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________________ ३६ ज्योतिषसारः पुनः कहते है पञ्चके पञ्च गुणितं, त्रिगुणं त्रिपुष्करे । यमले द्विगुणं सर्व, हानिवृद्धय दिकं मतम् ॥ १२१ ॥ भावार्थ- सर्व कार्य पञ्चकमें पांचगुना, त्रिपुष्कर में त्रिगु ना और यमल में द्विगुना फलकी हानि वृद्धि होती है ॥ १२१ ॥ त्रिविध दिशा शुल पडिवा नवमी तिही, रिक्खं रोहिणी पुव्वसाढायौं । वारा मन्द सोमं पुत्रं वज्जेइ दिसिसूलं ॥ १२२ ॥ तिहिया पञ्चमि तेरसि, अस्सणि वित्ताय सवणरिक्वाय । वारो हि गुरु कहियं, दक्खणि वज्जे य दिसि सूलं ॥ १२३ ॥ खडि चउद्दिसि तिहिय, सवणं मूलो य पुक्ख दिसियायं । वारं भिगु स्रोय, पच्छिम वज्जेइ दिसिसूलं ॥ १२४ ॥ बीया दसमी तिहिया, रिसिय हत्या य उत्तराफग्गुणी । बुध भोमो वाराय, उत्तरि वज्जेइ दिसिसूलं ॥ १२५ ॥ भावार्थ- प्रतिपदा और नवमी तिथि को, रोहिणी और पूर्वाषाढा नक्षत्रको, शनि और सोमवार को पूर्व दिशामें शूल है उसको गमनादि कार्य में त्याग करना । पश्चमी और जयोदशी तिथिको, अश्विनी चित्रा और श्रवण नक्षत्रको और गुरुवार को दक्षिण दिशा में कूल है । षडी और चतुर्दशी तिथिको, श्रवण मूल और पुष्य नक्षत्रकी, शुक्र और रविवार को : पश्चिम दिशामें शूल है। द्वितीया और दशमी तिथिको, हस्ता और उत्तराफाल्गुनी
SR No.034201
Book TitleJyotishsara Prakrit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagwandas Jain
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year1923
Total Pages98
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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