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________________ ૨૪ ती ज्योतिषसारः । शुभ फल दायक है ॥११३॥ कीलक फल कीलय उत्तरि उफा, जिट्ठा पुव्वे हिं. पूभ दक्खण यं अत्थमिणे रोहणि यं, गमणं वज्जे हिं सव्वे हिं ॥ ११४ ॥ भावार्थ- उत्तर दिशामें उत्तराफाल्गुनी को, पूर्वमें ज्येष्ठा को, दक्षिण में पूर्वा भाद्रपद को और पश्चिम में रोहणी को कीलक है, संमुख कीलक में गमन नहीं करना ॥ ११४ ॥ .. परिघदंड वाहिं अगनि रेहा, कित्ति सग पुचि सग मघा दहिणे । सग अणुसहा पच्छिम, उत्तरि सग धणिट्ठ रिकखाणं ।। ११५ ॥ जे जे पुव्वा उन्तरि, जे जे दहिणे हि पच्छिमे रिक्खा । विवरीया नहु गमणं, परिघं एंसि सिय परिमाणं ॥ ११६ ॥ भावार्थ-चतुष्कोण चक्रमें वायव्य और अग्नि कोण गत एक रेखा देनी, उसमें कृत्तिकादि ० नक्षत्र पूर्वमें, मघादि ७ नक्षत्र दक्षिणमें, अनुराधादि७ नक्षत्र पश्चिम में और धनिष्ठादि ७ नक्षत्र उत्तर में रखना यह परिध दण्ड है, उस को उल्लंघन नहीं करना, जो जो पूर्वोत्तर नक्षत्र हैं और जो जो दक्षिण पश्चिम नक्षत्र हैं उसमें विपरीत गमन नहीं करना; अर्थात् पूर्वोत्तर नक्षत्रोंमें दक्षिण पश्चिम की यात्रा और दक्षिण पश्चिम के नक्षत्रों में पूर्वोत्तर की यात्रा नहीं करना ॥ ११५, ११६ ॥ 1
SR No.034201
Book TitleJyotishsara Prakrit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagwandas Jain
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year1923
Total Pages98
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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