेतः 1
३३
पूर्वास्त में १५ दिन वृद्ध रहता है। संमुख शुक्र हो तो गमन नहीं करना, गर्भिणी या बालकवाली स्त्री, नव परणीत स्त्री और राजा आदि गमन करे तो इन्होंका सुख शीघ्र ही नाश हो जाता है -गर्भि णी का गर्भस्त्राव, बालकवालीका बालकके साथ मुत्यु, नवोढा स्त्री वंध्या हो जाय और राजा शीघ्र ही दुःख पावे। एक ही गाम नगरमें या अपना (राना) मकान में, विवाहमें दुर्भिक्षमें, राज्य विप्लव में, राजा की मुलाकात में और तोर्थयात्रा करनेमें, इन छ कारणोंमें शुक का विचार नहीं किया जाता है।
अथ शुक्रास्त फल — चैत्रमास में शुक्र अस्त हो तो सर्व सुखकारक, ज्येष्ठ में आणंदकारी, आषाढमें अच्छी वर्षा, पौष और माघ मास में बहुत शीत, भाद्रपद और वैशाखमें पशुको पीडा, कार्त्तिक और फाल्गुनमासमें विग्रह, मार्गशीर्ष में देशभंग, आश्विनमें परराज्य से दुःख और श्रावणमें अनाज संस्ता हो । -
रेवती आदि तीन नक्षत्र में चन्द्रमा हो तब शुक्र बांयी या दक्षिण आंखसेकांना जानना और कृत्तिका का प्रथम पादमें चन्द्रमा हो तब शुक्र अंधा जानना, यह दोष नहीं करता है, आरम्भ सिद्धि में कहा है कि- "अश्विन्या वह्निगदान्तं यात्रञ्चरति चन्द्रमाः । तदा शुक्रो भवेन्धः, संमुखं गमनं शुभम् ॥" इत्यादि ॥
सिवचक राहुचक, पुट्ठी दाहिणो व सिद्धि कारिये । सुको जोगिणी थं, पुट्ठि वामोइ फलदाई ॥ ११३ ॥ भावार्थ- शिवचक और राहुचक पृष्ठ या दक्षिण तरफ हो
वो सिद्धि कारक है, शुक्र और योगिनी पृष्ठ या बांये तरफ हो
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૨૪
ती
ज्योतिषसारः ।
शुभ फल दायक है ॥११३॥
कीलक फल
कीलय उत्तरि उफा, जिट्ठा पुव्वे हिं. पूभ दक्खण यं अत्थमिणे रोहणि यं, गमणं वज्जे हिं सव्वे हिं ॥ ११४ ॥
भावार्थ- उत्तर दिशामें उत्तराफाल्गुनी को, पूर्वमें ज्येष्ठा को, दक्षिण में पूर्वा भाद्रपद को और पश्चिम में रोहणी को कीलक है, संमुख कीलक में गमन नहीं करना ॥ ११४ ॥ ..
परिघदंड
वाहिं अगनि रेहा, कित्ति सग पुचि सग मघा दहिणे । सग अणुसहा पच्छिम, उत्तरि सग धणिट्ठ रिकखाणं ।। ११५ ॥ जे जे पुव्वा उन्तरि, जे जे दहिणे हि पच्छिमे रिक्खा । विवरीया नहु गमणं, परिघं एंसि सिय परिमाणं ॥ ११६ ॥
भावार्थ-चतुष्कोण चक्रमें वायव्य और अग्नि कोण गत एक रेखा देनी, उसमें कृत्तिकादि ० नक्षत्र पूर्वमें, मघादि ७ नक्षत्र दक्षिणमें, अनुराधादि७ नक्षत्र पश्चिम में और धनिष्ठादि ७ नक्षत्र उत्तर में रखना यह परिध दण्ड है, उस को उल्लंघन नहीं करना, जो जो पूर्वोत्तर नक्षत्र हैं और जो जो दक्षिण पश्चिम नक्षत्र हैं उसमें विपरीत गमन नहीं करना; अर्थात् पूर्वोत्तर नक्षत्रोंमें दक्षिण पश्चिम की यात्रा और दक्षिण पश्चिम के नक्षत्रों में पूर्वोत्तर
की यात्रा नहीं करना ॥ ११५, ११६ ॥
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हिन्दी भाषा-टीका समेतः।
परिघ माहात्म्य-- अग्नेयं च वायव्यां, परिधस्तिष्ठति.महीम् । देवा अपि न लङ्घन्ति, दानवा अपि. मानवाः ॥ ११७ ॥
भावार्थ-पृथ्वी पर आग्नेय कोण और वायव्य कोणमें परिघ दण्ड रहा है उसको देव दानव और मनुष्य भी उल्लंघन नहीं करते हैं ॥ ११७॥ . पंचक फल
णिहाइ वजि पंचग, संगह तिण कट्ठ गेह आरम्भ। 'मियकम्मं सिजाय, दक्षिण दिग जाइ पमुहा य ॥११॥ धणनास धणिहाए, पाणघाव हि सितभिस रिषखं । पुवभ निवदण्डय, उत्तरभद्द कलह कारीय ॥ ११६ ॥ अग्गी दाहो रेवय, पञ्चग पंचेइ लक्खणं एय। जाणेय वजियव्वो, हीरं जोइसिय कहियाय ॥ १२० ॥
भावार्थ-धनिष्ठादि पांच नक्षत्रों को पञ्चक कहते है, इसमें तृण काष्ठ का संग्रह नहीं करना, मकान सम्बन्धी कोई कार्य नहीं करना, मृतकर्म नहीं करना, शय्या मांचा आदि बनाना नहीं और दक्षिणदिशामें गमन नहीं करना । धनिष्ठा धनका नाशकारक, शतभिषक् प्राणघातक, पूर्वाभाद्रपदा नपदण्डकारक, उत्तरा भाद्रपदा कलहकारक और रेवती अग्निदाहकारक है, ये पञ्चक के पांच लक्षण जानकर उसको त्याग करना चाहिये ऐसे 'हीर' ज्योतिषी कहते है॥११८ से १२० ॥
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३६
ज्योतिषसारः
पुनः कहते है
पञ्चके पञ्च गुणितं, त्रिगुणं त्रिपुष्करे ।
यमले द्विगुणं सर्व, हानिवृद्धय दिकं मतम् ॥ १२१ ॥ भावार्थ- सर्व कार्य पञ्चकमें पांचगुना, त्रिपुष्कर में त्रिगु ना और यमल में द्विगुना फलकी हानि वृद्धि होती है ॥ १२१ ॥
त्रिविध दिशा शुल
पडिवा नवमी तिही, रिक्खं रोहिणी पुव्वसाढायौं । वारा मन्द सोमं पुत्रं वज्जेइ दिसिसूलं ॥ १२२ ॥ तिहिया पञ्चमि तेरसि, अस्सणि वित्ताय सवणरिक्वाय । वारो हि गुरु कहियं, दक्खणि वज्जे य दिसि सूलं ॥ १२३ ॥ खडि चउद्दिसि तिहिय, सवणं मूलो य पुक्ख दिसियायं । वारं भिगु स्रोय, पच्छिम वज्जेइ दिसिसूलं ॥ १२४ ॥ बीया दसमी तिहिया, रिसिय हत्या य उत्तराफग्गुणी । बुध भोमो वाराय, उत्तरि वज्जेइ दिसिसूलं ॥ १२५ ॥
भावार्थ- प्रतिपदा और नवमी तिथि को, रोहिणी और पूर्वाषाढा नक्षत्रको, शनि और सोमवार को पूर्व दिशामें शूल है उसको गमनादि कार्य में त्याग करना । पश्चमी और जयोदशी तिथिको, अश्विनी चित्रा और श्रवण नक्षत्रको और गुरुवार को दक्षिण दिशा में कूल है । षडी और चतुर्दशी तिथिको, श्रवण मूल और पुष्य नक्षत्रकी, शुक्र और रविवार को : पश्चिम दिशामें शूल है। द्वितीया और दशमी तिथिको, हस्ता और उत्तराफाल्गुनी
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हिन्दी भाषा टीका समेतः ।
बुध और मंगलवार
नक्षत्र को, - त्याग करना ॥ १२२ से १२५ ॥
को उत्तर दिशामें शूल है उसको
नक्षत्र दिशा शूल
कुत्रे असलेस मघा, फुवाषाढम्मि रोहिणी सूलं । दक्खिण चित्त विसाहा, अस्सणि भरणी य रिसि चउरो ॥ १२६ ॥ पच्छिम रोहिणी सवणं, मूलो पुक्खाइ रिक्स चड सूलं । उफाइ हत्थ रेवइ, उत्तर दिसि वजप गमणं ॥ १२७ ॥
भावार्थ- पूर्वदिशामें आश्लेषा मघा पूर्वाषाढा और रोहिणी को शूल है, दक्षिण दिशामें चित्रा विशाखा अश्विनी और भरणो को शूल है, पश्चिम दिशा में रोहिणी श्रवण मूल और पुष्य ए चार नक्षत्र को शूल है और उत्तर दिशामें उत्तराफाल्गुनी हस्त और रेवती नक्षत्र को शूल है, थे गमन में त्याग करना ॥ १२६ ॥ १२० ॥ वार दिशा शूल ---
वारेहिं गुरु दक्खणि, उत्तरि बुध भोम पुव्वि सनि सोमं । सुक्क रखे पच्छिमय, सूलं दिलिप य वजाइ ॥ १२८ ॥
भावार्थ -- गुरुवार को दक्षिण दिशामें, बुधवार और मङ्गलवारको उत्तर दिशामें, शनिवार और सोमवार को पूर्व दिशा में शुक्रवार और रविवारको पश्चिम दिशामें शूल है ये गमनमें / त्याग
करना ॥ १२८ ॥
विदिशा शूल
अगनेय सोम सुरगुरु, नेरय भिगु सूर वाई भूमेहिं ।
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ज्योतिषसारः।
ईसाणे बुध मन्दों, वारं विदिस य सूले हि॥ १२६ ॥
भावार्थ-सोमवार और गुरुवार को आग्नेय कोणमें, शुक्र वार और रविवारको नैऋत कोणमें,मङ्गलवार को वायव्य कोणमें, बुधवार और शनिवार को ईशान कोणमें शूल है ॥ १२६ ॥
दिशाशूल परिहार-.. रवि चंदण ससि दहियं, माटो य भोमे हि बुध नवणीयं । गुरु लोट भिगु तिल्ल, सनि खल चलएहिं कल्लाणं ॥१३०॥
भावार्थ- रविवार को चंदन, सोमवार को दहि, मंगलवार को मट्टी, बुधवार को घी, गुरुवार को आटा, शुक्रवार को तेल
और शनिवार को खल, इनका तिलक कर गमन करे तो सर्वत्र मंगलिक होता है ॥ १३ ॥ प्रकारान्तरे भाषामेंरवि तंबोल मयंकह दप्पण, धाणा चावउ पुहवी नंदण । बुध गुल खाउं सुरगुरु राई, सुक्क करबउ जिमरे भाई ॥ जउ सनिवार विडंगह चावई,पर दल जीपीनइ घर आवइ॥१३॥
भावार्थ- रविवार को तंबोल चावकर, सोमवार को दर्पण देखकर, मंगलवार को धनिया चावकर, बुधवार को गुल (गुड) खाकर, गुरुवार को राई चावकर, शुक्रवार को करब (धान्य विशेष) खाकर और शनिवार को भावडिंग चावकर गमन करें तो शत्रु को जीत कर सुखसे घरपर आवे ॥१३१ ।। रवि वासामीनाइ तीय पुग्वे, मिहुणो तीयाई दक्षिण वासो। .
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हिन्दी भाषा टीका समेतः ।
9.
कन्नाइ तीय पच्छिम, धण तीयाइ उत्तरे सूरो ।। १३२. भावार्थ- मीनादि तीन राशि को पूर्वदिशामें मिथुनादि तीन राशि को दक्षिण दिशा में कन्यादि तीन राशि को पश्चिम दिशामें ओर धनादि तीन राशि को उत्तर दिशामें सूर्य का बास है ॥ १३२ ॥
दिशा विदिशा में रवि प्रहर प्रमाण
अग्गी दक्खणि नेरय, पच्छिम वाइव्व उत्तर ईसाणे 1
पूव्वे हि अड दिसय, वसए रवि पुहर अणुक्कमसो ॥ १३३ ॥ भावार्थ- अग्नि दक्षिण नैर्ऋत पश्चिम वायव्य उत्तर ईशान और पूर्व ये आठों ही दिशामें अनुक्रमसे एक एक प्रहर रवि रहता है ॥ १३३ ॥
३६
रवि फल
गमणेहि सूर दाहिण, पुरी पवेलेइ वामउ सुक्लं । लाहोर सुर संमुह, पुट्ठो भाणोइ दुह कीरइ ॥ १३४ ॥ न तित्थं न रिक्खं, न सिसं भद्दा वाराइ न वितीपात । सव्वे कल समारइ, सुपसन्नो हवइ सूरो ॥ १.३५ ॥ भावार्थ- दक्षिण सूर्य हो तो गमन करना, बांये तरफ हो तो नगर प्रवेश करना सुखकर है । समुख सूर्य हो तो लाभ दायक होता हैं और पूठे रवि हो तो दुःख कारक है । तिथि नक्षत्र चंद्रबल भद्रा वार और व्यतिपात इत्यादिक का दोष नहीं. देखना, क्योंकि एक ही सूर्य शुभ हो तो सर्व कार्य प्रारंभ करने स सिद्ध होते हैं ॥ १३४ ॥ १३५
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४०
वत्स रवि राहु
स्थिर योग
फल
मीनाइ तियं भाणो, वच्छो कन्नाइ रासियं तियं । विच्छीइ तियं राहो, वज्जे गिह कम्म तीयायं ॥ १३६ ॥ भाणो वच्छो राहो, संमुह दिट्ठी वि आऊयं हर्छ । पुट्ठेइ धणं खीया, कहियं जोपससत्थम्मि ॥ १३७ ॥ भावार्थ- मीनादिले सूर्य, कन्यादि से वत्स और वृश्चिकादिसे राहु ये तीनों गृहकार्य में छोड़ना चाहिये। सूर्य वत्स और राहु ये समुख हो तो आयुष्य का नाश करता है और पूठे हो तो धनका नाश करता है ऐसा ज्योतिश्शास्त्रों में कहा है ।। १३६- १३७ ।।
-
ज्योतिषसारः ।
तिहि अड तेरसि रिप्ता, रेवय जिट्ठा य अद् असलेसा । उफ उसा कित सितमिल, साई गुरुसनि थिवर जोगोयं ॥ १३८ ॥
भावार्थ अष्टमी त्रयोदशी और रिक्ता (४-१-१४) ये तिथि, रेवती ज्येष्ठा आर्द्रा आश्लेषा उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, कृत्तिका, शतभिषा और स्वाति ये नक्षत्र, गुरु और शनिवार इनका स'जोग से स्थिर योग होता है ।। १३८ ।।
इसमें अनशन करना, क्षेत्रखेडना व्याधि ऋण और शत्रु का नास करना, युद्ध समाप्ति करना (संधि करना) जलाशय बंधाना इत्यादि में स्थिर योग अच्छा है ऐसा पाकश्री ग्रन्थमें कहा है"अणसण बिल बाहि, रिणं रिउ रण दिव्यं जलासए बंधों । काययो: जजल्स य करणं पुणो नत्थि ॥ १ ॥
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हिन्दी भाषा-टोका समेतः।
सर्वाक योगतिथि वार रिक्सा इक, मिलि अंकांइ कहिय सव्वंक। पण इग्गारस तेरस, सतर ओगणीस तेवीसं ।। १३६ ॥ पणवीसा गुणतीसा, इगतीस सइतीस एगयालीसा। तेयालीस इताला, पमुहा सव्वेहि मंगलं ।। १४० ॥
भावार्थ- तिथि वार और नक्षत्र ये तीनों के अंको को मिलाना, उसको सर्वाक योग कहते है, इन अंको का जोड़
५।११ । १३ । १७ । १६ । २३ । २५ ॥२६॥ ३१ ॥ ३७॥४१ । ४३ । ४७ । ये हो तो शुभ है ।। १३६ ।। १४० ॥ प्रकारान्तरे सर्वाक योग
वार तिथि रिसिधरिये एकह, बिमणा त्रिवणा चउगुणा करिय भाग सवि देइ पिहु पिहु, छए सत्त अट्टे वलगि वधत अंक चिहु अमि ग्गहु ।
आदि सून्य दुहदाईयउ, मझे लच्छि वियोग । अंति सून्य हुइ हाणिकर, सबके सुभ योग ।। १४१ ॥
भावार्थ:-वार तिथि और नक्षत्र ये तीनों के अंको को इकट्ठा कर तीन जगह रखना, उनको द्विगुना त्रिगुना और चौगुना करना उसको अनुक्रमसे छ सात और आठ से भाग देना, आधके शेषमें शून्य आवे तो दुःखदायक, मध्य शून्य आवे तो लक्ष्मी नाश कारक और अन्त्य शून्य आवे तो मृत्यु कारक है। सभी शेष में अंक बचे तो शुभ योग जानना ॥ १४१ ॥
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४२
ज्योतिषसारः ।
रवि योग
रवि रिक्ख लेइ दिन रिक्ख, गिणहु चड छट्ठ नव दस तेरे । वीसम ए रवियोगा, सिह ईय सव्व जोगाई ॥ १४२ ॥ इक्क सिह किसोयर, गय घड भन्न ति तस्स कोडीओ 1 रविजोग सय पलाणा, गयणस्मि गया न दीसन्ति ॥ १४३ ॥ भावार्थ - सूर्य नक्षत्र से चन्द्र नक्षत्र पर्यन्त गिनना जो४ । ६ । ६ । १० । १३ । २० इन्हीं में से कोई संख्या हो तो रवि योग होता है। यह सभी योगों में श्रेष्ठ माना गया है जैसे-सिंह का बच्चा मदोन्मत हाथी का कुभस्थल को तोड़ देता है ऐसे एकही रवियोगके उदयसे सेंकड़ों कुयोग अस्त हो जाते है सो दिखते भी नहीं । इन रवियोग का फल आरम्भ सिद्धिकी टीका में कहा है कि “एआण फलं कमलो, विउलं सुक्खं ४ जयं च सन्तृणं ६ | लाभं ६ च कज्ज सिद्धि १०, पुत्तुप्पत्ती अ १३ रज' च २० ।। १ ।। ” इन रवियोग का फल अनुक्रम से जान लेना; जैसे-४ संख्या हो तो सुख, ६ हो तो शत्रुका नाश, ६ हो तो लाभ, १० हो तो कार्य सिद्धि, १३ हो तो पुत्रोत्पत्ति का लाभ और २० हो तो राज्य सुख मिले इत्यादि ॥ २४२ ॥ १४३ ॥
राज योग
'तिया पुन्निम भद्दा, भू बुध रवि सुक्क पुक्ख मिग भरणी । पूफा पूसा ऊभा, चित्ता अणु घणि निवजोगा । १४४ ॥ गृहप्रवेशों मैत्री व विद्यारम्भादिसत्क्रिया ।
राजपट्टाभिषेकादि, राज योगे ऽभिधीयते ॥ १४५ ।।
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हिन्दी भाषा-टीका समेतः । भावाथ- तृतीया पूर्णिमा और भद्रा (२-७-१२) ये तिथि, मंगल बुध रवि और शुक्र ये वार, पुष्य मृगशीर्ष भरणी पूर्वाफाल्गुनी पूर्वाषाढा उत्तराभाद्रपदा चीत्रा अनुराधा और धनिष्ठा ये नक्षत्र इनके संजोग से राजयोग होता है। वह गृह प्रवेश में मैत्री करने में विद्यारंभादि सत्कीया में और राज्याभिषेकादि में राजयोग शुभ कहा गया हैं ॥ १४४।१४५ ।। कुमार योग
नंदा पंचमि दसमी, ससि बुध भिगु मंगल मघ सवणं । अस्सणी रोहिणि पुणव्वसु, हत्थ विसाहा कुमार जोगा ॥१४६॥
भावार्थ-नंदा (१-६-११) पंचमी और दशमी थे तिथि, सोम बुध शुक्र और मंगल थे वार,मधा श्रवणअश्विनी रोहिणी पुनर्वसु हस्त और विशाखा ये नक्षत्र, इनके संजोगसे कुमारजोग होता है ए शुभ कार्य में अच्छा है ॥ १४६ ॥ ज्वालामुखी योगपडिवइ मूलं रिसी यं, पंचमि भरणीय कित्ति अहमीयं । नवमी दिण रोहिणीयं, दसमी असलेस दुह दियीयं ॥ १४७॥ एए ही जोगजाला, जम्मं जो हवइ सो मरइ बाला । अवसइ गेहसाला, परि हरियं वरइ जयमाला ।। १४८।।
भावार्थ-प्रतिपदा और मूलनक्षत्र, पंचमी और भरणी, अष्टमी और कृत्तिका, नवमी और रोहिणी, दशमी और आश्लेषा ये ज्वालामुखी योग है, वह दुःखदाई है। इस योगमें जन्म होनेसे बालक मर जाता है, गृहादिक का आरंभ करे तो गिर जाता है।
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ज्योतिषसारः।
इस योगका त्याग करने से विजयमाला होती है ।
अशुभ योगसंवत्त सूल सत्तू, भसमो दण्डो य वजमुसलायं । कालमुही यमघण्टं, यमदाढं काण मिश्चायं ॥ १४६ । जालामुही य खंजो, यमलं उप्पाय कक्कडा जोग। एएहिं जोग सोडस, सव्वे कज्जे हि असुहायं ॥ १५० ॥
भावार्थ-संवर्त शूल शत्रु भस्म दण्ड वज्रमुसल कालमु'खी यमघण्ट यमदंष्ट्रा काण मृत्यु ज्वालामुखी खञ्ज यमल उत्पात और कर्कट ये सोलह योग सभी शुभ कार्यो में अशुभ माने हैं ।
शुभयोगथिवरो य राजयोग, कुमारयोगं च अमिय सिद्धि जोगं । सव्वंक रवियोग, एएहि हणइ अवजोगं ॥ १५१ ॥
भावार्थ-स्थविर (स्थिर ) योग, राजयोग, कुमारयोग, अमृत सिद्धि योग, सर्वा कयोग और रवियोग ये शुभयोगों है; ये -सभी अशुभयोगों का नाश कर देते हैं ॥ १५१ ॥
त्रिशुद्धियोगहत्युत्तरा तियं मूलं, पुषख धणिट्ठाई अस्सणो रेवइ । 'पडिवा अट्ठमि नवमी, रविसंजोगे सुहा होई ॥ १५२ ॥ बीया नवमी पुषखं, मिगसिर रोहिणि य सवण अणुराहा। चन्दाण य संजोगे, संसय रहियं सुहा होई ॥ १५३ ॥ रेवय मिगसिर अस्सणि, मूलं असलेस उत्तराभहं।
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हिन्दी भाषा - टीका समेतः I
I
छट्टि तिया अड तेरिसि, मङ्गल जोगे सुहा होई ॥ १५४ ॥ सवणं रोहिणि पुक्खो, मिगसिर अणुराह किशिगा रिक्खा बीया सामि बारस, जोगे बुधवार सुह होई ॥ १५५ ॥ पुवाइ हत्थ पुक्खं, रेवइ अस्सणि विसाह पुणव्वसय' । पञ्चमि दसमी गारिंसि, पुन्निम गुरु जोगे सुह होई ॥ १५६ ॥ उत्तरसाढा अस्सणि, रेवइ अणुराह पुणव्वसं हत्था । पुध्वा फग्गुणि तेरिसि, नन्दा तिहि सुक्क सुह होई ॥ १५७ ॥ सवर्ण पुत्राफग्गुणि, रोहिणि साई मघा य सितभिसयं । चत्थि नवमी चउदिसि, अट्ठमि सुह जोग सनि होई ॥१५८ ॥
४५.
भावार्थ - रविवार को हस्त तीनों उत्तरा मूल पुष्य धनिष्ठा अश्विनी और रेवती नक्षत्र, प्रतिपदा अष्टमी और नवमी तिथि हो तो शुभ है। सोमवारको द्वितीया और नवमी तिथि, पुष्य मृगशीर्ष रोहिणी श्रवण और अनुराधा नक्षत्र हो तो शुभ है ॥ मङ्गलवार को रेवती मृगशीषे अश्विनी मूल आश्लेषा और उत्तराभाद्रपद नक्षत्र, षष्ठी तृतीया अष्टमी और त्रयोदशी तिथि हो तो शुभ है ॥ बुधवारको श्रवण रोहिणी पुष्य मृगशीर्ष अनुराधा और कुशिका ये नक्षत्र, द्वितीया सप्तमी और द्वादशी तिथि हो तो शुभ है। गुरुवार को तीनों पूर्वा हस्त पुष्य रेक्ती अश्विनो विशाखा और पुनर्वसु नक्षत्र, पञ्चमी दशमी एकादशी और पूर्णिमा तिथि हो तो शुभ है। शुक्रवार को उत्तराषाढा अश्विनी रेवती, अनुराधा पुनर्वसु हस्त और पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र, त्रयोदशी और मुदा (१-६९११) तिथि हो तो शुभ है । शनिवार को श्रवण
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. ज्योतिषसारः। पूर्वाफाल्गुनी रोहिणी स्वाति मधा और शतभिषा नक्षत्र, चतुर्थों नवमी चतुर्दशी और अष्टमी तिथि हो . तो शुभ होते हैं ॥ १५२ से १५८ ॥
तिथिवार नक्षत्र के शुभयोग यंत्र रवि...ह. उ० उ० उ० मू० पु० ध० अ० २० १-८- ६ सोम...पु० म० रो० अ० अनु० २- -- - - - • मङ्गल...२० म० अ० मू० अश्ले० उभ० ६-- ३---८- १३--. बुध...श्र० रो० पु० मृ० अनु• कृ० २- ७-- १२. 0--0 गुरु... पू३. पु० २० अ० वि० पुन० ह०-५-१०-११--१५-० शुक...उषा० अ०२० अ० पुन० ह० पूफा० १३---१---६--११--० शनि...श्र० पूफा० रो० स्वो० म० श. ४-६-१४-८--0-0
अथ तिथि वार नक्षत्र अशुभ योग----- रवि छठ्ठी सत्तमि या, बारिसि चउदिसी गारिसी जिट्टा । अणुराहा य विसाहा, मघ भरणी जोगि असुहाई १५६ ।। सोम गारिसि सत्तमी, बारिसि चउदिसिय पुल्वसाढा यं। उतरसाढा चित्ता, विसाखाह जोगे हि असुहाई ॥१६॥ भोमे दसमी पडिवा, एगारिसि अद्द उतरासोढा। - धणिट्ठा सितभीस, पूभइ जोगे मिलिए हि असुहाई ॥ १६१ ॥ बुध तिया अड तेरिलि, पाडवा नवमी य चवदिसी मूल । रंवय अस्सणि भरणी, धणिहा अणुगह असुहाई ।। १६२ ।।
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Amwwwar
हिन्दी भाषा-टीका समेतः। ४० गुरु बोया सग बारसि, चउत्थी छट्ठी य अट्टमी ऊफा। कित्सिग रोहिणी मिगसिर, अहा सितभिसह असुहाई ॥१६३ भिगु चउ नवमी चवदिसि,बीया सत्तमिय तीय रोहिणिया। जिट्ट मघ असलेसा, पुक्खं पमुहाइ असुहाई ॥ १६४॥ शनि पण दसमी पुन्निम,छट्ठी सत्तमि य रेवई चित्ता। हत्था उत्तरसाढा, उत्तरफागुणि य असुहाई ॥ १६५ ॥
- भावार्थ-रविवारको षष्ठी सप्तमी द्वादशी चतुर्दशी और एकादशी तिथि, ज्येष्ठा अनुराधा विशाखा मघा और भरणी नक्षत्र हो तो अशुभ है। सोमवार को एकादशी सप्तमी द्वादशी और चतुर्दशी तिथि, पूर्वाषाढा उत्तराषाढ़ा चित्रा और विशाखा नक्षत्र हो तो अशुभ है। मंगलवार को दशमी प्रतिपदा और एकादशी तिथि, आर्द्रा उत्तराषाढा. धनिष्ठा शतभिषा और पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र हो तो अशुभ है। बुधवार को तृतीया अष्टमी त्रयोदशी प्रतिपदा नवमी और चतुर्दशी तिथि, मूल रेवती अश्विनो भरणी धनिष्ठा और अनुराधा नक्षत्र हो अशुभ है। गुरुवार को द्वितीया सप्तमी द्वादशी चतुर्थी षष्ठी और अष्टमी तिथि, उत्सराफाल्गुनी कृतिका रोहिणो मृगशीर्ष आर्द्रा और शतभिषा नक्षत्र हो तो अशुभ
है। शुक्रवार को चतुर्ण नवमी चतुदशी द्वितीया सप्तमी और तृतीया तिथि, रोहिणी ज्येष्ठा मघा आश्लेषा और पुष्य नक्षत्र हो तो अशुभ है। शनिवार को पंचमो दशमी पूर्णिमा षष्ठी. और सप्तमी तिथि, रेवती चित्रा हस्त. उत्तराषाढा. और उत्तराफागुनी नक्षत्र हो तो अशुभ है। १५६ से १६५ ।।
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तिथि वार नक्षत्र
१४
रवि ६ ० १२
2.
सोम ११
१२
मंगल ० १
११
बुध ३ ८ १३
गुरु
· १२
शुक्र ४६
१४
शनि ५ १० १५
ज्योतिषसारः ।
के
अशुम
११ ज्ये अनु
पूषा उषा चि
●
१४
आर्द्रा उषा ध
१४
१
४
२
६
STN
योग यंत्र
विम भ० वि ०
०
श
पूभ ०००
मू रे अ भध अनु
उफा कृ से मृ आश
७
रो ज्ये म आ पु०
3
७ रे विह उषा उफा ●
अमृत
सिद्धियोग
रवि हत्थ सिय मिसिर, मंगल अस्सणि य बुध अणुराहा । गुरु पुक्ख सुक्क रेवय, सनि रोहिणी जोग अमिता यं ॥ १६६ ॥
भावार्थ - रविवार को हस्त, सोमवार को मृगशीर्ष, मंगल वार को अश्विनी, बुधवार को अनुराधा, गुरुवार को पुष्य, शुक्रवार को रेवती और शनिवार को रोहिणी नक्षत्र हो तो अमृतसिद्धि योग होता है ।
सनि रोहिणि तिजि गमणं, पाणिग्गहणं च वजि गुरु पुखं । परवेसं भूमहलणि, वजिप मंडई उच्छाहं ॥। १६७ ।।
भावार्थ- उक्त अमृतसिद्धियोग समस्त कार्यों में शुभ है तो भी यात्रा देशाटन) में शनि रोहिणी, विवाहमें गुरु पुष्य और गृह प्रवेशमें मोमाश्विनी वर्जित है ।। १६७ ॥
अमृत सिद्धि तिथि योगसे विषयोग
वज्जि रवि हरिथ पंचमि, मिसिर ससि बडिज छट्टि तिहिए।
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हिन्दी भाषा - २
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1- टीका समेतः 1
मंगल अस्सणि सत्तमि, अणुराह बुध अट्टमिया ॥ १६८ ॥ नवमि य पुक्ख सुरगुरु, दसमी रेवई य सुक्कवारा ए । एगारिसि सनि रोहिणि, अमियायं सव्वे विसजोगा ॥ १६६ ॥
भावार्थ- उक्त जो अमृत सिद्धि योग कहे हैं वे किसी तिथि योगसे विषयोग ( अनिष्ट योग ) भी हो जाते हैं, जैसे किरविवार को हस्त नक्षत्र अमृत सिद्धि योग है, परन्तु पंचमीका संयोगसे विषयोग हो जाता है वैसे- सोमवार को मृगशीर्ष नक्षत्र और षष्ठी तिथि, मंगलवारको अश्विनी नक्षत्र और सप्तमी तिथि, बुधवार को अनुराधा नक्षत्र और अष्टमी तिथि, गुरुवार को पुष्य नक्षत्र और नवमी तिथि, शुक्रवारको रेवती नक्षत्र और दशमी तिथि, शनिवार को रोहिणी नक्षत्र और एकादशी तिथि हो तो विषयोग हो जाते हैं ।। १६८-१६६ ॥
अर्द्धप्रहः योग
४६
भाणु च ससि सत्तम, धरणिसूओ बीय बुध पंचाणं t गुरु अट्टम भिगु तीयं, छट्ट सनि अद्धपुराणं ॥ १७० ॥
भावार्थ- दिनमान के सोलहवे भागको अर्द्धप्रहर ( यामार्द्ध) कहते है, यह रविवार को चौथा, सोमवारको सातवाँ, मंगलवार को दूसरा, बुधवार को पांचवां, गुरुवार को आठवाँ, शुक्रवार को तीसरा और शनिवारको छट्ठा अर्द्ध प्रहर योग है वह शुभकार्य में वजनीय है ॥ १७० ॥
कालवेलायोग---
थावर बिय सग सुकं, सुरगुरु चउ बुद्ध एग भू छ । सोम तिय रवि अट्ठ, अद्धपुहरं कालवेलाणं ॥ १७६ ॥
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ज्योतिषसारः। भावार्थ शनिवार को दूसरा, शुक्रवार को सातवाँ, गुरुवार को चौथा, बुधवार को पहिला, मंगलवार को छठ्ठा, सोमवार को तीसरा और रविवार को आठवां अर्द्ध प्रहर कालवेला संज्ञक है ॥ ११ ॥
कुलिक योगसूर सग चंद छ8, मंगल पण बुध चउ य गुरु तीयं । भिगु बीयं रविसूय इग, अद्धपुहरं कुलिक परिमाणं ॥ १७२॥
भावार्थ-रविवार को सातवाँ, सोमवार को छहा, मंगल वारको पांचवाँ, बुधवार को चौथा, गुरुवारको तीसरा, शुक्रवार को दूसरा और शनिवार को पहिला यामार्द्ध कुलिक संज्ञक हैं। उपकुलिकयोग
सनि छ? भिगु सत्तम, गुरु एग बध बीय तीय भूओ। चउरो ससि रवि पंचम, अद्धपुहर तिमही उवकुलिक ॥१७॥ ___ भावार्थ-शनिवार को छट्ठा, शुक्र धारको सातवाँ, गुरु वारको पहिला, बुधवार को दुजा, मंगलवार को तीसरा, सोमवार को चौथा और रविवारको पांचवां अर्द्धप्रहर उपकुलिक हैं। कंटकयोगभाणाइ तिउ ससि दुग, मंगल इग बुध सत्त सड गुरु थे। भिगु पंचम चउ थावर, अद्धपुहरं कंटकं असुहं ॥ १७४ ।।
__ भावार्थ-रविवारको तीसरा, सोमवार को दूसरा, मंगळ पार को पहिला, बुधवारको साता, गुरुवारको छट्ठा, शुक्रवार
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हिन्दी भाषा टीका समेतः ।
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को पांचवां, और शनिवारको चौथा अर्द्धप्रहर कंटक संशक हैं ।।
कर्कटयोग
छिट्ठि भिगु सत्तम, अट्टमि गुरु बुध नवमी भू दसमी । ससि गारिसि रवि बारसि, तिहि वारं कक्कडायोगं ।। १७५ ।।
भावार्थ - शनिवारको षष्ठी, शुक्रवार को सप्तमी, गुरुवार को अष्टमी, बुधवारको नवमी, मङ्गलवारको दशमी, सोमवार को एकादशी और रविवारको द्वादशी ये कर्कट योग हैं, वे शुभ कार्य में वर्जनीय है || १७५ ।। यमघंटयोग
I
मघ सूर ससि विसाहा, मंगल अद्दाइ बुध मूला यं । गुरु कित्ति सुक्क रोहिणी, सनि हत्था योग यमघंटं ॥ १७६ ॥ भावार्थ - रविवार को मघा, सोमवारको विशाखा, मंगलवारको आर्द्रार्श, बुधवारको मूल, गुरुवार को कृत्तिका, शुक्रवारको रोहिणी और शनिवार को हस्त नक्षत्र हो तो यमघंट योग होते हैं । Aariन्तर से अन्यग्रन्थों में
ससि विसा अस्सणि, बुद्धो मूलाइ अद्द पूफायं ! सुरगुरु कित्तिग सवणं, सूरो मघ योग यमघंट ॥ १७७ ॥ भूमो मघ अद्दा यं, सुक्को साईहि रोहिणी रिसि 1
मन्दोइ हत्थ रेवय, पूषा उषाइ यमघंटं ॥ १७८ ॥
भावार्थ- सोमवार को विशाखा और अश्विनी, बुधवारको मूल आर्द्रा और पूर्वाफाल्गुती, गुरुवारको कृतिका और श्रवण,
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ज्योतिषसारः ।
रविवार को मघा, मंगलवारको मघा और आर्द्रा, शुक्रवार को स्वाति और रोहिणी, शनिवार को हस्त रेवती पूर्वाषाढ़ा और उत्तराषाढ़ा हो तो यमघंट योग होते हैं ।। १७७ ॥ १७८ ॥ यमघंट फल --
जिमधं गमण मिश्चं, पाणिग्गहणं कुलो विच्छेयं च । देवपट्ठा मिथं, पुत्तो जाया न जीवति ॥ १७६ ॥
भावार्थ - यमघंटयोग में गमन करे तो मृत्यु होवे, विवाह करे तो कुलका नाश होवे, देव प्रतिष्ठा करे तो मृत्यु होवे और पुत्र उत्पन्न हो तो जीवे नहीं ॥ १७६ ॥
उत्पातयोग
सूर विसाहा ससि पूढ, भूमि धनिट्ठाइ बुध रेवइ य । गुरु रोहिणि भिगु पुक्खं, ऊफा सनि योग उत्पायं ॥ १८० ॥
भावार्थ - रविवार को विशाखा, सोमवार को पूर्वाषाढ़ा, मंगलवारको धनिष्ठा, बुधवारको रेवती, गुरुवारको रोहिणी, शुकवारको पुष्य और शनिवारको उत्तराफाल्गुनी हो तो उत्पात योग होते हैं ।। १८० ॥
वारनक्षत्र मृत्युयोग
अणुराहा
रवि ससि उसा, मंगल सितभिसह बुध अस्सणिया 1 गुरु मिग भिगु असलेसा, हत्था सनियोग मिच्चाई ।। १८१ ॥
भावार्थ - रविवार को अनुराधा, सोमवारको उत्तराषाढ़ा, मंगलवार को शतभिषा, बुधवारको अश्विनी, गुरुवारको मृग
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हिन्दी भाषा-टोका समेतः ।
शीर्ष, शुक्रवारको आश्लेषा, और शनिवारको हस्त नक्षत्र हो तो मृत्युयोग होते हैं ॥१८॥
तिथि वार मृत्युयोगरवि भूम तिही नन्दा, ससि गुरु भद्दाइ जया बुद्धहि । भिगु रित्त सनि पुन्ना, वज्जे य मिश्चजोगाई ॥ १८२ ।।
भावार्थ-रविवार और मंगलवारको नन्दा.--१-६-११ तिथि, सोमवार गुरुवारको भद्रा-२-७-१२ तिथि, बुधवार को जया-३-८-१३ तिथि, शुक्रवार को रिक्ता-४-६-१४ तिथि और शनिवार को पूर्णा--५-१०.१५ तिथि हो तो मृत्युयोग होते हैं वे शुभकार्य में वर्जनीय है ॥ १८२ ॥
पुनः ग्रन्थान्तरे मृत्युयोगबुधे अस्सणि मूल, गुरु पूसा मूल सितभिस मिगायं। सनिहर पूसा चउरों, भिगु रोहिणि साइ असलेसा ॥ १८३ ।। सूरो मघ अनुराहा, चन्दा असा विसाह पुक्खेहि। भूमे सितभिस अहा, भरणी मघ जोग मिश्चाई ॥ १८४ ॥
भावार्थ - बुधवारको अश्विनी और मूल नक्षत्र, गुरुवारको पूर्वाषाढ़ा मूल शतभिषा और मृगशीर्ष नक्षत्र, शनिवारको पूर्वापाढा आदि चार नक्षत्र, शुक्रवार को रोहिणी स्वाति और आश्लेषा, रविवारको मघा और अनुराधा, सोमवार को उत्तराषाढा विशाखा और पुष्य, मंगलवारको शतभिषा. आर्दा भरणी और मथा नक्षत्र ये मृत्युयोग होते हैं ॥ १८३ ॥ १८४॥ ...
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ज्योतिषसारः।
काणयोगजिट्ट रवि ससि अभीय, मंगल पूभद्द बुध भरणीय। गुरु अद्दा मघ सुक्क, चित्ता सनि जोग काणायं ॥ १८५।।
भावार्द- रविवारको ज्येष्ठा, सोमवार को अभिजित्, मंगलवारको पूर्वाभाद्रपद, बुधवार को भरणी, गुरुवारको आर्द्रा, शुक्रवारको मघा और शनिवार को चित्रा हो तो काण योग होते है ॥ १८५॥ - वार नक्षत्र सिद्धियोग
मूलारकि सवण ससि, मंगल उभद्द बुध किरतीय। गुरु पुणवसु पूप्फा, भिगु साई सनि सिद्धि जोगाणं ॥ १८६॥
भावार्थ-रविवारको मूल, सोमवार को श्रवण, मंगलवारको उत्तराभाद्र पद, बुधवारको कृत्तिका, गुरुवार को पुनर्वसु, शुक्रवारको पूर्वाफाल्गुनी और शनिवार को स्वाति नक्षत्र हो तो सिद्धियोग होते हैं ॥ १८६ ॥
तिथि वार सिद्धियोगनन्दा भिगु भद्दा बुह, जाया भूमे हि रित्त मंदायं।
पुन्ना तिहीय गुरु यं, जोगं सिद्धाइ कज सव्वे ॥ १८७ ॥ ... भावार्थ-शुक्रवार को नन्दा १-६-११ तिथि, बुधवार को भद्रा-२-७-१२ तिथि, मंगलवार को जया-३-८-१३ तिथि, शनिवार को रिक्ता-४-६-१४ तिथि और गुरुवार को पूर्णा-५-१०१५ तिथि सिद्धियोग है, इन में सर्वकार्य करना अच्छा है ॥१८७।।
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हिन्द भाषा-टोका समेतः ।
त्रिपुष्करयोगपूभद्द किति पुणव्वसु, उफा ऊसा विसाह रवि सनि भू। भद्दा तिही तिपुक्कर, जमलं मिग चित्त धणिहायं ॥ १८८ ॥ ___ भावार्थ-पूर्वाभाद्रपद कृत्तिका पुनर्वसु उत्तरा फाल्गुनी उत्तराषाढ़ा और विशाखा ये नक्षत्र,रविवार शनिवार और मंगलवार, भद्रा-२-७-१२ तिथि, इन के संयोग से त्रिपुष्कर योग होते है और शनि रवि मंगलवार, भद्रातिथि, मृगशीर्ष चित्रा और धनिष्ठा ये नक्षत्र इनके संयोग से यमल योग बनते है।
संवर्तकयोगगुरु नवमी भिगु बीया, ससि तेरसि भूम चवदिसि तिहीया। बुध एगा रवि सत्तमि, पंचमि सनि योग संवत्ता ॥ १८ ॥
भावार्थ --रविवार को सप्तमी, सोमवार को त्रयोदशी, मंगलवारको चर्तुदशी, बुधवारको प्रतिपदा, गुरुवार को नवमी, शुक्रवार को द्वितीया और शनिवार को पंचमी हो तो संवर्तक योग होते हैं ॥ १८ ॥ . पुनः संवतकयोग- गुरु छट्ठी नवमो तिहि. भिगु बीया तीय बुध इग तीया।
ससि सत्तमि तेरसि या, सत्तमिरवि भूम चवदिसि या॥१०॥ सनि पंचमि संवत्तक, जोगं अवजोग मज्भ सव्वेहि । नहु कीरइ वीवाहं, मंगलकाले हि वज्जेहि ॥ ११ ॥ . भावार्थ-गुरुवारको षष्ठी और नवमी, शुक्रवारको द्वितीया
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ज्योतिषसार ।
और तृतीया, बुधवारको प्रतिपदा और तृतीया, सोमवार को सप्तमी और त्रयोदशी, रविवारको सप्तमी, मंगलवारको चतुदेशी और शनिवारको पंचमी हो तो संवर्त्तक योग होते है इसमें विवाह आदि नहीं करना और मंगलिक कार्य समय में इनका तो अवश्य ही त्याग करना ॥ १६० ।। १६१ ॥
शूलयोग
ससि सूलं भू गंडं, अतिगंज बुद्ध भिगु वाघाई |
वज्ज गुरु सनि वैधिति, भाण विषखंभो सूलाई ॥ १६२ ॥
भावार्थ -- सोमवार को शूल, मङ्गलवारको गंड, बुधवार को अतिगण्ड, शुक्रवारको व्याघात, गुरुवारको वज्र, शनिवार को वैधृति और रविवारको विष्कम्भ योग हो तो शूल योग होते हैं ॥ १६२॥
i
शत्रुयोग
बुध अद्दा भिगु रोहिणी, पुक्ख सिली सितभिसा य सनिवारा । गुरु विसाहा विज्जिय, सत्तूजोगइ सव्वाई ॥ १६३ ॥
वारको
भावार्थ- बुधवारको आर्द्रा, शुक्रवारको रोहिणी, सोमपुष्य, शनिवारको शतभिषा, गुरुवारको विशाखा, “रविवारको भरणी और मङ्गलवारको उत्तराषाढ़ा” ये शत्रु योग है. ।। भस्म और दंडयोग
भाणाइ गिण . हु दिण, रिसि सत्तम भसमाइ तहर पनरमयं । दण्डयोगो हि ईयं, मासं मोइ इंगवारं ॥ १६४ ॥
भावार्थ- सूर्य नक्षत्र से चन्द्रनक्षत्र सातवां हो तो भस्म
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हिन्दी भाषा-टीका समेतः । योग और पंद्रहवां हो तो दंडयोग होता है, ये दोनों प्रत्येक मास में एकवार आते है ॥ १४॥ ____ कालमुखीयोगपञ्चमि मघ चउ उत्तर, नवमि य कित्तगिय तीय अणराहा । अट्ठमि रोहिणि मज्झिम, कालमुहीयोग ए कहिया ॥ १६५ ॥
भावार्थ-पंचमीको मघा, चतुर्थीको तीनों उत्तरा, नवमी को कृत्तिका, तृतीयाको, अनुराधा और अष्टमीको रोहिणी, ये कालमुखी योग हैं ।। १६५ ॥
वज्रमुसलयोग याने ग्रह जन्मनक्षत्ररवि भरणी ससि चित्ता, उसा भोमाइ बुद्ध धणिहायं । गुरु उफा भिगु जिट्ठा, रेवय सनि वज़मुसलायं ॥ १६ ॥
गहजम्म रिसी एए, वज्जे वीवाह कीरए विहवं। . गमणारम्भे मरणं, चेईय ठवण विद्धंसं ॥ १७ ॥
सेवाइ हवइ निप्फल, करसण अफलोइ दाह गिहपवेसं । विज्जारंभे य जडं, वत्थु वावरइ भसमाय ।। १६८॥
भावार्थ-रविवार को भरणी, सोमवारको चित्रा, मङ्गल वार को उत्तराषाढ़ा बुधवार को धनिष्ठा, गुरुवार को उत्तराफाल्गुली, शुक्रवार को ज्येष्ठा और शनिवार को रेवती नक्षत्र हो तो ये वज्रमुसल योग होते है और ये नक्षत्रों ग्रहोंके जन्मनक्षत्र भी है । ऐसा पाकश्रीग्रन्थ में भी कहा है कि“भर१ चितुर त्तरसाढा३, धणि४ उत्तरफग्गु५ जिट्ट रेवडा७ । सराइ जम्मरिक्खा, एपहिं वजमुसल पुणो. ॥ १ ॥"
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ज्योतिषसार 1
इन ग्रह जन्मके नक्षत्रमें विवाह नहीं करना, करे तो वैधव्य हो जावे, देशाटन करे तो मरण होवे, प्रतिष्ठा करे तो चैत्य (देवालय) का नाश हो जावे, किसी की भी सेवा करे तो निष्फल होवे, खेती करे तो निष्फल होवे, गृहप्रवेश करे तो अग्नि का उपद्रव हो, विद्यारम्भ करे तो मूर्ख बना रहे; नवीन वस्त्र पहिरे तो भस्म हो जाय, पंचमहाव्रतादि व्रत लेवे तो व्रत भंग हो जाते है । प्रसंगोपात व्रतादि लेने का मुहूर्त
" हत्थुत्तर सवण तिगं, रेवइ रोहिणि पुणव्वसुण दुगं । अणुराहा सम भणिया, सोलस आलोयणा रिक्खा ॥ १ ॥ आलोयणा तिहि नंदा, भद्दा जया य पुण्णा य । रवि ससि बुध गुरु सुक्का - वारा करणाण विट्ठि त्रिणा ||२||
भावार्थ - हस्त चित्रा स्वाति उत्तराफल्गुनो उत्तराषाढा उत्तराभाद्रपदा श्रवण धनिष्ठा शततारका रेवती अश्विनी रोहिणी मृगशीर्ष पुनर्वसु, पुष्य और अनुराधा ये सोलह नक्षत्र, नंदा भद्रा जया और पूर्णा थे तिथि, रविवार सोम बुध गुरु और शुक्र ये वार, विष्टि करण को छोड़कर बाकी के छ करण, ये सभी ही सम्यक्त्व के बारह व्रत लेने में, गुरु आगे प्रायश्चित् लेनेमें, योगसाधन में, तपश्चर्या करने में इत्यादिक शुभ कार्य में फल दायक है, आरम्भसिद्धि के तृतोय विमर्शमें श्लो० ३६ में भी कहा है कि“नियमालोचनायोग - तपोनन्द्यादि कारयेत् । मुक्त्वा तीक्षणोप्रमिश्राणि, वारौ चारशनैश्वरौ ॥” तीक्ष्ण उग्र और मिश्र संज्ञक नक्षत्रको तथा मंगल और शनि
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हिन्दी भाषा टीका समेतः ।
वार को छोड़कर बाकीके नक्षत्र तथा वार को नियम आलोचना योग, तपस्या और उस की नन्दि आदि विधि करना ।
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क्षौरकर्ममुहूर्त
रोहिणि माहा विसाहा, ति उत्तरा भरण कित्तिआ य अणुराहा । इअ मुंडण लोयकए, इंदी वि न जीवए व रिक्खं ॥ १ ॥
भावार्थ - रोहिणी मघा विशाखा तीनों उतरा भरणी कृतिका और अनुराधा इन नक्षत्रों में मुंडन या लोचकर्म करानेसे इन्द्र भी नहीं जीवता है ॥ १ ॥
पुन:
नवमी य चउत्थि चऊदिसि अट्ठमि छुट्टी अमावसी तिहिया । वारा सनि रवि मंगल, मुंडण लोयं न कारेई ॥ २ ॥
भावार्थ- नवमी चतुर्थी चतुर्दशी अष्टमी षष्ठी और अमाचाया इन तिथियों में, तथा शनिवार रविवार और मङ्गलवार -इन में मुंडन या लोच कराना नहीं ॥ २ ॥
पुनर्वसु तथा पुष्य, धनिष्ठा श्रवणे सदा । एभिश्चतुभि र्धिष्णैश्च, लोचकर्म तु कारयेत् ॥ ३॥ भावार्थ- पुनर्वसु पुष्य धनिष्ठा और श्रवण इन चारों ही नक्षत्रों में लोचकर्म करना अच्छा है ||३||
भद्रा ( विष्टि करण ) फल
किण्हा ततिय दसमी, सत्तमि चवदसी धुरहि कल्लाणी । धवलं ते चउ गारिसि, अट्ठमि पुत्रिम पढमाए । १६६ ॥
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ज्योतिषसार ।
•
राउदसणे
जाए ।
मिसि भद्दा जय दीहं, दोहा भद्दाइ जय निसा होइ 1 तह दूसणोइ न हवइ, सव्वे कज्जाइ सारंति ॥ २०० ॥ रिपुसिंहार विवाद भयभीया विज्जु बुलावणाए, भद्दा सिट्ठाइ देवीपूया पमुहं, रिक्खाबंधेय पहाण, रिउ समए । दीवुच्छवि राज उच्छवि, कल्लाणी नत्थि दोसा यं ॥ २०२ ॥
एयाए ।
२०१ ॥
भावार्थ - कृष्ण पक्ष की तृतीया और दशमी के उत्तरार्द्ध में याने रात्रि में तथा सप्तमी और चतुर्दशी के पूर्वार्द्ध में याने दिन भद्रा होती है। शुक्लपक्ष में चतुर्थी और एकादशी के उत्तरार्द्ध में याने रात्रि में तथा अष्टमी और पूर्णिमाके पूर्वार्द्ध में ( दिन में ) भद्रा होती है। जो रात्रिकी भद्रा दिन में हो और दिनकी भद्रा रात्रिमें हो तो जयकारी है. तब सर्व कार्य आरम्भ कर सकते हैं, कोई भी भद्रा का दोष होता नहीं है। शत्रुका नाश करनेमें विवाद में, भयसे डरने में, राजदर्शन में और वैद्य बोलाने में भद्रा श्रेष्ठ है। देवी देवता के पूजन में, रक्षा बंधन में, ऋतुस्नान में, देव महोच्छव में और रजः ओच्छव ( होली ) में भद्रा का दोष नहीं होता ॥ २०२ ॥
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३० घडी में भद्रा के अंग विभाग
वयण पण. कंठे इग, हियए इग्गार नाहि चउरो य ।
कडि सडयं पुच्छो तिय, कल्लाणी तीस घडियाई ॥ २०३ ॥ मुह हाणि कंठ मिच्चे, लिगह दरिदं च नाहि धी नासं ।" कडि कलह पुच्छि बहु-जय हघय अह रासि सिसिगिणियं ॥ २०४॥
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हिन्दो भाषा-टोका समेतः ।
भावार्थ-प्रथम पांच घड़ी भद्रा का मुख है, पीछे एक घड़ी कंठ है एवं ग्यारह घड़ी हृदय, चार घड़ी नाभि, छ घड़ी कम्मर और तीन घड़ी पूच्छ है ; इस तरह भद्रा की तीस घड़ी के अंग विभाग है,उसका फल-मुख हानिकारक, कंठ मृत्युकारक, हृदय दारिद्रकारक, नाभि बुद्धिनाशकारक, कम्मर कलहकारक और पूच्छ बहुत जयकारी है। भद्रामें चन्द्रराशि गिनना ॥२०३-४
भद्रावासछग वसह मकर कके सग्गे, धण मिणहु कन्न तुल नागे । अलि सिंह कुंभ मीने, मानव लोगम्मि कल्लाणी ॥ २०५ ॥ सुरलोई सुहदाई, आगम सुह नाग मिश्च दुहदाई। तिजि सित छ घड़ी मुहाई, तिघड़ी तम पक्खि अताई ॥ २०६॥
भावार्थ--मेष वृष मकर और कर्क राशिके चन्द्रमा को भद्रा स्वर्गमें, धन मिथुन कन्या और तुला राशिके चन्द्रमाको भद्रा पाताल में, वृश्चिक सिंह कुंभ और मीन राशिके चन्द्रमा को भद्रा मानव लोकमें रहती है। स्वर्गमें भद्रा होतो सुखदायी है, पाताल में भद्रा होतो सुखका आगमन करने वाली होती है और मृत्यु लोकमें भद्रा हो तो दुःखदायी है। शुक्ल पक्षमें ६ घड़ी आदि की और कृष्ण पक्षमें ३ घड़ी अन्त्य की छोड़ना चाहिये इसका कारण नीचे बतलाते है। सित पक्खि सप्पिणीहि, पक्से किसणे हि विच्छकी भणिया। सप्पिणी मुहोइ परिहरि, पुच्छो विच्छीय तिजि भद्दा ॥२७॥
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ज्योतिषसार। वासर सप्पोइ मुही, भद्दा रयणीय हवइ विच्छिया। विधरीया जा भद्दा. सा भद्दा भद्दफलदाई॥ २०॥
भावार्थ-शुक्लपक्ष में भद्रा सर्पिणो संज्ञक हैं और कृष्णपक्ष में वृश्चिकी (विछूनी ) संशक हैं। सर्पिणी का मुख और विछूनी का पूछ वर्जनीय है। पुन:-दिनको भद्रा सर्पिणी मुख है और रात्रिको बिछूनी मुख हैं। विपरीत यांने दिन की भद्रा रात्रि को और रात्रि की भद्रा दिन को हो तो शुभ फल दायक है ।। २०८ ॥ __संमुखी भद्रा विचार.... पुष्वे चवदिसि पढर्म, अहमि अगलेय बीय पुहरम्मि। दक्खणि सत्तमि ति पुहर, पुन्निम नेरइय चउ पुहरं ॥ ६॥ अत्यमिणे चउत्थी पण, दसमी सड पुहर वाईकृणाए । उत्तरि सग एगारिसि, तीया ईसाण अट्ठमयं ॥ २१० ॥
भावार्थ--चतुर्दशी के प्रथम प्रहर को पूर्व दिशा में, अष्टमी के दूसरा प्रहर को आग्नेयकोण में, सप्तमी के तीसरा प्रहर को दक्षिणदिशा में, पूर्णिमा के चौथा प्रहर को नैऋतकोण में, चतुर्थी के पांचवां प्रहर को पश्चिमदिशा में, दशमी के छट्ठा प्रहर को वायव्य कोण में, एकादशीके सातवां प्रहर को उत्तरदिशा में और सृतीया के आठवाँ प्रहर को ईशान कोण में भद्रा संमुखी है। ये गमनादि में वर्जनीय हैं ।। २०६ । २१० ॥
पुनःकिसिणि तिया अग्गी हि, सत्तमि नेरइय दसमि वाए हि । इसाणे चवदिसियं, भहा हवई कणमुहं ॥२१॥
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हिन्दी भाषा टीका समेतः ।
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सुकल चउत्थी दक्खणि, अट्ठमि पच्छिम इगारिसी उत्तरे । पुत्रिम पुन्वदिसे हि, हवप भद्दामुहं तिजयं ॥ २१२ ॥
भावाथ - कृष्ण पक्ष की तृतीया को अग्निकोण में, सप्तमीको नैर्ऋत कोण में, दशमी को वायव्यकोण में और चतुर्दशी को ईशानकोण में भद्रा का मुख होता है। शुक्लपक्ष की चतुर्थी को दक्षिण दिशा में, अष्टमी को पश्चिम दिशा में, एकादशी को उत्तर दिशा है, और पूर्णिमा को पूर्व दिशा में भद्रा का मुख हैं वह गमनादि में वर्जनीय है || २११ || २१२||
"
कुम्भचक्र
कुम्भाकारं चक्क, कारियं रेहा तिरिच्छयं ठवियं
तसेव उद्ध अहियं, अहियं अडवीस रिसि कमलो || २१३|| पुनो अहो नाम, रितो उद्धोइ भाण रिसि ठवियं । गमणो रिसीय जत्थ य, हवए फल कहिय तत्थेव || २१४ || रितो गमण रिक्तं पुन्नो संपुम्नं हवइ लाहोयं । सव्वे जोइस मज्झे, पसंस कुम्भचक्कायं ॥ २१५
भावार्थ - कुम्भ के आकार चक्र बनाकर बिच में एक तिछ रेखा करना उसमें अश्विनी नक्षत्र से एक ऊपर दूजा नीचे, तीसरा उपर चौथा नोचे, इस मुजब अठ्याईस नक्षत्र अनुक्रम से रखना । इसमें नीचे के नक्षत्रों पूर्ण संज्ञक है और ऊपर के नक्षत्रों रिक्त संज्ञक है। गमनादि कार्य में उनके नाम सदृश फल कहना जैसे - रिक्त नक्षत्रों में गमन रिक्त व्यय) होता है। और पूर्ण नक्षत्र में पूर्ण लाभ होता है ।
यह कुम्भ-चक सब ज्योतिश्शास्त्र मध्ये प्रशंसनीय है ।। २१३ से २९५ ॥
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ज्योतिषसारः 1
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यमदंष्ट्रायोग
अणुराहाए बीया, उत्तर तीया मघाइ पंचमिया
।
कर मूला सत्तमिया, अट्ठमि संयुत्त रोहिणिया ||२१६ ||
तेरस चित्ता साई, एए यमदाढजोग दुहदाई | उत्तम कच्छू न काइ, कीरइ नहु जई करइ माई ॥२१७||
भावार्थ-द्वितीया को अनुराधा, तृतीया को तीनों उत्तरा, पञ्चमी को मघा, सप्तमी को हस्त और मूल, अष्टमी १ को रोहिणी, त्रयोदशी को चित्रा और स्वाति हो तो यमदाढ्योग र होते हैं वह दुःखदायी हैं इसमें उत्तम कार्य कुछ भी करना नहीं, यदि करतो मरण होता है ।। २१६।२१७ ||
चरयोग-
सूरे हि पुठवसाढा, चंदा अद्दाइ भूवि साहाइ ।
बुद्धो रोहिणी सुक्क, मघा सनि मूला हवइ चरयोगा ॥२१८॥
भावार्थ - रविवार को पूर्वाषाढा, सोमवार को आर्द्रार्श, मंगल वार को विशाखा, बुधवार को रोहिणी, शुक्रवार को मघा और शनिवार को मूल नक्षत्र हो तो, चरयोग होते हैं I आरम्भ सिद्धि में "रविवार को उत्तराषाढा और गुरुवार को शतभिषा " इतना विशेष कहा है ॥२१८॥
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नोट- १नारचन्द्र टीप्पन में 'षष्ठी की रोहिणी' लिखा हैं २ उसको 'थमकतरी योग' भी कहते हैं ।
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हिन्दी भाषा-टीका समेतः।
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तिथि कालपाश-- पुव्वे पच्छिम नंदा, अगने वायव्व कूण भद्दाए । उत्तरि दक्खणि जाया, नेरय ईसाण रित्ताए ॥२१॥ पुना नग आगासे, एएहि कालपास तिहि जुत्ता। कालो समुह पासं, कज वजोइ गमणाई ॥ २२० ॥
भावार्थ-पूर्व पश्चिम दिशा में नंदा तिथि को, आग्नेय वायव्य कोण में भद्रा तिथि को, उत्तर दक्षिण दिशा में जया तिथि को, नैर्शत ईशान कोण में, रिक्ता तिथि को, आकाश और पाताल में पूर्णा तिथि को कालपाश हैं ; संमुख कालपाश हो तो, गमनादि कार्य नहीं करना ॥ २१६२२० ।।
वारकालपाश--- वारेहि रवि उत्तरि, सोमे वाए हि भूम पच्छिमयं। बुध नेरय गुरु दक्खणि, अम्गी भिगु पुष्वि सनि वज ॥२२१।।
भावार्थ--रविवार को उत्तर दिशा में, सोमवार को वायव्य कोण में, मंगलवार को पश्चिम दिशा में, बुधवार को नेत कोण में, गुरुवार को दक्षिण दिशा में, शुक्रवार को अग्निकोण में और शनिवार को पूर्व दिशा में कालपाश है, वह गमनादि कार्य में वर्जनीय है ॥ २२१ ॥
छींक विचारपुल्वे हि छोया मरणं, अग्गी दुइदेई दक्खणे कलहं । नेरय किलेस किरइ, भमवु अही छीया ए ॥ २२२ ॥
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ज्योतिषसारः 1
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पच्छिम भोयणमिट्ट, वाएं बहुपेम उत्तरे सुहयं । ईसाण कूण संपय, छीया गयणे हि जयलाह ॥ २२३ ॥ छीया सच्चा तिविहा, बाला नर इत्थि अप्पणो भणीया बुड्डो वाहि सलेसम, बहुए छीए निरत्था यं ॥ २२४|| भावार्थ -पूर्व दिशा में छींक हो तो मरण भय होवे, अग्निकोण में छींक हो तो दुःखदायी होवे, दक्षिण दिशा में कलहकारी नैर्ऋत में क्लेशकारी और अधिक भय देने वाली हैं पश्चिम में छींक हो तो मिष्ट भोजन मिले, वायव्य कोण में बहुत प्रीतिकारों, उत्तर दिशा में सुखकारक और ईशान कोण में छींक हो तो संपत की प्राप्ति होती है, गमन करने से जयलाभ होता है । बालक नर स्त्री और अपनी ये तीन प्रकार की छींक सच्ची कही है, बुढ़ा व्याधिग्रस्त और श्लेष्मवाले इन्हों की और अधिक छींक ये सब निरर्थक जानना || २२२ से २२४ ॥
I
६६
विजय मुहूर्त्त -
घडिया हीण दु पुहरो, दु पुहरो घडिय होइ अहियारो । विजयोइ नाम जोगं, सव्वे कज्जाइ साज्झेई || २२५ ॥
भावार्थ - दो प्रहर में एक घड़ी न्यून और एक घड़ी अधिक एवं दो घड़ी मध्याह्न विजयनामा योग होता है । उसमें सब कार्य करना प्रशस्त हैं ।। २२५ ।।
T
पुनः
अत्थं गएहि भाणी, गयणे ताराइ पिक्ख एके वि । विजयोइ नाम योगं, हवत व कज्ज सविसेसं ॥ २२६ ॥
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हिन्दी भाषा - टीका समेतः ।
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भावार्थ- सूर्यास्त के बाद आकाश में एक भी तारा देख पड़े जब तक विजययोग होता है इसमें भी मांगलिक कार्य विशेतया करना अच्छा हैं ॥ २२६ ॥
प्रस्थान मुहूर्त्त विचार
यात्रा मुहूर्त में यदि कार्य वशात् गमन में विलम्ब हो तो जो अपने मन की प्रिय वस्तु हो उसका प्रस्थान करना आरम्भ सिद्धि में कहा हैं कि
“प्रस्थानमन्तरिह कार्मुकपञ्चाशत्याः,
पाहु धनुर्दशकतः परतश्च भूत्यैः । सामान्य १ माण्डलिक २ भुमिभुजां, ३ क्रमेण,
स्यात् पञ्च सप्त दश चात्र दिनानि सीमा ॥१॥"
अपने घर से प्रस्थान ५०० धनुष ( २००० हाथ ) दूर पर रखना चाहिये, या १० धनुष ( ४० हाथ ) से अधिक दूर रखना मगर न्यून नहीं रखना, प्रस्थान करने बाद सामान्य लोग पांच दिन एक जगह ठहरे नहीं, मण्डलिक राजा सात दिन और महाराजा दश दिन एक जगह ठहरे नहीं, इससे अधिक दिन रह गया तो दूसरा शुभ मुहूर्त में गमन करें
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प्रस्थान निषैध
अद्द मघा असलेसा, भरणी कित्तिय विसाह उत्तरयं । चवदिसि पुन्तिम अमावस, रवि भूसनि गमण न कारई ॥२२७॥
भावार्थ - आर्द्रा मघा आश्लेषा भरणी कृत्तिका विशाखा
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ज्योतिषसारः।
तीनों उत्तरा चतुर्दशी पूर्णिमा अमावास्या रविवार मंगलवार और शनिवार इनमें गमन (देशाटन ) करना नहीं ॥ २२७ ।।
मध्यम प्रस्थान-- साई पुव्वा रोहिणि, सवणं चित्ता धणि सियभिसयं । चउत्थी छट्ठी अट्ठमि, नवमी बारिसी मजिवासिया ॥२२८।। भावार्थ-स्वाति तीनों पूर्वा रोहिणी श्रवण चित्रा धनिष्ठा शतभिषा चतुर्थी षष्ठी अष्टमी नवमी और द्वादशी इनमें प्रस्थान मध्यम फलदायक है ।। २२८ ॥
उत्तम प्रस्थान--- मिगसिर मूल पुणवसु, हत्था जिट्ठाइ पुक्ख अणुराहा । रेषय अस्सणि रिक्खं, वारा ससि मुक्त गुरु बुद्ध ॥२२६॥ पडिवो बिय तिय पंचमि; दसमी पगारिसि य तिरिलिया । सत्तमि जोगे गमणं, उत्तम कहियाइ विबुहे हि ॥२३०॥
भावार्थ-मृगशीर्ष मूल पुनर्वसु हस्त ज्येष्ठा पुण अनुराधा रेवतो और अश्विनी ये नक्षत्र, सोम बुध गुरु और शुक्र ये वार तथा १।२।३।५। ७ । १० । ११ । १३ ये तिथि, इन्होंके योग में गमन करना उसम हैं ऐसा विद्वानोंने कहा है ॥ दिनशुद्धि प्रन्थमें कहा है कि'पुन्वदिसि सव्व कालं, रिद्धि निमिरा विहारसमयमि। गुस्सस्सिणि मिग हत्या रेवइ सवणा गहेअन्वा ॥ १ पूर्व दिशा तरफ कोई भी समयमें धन उपार्जनके लिये जाते
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हिन्दी भाषा-टीका समेत: समय पुष्य अश्विनी मृगशीर्ष हस्त रेवती और श्रवण ये छ नक्षों हो तो गमन करना लाभ है ॥ नारचंद्र टीप्पनमें भी“चुथि नुमि चऊदिसिइ, जइ सनिधार लहति ।। एकइ कजिइ चलीया, कज सयाइ करति ॥१॥"
चतुर्थी नवमी और चतुर्दशीको शनिवार हो तो एकही कार्यके लिये चले तो सभी ही कार्य कर आवे ॥
तारा बल--- ताराबल हि तमपक्खि, गणियं रिक्ख जम्म लेइ दिणरिक्खं । नन्दोइ भाग ठवियं, वडो अङ्काइ फल कहियं ॥ २३१ ॥ उत्तम मज्झिम अधमा, तारा कहिएहिं तिविह हीरेहिं । उत्तम चउ सड नवमी, मज्झिम अहमि य बीय पढमं ॥ २३२ ॥ अधम तीय पण सत्तम, चन्दबल तप पक्खे हि नहु होई । ताराबल गहियं, कंत विदेसि हि जं धरणी ॥ २३३ ॥ .
भावार्थ-कृष्ण पक्षमें ताराका बल देखना चाहिये, जन्म नक्षत्रसे दिन नक्षत्र पर्यन्त गिनना उसको नवसे भाग देना शेष रहें वे तारा जानना। श्री हीर ज्योतिषीने उत्तम मध्यम और अधम ये तीन प्रकारकी तारा कही है-चौथी छटी और नवमी तोरा उत्तम है, पहिली दूजो और आठवीं तारा मध्यम है, तीसरी पांचवीं और सातवीं तारा अधम है । कृष्ण पक्ष चन्द्र का बल नहीं होता जिससे. ताराबल ग्रहण करना जैस-विदेशसे आये हुंए:पतिको स्त्री प्रेमसे ग्रहण करे वैसे ॥ २३१ से २३३ ॥
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ज्योतिषसारः। ~~~mmmmmmmmmmwwwrav..
ताराके नामशान्ता मनोहरा क्रूरा, विजया कुकुलोद्भवा । पद्मिनी रक्षसी वीरा, आनन्दा नवमी स्मृता ॥ २३४ ।
भावार्थ-पुर्वोक्त क्रमसे गिननेसे ये तारा होती हैं- शान्ता मनोहरा क्रूरा विजया कुकुलोद्भवा पग्रिमी राक्षसी वीरा और आनन्दा ये नाम हैं । इनका नाम सदृश फल जानना ।। २३४ ।।
रवि शुभाशुभइग बिय चउ पण सत्तम, अट्ठम नवमी य बारमो सूरो। वाही विदेसदाई, लाहो तिय सड दस इगारं ॥ २३५ ॥
भावार्थ-अपना जन्म राशिसे सूर्य- पहिला दूजा चौथा पांचवां सातवां आठवां नववां और बारहवां हो तो अशुभ है व्याधि करे और देशाटन करावे । तीसरा छठा दशवों और, ग्यारहवां हो तो शुभ है लाभ करे ।। २३५ ॥ - चन्द्रमा शुभाशुभससि जम्म करइ पुटि, बीउ मज्झिमि य तिय निवमाण। कीरइ कलह चउत्थ, पंचम अत्थोइ भंसाय ॥ २३६ ॥ छटो लच्छि अपह, सत्तम निवपूय अढ दुहदाई । नवणि सिद्धि दसम, रुदं जय बार मिश्चाय ॥ २३७ ।। - भावार्थ पहिला चन्द्रमा हो तो पुष्ठी करे, दूसरा मध्यम फल क्षयक, तीसरा नृपमान कारक, चौथा कलहकारी, पाचवां अर्थनाश कारक, महा लक्ष्मी दायक, सातवांराज्यमान, आठवां दुःख
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हिन्दी भाषा-टोका समेतः। दायी है, नववां और दशवां सिद्धि कारक ग्यारहवां जयकारी, बारहवां मृत्यु कारक हैं ॥२३६-२३७ ।।
ससि पढम तिय सड सग, दसमं इग्गार निश्च सुहदाई । तह धवलं बीय पण नव, चन्दो चउ अट्ट बार दुहयं ॥ ५३८ । __ भावार्थ-अपना जन्म राशिसे चन्द्रमा-पहिला तीसरा छट्ठा: सातवां दशवां और ग्यारहवां निश्चयसे सुखदायक है, एवं शुक्लपक्षमें दूसरा पाचवां और नवां भी सुखदायक है, चौथा आठवां और बारहवां सर्वदा दुःख कारक है ॥ २३८ ॥
चन्द्रवास फलछग सिंह धन पुब्बइ, मकरे विस कन्न दक्खिणे वासो। तुल कुम्भ मिथुन पश्चिम, उत्तरि ससि मीन अलि करके ।२३।। ससि सम्मुह धन लाहो, दाहिण करएहि सव्व संपइया । पुढेइ चन्द मरणं, वामं करएहि धण होणं ॥ २४० ॥ __ भावार्थ-मेष सिंह और धन राशिका चन्द्रमा पूर्व दिशा में, वृष कन्या और मकर राशिका चन्द्रमा दक्षिण दिशामें, तुला कुंभ और मिथुन राशिका चन्द्रमा पश्चिम दिशामें, मीन वृश्चिक और कर्क राशिका चन्द्रमा उत्तर दिशा में रहता हैं । सम्मुख चन्द्रमा हो तो धनका लाभ करे, दक्षिण तर्फ होतो सर्व सम्पत्ति देवे, पूठे हो तो मृत्यु करे और बांये तर्फ हो तो धन हानी करे ॥ २३६-२४०।।
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ज्योतिषसारः।
भौम शुभाशुभजम्मो बिय चउ पण सग, अट्ठम नवमो इ बार भूम दुहं । तिय सड दसम इगारस, भूमो धण धन्न बहु कोरी ॥ २४१ ॥
भावार्थ-अपना जन्म राशिसे मङ्गल- पहिला दूजा चौथा पांचवां सातवां आठवां नववां और बारहवां हो तो दुःखदायी है तीसरा छटा दशवां और ग्यारहवां हो तो धन धान्य का लाभ कारी होता है ॥ २४१ ॥ .' बुध शुभाशुभबारस इग नव पण सग, बुद्धो भयभीय सव्व कालायं । बिय तिय चउ सड अट्ठम, दसमं एगार बुध सुहं ॥ २४२ ।।
भावार्थ-अपना जन्म राशिसे बुध-बारहवां पहिला नववा पांचवां और सातवां हो तो सर्वदा भयकारी है । दूसरा तीसरा चौथा छटा आठवां दशवां और ग्यारहवां सुखकारी है ॥२४२।।
गुरु शुभाशुभ ---- बारसमो दसमो चउ, जम्मो सड अट्ट तीय गुरु दुहुओ। नव बिय पण सग गारस, सुरुगुरु सुह देइ बहुओयं ।। २४३ ॥ . भावार्थ-अपना जन्म राशिसे गुरु-बारहवाँ दशवां चौथा पहिला छट्ठा आठवां और तीसरा दुःखदायी है । नववां दूसरा पांचवां सातवां और ग्यारहवां बहुत सुखकारक है ।। २४३ ॥ - शुक्र शुभाशुभ-- सग बारस सड तिय नव, सुक्को भट्ठोइ सव्व कजाई । इग बिय चउ पण अद्रुम, दसम एगार भिगु सुहओ । २४४ ॥
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हिन्दी भाषा - टीका समेतः
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७३
भावार्थ अपना जन्म राशिले-शुक्र सातवां बारहवां छा तीसरा और नववा हो तो सर्व कार्य नाश करे चौथा पांचवां आठवां और ग्यारहवां हो तो सुखकारी है || २४४ ॥
पहिला दूसरा
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शनि शुभाशुभ -
मन्दो इग दुग चउ लग, नवमो अड दसम बार सुह हरई । तीओ पण सड गारस, अत्थो लाभं च रविपुत्तो ॥ २४५ ॥ भावार्थ-अपना जन्म राशिले शनि- पहिला दूसरा सातवां आठवां नववां दशवां और बारहवां हो तो सुखका नाश करे। तीसरा पांचवां छुट्ठा और ग्यारहवां हो तो अर्थका लाभ
चौथा
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राहु केतु शुभाशुभ -
इग बिय ति पण सत्तम, अट्ठम नवमोइ बार राहु दुक्खं । चउरो सड़ दस गारस, राहो केऊ च सुहदाई ॥ २४६ ॥
भावार्थ--- अपना जन्म राशिसे राहु और केतु- पहिला दूसरा तीसरा पांचवां सातवां आठवां नववां और बारहवां हो तो दुःखदायी है । चौथा छट्ठा दशवां और ग्यारहवाँ हो तो सुखकारकः हैं ॥ २४६ ॥
नवग्रह राशि प्रमाण
रवि मासं इग रासी, हवई दो दिवस सवा सिसियायं । मास दवड्ढ मङ्गल, बुद्धो रासीय दिन अढारं ॥ २४७ ॥ सुरगुरु तेरस मासं दीहा पणवीस सुकं संखायं । समि मास तिस भणिय, राहो मासं च अढारं ।। २४८
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७४
ज्योतिषसारः।
. भावार्थ-सूर्य एक राशि पर एक मास रहता है, चन्द्रमा सवा दो दिन, मंगल डेढ मास, बुध अठारह दिन, गुरु तेरह मास शुक्र पञ्चीस दिन, शनि तीस मास और राहु केतु अठारह मास एक राशि पर रहते हैं ॥२४७-२४८ ॥
पुनः ग्रन्थान्तरे-. . इग रासि मास तिय गह, सूरं बुध सुक्क दवड्ड मङ्गलयं। सनि तिस तेर गुरु तम, अढारह ससि सवा दो दिवसं ॥२४८॥ । भावार्थ-एक राशि पर सूर्य बुध और शुक्र ये तीनों ग्रह एक एक मास रहते हैं, मङ्गल डेढ मास, शनि ३० मास, गुरु १३ मास, राहु केतु १८ मास और चन्द्रमा सवा दो दिन एक राशि पर रहता है ॥ २४६ ॥
नवग्रहके पाये (नवमांश) का प्रमाणरविघडिय वीस दिन तिय, इग पाय सोम पन घडियाई। . भूमो इग पय पण दिण, बुद्धो दिण बीय इग पाए ॥ २५० ॥ गुरु इग पाय पमाणं, दोहा तेयाल घडी वीसाई। वीस घडी दिण तिय भिगु, मन्दो दिण एग सउ पाए ॥ २५१ ॥ गहो इ केतु उभयं, वासर सट्ठीयए पाएहिं। भणियं जोइस मज्झे, नवग्गह पाए पमाणमि ॥ २५२ ॥ ____ भावार्थ-सूर्य के प्रत्येक पाये ( नवमांश ) ३ दिन और २० घडीके है, चन्द्रमाके १५ घडीके, मङ्गलके ५दिनके, बुधके २ दिनके, गुरुके ४३ दिन और २० घडीके, शुक्रके ३ दिन और २० घडीके, शनिके १०० दिनके और राहु केतुका प्रत्येक नवांश ६० दिनके हैं।
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हिन्दी भाषा - टीका समेतः 1
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इस मुआफिक ज्योतिश्शास्त्र मध्ये नवग्रह के पायेका प्रमाण कहा है || २५० से २५२ ॥
राशि पर बाद कौनग्रह कब फल दायक है
लग्गे य फलं रवि भू, अद्धं छेयम्मि फलइ सनि चन्द्र । बुध सुक्के फल अर्द्ध, गुरुयं फलइ उत्तरयं ॥ २५३ ॥
भावार्थ- सूर्य और मङ्गल राशिको आदिमें, शनि और चंद्रमा अर्द्ध राशि भोगने पर, बुध और शुक्र राशिके मध्य में और गुरु राशिके उत्तरार्द्ध में फल दायक है ॥ २५३ ॥
पंच ग्रह वक्री तथा प्रतीचारके दिन संख्या और फलतेहुत्तरि तेवीसा, इग सउ तेरुत्तराइ पइताला ।
इग सय चाला मंङ्गल, पञ्च गह वक्कीय दिणमाणा ॥ २५४ ॥ तह अइयोरा भणिय, मङ्गल पमुहा य पनर दसहाय । पंणयाला पदसाय', अन्तो नव वीस वासरयं ॥ २५५ ॥ भूमोर अणावुट्ठी, बुद्धो वक्कीय रस खय'कारी । गुरुवक्की सुभिक्खं, वक्की भिगु करइ जण सुहय' ॥ २५६ ॥ मन्दो की कीर, पुहवी रोराइ रुण्ड मुण्डयं । धणं धन्न वत्थ नासइ, हवय रोगं बहू लोए ॥ २५७ ॥
भावार्थ - मङ्गल ७३ दिन, बुध २३, गुरु ११३ दिन, शुक्र ४५ दिन और शनि १४० दिन वक्री रहते है। तथा मङ्गल १५ दिन बुध १० दिन, गुरु ४५ दिन, शुक्र १० दिन और शनि १८० दिन अतीवारी रहते है ||
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ज्योतिषसारः। मङ्गल वक्री हो तो अनावृष्टि, बुध वक्री हो तो रस भयकारी,. गुरु वक्री हो तो सुभिक्ष, शुक्र वक्री हो तो मनुष्य सुखकारी और. शनि वक्री हो तो पृथ्वी रुण्ड मुण्ड करे, धन धान्य वस्तुका नाश करे और लोगोंमें रोगका उपद्रव होवे ।। २५४ से २५७ ॥
रविवास चक्ररविचक्क सवइ कज्जे, जोइजइ सूररिक्ववियायं । गिणियाई जम्मरिसियं, कहियं फल नारिनरअंगे ।। २५८ ॥ तिय सिरि तियमुहि खंध दु, बाहू दो हत्थ दोइ पण हियय नाही गुज्मो इग इग, जानू दो पाय सडयायं ॥ २५६ ।। रवि मत्थएइ रज्जं, वयणे रस मिट्ट कन्धि निवमाणं । थान भट्ठो बाहू, चोरभयं हत्थि. लच्छि हियं ॥ २६० ॥ नहि सुह गुज्मि असुह, जाणूं दिसि गमण अप्प आउ पए। रवि वासइ चकं, ईय भणियं पुवाइ जोइसिय ॥ २६१ ॥
भावार्थ-रविचक सर्व कार्यमें देखना चाहिये, सूर्य नक्षत्र से जातक के जन्म नक्षत्र पर्यन्त गिनना और नर नारी के अङ्गविभागमें--- ३ मस्तक पर, ३ मुख पर, २ स्कन्ध पर, २ हाथ पर ५ हृदय पर, १ नाभि पर, १ गुह्य स्थान पर, २ जानु पर, और ६ पांव पर इस मुजब अनुक्रमसे रखकर फल कहना, यथा--- मस्तक पर रवि हो तो राज्य प्राप्ति, मुख पर हो तो मिष्ठ भोजन की प्राप्ति, स्कन्ध पर हो तो नृपमान हो, शाहु पर हो तो स्थान भ्रष्ट, हाथ पर होतो चोर भय, हृदय पर हो तो लक्ष्मी प्राप्ति, नाभि पर हो तो सुख मिले, गुह्य पर हो तो अशुभ हो, जानु पर
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हिन्दी भाषा-टीका समेतः।
हो तो विदेश गमन हो और पांव पर हो तो अल्प आयुष हो । यह रविवास चक्र प्राचीन ज्योतिषीयों ने कहा है ॥ २५८ से २६१ ।।
चन्द्रवास चक्रससिचक्क सवइ कर्ज, जोइजह चन्दरिक्खठवियाई। गिणियाई जम्म रिलिय, कहिय फल नारिनरअंगे ॥ २६२ ॥ सड धयणे सड पुढे, हत्थे सडयाइ गुज्झ तीयाई। तिय चरण तिय कंठे, सगवीसं रिक्त अणुक्कमसो ॥ २६३ ।। ससि वयणि हाणि कीरइ, धन लाहो पुहि हत्थि भयं निवय। गुज्मे हि निवमाणं, चरणं ठिय भङ्ग कठि सुहं ॥ २६४ ॥
भावार्थ-चन्द्रचक्र सर्व कार्य में देखना चाहिये, चन्द्रनक्षत्र से जातकके जन्म नक्षत्र पर्यन्त गिनना और नर नारीके अङ्गवि. मागमें- ६ मुख पर, ६ पृष्ठ पर. ६ हाथ पर, ३ गुह्य पर, ३ पांव पर और ३ कंठ पर, इस अनुक्रमसे स्थापिर कर फल कहनाचन्द्रमा मुख पर हो तो हानि करे, पृष्ठ पर हो तो धन लाभ करे, हाथ पर हो तो राज्य भय, गुह्य पर हो तो नृपमान, चरन पर हो तो परिभ्रमण और कंठ पर हो तो सुख हो । २६२ से २६४॥ १. भौमवास चक्र
भूक्क सवइ कजे, जोइजइ भूमरिक्स उवियाई। गिणियाई जम्म रिसिया, कहिय फल नारिनर अंगे॥ २६५ ।। तिय वयणे तिय नयणे, तिय सिरं चड करे हि दो कंठे। हियय पर्ण तिय गुह्ये, पाए चसारि सगवीसं ॥ २६६ ॥ ..
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ज्योतिषसारः। भूमेह वयण रोग, नयणे सुह होइ मत्थए रज्जं। कर कठे रोग धणु हिय, गुज्झे परभोग गमण पए । २६० ।।
भावार्थ-भौम चक्र सर्व कार्यमें देखना चाहिये; भौम नक्षत्र से जातकके जन्म नक्षत्र पर्यन्त गिनना और नर नारीके अङ्ग विभागमें- ३ मुख पर, ३ नेत्र पर, ३ मस्तक पर, ४हाथ पर, २ कंठ पर, ५ हृदय पर, ३ गुह्य पर, और ४ पांव पर, इस अनुक्रम से स्थापित कर फल कहना- भौम मुख पर हो तो रोग, नेत्र पर हो तो सुख, मस्तक पर हो तो राज्य, हाथ और कंठ पर हो तो रोग, हृदय पर हो तो धन, गुह्य स्थान पर हो तो परस्त्री लंपट और पांव पर हो तो देशाटन हो ॥ २६५ से २६७ ॥
बुधवास चक्र बुहचक सवइ कज्जे, जोइज्जइ बुद्धरिक्ख उवियाई।। गिणियाई जम्म रिसिय), कहिय फल नारिनर अंगे॥२६८।। चउरो सिरि तिय वयणं, चड कर वामे हि चड करे दहिणे। पण हियय हग गझे, तिय तिय पय वाम दहिणे हि ॥ २६६। बुध सिरे भू हवई, वयणे मिठुन वाम कर कट्ट। कर दाहिण हियए सुह, गुज्झ रोगं पये भमणं ॥ २७० ॥ __ भावार्थ-बुध चक्र सर्व कार्य में देखना चाहिये, बुध नक्षत्र से जातकके जन्म नक्षत्र पर्यन्त गिनना और नर नारीके अङ्ग विभागमें- ४ मस्तक पर, ३ मुख पर, ४ बांये हाथ पर, ४ जिमर्ने हाथ पर, ५ हृदय पर, १ गुह्य पर, ३. बांये पांव पर और ३ जिमन पांव पर, इस अनुक्रमसे स्थापित कर फल कहना-- बुध
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हिन्दी भाषा टीका समेतः ।
मस्तक पर हो तो राज प्राप्ति, मुख पर हो ती मिष्ठान्न प्राप्ति, बांये हाथ कंठ जिमना हाथ और हृदय पर हो तो सुख, गुहास्थान पर हो तो रोग और पांव पर हो तो देश भ्रमण हो २६८ से २७० ||
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गुरुवास चक्र
गुरुचक्क सवइ कज्जे, जोइज्जइ गुरुरिक्वठवियाई ।
गिणियाई जम्म रिलिय, कहिय फल नारिनर अगे ॥ २७२ ॥ चउ सिरि चर कर दाहिणि, कंठे इग पण हिएहिं सड पाए । चउरो हि वाम करयं, नयणे तिय रिक्ख सगवीसं ॥ २७२ ॥ गुरु मत्थर हि लाभ: दाहिण कर कंठ हियय कलाणं । पाए विदेसगमणं, वामङ्कर असुह नयण सुह ॥ २७३ ॥
भावार्थ- गुरु चक्र सवं कार्य में देखना चाहिये, गुरुनक्षत्र से जातक के जन्म नक्षत्र पर्यन्त गिनना और नरनारीके अंग विभाग में- ४ मस्तक पर, ४ जिमना हाथ पर, १ कंठ पर, ५ हृदय पर, ६ पांव पर, ४ बांये हाथ पर, ३ नेत्र पर, इस मुजब अनुक्रम से स्थापित कर फल कहना- गुरु मस्तक पर हो तो लाभ, जिमना हाथ कंठ और हृदय पर हो तो कल्याण, पांव पर हो तो विदेश गमन, बांये हाथ पर हो तो अशुभ और नेत्र पर हो तो सुख हो
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शुक्रवास चक्र
भिगुचक सवह कज्जे, जोइज्जइ सुकरिक्वठवियाई । गिणियाई जम्मरिसिय, कहिय फल नारिनर अगे ॥ २७४ ॥ तिय मुहं पण सिरय, सड पाए चउ करे हि दक्खणय' । हियथे बीय ठवेय, चड कर वामें हि तिय गुज्म ।। २७५ ॥
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ज्योतिषसारः I
भिगु वयणे धणुनासा, मत्थय लाभं च पाइ-बुहदाहा
कर दाहिणे इ हियय, वाम करें गुज्झे जय लाभ || २७६ ।। भावार्थ-शुक्र चक्र सर्व कार्य में देखना चाहिये, शुक्र नक्षत्र से जातक के जन्म नक्षत्र पर्यन्त गिनना और नर नारीके अङ्ग विभागमें-- ३ मुख पर, ५ मस्तक पर, ६ पांव पर, ४ जिमना हाथ पर, २ हृदय पर, ४ बांये हाथ पर और तिन गुहा भाग पर, इस अनुक्रमले स्थापित कर फल कहना शुक्र मुख पर हो तो धननाश करे, मस्तक पर हो तो लाभ, पांव पर हो तो दुःखदायी, जिमना हाथ हृदय बांये हाथ और मस्तक इतने पर हो तो जय लाभ करे। शनिवास चक्र -
सनिचक्क सवर कज्जे, जोइज्जइ मन्दरिक्त उवियाई ।
गिणियाई जम्म रिसिय, कहिय फल नारिनर अते ।। २७७ ॥ इग मुहि चड दक्षिण करि, पाए सड एहि वाम कर चउरों । पण हियए तीयं सिरि, लोयण बीए हि गुज्झ दुगं ॥ २७८ ॥ सनि वयणे इ विरोधं, दक्खिण करि खेम पाइ परिभ्रमणं । चाम करे चल चित्त, हियए हेलाई सुह हवई ॥ २७६ ॥
मत्थेइ भूवमाणं, लोयण सोहग्ग गुज्झि किं असुहं । सनिवासय चक्क, इय भणियं पुव्वाइ जोइसियं ॥ २८० ॥
भावार्थ- शनि चक्र सर्व कार्यमें देखना चाहिये, शनिनक्षत्र से जातक के जन्म नक्षत्र पर्यन्त गिनना और नर नारीके अङ्ग विभागमें- १ मुखपर, ४ जिमना हाथ पर, ६ पांव पर, ४ बांये हाथ पर, ५ हृदय पर, ३ मस्तक पर, २ नेत्र पर और २ गुण
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हिन्दी भाषा-टीका सहितः। स्थान पर, इस अनुक्रमसे स्थापित कर फल कहना-शनि मुख पर हो तो विरोध, जिमना हाथ पर हो तो सुख, पांव पर हो तो परिभ्रमण, बांये हाथ पर हो तो चञ्चल चित्त, हृदयपर हो तो सुख होवे, मस्तक पर हो तो नपमान, नेत्र पर हो तो सुख और गुह्य पर हो तो अशुभ होवे, यह शनिवास चक्र प्राचीन ज्योतिषीयोंने कहा है ॥ २७७ से २८० ॥
शनि दृष्टि तिथि फलइग बिय तिय पुव्वे सनि, चउत्थी पञ्च मिय छट्टि दक्खणयं । सग अड नवमी पच्छिम, उत्तरि दह रुद्द बारिसिया ॥ २८१ ॥
भावार्थ-प्रतिपदा द्वितीया और तृतीया को पूर्व दिशामें, च. तुर्थी पंचमी और षष्ठी को दक्षिण दिशामें, सप्तमी अष्टमी और नवमी को पश्चिम दिशामें, दशमी एकादशी और द्वादशीको उत्तर दिशामें शनिकी दृष्टि है ।। २८१ ॥
• राहुकेतुवास चक्रतमचक्क लव कज्जे, जोइजइ राहरिक्ख ठवियाई। गिणियाई जम्मरिलियं, कहियं फल नारिनर अङ्ग ॥ २८२ ॥ तिय मुहि तिय कर सड पय,हियय पणं तिय सिरम्मि चउ चक्खू। तिय गुज्झ सगवीस, जह राहो भणियं तह केऊ ॥२८३ ॥ राहोइ मुहिय रोग, दक्षिण करएहिं सुहं आगमणं। पाए विदेस भमणं, हियए बहु खाससासं च ॥ २८४ ॥ .. मत्थेइ राइदंडइ, सत्तूखय चक्खू गुज्झि गिहकलहं । तमवासइ चक्क, इय भणिय पुवाइ जोइसिय ।। २८५ ।।
भावार्थ-राहु चक्र सर्व कार्यमें देखना चाहिये, राहु नक्षत्र से जातकके जन्म नक्षत्र पर्यन्त गिनना और नर नारीके अङ्गवि. भागमें-३ मुख पर, ३ हाथ पर, ६ पांव पर, ५ हृदय पर, ३ म
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________________ .82 ज्योतिषसारः / स्तक पर, 4 नेत्र पर और 3 गुह्य पर, इस अनुकमसे स्थापित कर फल कहना " जैसा राहुबक कहा है वैसा केतुचक्र भी जानना " राहु मुख पर हों तो रोग, जिमना हाथ पर हो तो सुख पांव पर हो तो विदेश भ्रमण, हृदय पर हो तो बहुत श्वास खांसी हो, मस्तक पर हो तो राजदंड हो, नेत्र पर हो तो शत्रुका क्षय और गुह्य पर हो तो गृहमें कलह हो, यह राहु चक्र प्राचीन ज्योतिषीयोंने कहा हैं / / 282 से 285 / / चन्द्रावस्थापरवास न? मरणं, जय हासो रई य कीड निहा य। भुगत जरा कंपोयं, सुच्छिय बार सम ससि वच्छा / / 286 // घडि दह इग पल पनरस, गिणियं परवास रासि मेसाई। .. पणतीसा सउससि घडी, नाम परिणाम सरिस फलं / / 287 // इति श्री ज्योतिषसारे प्रथम प्रकोण कं समाप्तम् / . भावार्थ-प्रवास नष्ट मरण जय हास्य रति क्रीडा निद्रा भुक्त जरा कम और सुस्थित ये बारह चन्द्र अवस्था है, इनको लानेका प्रकार-सामान्यतया चन्द्र राशिका भोग 135 घडी है उसको बारहसे भाग देनेसे 3 घडी 15 पल होते हैं। इतने समय प्रत्येक अवस्था रहती है / मेषका चन्द्र हो तो प्रवाससे वृष का चन्द्र हो तो नष्ट से, मिथुनका चन्द्र हो तो मरणसे, एवं मोनका चन्द्र हो तो सुस्थितसे आरंभ कर बारह अवस्था गिनना और नाम सदृश फल कहना // 286 / 28 // ॥इति शुभम्।। वीरजिननिर्वाणान्दे, निध्युदधिजिने ( 2446 ) मिते। प्राधज्येष्ठे कृष्णपने, प्रतिपद्गुरुवासरे // 1 // श्रीसौराष्ट्रराष्ट्रान्तर्गत पादलितपुर निवासिना पं० भगवानदासाख्यजैनेन कृतास्य प्राकृतगाथाबद्धज्योतिषहीरे प्रथमप्रकीर्णस्य बालावबोधिका नाम्नी भाषादीका समाप्ता। कालिकातायाम् //