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ज्योतिषसारः 1
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पच्छिम भोयणमिट्ट, वाएं बहुपेम उत्तरे सुहयं । ईसाण कूण संपय, छीया गयणे हि जयलाह ॥ २२३ ॥ छीया सच्चा तिविहा, बाला नर इत्थि अप्पणो भणीया बुड्डो वाहि सलेसम, बहुए छीए निरत्था यं ॥ २२४|| भावार्थ -पूर्व दिशा में छींक हो तो मरण भय होवे, अग्निकोण में छींक हो तो दुःखदायी होवे, दक्षिण दिशा में कलहकारी नैर्ऋत में क्लेशकारी और अधिक भय देने वाली हैं पश्चिम में छींक हो तो मिष्ट भोजन मिले, वायव्य कोण में बहुत प्रीतिकारों, उत्तर दिशा में सुखकारक और ईशान कोण में छींक हो तो संपत की प्राप्ति होती है, गमन करने से जयलाभ होता है । बालक नर स्त्री और अपनी ये तीन प्रकार की छींक सच्ची कही है, बुढ़ा व्याधिग्रस्त और श्लेष्मवाले इन्हों की और अधिक छींक ये सब निरर्थक जानना || २२२ से २२४ ॥
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विजय मुहूर्त्त -
घडिया हीण दु पुहरो, दु पुहरो घडिय होइ अहियारो । विजयोइ नाम जोगं, सव्वे कज्जाइ साज्झेई || २२५ ॥
भावार्थ - दो प्रहर में एक घड़ी न्यून और एक घड़ी अधिक एवं दो घड़ी मध्याह्न विजयनामा योग होता है । उसमें सब कार्य करना प्रशस्त हैं ।। २२५ ।।
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पुनः
अत्थं गएहि भाणी, गयणे ताराइ पिक्ख एके वि । विजयोइ नाम योगं, हवत व कज्ज सविसेसं ॥ २२६ ॥