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________________ ज्योतिषसारः। इस योगका त्याग करने से विजयमाला होती है । अशुभ योगसंवत्त सूल सत्तू, भसमो दण्डो य वजमुसलायं । कालमुही यमघण्टं, यमदाढं काण मिश्चायं ॥ १४६ । जालामुही य खंजो, यमलं उप्पाय कक्कडा जोग। एएहिं जोग सोडस, सव्वे कज्जे हि असुहायं ॥ १५० ॥ भावार्थ-संवर्त शूल शत्रु भस्म दण्ड वज्रमुसल कालमु'खी यमघण्ट यमदंष्ट्रा काण मृत्यु ज्वालामुखी खञ्ज यमल उत्पात और कर्कट ये सोलह योग सभी शुभ कार्यो में अशुभ माने हैं । शुभयोगथिवरो य राजयोग, कुमारयोगं च अमिय सिद्धि जोगं । सव्वंक रवियोग, एएहि हणइ अवजोगं ॥ १५१ ॥ भावार्थ-स्थविर (स्थिर ) योग, राजयोग, कुमारयोग, अमृत सिद्धि योग, सर्वा कयोग और रवियोग ये शुभयोगों है; ये -सभी अशुभयोगों का नाश कर देते हैं ॥ १५१ ॥ त्रिशुद्धियोगहत्युत्तरा तियं मूलं, पुषख धणिट्ठाई अस्सणो रेवइ । 'पडिवा अट्ठमि नवमी, रविसंजोगे सुहा होई ॥ १५२ ॥ बीया नवमी पुषखं, मिगसिर रोहिणि य सवण अणुराहा। चन्दाण य संजोगे, संसय रहियं सुहा होई ॥ १५३ ॥ रेवय मिगसिर अस्सणि, मूलं असलेस उत्तराभहं।
SR No.034201
Book TitleJyotishsara Prakrit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagwandas Jain
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year1923
Total Pages98
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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