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________________ ४० वत्स रवि राहु स्थिर योग फल मीनाइ तियं भाणो, वच्छो कन्नाइ रासियं तियं । विच्छीइ तियं राहो, वज्जे गिह कम्म तीयायं ॥ १३६ ॥ भाणो वच्छो राहो, संमुह दिट्ठी वि आऊयं हर्छ । पुट्ठेइ धणं खीया, कहियं जोपससत्थम्मि ॥ १३७ ॥ भावार्थ- मीनादिले सूर्य, कन्यादि से वत्स और वृश्चिकादिसे राहु ये तीनों गृहकार्य में छोड़ना चाहिये। सूर्य वत्स और राहु ये समुख हो तो आयुष्य का नाश करता है और पूठे हो तो धनका नाश करता है ऐसा ज्योतिश्शास्त्रों में कहा है ।। १३६- १३७ ।। - ज्योतिषसारः । तिहि अड तेरसि रिप्ता, रेवय जिट्ठा य अद् असलेसा । उफ उसा कित सितमिल, साई गुरुसनि थिवर जोगोयं ॥ १३८ ॥ भावार्थ अष्टमी त्रयोदशी और रिक्ता (४-१-१४) ये तिथि, रेवती ज्येष्ठा आर्द्रा आश्लेषा उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, कृत्तिका, शतभिषा और स्वाति ये नक्षत्र, गुरु और शनिवार इनका स'जोग से स्थिर योग होता है ।। १३८ ।। इसमें अनशन करना, क्षेत्रखेडना व्याधि ऋण और शत्रु का नास करना, युद्ध समाप्ति करना (संधि करना) जलाशय बंधाना इत्यादि में स्थिर योग अच्छा है ऐसा पाकश्री ग्रन्थमें कहा है"अणसण बिल बाहि, रिणं रिउ रण दिव्यं जलासए बंधों । काययो: जजल्स य करणं पुणो नत्थि ॥ १ ॥
SR No.034201
Book TitleJyotishsara Prakrit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagwandas Jain
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year1923
Total Pages98
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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