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________________ ज्योतिषसारः । सर्वदा आगे कर श्वास संग्रह करता हुआ प्रवेश और गमन करे ॥ ८६ से ८८ ॥ २८ वत्स चक्र वच्छो तिय संकतं, कन्ना तुल विच्छि उग्गए पुव्वं । धन मकर कुंभ दक्खणि, पच्छिम मीने हि छग वसहं ॥ ८६ ॥ मिथुनेइ कर सिंह, उत्तर मुह वच्छ बसइ नहु गमणं । नहु चेई घर बारं, बिंबं निय घरे न पवेसं ॥ ६० ॥ आऊय हरइ संमुह, वच्छो पुट्ठे करेइ धनहाणि । पासेइ वाम दाहिण, कज्जं सव्वे हि सारे यं ॥ ६५ ॥ भावार्थ-कन्या तुला और वृश्चिक ये तीन संक्रांति को पूर्व दिशामें वत्स उगता है, धन मकर और कुभ संक्रांति को दक्षिण दिशामें, मीन मेष और वृष संक्रान्ति को पश्चिम दिशामें, मिथुन - कर्क और सिंह संक्रांति को उत्तर दिशा में वत्स रहता है। सम्मुख वत्स में वास करना या देशाटन करना नहीं, नवीन मंदिर - बनाना नहीं, गृहवास्तु नहीं करना और जिनबिंब प्रवेश अपने घर में नहीं करना । सम्मुख वत्स हो तो आयुष्य का नाश करता है, पूठे वत्स हो तो धन का नाश करता है, बाँय और दक्षिण दोनों तरफ हो तो सब कार्य सिद्ध होते हैं ॥ ८६ से ६१ ॥ शिव चक्र पुव्वाइ पोसमासे, वसए सिव माह फग्गुणि ईसाणे चित्ते वसई उत्तर, वाए वइसाह जिट्ठे हिं ॥ ६२ ॥
SR No.034201
Book TitleJyotishsara Prakrit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagwandas Jain
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year1923
Total Pages98
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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