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ज्योतिषसार ।
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राउदसणे
जाए ।
मिसि भद्दा जय दीहं, दोहा भद्दाइ जय निसा होइ 1 तह दूसणोइ न हवइ, सव्वे कज्जाइ सारंति ॥ २०० ॥ रिपुसिंहार विवाद भयभीया विज्जु बुलावणाए, भद्दा सिट्ठाइ देवीपूया पमुहं, रिक्खाबंधेय पहाण, रिउ समए । दीवुच्छवि राज उच्छवि, कल्लाणी नत्थि दोसा यं ॥ २०२ ॥
एयाए ।
२०१ ॥
भावार्थ - कृष्ण पक्ष की तृतीया और दशमी के उत्तरार्द्ध में याने रात्रि में तथा सप्तमी और चतुर्दशी के पूर्वार्द्ध में याने दिन भद्रा होती है। शुक्लपक्ष में चतुर्थी और एकादशी के उत्तरार्द्ध में याने रात्रि में तथा अष्टमी और पूर्णिमाके पूर्वार्द्ध में ( दिन में ) भद्रा होती है। जो रात्रिकी भद्रा दिन में हो और दिनकी भद्रा रात्रिमें हो तो जयकारी है. तब सर्व कार्य आरम्भ कर सकते हैं, कोई भी भद्रा का दोष होता नहीं है। शत्रुका नाश करनेमें विवाद में, भयसे डरने में, राजदर्शन में और वैद्य बोलाने में भद्रा श्रेष्ठ है। देवी देवता के पूजन में, रक्षा बंधन में, ऋतुस्नान में, देव महोच्छव में और रजः ओच्छव ( होली ) में भद्रा का दोष नहीं होता ॥ २०२ ॥
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३० घडी में भद्रा के अंग विभाग
वयण पण. कंठे इग, हियए इग्गार नाहि चउरो य ।
कडि सडयं पुच्छो तिय, कल्लाणी तीस घडियाई ॥ २०३ ॥ मुह हाणि कंठ मिच्चे, लिगह दरिदं च नाहि धी नासं ।" कडि कलह पुच्छि बहु-जय हघय अह रासि सिसिगिणियं ॥ २०४॥