Book Title: Jain Siddhanta ke Adhar par Aaj ke Yuga ke Samasyao ka Hal
Author(s): Balchand Malaiya
Publisher: Digambar Jain Siddhakshetra Drongiri Trust
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. 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We shall work with you immediately. -The TFIC Team. Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 --------------------------------------------------------------------------  Page #4 --------------------------------------------------------------------------  Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ vs. The Eternal Law The Parliamentary Law जैन सिद्धान्त के आधार पर आज के युग की समस्याओं का हल By बालचंद मलैया दिवाली १९७२ से लेकर ३१-८-७३ तक के संस्मरण Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Published by : Shri Digamber Jain Sidhakshetra Drongiri Trust P. O. Sendhpa, District Chhaterpur, M. P. First Edition : 1973 Price : Rs. 5.00 Printed by Babulal Jain Phagull, Mahavir Press Bhclupur, Varana si-1 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Dedicate to MAHATMA GANDHI The believer in, The Eternal Law Page #8 --------------------------------------------------------------------------  Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Preface The Eternal law vs. The Parliamentary Law. The law on the basis of which truthful facts, which would culminate into all happiness and peace to a living being, could not be established, is no law; it is a farce to dodge people to put them into acts of passions and luxuries, which have culminated into miseries, from which man today is ailing all over, and against which all remedies so far invented by man, have failed to turn those miseries and restlessnesses into happiness and peace, which have flown away to mars and would never come back again under present circumstances, so far as the parliamentary-mints are continuing to coin passion-laws. Know thee this truth, leave enactments of passion-laws, leave thy passions and indulgence into luxuries fructifying there from, destroy the means of luxuries, if thee is desirous of happiness and peace; otherwise thy acts and actions in passionlaws would bring thee hell of miseries and restlessnesses at the fag-end of thy life. Believe in this eternal truth, act in this, if happiness and peace is the goal of thy life. Tilivillage-Saugor on 17-6-73 on my mind - ५ - Page #10 --------------------------------------------------------------------------  Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना जैन-शासन और उसमें आत्मा का परिणमन ज्ञान देने लेने की वस्तु नहीं है । आत्मा का गुण ज्ञान है जो कि दर्शनरूप समस्त संसार को देखता जानता है, किन्तु संसारी आत्मा सदेवकाल राग, द्वेष, मोहभावों में परिणमन करता है, जिस कारण पुद्गल द्रव्य के सूक्ष्म परमाणु, स्वयं आत्म प्रदेशों में प्रवेशकर, अपने ही स्निग्ध रूक्ष गुणों से स्कंधरूप बनते रहते हैं जिसे कार्मण शरीर कहते हैं और, जिसके आठ भेद हैं; जिन्हें घातिया कर्म - ज्ञानावरण, दर्शनावरण मोहनीय तथा अंतराय कर्म व अघातिया कर्म - वेदनीय, आयु. नाम और गोत्र कहते हैं । ये चार घातिया कर्म आत्मा के शुद्ध दर्शन ज्ञान गुण को आच्छादित कर देते हैं और ऐसा संसारी आत्मा राग, द्वेष, मोह, रूप अज्ञानभाव में सदैव परिणमन करता रहता है । आत्मा का इस प्रकार परिणमन होने से वे चार घातिया कर्म अपने फलरूप चार अघातिया कर्म उपजाते हैं और इन्हीं के फलरूप संसारी आत्मा चार गतियों में भ्रमण करता, छह कायों में शरीर धारण कर, उपजता विनशता रहता है और जन्म जरा व मृत्यु के दुःख सदैवकाल भोगता रहता है । यह क्रिया सदैव जारी रहती है और इसे जीव की क्रमबद्ध पर्याय कहते हैं । आत्मा का शुद्ध दर्शन ज्ञान में आचरण, उसका सत्याचरण है, जिसे धर्म कहते हैं और आत्मा का राग, द्वेष, मोह रूप अंज्ञान में आचरण, उसका असत्याचरण है । सत्याचरण से आत्मा सदेव सुखी होता है और असत्याचरण से आत्मा सदेव दुःखी होता है । सत्य - आचरण में कभी कोई विवाद अथवा समस्याएँ खड़ी नहीं होती और आत्मा के असत्याचरण में विवाद एवं समस्याएँ सदैव खड़ी होती रहती हैं और वे आत्मा के असत्याचरण की तीव्रता में सदेव बढ़ती ही जाती हैं । आज जगत् में मनुष्य जाति में असत्याचरण का भीषण प्रकोप है, जिस कारण से वह मनुष्य जाति भीषणता से विवाद समस्याओं में उलझती जाती है । असत्याचरण भी बढ़ता जाता है और उसी प्रकार मनुष्य जाति का विवाद समस्याओं में उलझना भी बढ़ता हो जाता है । ज्ञान एवं सत्य को न जान मनुष्य जाति का लक्ष्य सत्याचरण की ओर कहीं भी नहीं है । Gamb मलय तिलोग्राम - सागर २१-६-७३ ७ Page #12 --------------------------------------------------------------------------  Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयक्रम १. जीव द्रम्य चैतन्य गुण रूप है अथवा अन्य गुण भी है २. दिवाली विचार ३. आत्मा में विचारों का परिणमन ४. Blood Sucking Vars ५. सुख किसे कहते हैं ६. जीव दो प्रकार के होते हैं ७. स्वसमय और परसमय 6. Today's News ९. Ye-fellow Beings १०. The Empire of Jain-Sindhant ११. Acts and Actions under Passions १२. Passion Laws १३. A fool, his foolishness his acts and Actions under foolishness, and its effects १४. The truth vs. the Untruth १५. जैन दर्शन १६. शुद्ध आत्मा (परिभाषा) १७. जैनशासन व नागरिक १८. आज देश का नागरिक १९. Acts and Action of Worldly Soul २०. कर्ता और कर्म २१. भेद विज्ञान २२. संस्मरण २३. आज का युग २४. आज का पृथक्तावादिता का युग २५. अनुशासन Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. मिष्यास्वव सम्यक्त्व २७. अभोपयोग २८. Country ruled by Jackal Laus २९. What is English Language ३०. देश में राजा वर्ग बनाम प्रजावर्ग ३१. अत्याचार और अत्याचारी ३२. समारी जीव का परिणमन ३३. देश में वामन की गरीब जनता पर इतनी नीव दुष्टता आज क्यों ४. आचरण हीनता ३५. जबरदस्ती-एक भयंकर संक्रामक बीमारी १६. सरकारीकरण अथवा केन्द्रीकरण Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव द्रव्य चैतन्य गुण रूप है अथवा अन्य गुण भी है ? मनुष्य के चित्त का दिवालियापन जितना आज देखा व जाना जाता है, उतना आज से पूर्व कभी नहीं हुवा। वह सुख और शान्ति को चाहता तो है, किन्तु आज चित्त के पतन के कारण, उसके सभी उपाय दुःखों एवं अशांति को बढ़ाते ही जाते हैं। पृथिवीतल पर दुःख एवं अशांति, हर वर्ग में भीषणता से बढ़ती दृष्टिगोचर है। मुख शांति को ढूंढ़ता मनुष्य हर स्थान पर पाया, देखा जाता है, किन्तु जब उसको अचेतना हटे तभी मुख शान्ति वह पाए, सो अचेतना तो उसकी निरंतर बढ़ती ही जाती है। चेतनता का मार्ग तो वह पकड़ता ही नहीं, सुख और शान्ति प्राप्त फिर वह कैसे करे? हे मानव, आज जो तु प्रमादभाव से उत्तेजित हो, जीवन पर्यन्त, हिसात्मक लडाइयाँ लड़ता ही जाता है सो इन हिंसात्मक लड़ाइयों का अंत तो जीवन पयंत कर नहीं पाता और जीवन का अंत हो जाता है। इस प्रकार तू दुःख और अशांति को बढ़ाता. जीवन का अंत इनमें इबकर कर देता है और प्रमाद भाव को बढ़ाने वाली जीवन की पूर्ण शिक्षा, अविद्या अथवा कुविद्या को ज्ञान की प्राप्ति की देशा कहता है। ज्ञान की प्राप्ति की दिशा को पाने पर तु चिरकाल सुख एवं शान्ति पाएगा, उसे दंढ, वह तो उनेजनाओं को हनन करने वालो, अप्रमत्त दशा है, सो प्रमाद भाव का हनन कर। पर द्रव्य में परिणमन मे तूने प्रमाद भाव ग्रहण किया है, पर द्रव्य में गग, द्वेष, मोह भाव रूप परिणमन को त्यागने पर, स्वद्रव्य में परिणमन से तू सदैव मुग्व शान्ति क्रू भोगेगा। ___ गग-द्वेष भावों के हनन बिना, मुख और शान्ति-हे मानव, तू असभव जान ".......''जो ज्ञानी भी ‘पर द्रव्य मेरा है' ऐसा जानता हुआ, पर द्रव्य सो निज रूप करता है, वह निःसन्देह मिथ्यादष्टि होता है । इसलिए तत्त्वज्ञ 'पर द्रव्य मेग नहीं है'-यह जानकर (लोक का और श्रमण का) पर द्रव्य में कर्तृत्व के व्यवसाय को जानते हुए, यह जानते हैं, कि यह व्यवसाय सम्यग्दर्शन से रहित पुरुषों का है।" तिलीग्राम-सागर mmm ३-११-७२ - ११ - Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिवाली-विचार स्वयं कुमार्ग पर चलने वाला पुरुष, क्या अन्य को मार्ग बता उस मार्ग पर उसे आश्वस्तकर चलाने की क्षमता रख सकता है ? कदापि नहीं। भारत देश के विकारी नायको! अन्य देशवासियों के विकारी कुमार्ग को स्वयं धारण कर, पथ भ्रष्ट हो क्या देशवासियों को, तुम लोग मार्ग पर चलाने की क्षमता रखते हो ? अथवा उन्हें पथ भ्रष्ट कर, देश में अशांति बढ़ाने में कारण बन चुके हो? असत्य को सत्य बता क्या उसी को ग्रहण करवाने में कटिबद्ध हो, अथवा नहीं ? विचारो । क्या यह तुम्हारी अचेतनता का परिणमन नहीं है ? तिलीग्राम सागर ८-११-७२ onme neden -१२ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा में विचारों का परिणमन शुद्ध विचार ही दृढ़ और मजबूत विचार होते हैं. क्योंकि ये पूर्ण होते हैं। ___ अशुद्ध विचार दृढ़ता रहित कमजोर विचार होते हैं, क्योंकि वे अपूर्ण होते हैं। शुद्ध विचारों के आधार पर क्रिया सदेव, पूर्णतः सफल क्रिया होती है, तथापि सुखदायक होती है। अशुद्ध विचारों के आधार पर क्रिया अपूर्ण होती है, ऐसी अपूर्ण क्रिया सफलता प्राप्त नहीं करती, तथापि दुःखदायक होती है । ___ सम्यग्दृष्टि के विचार शुद्ध होते हैं, मिथ्यादृष्टि के विचार त्रिकाल शुद्ध नहीं हैं, वे सदैव अशुद्ध होते हैं। ___ आज भारत देश के शासक के विचार अशुद्ध हैं, वे निरंतर अशुद्धता को बढ़ाते हुए ही क्रियाशील है, अतएव देश में दुःख एवं अशांति बढ़े तो क्या अचरज है ? तिलीग्राम-सागर २९-११-७२ - name mine Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Blood Sucking Wars When lawlessness in a country boils over the pot, it blames another country; begins not only to blame that another country, but also, when that blame boils over the poi, il attacks its victim country, with all the ferocity at its command. The attacked country was already boiling over with lawlessnesses in all spheres of its life, had bred hatred amongst the administrator and the administered, nav amongst a Brahmin & a Brahmin, a Bania and a Bania, to say a few only; and such this country was already blaming the attacker and was pointing its guns against the attacker country. Guns have no knowleuge, and the knowledge of the two countries was already acting in lawlessnesses, and they make the guns, suck the blood of human lives. Know-the lawlessnesses, remove them, and act in lawfulness only; and thou shall stop creating hatrod amongst man and man, thy guns, howsoever ferocious, they would not act without thy lawless madresses to use them; howsoever, ferociously acting, other peoples may by; they will not be attracted to wage blood sucking wars against thee; their weapons have no ears or eyes to act against thee. It is thus a seli proved fact, the lawlessnesses in -{X Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ thy action are responsible for all the ills, from which thee is ailing and creating thy awn miseries. The belief that thy arbitrarinesses are lawfullnesses and thee is correctly and truthfully acting, is wrong, it is untruth. Know thee, the truth. Differentiate between truth and untruth, put thy belief in truth alone and act in it alone. This would enable thee to act lawfully, and would bring the happiness and peace; thy continuou-ly so acting would bring the everlasting happiness and peace. हे मानव, तू असत्य को सत्य जानता हुआ, उसी में आचरण को प्राप्त है, तू सत्य को जान. तभी सत्य और असत्य का भेद जान पाएगा; और तभी तेग आचरण सत्य में हो. तू सुग्व-गांति पाएगा। तू अपने असत्य के आचरण से हो दुःखी है, यही तेग शत्रु है; फिर इस आचरण को क्यों नहीं त्यागता? "जीवों के जो बंध होता है, वह वस्तु से नहीं होता, उसमें अध्यवसानभाव मे ही होता है।" जैन-सिद्धान्त । तिलीग्राम-मागर २६-११-७२ - anime minden Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुख किसे कहते हैं ? "अपने बापसे ही उत्पन्न, संपूर्ण सब पदार्थों में फैला हुआ, निर्मल और अवग्रह ईहा आदि से रहित, ऐसा ज्ञान निश्चय सुख है-इस प्रकार सर्वज्ञ ने कहा है।" दुस किसे कहते हैं। "जो पांच इंद्रियों से प्राप्त हुआ मुख है, सो ऐसे सुख की तरह दुःख रूप हो है; क्योंकि जो सुख पराधीन है, क्षुधा-तृषा आदि बाधायुक्त है, असाता के उदय से विनाश होने वाला है, कर्म बंध का कारण है; क्योंकि जहाँ इंद्रिय मुख होता है वहाँ अवश्य रागादिक दोषों को सेना होती है-उसी के अनुसार कर्म धलि लगती है और वह सुख-विषय अर्थात् चंचलपने मे हानि वृद्धि रूप है।" ज्ञान चेतना अतीन्द्रिय मुख है। कर्म चेतना सांसारिक सुख दुःख हैं । "स्वपर का भेद लिए हुए जीवादिक पदार्थों को भेद सहित तदाकार जानना, वह मान भाव है अर्थात् आत्मा का ज्ञान भाव रूप परिणमना उसे ज्ञान चेतना कहते हैं; और आत्मा ने अपने कर्तव्य से समय-समय में जो भाव किए हैं, वह भावरूप कर्म है वह शभादिक के भेद से अनेक प्रकार है, उसो को कर्म चेतना कहते हैं, और मुख रूप अथवा दुःख रूपउस कर्म का फल है-ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है। सुख व दुःख का भेद केवलज्ञान अनाकुल सुख है व अज्ञान ही दुःख है। "जो केवल ऐसा नाम वाला ज्ञान है वह अनाकुल सुख है, और वही सुख सबके जानने रूप परिणाम है, उस केवलज्ञान के आकुलभाव नहीं कहा है, क्योंकि ज्ञानावरणादि चार धातिया कर्म नाश को प्राप्त हुए हैं। पदार्थों के पार को प्राप्त हुआ केवलज्ञान है तथा लोक और अलोक में फैला हुआ केवलदर्शन है। जब सब दुःखदायक अज्ञान नाश हुआ, तो फिर सुख का देने वाला ज्ञान है, वह प्राप्त हुआ हो।" तिलीग्राम-सागर ७-१२-७२ - animą neath - १६ - Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आज संसार में जितनी भी विचारधाराएं क्रियाशील हैं, उन सभी में विषय-कषायों के तुष्टीकरण की विचारधारा प्रमुख एवं सुख शांति की प्राप्ति की विचारधारा को मान्यता को प्राप्त है, किन्तु यथार्थता इससे विपरीत होने से, सुख शांति अतिदूर भागती जाती है; इस विचारधारा को जैन सिद्धान्त अज्ञानता को विचारधारा कहता है। __ मात्र ज्ञान की विचार धारा यथार्थ, परमहितु एवं सुख शांति की विचारधारा है-ऐसा जैन सिद्धान्त कहता है । ___ अतएव कषाय रहित भावों में आत्मा के परिणमन से जीव सुख शांति का भोक्ता है, अन्यथा नहीं । आज के जगत् का मनुष्य न तो अत्याचार को जानता है और न ही अत्याचारी को, वह तो मात्र प्रतिकारी भावनाओं से ओत-प्रोत है, जिनके कारण लड़ाइयों को तत्पर हो, लड़ाइयां लड़ता ही जाता है; अन्य कुछ जानता ही नहीं। फलतः जहाँ देखो वहाँ, अत्याचार बढ़ते ही जाते हैं, वे आगे कभी घटेंगे यह दृष्टिगोचर नहीं। ___ क्या यही सुख शांति का मार्ग है ? यह तो मात्र दुःख अशांति का मार्ग है, अन्य कुछ नहीं। हे मानव, इस विपरीत दृष्टिकोण को त्याग तू तत्त्वों एवं तथ्यों को तो जानता ही नहीं, इनको जान, उन में श्रद्धा को प्राप्त हो, तभी तेरा आचरण अविपरीतता को प्राप्त होगा। तिलीग्राम-सागर १८-१२-७२ - Armię nam Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव दो प्रकार के होते हैं १. योगी २. अयोगी संसारी जीव के योग होता है व सिद्ध अयोगी होते हैं। योगी जीवों के गुणस्थान होते हैं । अयोगी जीव गुणस्थानों से मुक्त होते हैं। गुणस्थान अचेतन हैं, यह अचेतनता प्रथम गुणस्थान में तीव्रतम होती है और गुणस्थान के उठने पर कम होती जाती है । चतुर्थ गुणस्थानवी जीव, जोव द्रव्य के चेतना गुण और अचेतना का भेद जानने लगता है और अविरत सम्यग्दृष्टि नाम पाता है। चेतनता एवं अचेतनता का भेद जानने पर हो, जीव चेतनता में श्रद्धा को प्राप्त होता है और तदुपरांत वह अचेतनता को नाश करने का मार्ग धारण करता है। __ अचेतनता का पूर्ण नाश बारहवें गुणस्थान में हो जाता है, और ऐसा जीव मात्र चेतनता में परिणमन करने लगता है और तेरहवें गुणस्थानवर्ती केवलज्ञानी तीर्थकर बनता है । ___ आयु कर्म का नाश होने पर ऐसा जीव, अयोगी सिद्ध अवस्था को प्राप्त होता है। आगम में किस जीव के कोन कोन से गुणस्थान होते हैं, यह वर्णन "योग मागंणा" द्वारा निरूपित है । ९३ वें सूत्र में मनुष्य स्त्रियों को संयत बताना आगम के विरुद्ध है, क्योंकि संसारी जीव जब तक संसार भ्रमण करता है तब तक उसकी दो अवस्थायें होती हैं १. पर्याप्त, २. अपर्याप्त । इन दोनों अवस्थाओं में किस जीव के कोन कोन गुणस्थान हो सकता है, यह पूर्णतः योग मार्गणा में निरूपित है। बाद को मार्गणाएं योग मार्गणा के अंतर्गत ही निरूपित है, इस मार्गना के विरुद्ध नहीं जा सकती हैं। - १८ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार ग्रंथ में व्यवहारनय गुणस्थानवी जीवों की चर्चा करता है, ऐसे जीवों को मसे अजीवता अथवा अचेतनता सहित कहा है। निश्चय नय से उसने जीव को गुणस्थान रहित सिद्ध जीव, जीवा जीवाधिकार में सिद्ध किया है। तिलीग्राम-सागर २१-१२-७२ - mink honden Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वसमय और परसमय पुद्गल कर्म-जानावरणादिक के प्रदेशों में स्थित, संसारी जीव सदैव रहता है अतः उसे परसमय कहते हैं । जो सिद जीव हैं वे ज्ञानावरणादिक आठ पुद्गल कमों का नाश करने से मात्र दर्शन शान चारित्र में स्थित होते हैं, तथापि वे स्वसमय कहे जाते हैं। ___ "हे भव्य, जो जीव दर्शन, ज्ञान, चारित्र में स्थित हो रहा है, उसे निश्चय से स्वसमय जानो और जो जीव पुद्गल कर्म के प्रदेशों में स्थित है उसे परसमय जानो"। तिलोग्राम-सागर २४-१२-७२ onnie knih Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Today's News All employers are in a state of chaos today in the country, where all employees are anarchous, bent upon returning no value, the values for the labour put in by them are rocketing, they are appeased by the lawlessnesses of the Government, and the lawlessnesses in the appeased employees are beating records every day, these lawlessnesses have no boundaries; these are the circumstances under which the country is boiling for happiness, prospcrity and peace. Can you search out peace, prosperity and happiness from amongst these chaotic, anarchous and lawless acts and actions rampant in the country, throughout and all over ? No. ___ आज सर्वत्र मूर्खता का आचरण देखा-पाया जाता है। मूर्व सदैव असत्यता का आचरण करता है और जो ज्ञानी पुरुष हैं, वे सदैव सत्य में ही आचरण करते हैं। ज्ञानी की प्रवृत्ति कभी असत्यता के आचरण में नहीं जाती। सोई अंग्रेजी भाषा के शब्द आज के जगत की अज्ञानता ही सिद्ध करते हैं, अन्य कुछ भी नहीं । - "अज्ञानी, अज्ञानभाव से पर द्रव्य को अपने रूप करता है और ज्ञानी पर द्रव्य को अपने रूप नहीं करता।'' तिलीग्राम-सागर inik ६-१-७३ - २१ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ye-fellow Beings. pons are All your achievements in wars and their weayour pure madnesses, madnesses of the magnitude, never seen ever before. All your acts and actions in your these madnesses, have taken you farther and farther from the goal of your life-THE HAPPINESS AND PEACE OF MIND-and unhappiness and unrest pervades the mind of each man; go to any corner of this world, you will find nothing else. This madness is untruth, know the truth, the true knowledge, thy acts and actions in truth, the true knowledge would no more require wars or war weapons; thy acts and actions in truth would knock happiness and peace at thy doors, it would provide thee with perfect sound body, thy speech would emit nectar and thee will rule the universe-ALL WOULD BE AT THY FEET-and there would be ever-lasting happiness which would be without a touch of misery. Once madnesses are thrown away, you will be on the path of happiness but not otherwise. Look, see, behold, perceive and examine, this aspect of thought and come to the true conception of truth-the eternal law of God, the ever-happy soul. By waging wars, you will never be happy-by waging wars you are throwing out happiness out of the Universe. २२ - Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Price increases, scarcities of essential goods, scarcity of the many many needs you are experiencing today, are nothing but the culminations of your madnesses sitting in sky rockets. कलह मलय 21-1-73 " जो पुरुष आत्मा को अबद्ध, अस्पृष्ट, अनन्य (तथा उपलक्षण से नियत और संयुक्त ) देखता है, वह सर्व जिनशासन को देखता है - जो जिनशासन बाह्य द्रव्यश्रुत तथा आभ्यंतर ज्ञानरूप भावश्रुत वाला है ।" समयसार - १५ Tilivillage-Saugor - २३ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ The Empire of Jain-Sindhant Jain-Sindhant Empire is spread over the whole Universe, which is ruled by true law's enacted by true knowledge of Jain-Sindhant, which has been lanslated into figures of Prakrit literature by Acharya Kund-Kund, who laid them on paper and proved the cternal truth of Jain-Sindhant, 2000 years back and which proved the cternal truth of cternal facts which were already depicted in Prakrit literature, by Acharya Pushpadanti and Bhutbali, soine six hundred years earlier, and which eternal facts and figures describe all living-beings, in all ages with the degree of true knowledge possessed by cach, and the ways to find out the degree of true knowledge on which depends the happiness and peace of mind, speech and body which depend on the degree of purity of true knowledge, each soul may possess. Acquisition of money is irrelevent and redundant for the attainment of true happiness which depend merely on the purity of knowledge, a soul may possess. Tilivillage-Saugor 21-1-1973 " chimie unden Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Acts and Actions under Passions Fire invokes fire, it makes it more violent. Goondaism invokes Goondaism, it adds to goondaisms. Goondaisms in the country have culminated from Goonda laws and Goonda administration of those laws, which have made goondaisms more violent in the country. The arbitrary law; which have demolished age-old customs and cultures of the country, in order to appease the so-called madnesses of the educated class of peoples in the administration or outside, madnesses of luxurics. AND blind arbitrary administration of those laws, has turned the ignorant masses into beasts and animals, pulled by the socalled educated only as they like, in order to appese their passions and luxuries. This is the BHARAT of today, in the cye of this critic. Tilivillage-Sauer Arm mom 24-1-73 Do not turn BHARAT into the fool of America, or the devil of Russia, they are all Ravans and Kaurwas. Sec that you are killing Rams and Pandwas and giving birds to Ravans and Kaurwas, who edified images examplifying appeasements of luxuries, which were highest in Moghals, who, too, had themselves ruled from Delhis and Agras. The same fate dooms in inore violent forms now. Tilivillage-Sauger Arma Hastan 24-1-73 -34 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Passion Laws Enactments and actions of Central as well as State Governments of the Country are daylight dacoities, performed under laws, enacted by their Parliaments, and which laws are embodiments of lawlessnesses, emerging from the rocket-way changing lawless-thoughts of the members of those Parliaments; thoughts changing from minute to minute in search of new ways to increase those dacoities (performed merely to intoxicate the luxuries of the numberlessly growing administrators) which are being made against all classes of citizens, and the poor masses of the country mainly-dacoities performed merely to intoxicate and send the administrator into the luxuries of unfaihomable depth of the Pacific; and these dacoit administrators are growing numberlessly in the country. Would those attacked by the above words, nullify the words, which are based on eternal laufulnesses, unshakeable by the jungles of Parliamentary law's ? The enactments of Parliaments in the country today have been instrumental in showering luxuries in all corners of the country and the Country today, is the SLAVE of luxuries which slave character is culminating into unrest and unpeacefulnesses all over the country: Look, see, behold, conceive, perceive, consider and examine this conception of thought. Tilivillage-Saugor or Tili 25-1-73 on z e another -78 Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A fool, his foolishness, his acts and actions under foolishness, and its effects. If a fool acts foolishly, why should other suffer the foolishness of that fool ? All arbitrary actions are foolish acts of a fool and the citizen is made to suffer for the foolish arbi. trary actions of the administrators all over the country. How can there be peace and tranquillity in the country and happiness to the citizen under these circumstances ? Is not the citizen under dead comina, under the limitless lawlessnesses of the rulers who know only to appease their passions and luxuries at the cost of the poor citizen, now ill the dead comm.d, watching the end only ? Tilivillage-Sauger shim temat za 26-1-73 Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ The truth vs. the Untruth Know thee thy ails, thee is suffering from. Know thee thy problems, thee has to tackle. Know thee thy pains, that have baffled thee. Know thee thy diseases, which have marred thy life Could thee know them during the short span of life, possessed by thee? Is the last period of thy life, happy and peaceful? ΟΙ Is it unhappy and unpeaceful, with Himalayas of worries and pains and restlessnesses ? Thy birth and babyhood was pleasant and sweet, where have you thrown them, how did you lose them? Decidedly, you never possessed the knowledge, the true knowledge, knowledge to maintain them, you had possessed untrue, unreal knowledge which prevailed and was instrumental in thy acts and actions, fructifying into thy ails, problems, pains, diseases, unhappinesses and unpeacefulnesses, all of which were fruits of thy acts and actions in untrue knowledge during thy span of life which had to end in miseries and worries. Ye-fellow-beings-know the true knowledge, the truth-acts and actions under its directions, would prevent thee from being thrown into any ails, - २८ - Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ problems, pains, diseases, unhappinesses and miscries of any type whatsocver, thy acts and actions.in true knowledge would distinguish, between truth and untruth, between good and bad, would stop thee from bad acts and actions, and would direct good acts and actions only; when thee would attain all moments of life happy and peaceful. Tilivillage-Saugor Gerir unten 28-1-73 - - Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन जैन सिद्धान्त ने जोव कर्म व पुद्गल कर्म का भेद किया है और बताया है कि संसारी आत्मा, जीव कर्म का कर्ता एवं भोक्ता है; वह जीव कर्म अथवा भाव कर्मों का कर्ता और उन्हीं भाव कर्मों का भोक्ता है किन्तु पुद्गल कर्म का कर्ता पुद्गल ही है उसका कर्ता भोक्ता आत्मा त्रिकाल नहीं होता। एक द्रव्य की क्रिया दूसरे द्रव्य में नहीं होती। पुद्गल में ज्ञान न होने से पुद्गल सुख-दुःख का भोक्ता नहीं होता। केवल जीव द्रव्य में ज्ञान-अज्ञान होने से, संसारी जीव अज्ञानता में परिणमन करता हुआ संसारी सुखों एवं दुःखों का अपने अज्ञान भावों में परिणमन करने से भोक्ता है। यही अज्ञान भाव, उस जीव का उस अज्ञान भाव की प्रचुरता अथवा मंदता के अनुपात में संसारी दुःख अथवा सुख है। जब जीव ज्ञान भाव में परिणमन करने लगता है, तब संसारी मुख दुःख जो पराधीन होने से दोनों हो दुःख रूप हैं, का अभाव हो जाता है, यही परिणाम जीव का समता भाव का परिणाम है । समता भाव में परिणमन करते हुए जीव के उस निमित्त का नाश हो जाता है जिसके कारण पुद्गल कर्म वर्गणा पिंड आत्म प्रदेशों में प्रवेश कर ज्ञानावरणादि अष्ट कमों का पिंड अर्थात् कार्मण शरीर बनाते हैं। रागद्वेष भाव अचेतन भाव हैं यही अध्यवसान भाव हैं और इन्हीं का निमित्त पा, पुद्गल-परमाणुओं का स्कंध-कार्मण शरीर-आत्म प्रदेशों में बनता रहता है और जब राग द्वेष भावों में आत्मा का परिणमन रुक कर राग, द्वेष रहित समता भावों में परिणमन होने लगता है तब पुद्गल परमाणुओं का आत्म प्रदेशों में प्रवेश रुक जाता है। समता भावों में आत्मा का परिणमन होने के उपरान्त कार्मण शरीर के पुद्गल परमाणुओं का आत्म प्रदेशों से निकलना जारी हो जाता है और नया प्रवेश नहीं होता यह पुद्गल परमाणुओं का खिरना निर्जरा द्वारा जारी रहता हुआ जब वे पुद्गल परमाणु पूर्णतः खिर जाते हैं तो निमित्त के अभाव में उनका प्रवेश पुनः नहीं होता और जीव द्रव्य शुद्ध अवस्था को प्राप्त होता है; जिसे सिद्ध अवस्था कहते हैं। संसारी सुख-दुःख तो भाव कर्म होते हैं, -३. Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्ध जीव शुद्ध दर्शन ज्ञान गुण में परिणमन करता निराकुल शाश्वत् सुख का भोक्ता सदैव काल एक रूप हो जाता है। __ यथा “सो यह आत्मा लोकप्रमाण असंख्यात प्रदेशी है, उन असंख्यात प्रदेशों में पुद्गल कर्म वर्गणा पिंड मन वचन काय वर्गणाओं की सहायता से जो आत्मा के प्रदेशों का कंपरूप योग का परिणाम है, उसी के अनुसार जीव के प्रदेशों में प्रवेश करते हैं, और परस्पर में एक क्षेत्रावगाह कर बंधते हैं, तथा वे कम वर्गणा पिंड राग, द्वेष मोह भाव के अनुसार अपनी स्थिति लेकर ठहरते हैं, उसके बाद अपना फल देकर क्षय हो जाते हैं।" ___ "जो जीव पर द्रव्य में रागी है, वही ज्ञानावरणादिक कर्मों को बांधता है, और जो राग भाव कर रहित है, वह सब कर्मकलंकों से मुक्त होता है निश्चय कर संसारी आत्माओं के यह रागादि विभाव रूप अशुद्धोपयोग ही भाव बंध है, ऐसा बंध का संक्षेप कथन हे शिष्य; तू समझ ।" तिलोग्राम-सागर २-२-७३ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्ध आत्मा (परिभाषा) "जो शुद्ध दर्शन-शानमय आत्मा है मो ही में हूं अन्य जो भाव हैं, वे पर भाव हैं, मुमसे भिन्न हैं, मैं उन पर भावों वाला नहीं हूँ; वे सब जड़-अचेतन भाव हैं, ऐसा जो स्वर विवेकी में हैं, वही में हैं, में अन्य नहीं हैं।" "दर्शन-शान-चाग्त्रि रूप परिणत आत्मा यह जानता है कि निश्चय से में एक हूँ शुद्ध हूँ दर्शन ज्ञान मय हैं; सदा अरूपी हूं किंचित् मात्र भी अन्य पर द्रव्य परमाणु मात्र भी मेरा नहीं है, यह निश्चय है।" _ "ज्ञानी विचार करता है कि-निश्चय से मैं एक हूँ, शुद्ध हूँ, ममता हित हूँ, ज्ञान दर्शन से पूर्ण हूँ, उम स्वभाव रहता हुआ (में) इन क्रोधादिक मवं आस्रवों को क्षय को प्राप्त कराता हूँ।" "यह आस्रव जीव के माथ निबद्ध हैं, यह अध्रुव हैं अनित्य हैं, तथा अगरण हैं, और वे दुःख रूप हैं, दुःम्व हो जिनका फल है-ऐसे हैं, ऐसा जानकर ज्ञानी उनमे निवृत्त होता है।" तिलोग्राम-सागर १५-२-७३ menu -३२ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन शासन व नागरिक जैन शासन का साम्राज्य लोक प्रमाण है। जैन शासन, जैन सिदान्तानुकल शासित है। जैन शासन का नागरिक मिथ्यात्व एवं सम्यक्त्व, अज्ञान एवं ज्ञान, सत्य एवं असत्य, का भेद जानता है, और सम्यक्त्व को प्राप्त कर शुद्ध ज्ञान-दर्शन के सत्य आचरण से एक रूप सुखों का भोक्ता है । वह मिथ्यात्व के असत्य आचरण को सर्व दुःखों का कारण जान, उस आचरण का त्याग करता है। जीव, पुदगल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन छह द्रव्यों का त्रिकालवर्ती स्थान लोक है, इसके बाहिर केवल आकाश है। हे भव्य पुरुष ! उपरोक्त तत्त्वों को जान उनमें श्रद्धा को प्राप्त हो, शुद्ध दर्शन-ज्ञान में ही आचरण कर । राग, द्वेष, मोह भावों के निमित्त-विषय कषायों को त्याग । जैन शासन ही शुद्ध शासन है। जेन नागरिक ही शुद्ध नागरिक है । जैन नागरिक हो मिथ्यात्व का नाश कर, सम्यक्त्व को प्राप्त करता है, तथा विषय कषाय के त्याग से, सम्यक्त्व-संयम को धारण कर शाश्वत सुखों के भोगने का पात्र होता है । अन्य नहीं । ऐसे जैन शासन का शासक सर्वज्ञ-वीतराग-देव हैं। ऐसे सर्वज्ञ-वीतराग-देव अंतिम तीर्थकर भगवान् महावीर को मेरा द्रव्य-भाव नमस्कार है। तिलोग्राम-सागर १९-२-७३ on mę nindra Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आज देश का नागरिक जीवन का अंत तो हो गया किन्तु सरकारी दरवाजे पर नागरिक की पेशी का अंत नहीं हो पाया-सरकारी दृष्टि में उसके गुनाहों का अंत आज देश में नहीं। __सरकारी विभागों के इंसपेक्टर, नागरिक की पकड़जकड़ में बहु. रूपेण बहुसंख्यकता से नागरिक के जीवनरूपी आकाश में क्या टिड्डोदल जैसे नहीं मड़रा रहे हैं ? क्या नागरिक की कमाई की छीना-झपटी इन इंसपेक्टरों और उनके गुरुशामकों का भोजन नहीं है ? क्या आज का नागरिक इन इंसपेक्टरों और शासकों की दया पर जीवन नहीं बिता ___ क्या यही गांधीवादी मुम्व-गांति का नमूना है ? तिलीग्राम-सागर २७-२-१९७६ - mink naden Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Acts and Actions of Worldly Soul The foolishness of the fool cannot be exchanged with the wisdom of the wise. The foolishness of the fool. cannot be sold out in the market and wisdom of the wise, purchased in its place. The wisdom of the wise cannot be loaned out either, to the fool who may act in the wisdom of the wise. The wisdom of the wise always acts in the wise, whose actions are wise actions; and the foolishness of the fool alway acts in the fool whose actions are always foolish. It is, therefore, proved-the FOOL himself must turn out the foolishness in himself in order to become wise, when his acts and actions would bocome wise and he would be happy. It is thus evident, says JAIN-LAW, foolishness is misery and wisdom is happiness and if you are unhappy, that unhappiness is the fruit of your acts and actions in your own foolishness and in such circumstances, you must treat yourself as foolish only and not a wise man. Apply these provisions of the JAIN-LAW, the eternal law, to the country of Bharat where it would be difficult to find happiness. Tilivillage-Saugor 27-2-73 ama kita ३५ - Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैन सिद्धान्त में यह चर्चा इस प्रकार है "क्योंकि ज्ञानमय भाव में से ज्ञानमय ही भाव उत्पन्न होता है इसलिए शानियों के समस्त भाव वास्तव में ज्ञानमय ही होते हैं। और क्योंकि बहानमय भाव में से अज्ञानमय ही उत्पन्न होता है, इसलिए अशानियों के भाव अज्ञानमय ही होते हैं।" _ "जैसे स्वर्णमय भाव में से स्वर्णमय कुंडल इत्यादि भाव होते हैं और लोहमय भाव में मे लोहमय कडा होते हैं, उसी प्रकार अज्ञानियों के अनेक प्रकार के अज्ञानमय भाव होते हैं, और ज्ञानियों के सभी ज्ञानमय भाव होते हैं।" तिलीग्राम-सागर २८-२-१९७३ - Girk anda Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ता और कर्म बिना कारण के कार्य नहीं होता और जो कार्य अथवा क्रिया है वही कर्म है । और जो कारण है वह गुणस्थान है । जो गुणस्थान कर्ता बनता है, उसी गुणस्थान का सुखदुःख जीव भोगता है, अत: सिद्ध हुआ कि जीव के जो गुणस्थान हैं वे ही संसारी सुख-दुःख हैं। ___ संसारो जीव गुणस्थानवतॊ है और जीव का गुणस्थानों में परिणमन संसार है । संसारी जीव अपने गुणस्थानों के अनुरूप कार्मणशरीर के बनने में निमित्त बनता है और वह कार्मण शरीर पुद्गलपर्याय धारण करता एक पर्याय से दूसरी पर्याय में जा चारों गतियों में सदैव काल भ्रमण करता रहता है और संसारी पर्यायों के मुख-दुःख भोगता रहता निश्चयनय-व्यवहारनय में उपरोक्त चर्चा :निश्चय का ऐसा मत है कि आत्मा अपने को ही करता है और फिर आत्मा अपने को ही भोगता है, ऐसा हे शिष्य तू जान । -स. ८३ व्यवहारनय का यह मत है कि आत्मा अनेक प्रकार के पूदगलकमं को करता है और उसी अनेक प्रकार के पुद्गलकर्म को भोगता है।-स. ८४ संसारी जोव दो प्रकार के हैं-शुद्ध और अशुद्ध । अशुद्ध जीव का परिणमन आकुलता सहित होता है वह परद्रव्य में सदैव सुखों को ढूंढता है और न पा दुःखी होता है । शुद्ध जीव का परिणमन निराकुलता में होता है, वह स्वयं के दर्शनज्ञान गुण में सुख को ढूंढता पाता, सदेव सुखी होता है। पर की आकुलता का उसे, सुखों का कारण नहीं तथापि आकुलता का दुःख भी नहीं। तिलोग्राम-सागर ९.३-७३ animą nusta Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भेद विज्ञान लड़कपन सरल होता है, बुढ़ापा कठिन होता है। बुढ़ापा आ जाता है किन्तु लड़कपन नहीं जाता और लड़कपन में ही तू काल का ग्रास बन जाता है। बड़े-बड़े शिक्षालय बने परन्तु वे सभी लड़कपन हटाने में असफल ही नहीं हुए अपितु लड़कपन तीव्रता से बढ़ाने की शिक्षा दे, लड़कपन बढ़ाते ही जाते हैं। लड़कपन का फल-शारीरिक एवं मानसिक व्याधियां-इनको हटाने बड़े-बड़े आविष्कार-अस्पताल-कचहरियां आई परन्तु वे सब लड़कपन हटाने में असमर्थ हुए। लड़कपन करने में व्यक्ति-व्यक्ति में, समाज-समाज में व देश-देश में होड़ लगी है, भीषणतम लड़ाइयां लड़कपन पाने की होड़ में हो रही हैं। और लड़कपन बढ़ता जाता है; मुंह भी भीषणता से लड़कपन की वाणी बक रहा है और इस होड़ को सिद्ध कर रहा है। हे भव्य प्राणी ! तुझे लुभाने वाले इस लड़कपन को त्याग । बुढ़ापा कठिन होने पर भी, उसमें सफलता को प्राप्त हो, तभी तू मुम्बी बनेगा, अन्यथा नहीं। मोहवश जागता हुआ भी तू सोता है। भगवान् की इस वाणी को सत्य जान, उसी में श्रद्धा को प्राप्त हो। मोह लड़कपन है-उसे त्याग और भगवान् की वाणी वीतराग भाव में, शुद्ध आत्म तत्त्व को जान, उसमें श्रद्धा को प्राप्त हो, उसी में आचरण कर, तभी तू शारीरिक, मौखिक एवं मानसिक सुख शान्ति को प्राप्त होगा । यथा : ___ "सर्व लोक में काम भोग सम्बन्धी बंध की कथा तो सुनने में आ गई है, परिचय में आ गई है और अनुभव में भी आ गई है, इसलिए सुलभ है, किन्तु भिन्न आत्मा का एकत्व होना कभी न तो सुना है, न परिचय में आया है बोर न अनुभव में आया है इसलिए एकमात्र वही सुलभ नहीं है।" - ३८ - Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्ध आत्मा का परिणमन-अथवा संयम, आचरण, चारित्र । "पूर्वकृत जो अनेक प्रकार विस्तार वाला (ज्ञानावरणी आदि ) शुभाशुभ कर्म है, उससे जो आत्मा अपने को दूर रखता है वह आत्मा प्रतिक्रमण करता है। भविष्य काल को जो शुभ अशुभ कर्म जिस भाव से बांधता है उस भाव से जो आत्मा निवृत्त होता है, वह आत्मा प्रत्याख्यान है। वर्तमान काल के उदयागत जो अनेक प्रकार के विस्तार वाला शुभ अशुभ कर्म है उस दोष को जो आत्मा चेतता है-अनुभव करता है-जाता भाव से जान लेता है । अर्थात् उसके स्वामित्व कर्तृत्व को छोड़ देता है वह आत्मा वास्तव में आलोचना है। जो सदा प्रत्याख्यान करता है, मदा प्रतिक्रमण करता है और सदा आलोचना करता है, वह आत्मा वास्तव में चारित्र है।" विषय कषाय में आत्मा का आचरण, लड़कपन है, यही मिथ्यात्व है अर्थात मूर्खता का आचरण है इसी विषय कषाय में आत्मा के आचरण को मर्खता का आचरण जान, श्रद्धा को प्राप्त हो, विषय-कषाय रहित आत्मा का आचरण होना मोई बुढ़ापा जान यही मम्यक्त्व है, सम्यक चारित्र है । यही निश्चय मुख जान । तिलोग्राम-सागर १२-३-७३ drmnę ram Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्मरण जैन सिदान्त के नापार पर भाव के युग की समस्याबों का हरू। Unless you know the difference with unbroken confidence between pure soul and impure worldly soul and remove the impurity pervading your soul, your soul will not be able to act with purity. You are today adding impurity to your soul and the impure soul which is a directing factor and instrumental in all your actions of mind, body and speech-there is degencration of your body, mind and speech and all the inventio:s in hospitals and medicines and the highest of your courts have utterly failed in giving peace and happiness to your body, mind and specch with which all are found ailing throughout on the surface of the globe with boiling restlessness in the body, mind and speech. Know thy the truth, make thy soul pure, then alone thou shall get directions of successful acts and actions of mind, body and speech fructifying into happiness and peace all over. Otherwise not. Tilivillage-Saugor 19-3-73. snima und zu Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आज का युग आज न्यायालयों के जो विवादों के निर्णय अंतिम हो, नागरिक को उन्हें मानने के लिए बाध्य किए जाते हैं, वे निर्णय भी महत्त्वहीन हो चुके हैं क्योंकि उन्हीं श्रेणी के अन्य विवादों को हल करने में वे असमर्थ हैं। नागरिक को न्यायालयों के निर्णयों के प्रति कोई श्रद्धा नहीं रही, तथापि विवाद और समस्याएँ भीषणता से बढ़, मनुष्य को जीवन पर्यंत जकड़ती ही जाती हैं। आज के मनुष्य समाज द्वारा स्थापित पालियामेन्टों में, न तो उन सिद्धान्तों के रचने की क्षमता ही है कि जिनके आधार पर, मनुष्य समाज के विवाद घटें और अगर न्यायालय उन सिद्धान्तों की अवहेलना कर, अपने स्वयं के कषायों से प्रेरित हो निर्णय दे, तो ऐसे निर्णय पालियामेन्ट द्वारा रचित सिद्धान्तों के विपरीत तो हैं ही, साथ ही साथ, नागरिक को उन कषायों का फल भोगने को बाध्य होना पड़ता है कि जिनके फलस्वरूप न्यायालय निर्णय देता है। ऐसी परिस्थिति में नागरिक विवादों एवं समस्याओं में उलझा रहे, उन्हें बढ़ाता ही जाए तो आश्चर्य हो क्या । विषय - कषाय रहित मागं दर्शन देने वाला, न तो आज दृष्टिगोचर है, और न ही किसी का इसमें विश्वास है कि विषय कषाय की न्यूनता में ही दीर्घकाल संसारी सुख है । अतः आज का युग - विषय - कषायों हेतु, झगड़ों का युग कहें - तो जरा भी अतिशयोक्ति नहीं । बालाई मल तिलीग्राम - सागर १७-३-७३ - ४१ - Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आज का पृथक्तावादिता का युग जितनी भी भाषाएँ हैं उनमें जो शब्द भिन्न-भिन्न प्रकार के चिह्नों द्वारा अंकित होते हैं और उन शब्दों द्वारा जो भी वाक्य अथवा वाक्यांश रूप प्रकट हो अंकित किए जाते हैं, वे सभी शब्द, मनुष्य की विचारधाराओं को अंकित करते हैं; और इन्हीं शन्दों द्वारा विचारधाराएं, एक व्यक्ति द्वाग दूसरे व्यक्ति तक पहुंचाई जाती हैं। एतदर्थ जैसी-जैसी मनुष्य की विचारधागएँ होतो गई, तद्प शब्दों का केवल निर्माण ही नहीं होता गया. तथापि उन्हीं शब्दों का उपयोग जो पूर्व में किसी विचारधारा हेतु अंकित हुआ था, अब इन्हीं शब्दों का उपयोग भिन्न ही विचारधारा अंकित करने हेतु होने लगा है। आज का युग विषय-कषाय की तीव्रता से बढ़ते हुए आचरण का युग है और जितने भी शब्द भाषाओं की परिधि में अंकित हैं, वे सभी शब्द अपने पूर्व अर्थ को त्याग मात्र आज के विषय-कषाय के तुष्टीकरण हेतु विचारधाराओं को अंकित करने में सचेष्ट हैं, उन्हें अब पूर्व विचारधाराओं को निर्देश करने का हक ही नहीं रहा। ऐसी परिस्थिति में आज मनुष्य, उन्हीं शब्दों द्वारा पूर्वाकित विचारधाराओं को जाने, यह असाध्य बन चुका है। आज विषय-कषायों का पोषक साहित्य भी, अपनी चटक-मटक ले, इतनी भीषण मात्रा में मनुष्य समाज के सामने प्रस्तुत हो रहा है और यह साहित्य भी उसे इतनी तोव्रता से लुभा रहा है कि आज मनुष्य इसी साहित्य के गीत गा रहा है, उसी के द्वारा अंकित विषय-कषाय को विचारधारा को ग्रहण करता, उसी आचरण में डूबा हर ओर दृष्टिगाचर है, उसे विषय-कषाय से पराङ्मुख विचारधाराओं को जानने-देखने, व उनमें श्रद्धा को प्राप्त होने का जीवन पर्यंत अवसर ही नहीं । अस्तु । तिलीग्राम-सागर १७-३-७३ onne unden - ४२ - Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुशासन (Rule-administration) अनुशासन शब्द का अर्थ श्रद्धा है सोई आज जगत् में विषय-कषाय का अनुशासन है। जितने भी सिद्धान्तों (laws) की आज जगत् में रचना होती है वे सभी सिद्धान्त इस तथ्य के आधार पर अंकित किए जाते हैं कि मात्र विषय-कषाय का आचरण ही संसार में सुखों का कारण है, अन्य कोई मार्ग सुखों का कारण ही नहीं है । आज जगत् में यह श्रद्धा तोवता को हो प्राप्त नहीं है. अपितु निरंतर दिन प्रतिदिन अपनी सीमाओं का उल्लंघन करती ही जाती है, भविष्य में भी ऐसा ही होता जायगा, इसमें कोई शंका दिखती ही नहीं। विषय-कषाय रहित आत्मा का परिणमन भी हो सकता है और वही अनाकुल सुख है यह आज मनुष्य न तो जानता ही है और न ही इस प्रकार उसके जानने की चेष्टा ही है; और वह इस विचारधारा से दिन प्रतिदिन दूर ही होता जा रहा है । विषय-कषाय रहित आत्मा के आचरण में ही निराकुल मुख एवं शांति है और मनुष्य सुखी रह सकता हैऐसा जब तक जानकर, मनुष्य इसी विचारधारा में श्रद्धा को प्राप्त न हो, तब तक विषय-कषाय रहित अपने आवरण को बनाए भी कसे? जैन-शासन में श्रद्धा को प्राप्त श्रावक ही यह आचरण बना सकता है, सोई आज जैन-शासन का तो पूर्णतः अभाव है, फिर मनुष्य निराकुल सुख शांति केसे प्राप्त करे ? जेन सिदान्त को जान, उसमें श्रद्धा को प्राप्त होने की ओर आज लक्ष्य ही नहीं। सम्यग्दर्शन क्या है, उसमें आचरण कैसे बने, इस ओर दृष्टि किसी को भी नहीं है । -सागर १८-३-७३ army in Mry Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथ्यात्व व सम्यक्त्व (परिभाषाएँ) तिर्यच और मिथ्यादृष्टि इन दोनों शब्दों का अर्थ एक ही है। आज की भाषा में इन शब्दों का अर्थ मूर्ख है किन्तु इस अर्थ में भी यह जानना कि मिथ्या अथवा विपरीत बुद्धिवाले सभी जैन सिद्धान्त में मूर्ख कहे गए हैं और जैन सिद्धान्तानुकूल, विषय-कषाय में आचरण, जो कि रागद्वेष मोह भावों को आत्मा के भाव जानने के कारण होता है-ऐसे सभी आचरण-मिथ्यात्व अथवा मूर्खता है। ऐसे आचरण के हटे बिना, आत्मा का शुद्ध आचरण, जिसे सम्यक्त्व का आचरण कहते हैं, ऐसा आचरण नहीं बनता। सम्यक्त्व शब्द का अर्थ, आत्मा के शुद्ध दर्शन-शान गुण में प्रवास्पद होना है। तिलीग्राम-सागर १९-३-७३ min YY Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशुभोपयोग (पाप कुण्ड) संसारी जीव के सामने दो कुण्ड हैं :पहला नरक कुण्ड, दूसरा स्वर्ग कुण्ड । संसारी जीव पुरुष, आज प्रति देश में, दो भागों में विभाजित है। पहिला राजावर्ग दूसरा प्रजावर्ग । संसारी जीव-मनुष्य को सदेव प्यास लगती है। सो जो राजा वर्ग है, वह चरवाहा बन कर, प्रजावर्ग को पशुवत् हाँककर नरक कुण्ड की ओर ले जाता है । जो राजा वर्ग है वह स्वयं नरक कुण्ड में जाकर अपनी प्यास बुझाने उसमें डूबा हुआ है और प्रजावर्ग को भी नरक कुंड में ले जाकर; उसको प्यास बुझाने हेतु पटक रहा है। नरक कुण्ड में प्यास तो बुझ जाती है परन्तु वह क्षणिक काल को ही बुझती है सो जो राजावर्ग है वह अपनी प्यास बुझाने नरककुण्ड में डूबा ही रहता है और जो प्रजा वर्ग है वह यद्वा तद्वा उसमें अपनी प्यास बुझाने में सदैव लगा रहता है। नरक कुण्ड नो नरक कुण्ड ही है, सो प्याम बुझाते बझाते, उस जीव पुरुष पर नरक कुण्ड के पानी का असर होने लगता है। राजावर्ग शिक्षित होता है और प्रजावर्ग अशिक्षित । मो प्रजावर्ग भीषण शारीरिक एवं मानसिक व्याधियों से लिप्त हो जाता है। राजावर्ग इन बीमारियों को भगाने हेतु अस्पताल व कचहरियां बना देता है और प्रजावर्ग अपनी शारीरिक एवं मानसिक व्याधियां हटाने हेतु, उनको शरण में जाता है। यह क्रम रहट की घग्यिा समान जीवन पर्यंत चाल है किन्तु न तो नरक कुण्ड से प्यास ही बुझ पाती है और न ही वे अस्पताल एवं कचहरियां व्याधियों को दूर कर पाई हैं। __ और जो राजा वर्ग है वह नरक कुंड को स्वर्ग कुण्ड कहता है, जानता है, मानता है और श्रद्धास्पद है सो नरक कुण्ड की रक्षा हेतु प्रजापर अत्यन्त निर्दयता से कर लगाता है और उन करों द्वारा बड़े-बड़े शिक्षालय स्थापित करता है और उनमें ऐसी शिक्षा देता है कि प्रजावर्ग यह जाने, माने और श्रद्धा को प्राप्त होवे कि नरक कुण्ड ही स्वर्ग कुण्ड है। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सो उन करों का कुछ भाग तो इस प्रकार खर्च कर देता है और उसका विशेष भाग स्वयं खर्च कर लेता है और एक ओर विशेष भाग आधुनिकतम युद्ध की सामग्रियों एवं फौजों पर खर्च करता है ताकि भीषणतम लड़ाइयां लड़ने योग्य वह बना रहे और उस नरक कुण्ड की वह रक्षा कर सके। राजावर्ग और प्रजावर्ग, दोनों की प्यास निरंतर बढ़ती ही जाती है और नरक कुण्ड से उसकी तृप्ति नहीं होती, तदुत्पादित शारीरिक एवं मानसिक व्याधियां भी बढ़ती ही जाती हैं और अस्पताल, कचहरियां भी बढ़ती जा रही हैं किन्तु व्याधियां घटने की जगह बढ़ती ही जाती हैं, वे व्याधियों को दूर करने में असमर्थ हैं । यही आज के जगत् का जीवन है, इसी नरक कुण्ड में प्यास बुझाते बनाते मनुष्य के जीवन का अंत हो जाता है। स्वर्ग कृण्ड की चर्चा रामायण महाभारत में ही धरी रह जाती है । इम चर्चा को जेन सिद्धान्त इस प्रकार कहता है, यथा : "जिस जीव का अशुद्ध चैतन्य विकार परिणाम, इन्द्रिय विषय तथा क्रोधादि कषाय इनमे अत्यन्त गाढ हो, मिथ्या शास्त्रों का सुनना, आर्त. रोद्र ध्यान अशुभ ध्यान रूपमन, पगयी निंदा आदि चर्चा, इनमें उपयोग सहित हो, हिसादि के आचरण करने में महा उद्यमी हो और वीतराग सर्वज कथित मार्ग मे उल्टा जो मिथ्या मार्ग, उसमें सावधान हो, वह परिणाम अशुभोपयोग है। तिलोग्राम-सागर २६-३-७३ anime minden Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Country ruled by jackal laws Today the country is governed by jackal administration which is directed by jacka! laws, both in lion's garb. AND the country has turned from heaven to held by imports and introduction of western cultures it is today a jungle, the inhabitants of which are freightened by lion-skinned administrators with powers invested in them by lion-skinned lins, framed by lion-skinned Parliaments manned by lion-skinned clected representatives of the inhabitants of the jungled country. jungled under western cultures, al country in which, today everyone is trying to deve our his fellow beings by all jackal-nicans at his disposal. No one knows that the jackal is in lion's garb. The country is at peril, it cannot be happy, unless it knows that it is the jackal which is acting in lion's garb and then matches away the garl from the jackal's body and kills the jackal outright. Does the country know'$ this phenomenon : The inner eyes of the best of the country's brains are shrouded, the outer eves look at the western cultures only and make the shrouded inner-eyes know them alone, believe in them as truths and direct action in them alone. The cultures of BHARAT are no more found on the face of the country. The country would never get peace and happiness of Ram Rajya envisaged by Mahatma Gandhi Tilivillage-Saugorota 31-3-73 nourn Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ What is English Language The country is at peril today. Its integrity is at a dead comma. And why? It is so only on account of one fact : The predominance and predominating rule of English language. English language is not the language of the country, yet the country is ruled on its strength and why? Because the Hindi knowing peoples are the rcal inhabitants of this country so also other language-peoples live in the vast precincts of this contincntal country. And English language alone is ruling the country, because the English language knowing peoples, may they be in parliaments or in administrative ficld, may they be administrators of law or its advocates, may they be in any other fields, like the many different vokes of life, the businesses and professions; all are having their own interpretations of the English words and these interpretations are not only acted upon by them, but they are being put to action against the Hindi knowing peoples and peoples knowing other sister languages. • The English knowing class of the country is immersed in English culture and is bent upon exploiting the vast masses of the country, not knowing English language and is making a fool of those masses for the appeasement of their own passions and the process is developing rocket-way. - XC Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ By belated wrong interpretations and believing in those interpretations of English language and cultures therein, the country has gone mad for them and this madness is fructifying in all shorts of restlessnesses and miseries inside the country and from outside the country which does not know the way to peace and happiness. Do the English knowing countrie; know the correct interpretations of their own words or the interpretations are conflicting from dictionary.to dictionary and from court in court in their own country, changing those interpretations from time to time and have not been able to put correct interpretations and are inaking big volumes of dictionaries on account of their lackness in reaching the perfection in interpretations of their own words? Then why have you gonc, in this country, a slave of that language? If you wish to save the country from this hanging peril, you ly to expel the English language, the English culture, the way of English thought, which has not been able to maintain peace and hapiness in English countries themselves. Tilivillage-Sauzor an imk minden 31-3-1973. Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देश में राजा वर्ग बनाम प्रजावर्ग आज देश में शासन प्रजावर्ग को जिस भीषणता से नष्ट करने में लगा है, उतनी भीषणता से शासन ने प्रजावर्ग का नाश कभी नहीं किया। ___ शासन में प्रवेश करने वाले नागरिक को पुलिस और आधुनिक शस्त्रों सहित फौजों का बल प्राप्त हो जाता है। सोई शासन मनमाने कानून प्रजावर्ग पर प्रतिक्षण लदता चला जा रहा है और शासकों द्वारा उन कानूनों के मनमाने अर्थ लगा प्रजावर्ग उनके द्वारा पोसा जा रहा है। शासन वर्ग अंग्रेजी भाषा भाषी है और वह उस भाषा के शब्दों के अर्थ मनमाने गढ़ता ही चला जाता है, यही परिपाटी में शासक ढला, मनमाने अंग्रेजी भाषा के अर्थ लगा, प्रजावर्ग पर आदेश दे, उस प्रजावर्ग पर जुल्म पर जुल्म, पुलिस और फौजों के बलपर बरसाता ही जाता है । इसीलिए अंग्रेजी भाषा की दौड़ देश में आज तीव्र गति से बढ़ती ही जाती है इस गति का कहीं अंत नहीं । शासक वर्ग में विषय कषाय जनित अन्याय की वेल में, बेल के जाल में, आज प्रजावर्ग मकड़ो के जाल में मक्खी समान फंस चुका है। वह मकड़ो रूपी शासन अपनी प्रकृति में अपना परिणाम छोड़ता ही नहीं यथा : “भली भांति शास्त्रों को पढ़कर भी अभव्य जीव प्रकृति (अर्थात् प्रकृति के स्वभाव को) नहीं छोड़ता जैसे मीठे दूध को पोते हुआ भी सर्प निर्विष नहीं होते।" अतः सिद्ध है अंग्रेजी भाषा देश की प्रजा को विषरूप है और अंग्रेजी भाषा भाषी देश में सर्प रूप हो प्रजावर्ग पर विष वमन करता ही चला जा रहा है। विषय-कषाय रूप विष शासन-शासक वर्ग में बढ़ता ही जाता है, वह प्रतिक्षण अपने विषय-कषाय की सीमाओं का उल्लंघन करता हो जाता है। हे प्रजा वर्ग के नागरिको, तुम इस विष से बचो । क्या यह विष तुम्हें भीषणता से डंसता ही नहीं जा रहा है ? क्या तुम्हारे सभी उपचार इस विष के आतंक से तुम्हें बचाने में सफल हो पाये हैं ? क्या तुम इस विष का फल भोग, अपने स्वच्छ जोवन को भीषणता - ५० - Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से अस्वच्छ कर आकुलताबों के जाल में अपने जीवन का अंत भयंकर शारीरिक व्याषियों सहित नहीं करते? फिर देश का तो क्या संसार का भी शासक बनना, क्या तुम्हारी मूर्खता सिद्ध नहीं हुई ? तिलीग्राम-सागर ७-४-१९७३ onaną mise Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत्याचार और अत्याचारी Today, neither the administration nor the administrators know, what is law and who is law breaker ? Unmindful of the law, the administration is coining the so-called laws and the administrators are putting them to action and are trying to catch the so-called law-breakers and punishing them as virulently as it lies in their powers. This practice of the administration and the administrators is rocketway ahead, beating its records daily and what are the results ? There looks to be none in the country who may not be termed a law-breaker. All the citizens of the country are termed by the adıninistration and the administrators as law-breakers and those in the administration alone say, they are followers of law, the exponents and actors of law and all of them alone are pure citizens. 'There is unrest all over and can yon tell me who is responsible ? Is it the citizen or the administration ? The results of actions and act-the restlessnesses-all over, prove that unlawful laws and unlawful administrative actions under them alone are instrumental in bearing the fruits of lawlessness all over. Ye, the fellow beings in administration ! know -42 Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ the correct interpretation of the word LAW. it rule of true LAW is all happiness and peace. Do not apply the interpretation of the RAVAN to the word I.ALI, you harc done so and are constently repca ting it in the way of RAVANS and KAURWAS. "The true interpretation was given by RANCHINDRA and PANDWAS and so acted upon by them. Can you still listen to this my prayer ? Has not western language and culture attacked this country like Ravanus and Kaurwas ? The word Law defined is the truth, the rule under which is all happiness and peace. ___ अतः आज के शासन के सिद्धान्त ही अत्याचार हैं और उनका शासक ही अत्याचारी है और ऐसे शासनरूपी कोल्ह में देश के नागरिक, शासकों द्वारा पेरे जा रहे हैं, अन्य कुछ नहीं है । ___ हे शासक, चेत ! क्या तू यह नहीं जानता कि “जो आत्मा जैसा करता है वह आत्मा वैसा ही भोगता है ।" क्या तू आज निराकुल सुख शांति को प्राप्त है ? अथवा आकूलताओं में मक्खी बन मकड़ी के जाल में फंसा, अपने जीवन का अंत कर रहा है ? आकुलता रहित मुख और शांति का मार्ग हो-यथार्थ सिद्धान्त हैअन्य तेरे गठित सभी सिद्धान्त-कुतत्व, मिथ्यात्व हैं, मूर्खता हैं-इनसे पराङ्मुख हो । क्या महावीर भगवान् के यही वचन नहीं थे। विचार तो कर। तिलोग्राम-सागर ९-४-१९७३ chimie ninen Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर ने कहा है : राग, देष, मोह भावों में आत्मा का परिणमन करना, सो ही अत्याचार है और इन्हीं भावों में परिणमन करने वाला आत्मा हो अत्याचारी है, और ऐसा अत्याचार करनेवाला आत्मा ही स्वयं के किये, उन अत्याचारों का फल भोगता है, इस सिद्धान्त को अन्यथा नहीं किया जा सकता। ऐसा आत्मा ही संसार के दुःखों को जीवन पर्यन्त भोगता है । ऐसा आत्मा ही पुद्गल कामण शरीर बनाने में कारण बन, नवीन पर्याय धारण कर पुनः-पुनः संसार के दुःख भोगता रहता है । ___ जब आत्मा राग, द्वेष मोह में अपने परिणमन को त्यागे, और अपने शुद्ध भावों में-जान दर्शन गुण में परिणमन करे, तभी वह निराकुल सुख पाता है और तभी कार्मण शरीर क्षीण होता जाता है। क्षीण होतेहोते जब इस कार्मण शरीर का नाश हो जाता है. तब आत्मा पुनः संसारी पर्यायें धारण नहीं करता। वह आत्मा अपनी अमूर्तीक (सिद्ध) पर्याय धारण कर शाश्वत मुख का भोक्ता बन जाता है। सिलीग्राम-सागर १०-४-७३ onnie nodin -५४ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसारी जीव का परिणमन एक द्रव्य का परिणमन दूसरे द्रव्य में त्रिकाल संभव नहीं। -जैन-सिद्धान्त अतएव देश में शासन-शासकों का यह कहना, जानना, और मानना कि वे देश के नागरिकों को सुखो-दुःखी कर सकते हैं व उन देशवासियों को सुखी करने में लगे हुए हैं--यह उनकी मान्यता एवं तद्वत विश्वास को प्राप्त होकर उनका तद्वत् आचरण, उनकी मात्र मूर्खता-अज्ञानता का द्योतक एवं आचरण है; अन्य कुछ भी नहीं है । संसारी जीव-पुरुष सदेव विभावों में परिणमन करता है । रागद्वेषमय आत्मा के परिणमन करने को विभाव कहते हैं। इन विभावों में आत्मा का परिणमन संसारी सुम्व-दुःख हैं। विभावों की तीव्रता में परिणमन से आत्मा दारुण दुःख पाता है और उनकी मंदता आत्मा के संसारी सुखों में कारण बनती है। शासनवर्ग एवं शासक वर्ग, स्वयं तीव्रता से विभावों में परिणमन करता, स्वयं के विषय-कपायों के तुष्टीकरण में भीषणता से संलग्न है । इन्हीं विषय-कषायों के तुष्टीकरण हेतु उसकी फौजें एवं पुलिस, विश्वविद्यालय, कचहरियों एवं अस्पताल हैं। इन्हीं के तुष्टीकरण हेतु उनके उद्यम-व्यवसाय के सरकारी-करण हैं उनके विषय-कषायों के तुष्टीकरण की तीव्रता, देशवासियों पर से भीषणता से कर-वसूली करवा रही है। विषय कषायों का परिणमन, संसारी आत्मा के तीव्र विभावों का परिणमन है । आत्मा का तीव्रतम विभावों में परिणमन ही आज आत्मा का गद आचरण एवं धर्म अथवा जीवन का लक्ष्य कहा जाता है, माना जाता है और इसी में संसार, आज विश्वास को प्राप्त है। यह भी संसार जानता है कि जीवन पर्यन्त विषय-कषायों का तुष्टीकरण होता नहीं है, तथापि स्वय के तुष्टीकरण हेतु देशवासियों का भिन्न-भिन्न उपायों द्वारा भीषणता से शोषण को प्राप्त है। Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जब स्वयं के विषय-कपायों के तुष्टीकरण को गामन-यामक-वर्ग मदेव प्राप्त रहे, नो क्या कभी भी ऐमा गामन एवं गामक देशवासियों के मुम्ब का कारण बन मकता है ? कदापि नहीं । __ अनभिज देशवामियों की इस प्रकार जो आज भीषणता मे चिन्नाजनक हालत है. वह पूवं कभी नहीं हुई। है देशनायको ! अब भी चेतो । निलीग्राम-मागर - animą nutra Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देश में शासन की गरीब जनता पर इतनी तीव्र दुष्टता आज क्यों ? सदैव से गेहूं और चावल के भाव अन्य सभी प्रकार के अनाजों के भाव से ज्यादा रहते चले आए हैं पर आज शासन फौजों व पुलिस की शक्ति को पाकर उन्हें अत्यन्त विनाशकारी अस्त्रों से लंस कर, अत्यन्त दुष्टता का व्यवहार गरीब नागरिकों को दे रही है और उनसे सभी न्यूनतमश्रेणी के अनाजों से भी कम भावों पर गरीब नागरिकों से गेहूं चावल छुड़ाने को कटिबध्य है । यह दुष्टता का व्यवहार अपनी सीमाएँ नित्य प्रति लांघ रहा है । आज शासन अपने इसी व्यवहार को उसी गरीब जनता की भलाई का व्यवहार ही केवल नहीं कहता है तथापि अस्त्र शस्त्रास्तों से लैस फौजों के बलपर, धनी जनता और अपने कर्मचारियों को भी, इस दुष्टता के व्यवहार को गरीब जनता को भलाई का व्यवहार कहलवाने को बाध्य करता है। सभी आज, इस प्रकार शासन की दुष्टता के व्यवहार से पीड़ित हैं । शासन यह जानता और मानता भी है कि गेहूं और चावल देश की गरीब जनता के भोजन हैं और वे उसे पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होना अनिवार्य हैं । गामन यह भी जानता है कि बड़े-बड़े शहरों में रहने वाली जनता को अनेकानेक प्रकार के भोजन कारखानों में बने और होटलों में बने विविध प्रकार के सामिष निरामिष सदेव शहरी नागरिकों के सेवा में प्रस्तुत रहते हैं क्योंकि शासक वर्ग और शहरी जनता देश के भिन्न-भिन भागों की देहाती जनता को तीव्रता से चूमती जा रही है, फिर भी शासन अपनी दुष्टता की रट को बढ़ाता ही जाता है कि वह गरीव जनता मे न्यूनतम भावों पर गेहूं चावल छुड़ाकर ही रहेगा। यह ऐसा क्यों ? शासन उत्तर दें । शासन के पास कोई उत्तर नहीं है वह फिर उत्तर भी कैसे दे ? शासन तो अकल का ठेकेदार बना हुआ है। उस अकल की ठेकेदारी में शासन तो यह कहना, तोते की भाँति छोड़ता नहीं कि शासन - - ५७ - Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को इस प्रकार की दुष्टता का व्यवहार ही, शासन की सत्यता का व्यवहार है कि जिसके आचरण मे गामन देश में मुख एवं गान्ति स्थापित करेगा। भला यह गामन वताए कि उसकी सत्यता का आचरण भी देश में दुग्व और अगान्ति फेला मकता है ? मंमार ने तो मदेव जाना और माना है कि असत्यता का आचरण मदेव दुःख और अशांति में परिणामत होता है और सत्यता का आचरण मदंव मुम्ब और शांति में कारण बनता है । मोई गासन की यह अकल की ठेकेदारी केसी ? शासन को दुष्टता से कम भावों पर गेहूं चावल की वमूली मात्र मामन का अमत् दुष्टता का व्यवहार, देश को गरीब जनता के प्रति. शामन का घातक प्रहार है। एम देश म क्या मुख गान्ति डेंटा जा सकती है ? कदापि नहीं। गेह-चावल गरीब जनता अपनी गागरिक मेहनत में अपनी भमि पर पदा करता है और उसका एक कण भी उम गरीब जनता की इच्छाओं के विगत गामन को, अपनी फोजी एवं पुलिस की ताकतों की धमकी देकर उड़ाने का अधिकार नहीं है, फिर भी गासन अपने हठ पर कटिबध्य है, वह अपना हट छोड़ना ही नहीं है। इन प्रकार के हठ द्वाग, शामन क्या देश म अगाति नहीं बढ़ाएगा? गायन फौजी-पुलिस के वलपर हिमात्मक प्रवनियां का छोड़ना ही नहीं चाहता। अपने ही देशवासियों के प्रति इम प्रकार की करतात्मक हिमात्मक प्रवृत्तियां मात्र गामन की अमत्यता का परिणाम है । गामन इम अमत्यता के आचरण को ही मत्याचरण कहता है । अमत्य को जानने वाला ही अमत्य को सत्य कहता है। जब तक सत्य क्या है यह नहीं जाना जाता, तब तक कोई भी मत्य असत्य का न तो भेद ही कर पाता है और न ही अपने असत्य के आचरण का त्याग कर पाना है, अस्तु । गरीब जनता की संपत्ति. उसका जन्म सिद्ध अधिकार, उसके जीवन का एकमात्र आधार ही भूमि से उत्पादित गेहूं-चावल हैं। इसके विपरीत धनधान्यादिक की विपुलतम मात्रा को प्राप्त शासन अगर गेहूँ-चावल गरीब जनता में बलपूर्वक छिनाता है तो वह शासन देश को मात्र नारकीय जीवन देगा, अन्य कुछ नहीं । उपरोक्त शब्दों के विपरीत. जेन शासन इस प्रकार कहता हैमुह परिणामो पुण्णं असुही पावत्ति भणिय मण्णमु । परिणामो णण्ण गदो दुःक्वक्खय कारण ममये ।। Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थात् अपनी आत्म मता मे भिन्न पंचपरमेष्ठियों में जो भक्ति आदि प्रशस्त . गगरूप परिणाम है वह पुण्य है, और जो पर द्रव्य में ममत्व विषयानुराग अप्रशस्तराग परिणाम है वह पाप है. जो अन्य द्रव्य में नही प्रवते. ऐसा वीतराग शुद्धोपयोग रूप भाव है, वह दुःख के नाग का कारण मोक्ष म्वरूप है. ऐमा परमागम में कहा है। अतएव हे देश के शासको, गद्ध तत्त्वों एव तथ्यों के जाने बिना, देश के मुख और शांति में आप कभी कारण-निमिन नहीं बन पाओगे। यदि आप दूसरों से आदर चाहते हो तो उनका आदर करना चाहिए। यदि आप दमरों का अनादर करंगे तो आपको उनमे भी अनादर मिलेगा. और परस्पर प्रवृनिया दक्षिन होती जायगी, जिनका फल हिंसात्मक प्रवत्ति मदैव से हुआ है और हिमात्मक प्रवृनियाँ सदैव दुःग्व देती एवं नाग का बुलाती हैं। अनाव हे मानव ! अनादर की प्रवृत्ति त्याग सबके साथ आदर भाव को प्राप्त हो; फिर मुग्व और गान्ति में बाधा नहीं । तिलीग्राम-मागर १-६-७३ - same room -५९ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचरणहीनता देश में जितने भी अनेक प्रान्त हैं, उन सबमें, समय-समय पर उन प्रान्तों को विधानमभाएं, स्वयं अपने चने हुए मुख्य मंत्री में जब विश्वास खो देती हैं, तत्फल स्वरूप जो विघटनात्मक क्रियाएँ एवं उनके फल जो नागरिकों को भोगना पड़ते हैं, वे क्रियाएँ एवं उनके फल, मात्र इस परिणाम को स्पष्ट करते हैं कि या तोस्वयं उस व्यक्ति ने "आचरण हीनता" की सीमा लांघ दी है अथवा उन विधान सभाओं के सदस्यों का आचरण का पनन हो गया है अथवा उस प्रान्त के नागरिक-निवासो इतने आचरणहीन हो गए हैं कि वे अपने प्रान्त की विधान सभाओं को ऐसे सदस्य चुनने में समर्थ नहीं जो अपने तथा कथित मार्ग दर्शक मुख्य मंत्री चुनने की योग्यता को प्राप्त हों । यह मब विश्लेषण स्वयं सिद्ध है, आज सर्वत्र मात्र आचरण हीनता का बोलबाला है न तो आज का देशवासी आचरण गब्द का अर्थ हो जानता है और न उसके जानने की चेष्टा ही है और इतने विशाल शिक्षालय जिन्हें विश्वविद्यालय नाम से पुकारते हैं-वे विविध भांति के होने पर भी, न तो आचरण शब्द का अर्थ हो जानते है, और न अपने-अपने स्नातकों को तद्रूप शिक्षा देने में समर्थ है, वे मात्र अविद्या की शिक्षा दे रह हैं और उसी के फलस्वरूप आज के नागरिक का आचरण सर्वत्र देखा व पाया जाता है । __इस प्रकार देश की जनजाति में आचरणहीनता प्रबलता से देश में बढ़ रही है और आज के शिक्षालय उसे बढ़ाते ही जाते हैं। जब तक शिक्षालय यह नहीं जाने कि आचरण शब्द का क्या अर्थ है और जब तक इम गब्द का सत्यार्थ जान, उसको शिक्षा न दें, तब तक त्रिकाल यह सभव नहीं होगा कि देश में ऐमो गभोर घटनाएं घटे कि जो देश के प्रान्तों को विधान सभाओं को भी अपने अवधि काल में स्थिर रख सकें। ऐसो परिस्थितियों में केन्द्र का उस प्रदेश में शासन, इलाज मात्र कहा जा सकता है किन्तु उससे कभी भी उस प्रान्त की आचरणहीनता नष्ट नहीं हो पाती । इसी प्रकार पुनः नए मुख्य-मंत्री को प्रान्त को विधान सभा चुन ले, किन्तु यह परिस्थिति तत्काल डावांडोल हो ध्वस्त हो जाती है क्योंकि आचरणहीनता सर्वत्र सदेव अपना फल देकर हो रहती है। अगर देश के विविध प्रान्तों का विश्लेषण किया जाय तो यह आचरण - ६० Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हीनता देश के समृद्धिशाली उतर प्रान्तों में ज्यादा विद्यमान है और ऐसे बहत थोड़े दक्षिण के प्रांत बचे हैं जहां इसने अपने विध्वंसात्मक फल को प्ररूपित न किया हो किन्तु यह सर्व मान्य है कि आचरणहीनता का रोग संक्रामकता से देश में बढ़ रहा है और सब ओर अपना भीषण फल दिखाने में मात्र तत्पर ही नहीं है अपितु दृष्टिगोचर है। आचरणहीनता क्या है और आचरण क्या है इसको जाने बिना आचरण की हीनता हटना संभव नहीं । आज के विविध रूप शिक्षालय जिन पर अमित धन व्यय हो रहा है. किस प्रकार आचरणहीनता की शिक्षा दे रहे हैं और अगिक्षितों पर भी आवरणहीनता का प्रभाव एव उनका आचरण क्यों होनता को प्राप्त है, यह मबका उत्तर जानने की जब मनुष्य की आज चेष्टा ही नहीं और वह आचरणहोनता किस प्रकार नष्ट हो इसका तो उत्तर भी जानने को आज तत्पर नहीं, अस्तु । ___ विचारों को शुद्धि और अशुद्धि, इस प्रकार आत्मा का परिणमन अथवा आचरण दो प्रकार का होता है । विचारधागा ही मन-वचनकाय की क्रियाओं को निर्धारित करती हैं व तदनुकल मन-वचन और काय को क्रियाएं होती हैं। मोई जब तक विचारों की शद्धि की शिक्षा आज का युवक न पाए और उसको विचार धारा शुद्ध हो, जब तक उसकी मन-वचन-काय को क्रियाए तद्वत न हों, तब तक देश की विघटनात्मक क्रियाओं का रुकना संभव नहीं। शुद्ध विचारों के आचरण से विषय कपायों से प्रवृत्ति हटती है और जैसे-जैसे विचार गद्ध होते जाते हैं, वैमे-वैसे उस जीवात्मा की शक्ति बढ़ती जाती है उसके ज्ञान गुण का परिणमन आचरण बढ़ना जाता है, और अज्ञानता अविद्या से आचरण परिणमन हटता जाता है। अज्ञानता अविद्या मे हटने पर आत्मा का गद्ध शक्तिगालो आचरण उसी प्रकार बढ़ता जाता है ऐमी आत्माए ही समन्वय संगठन को प्राप्त होती हैं और वह संगठन अविचलित होता है ऐसी आत्माओं का आचरण स्वय की मूग्वी बना, अन्य के सुन्वों में कारण बनता है । किन्तु आज देश की परिस्थिति पूर्णतः विपरीत है और जब तक केंद्रीय विधान सभा स्वयं इस दृष्टिकोण का विश्लेषण कर अपने विपरीत दष्टिकोण का त्याग नहीं करती, तब तक देश को परिस्थिति सुधरे, यह त्रिकाल संभव नहीं, वह तो बिगड़ने को दिशा की ओर भागती ही जाएगी। तिलीग्राम-सागर imurt मल २-७-७३ - ६१ - Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जबरदस्ती - एक भयंकर संक्रामक बीमारी आज जगन और विशेषत भारतदेश जबरदस्ती की बीमारी से भयंकरना में मक्रामक रूप मे सर्वत्र पीड़ित है। आज जहाँ देखो वहां मनुष्य, अन्य मनुष्य के प्रति अपने अभीष्ट की पूर्ति हेतु जबरदस्ती करता, देखा व पाया जाता है। गुडा गर्दी डकैती. मारपीट अथवा सभी प्रकार के युद्ध चाहे वे मनुष्य मनुष्य के बीच हो अथवा देश-देश के विरुद्ध हो सभी जबरदस्ती की भीषण इच्छा के परिणाम है। यह जबरदस्ती दिन प्रतिदिन शासक एवं शामिन में भी भयंकरता मे बढ़नी हुई दृष्टिगोचर है । देश में सरकारीकरण लाटरी मद्यपेय अध्यादेश और ऐसे अन्य सभी कार्य तो पोते जबरदस्ती के उदाहरण है हो किन्तु भीषणता में जबरदस्ती मे लगाए जा रहे प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष कर मात्र जबरदस्तों के सीमा के द्योतक ही नहीं है किन्तु वे सब कर जबरदस्ती का सीमा को लांघकर नारकीय बन चके है। यह नारकीयता देश का शासन. नोपो बंदूकों फोजी एवं पुलिस के बलपर करना हो जाता है उसका न तो अन्न हो दृष्टिगोचर है और न ही इसे रोकने का शासन के पास कोई उपाय है । इन सब सत्य का एक यहां नतीजा निकलता है कि आज का मनुष्य विवेक को खो चुका है और एसा स्पष्ट है कि आज मनुष्य का लक्ष्य. विवेक ग्रहण करने का जैसे रहा ही नहीं हो । कुछ दिन पूर्व इस जगन के भिन्न-भिन्न भागों में रहने वाले दो राजनीतिज्ञों ने एक देश की दूसरे देश के प्रति जबरदस्ती की सीमा बाधने की चेष्टा तो को और वे परमाणु अस्त्रों का एक दूसरे के बीच निषेधात्मक निर्णय को भी प्राप्त हुए. किन्तु परमाणु अस्त्रों के नए अविष्कारों को रोक उनके प्रयोगों पर भी निषेधना को प्राप्त नहीं हो सके। आज जो निर्णय उनने किया उसका फल दूसरे दिन हो समाप्त हो गया और दूसरे दिन ही सुनने में आया कि चीन देश ने हाइड्रोजन बम बना उसकी प्रयोगात्मक क्रिया की है। इन सब उदाहरणों से पूर्णतः स्पष्ट है कि आज का मनुष्य अपने जीवन को विवेक के आधार पर चलाने को असमर्थ हो चुका है और उस जीवन के संचालन हेतु दिनगन हर क्षेत्र में और विषय में, - ६२ - Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन को मात्र जबरदस्ती क्रिया के आधार पर चलाने में आज तत्पर हो नहीं है किन्तु देवा, मुना व पाया जाता है यह दगा चाहे शासन को कहो चाहे शामन करने वाले शामको को कही नाहे देशवासियों को कही. अपनी-अपनी शनि के अनुमार हर क्षेत्र न पाई जाती है, और दिन प्रतिदिन जबरदस्ती करने को विया र क्षेत्र में बदनी हो जाती है। आज देश में गिक्षालय नो भोगणना में वत्र गा है किन्तु वहां भी हर घडी छात्रों एवं उनके गरओम भाव शिक्षामा के शामको में भी जबर. दम्ती करने की क्रिया का वार वाला है। एमी पर्गिस्थान म देशवामी जी अन्य गाथ जबरदस्ती नहीं कर मकत है व भीषणना गेम चोमाग के कार । और उनका जोवन नारकीय बनना नला जाना है। दिननादन उनपर भिन्न-भित्र कप म नारकायना. यादी जा रही है। उनका विवफ. ही पर कि वे अपने जीवन को जबरदस्ती को नाकामना में बना मक और मुख एवं मान में अपना टाटा जीवन कानीन बार गक । का नायर यह ना दनक जीवन का गवगानिमय बनाने मलगा है, किन्दा रन, दिन प्रतिदिन जनसाधारण से जीवन का हान्न नाकाम 3.11. पास खान पाने का इन्तजाम हो पाया ना दिन को गनतम यो क कप नही है. और अगर यह भीहोगमा नो जीवन म मोमम र परापाग बनने का झोपी तो बना नही पान । न परिस्थितियों की पणं जानाग के उपगन्न मामन धाग्या देकर उनका मन और मालि देने के बाद, भोपगना मे उनक माथ जब दम्ना टक्म पर टाग गदना हो जाना है, ओर अपनो गक्यानमा उन्द रटने नलाटगे व मदापय के प्रनि उन्हें लाभकर बना मटन लटन मननगर । माई यह मब क्या है, . किमी प्रकार का म अमत्य करने को ममथं नही। शामन म रत मामक वग अपनी-अपनी जबरदस्ती करने की शनि के अनुमार, जबर. दम्नी के आन गण म मनग्न, जब स्वय मग्य और शान्ति का प्राप्त नहीं है नो क्या तमा शामन भी दंग के अमित जनमाधारण का कभी उनक जीवन को मम्स और शान्तिमय बनाने में कारण बन मकंगा' कदापि नहीं। और कारण क्या, 'आज देश व ममार में जबरदम्ना कप क्रिया का ही विवेक का ऋया कहत है. आज मंमार में और विशंपनः भाग्न दंग म टम · जबरदम्नी गन्द का या तो अयं नही जानते अथवा जानने हा भी उमक आचरण म लीन है। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "जबरदस्ती" आत्मा के तीव्र कषायों में परिणमन को जैन सिद्धान्त ने कहा है जबतक आत्मा का तीव्र कषायों में परिणमन न हो तब तक एक व्यक्ति के साथ दूसरा जबरदस्ती कर ही नहीं सकता और जब तक मनुष्य की प्रवृत्ति पांच इन्द्रियों के विषयों को तीव्रता को प्राप्त न हो तब तक ऐसा पुरुष तीव्र कपायों का अवलंबन ही नहीं ले सकता । सोई आज देश ने पाश्चात्य सस्कृति का पदचुम्बन कर, आज का शासन शासक देश को उसी में डुबाने को तत्पर है और स्वयं उसमें भीषणता से डूबा हुआ है । आज शासन सत्य को तो जानता ही नहीं, विवेक उसके पास फटकता ही नहीं, वह तो अपने विषय-कपाय के तुष्टीकरण हेतु मात्र जबरदस्ती की क्रियाओं में संलग्न है और अपने जबरदस्तों के आचरण को बढ़ाता ही जाता है । देश में जबरदस्ती के आचरण का ही बोलबाला है । अस्तु ! जबरदस्ती की क्रिया ही अत्याचार है और इसी क्रिया का आज देश में भिन्न-भिन्न रूपों में बोलबाला है। ऐसे देश को अगर जबरदस्ती की क्रियाओं अथवा अत्याचारों का घर कहें तो तनिक भी अतिशयोक्ति नहीं होगी । जब शासन हो विवेक रहिन हो जाय और हर समस्या का हल विवेक में नपा सके तो आज का अज्ञानी जन साधारण विवेक में परिणमन कर मके, यह एक असाध्य चर्चा है आज की शिक्षा-दीक्षा सभी के परिणाम और उसको प्राप्त मनुष्य के चिन का परिणमत. मात्र जबरदस्ती की क्रियाओं में पोडिन है । आज मनुष्य विवेक खो चुका है विवेक के परिणमन को प्राप्त ही नहीं । आज अगर शासन विवेक क्या है यह जान अपने आचरण को विवकमय कर सके तभी स्वयं एवं अन्य के सुखों में कारण बन सकता है, अन्यथा नही । तिलोग्राम - सागर ४-७-७३ मलाई मले - ६४ - Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मम्यक शब्द का अथ दाद है व. सम्यकच शब्द का अयं गड द्रव्य में घद्धा करना है. मो जीव का गद्ध दर्शन. ज्ञान गण में श्रद्धा को मम्यक्त्व मिथ्या शन्द का अर्थ घर अथवा अगर है व मिथ्यात्व का अर्थ अशुद्ध अगवा विपरीत दन जा में बड़ा करना होता है। चारित्र वाग्यि ताब्द का प्रय-मामा का प्राने ग्यभाव म परिणमना है। मग आत्मा के हाद दान जान गण प्रधान म्वभाव म परिणमन करने को नारि करत है। मान्द का अंग्रेजी भाषा ने Charact माना किन्न अग्रजा भागा-भागा नाम धं को जानना ही नहीं नयापम अर्थ या माना अग्रजी भाषा अगमथं है। जगम म. जा कि आज मवंच अन जावा अन पानामा मापाओना अनुगामी है दमो कारण चाम्पिादक क्या ताब्दमा गत अभाव है। मो पनि मपाश्चात्य गगन जब मां नाचन्द के मर जथं का नग जानती. नव आज जगन म प्रामा का माने म्यभाव म परिणमन कमी या जगात नाविम परिणाम करन का पूर्णमः अभाव निश्निन है। व नापि म आत्मा का सामना विवेक अथवा दर्शन-जान मणम प्रात्मा का नमन है।मा आत्मा का परिणमन मार मम्यग्दष्ट कही मंभव है। चतथं गणम्यानमो जीव को गम्यक्त्व की प्रालि यानी है। मंग पूर्व प्रथम नान गणग्थानी म आमा गम्यान्य की प्राप्ति नही कर पाना अयांत मम्यग्दाष्ट्र नहीं बनना ।ग प्रकार तथं गणम्यानवी मिथ्यात्य और गम्यक्त्व का मंद जानना है, अथवा जान और अजान का भंद जानना है । एमा प्रात्मा हो भद विज्ञानी कहना । भेद विज्ञान अर्थात ज्ञान अजान का भेद जानने के उपगन्न हा आत्मा का चारित्र म परिणमना मंभव होना है। अनाव चतुर्थ गम्यानवों आत्मा अविग्न अथवा अमयमी आत्मा कहलाता है.. मा आत्मा नंद विज्ञानी होने पर भी अचारित्रवान ही रहता है। भंदविज्ञान हान पर अयांत ज्ञान और अज्ञान का भेद जानने पर आत्मा का परिणमन मिथ्यात्व में हट सम्यक्त्व में ददता को प्राप्त होने लगता है। - ६५ - Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैसे-जैसे सम्यक्त्व की दवना बढ़ती जाती है और मिथ्यात्व क्षीण होता जाता है । वैसे-वैसे आत्मा चारित्र में ददना को प्राप्त होता जाता है। पाचवे गणम्थान में आत्मा का चारित्र थोड़ा मुधरता है. छठवें गुणग्थान में नारित्र पूर्ण हो जाता है. मानवे गणम्थान में मिथ्यात्व अथवा अजान हटना जाग ही आत्मा के चारित्र की गद्धि व वृद्धि होती जाती है । म गणस्थान में चार घानिया कमो का क्षय और उपगम होने लगता है। इन घानिया कमों का उपगम ग्यारहव गणस्थान में हो जाता है, प्रधान ग्यारहव गणम्यान में वे चार घानिया कम वे अमर हो जाते हैं गालाम नाग्यि माहनीय का उपगम कहते है। वाग्दव गणम्यान म वही चार घानिया कम नाग को प्राप्त होते है अधांत यादव गणम्यान म नाग्यि मोहनीय कर्म का क्षय होना है। यही नार घानिया कम जा कि पुदगल के परमाणुओं का कंध होत है. और आत्मा क. प्रमों में प्रवा कर आत्मा के गद्ध दांन ज्ञान र ण को आनन्दादिन कर आत्मा की अपने पद दान-ज्ञान गण में परिणमन नहीं मन देत नका पूर्णन नारा बाग्दव गणम्यान में होने पर आत्मा गद्ध दर्शन-ज्ञान गण में गद व कार परिणमन करने लगता है और मा आत्मा केवलज्ञानी ही तरहय गणम्यान म नार्थ कर पद पाना है। प्रकार जैन आगम ने नारिय सन्द का विरलपण दिया है हम विश्रण को जाने बिना और उमम घड़ा को प्राप्त हा बिना. आत्मा का नाघि म परिणमन करना मभव नहीं हो सकता। आज जगन म आत्माराम विश्रवण कान जान नम्यक्त्व की प्राप्ति ही नहीं कर पाती. फिर उनका चारित्र म प्रवेगी कम ही नहीं हो मकना । आज जन जगन भी स्वयं अपने द्रव्य धन-आगम की जानकारी के प्रभाव म:म विन्याण का नहीं जानता है । और जब तक सम्यक्त्व की प्राप्ति न हा नापिता बनना ही नहीं है. अन्य मतावलम्बियो की अन्य हो जाने । आज व. जगन म मिथ्यात्व का प्रमार नांदतना भीषण है कि अगर व्यनि अक्ति का म्वय के मत वाला कहे तो अमन्य नहीं होगा । अन आज ममा आर अचारित्रवान है। आज जगन म जहां-जहा जितने विवाद दब जाते है नद्रप जिननी समस्या, उन सभी म आत्मा का मिथ्यात्व को सम्यक्त्व जान आत्मा का मिथ्यान्व म परिणमन करना कपाय के चार भेद है, कांध. मान. माया ओर लाभ। इन चार कपायो में आत्मा के परिणमन का हो मिथ्यात्व कहते है। इन चार कपायों Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म परिणमन करता हआ आत्मा के परिण मन को गग-द्रव. मोह भावों में परिणमन करना कहलाता है। इन करायों अथवा गग-ट्रेप माह भावो में आत्मा का विकागे भावों में परिणमन करना कहलाता है। जब आत्मा न ठिकागे भावों में परिणमन करता है तब मे पारणमनका निमिन पा चार घानिया कम रुपी पद्गल के परमाण आत्म-प्रदेशमा म पवाकर पदगल कध बनाते रहते है जिम कामंण मगेर कान। म कामंण मागेर का भयोपगम ममार्ग जीव के मदेव काल लाना है और चार पानिया कम का फल स्वरूप नार अशानिया कम जाय का नार गानया म भ्रमण कग उमेरकार देतात. इन नार गानमा काया को पा, जीव विकाग भावो म पारगमन करता हा जन्म जग और मन्य के दुम्ब मद व काल भागना ही रहता है। मनुष्य आय म जाव का विकनि उपमरना जिममे वरमभ्यय का वाग्नि का सकता है आम उपगन्न नारिप वान हा घानिया अघानिया रमो का नाम: ज्ञान का पान कर सकता है किन्न मियाम बहा । पाल. माज मनापावर-पाय म आचरण करना, उन्दा मग जानता मानना मारनाम अनार चान है। निल ग्राम-माग Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरकारीकरण अथवा केन्द्रीकरण उपगेन गादों का अंग्रेजी भाषा का गब्द (Vati nalisation) है । गुद्ध हिन्दी भाषा में इमे एक गक्ति के आधीन दंग के धन-धन्यादिक को एकत्रित करना कहते हैं। जो नि. इमप क्रिया में पागलवत लग जात मी वह नि., म्वभावतः उम एकायन किय गए धन धन्यादिक का भोगीपभोग प्रथमतः स्वयं करती है और अन्य को उसका भोगाप. भांग म्वय का इच्छाओं के तुष्टीकरण करने के उपगन्त ही करने देता है। आज भाग्न दा गणन यवादी दवा है । गगनयवादिता में प्रत्येक देश वामी का गजा कहते है किन्तु यह ना मभव नही, तथापि उनके द्वाग निवांचिन पुरुप गजा बनते हैं, और उन निर्वाचित पुस्पा के द्वागगासन हेत जितने भी भिन्न-भिन्न मप में मरकारीकरण के कार्यालय स्थापित होते है उनमें क्रियागील मभी कर्मचारी गजा बन जाते हैं क्योंकि गणतत्रवाद शब्द की मान्यता ही "मी है. इस प्रकार देशा में भिन्न-भिन्न क्षेत्रा में जा आज मरकारीकरणम्प को प्राप्त व्यवमाय है. उनके द्वारा उपाजिन धन धन्यादिक को म्वय के भोगापभोग के तुष्टीकरण हेतु वे मभी मंचारी कटिबद्ध है। शासन के द्वाग सरकारीकरण में ग्न जनममुदाय का उम व्यवमाय पर एकाधिकरण होता है और इमाना जब उस व्यवमाय में ग्न जनममदाय अपने भोगोपभोग के तुष्टीकरण में बाधा पाना है, तब वह मठिन हो हरनाल कर देना है. अथात् अपना व्यवमाय हेतु क्रियाओं को बद कर देना है। इसमे जनमानम के जीवन म बाधाए आने लगती है और उस शामन की जो कि गणन प्रवादी अपने को कहता है, उमको प्रगानिक क्षमता अम्न व्यस्त हो जाती है और वह विवेकहोन बन. इस प्रकार की हडनाली को पुलिस-फोजी द्वाग. नाम करने में लग जाती हैं। यह क्रिया आज के गणतंत्रवादी भारत देश में भीषणना में मवंत्र देवी पाई जाती है । गणतंत्रवादी-गासन इम विशाल देवा के अज्ञानी देशवासियों को निरनर यह लोभ देता है कि उसके सरकारीकरण की ममी Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रियाएं देशवासियों को सुख और शांति की वृद्धि कर गो, और वे देश अज्ञानी देश वासी गायन के द्वारा दिये गा प्रलोभनों को पथार्थ जान. शासन द्वारा लगाये गये भीषणता धारण किए हा करो काका बोन होते जाते है और गासन की उमके सरकारीकरण हेतु धन जुटाते हो जाते है। इस प्रकार यह सरकारीकरण की क्रिया दा म उग्रप धारण किए है। सरकारीकरण हा व्यवसायों में. न ता उगमति नमनागियो कं. भोगोपभोगों का तुष्टीकरण हो पाना है और न ही उनकी मम्या पटती है। कारण भी स्पष्ट है. आज दगम भागाभाम. नवाननम माधनी से देश के नगर भरे पडे है उन भडार गोमबद रहे और फिर मामन का बलपा गामा म न गामक बामन ना कमंचागे अगर उन नगगे में भीषणता में उपलब्ध. आज भागाभाग क माधनो की प्राप्ति हेतु अपने गामन के बल का प्रयोग करना :गम गन्दर ही क्या । आज गामन अपना उदयनी दा के अज्ञानीवामिया कान गान्ति एवं ममद्धि देना बनाता है. किन्द न प्रतिदिन माजदारक गरीब देशवामी मुख-शान्ति एव जावन क. मल मन मानता को प्राम दर ही होने देम्व पाए जा इस प्रकार दामन अपन उपस्या र स मदिन प्रतिदिन का भागना जाता है और दशा मगमा आर अगानिका बाल-बान्या या जा रहा है। गामन म रन मनुष्य समाज के विद्वाना का नामनियार मुटने म लगा है. किन्न उनके नाम और नया नया-मरना. अगानि बढ़ान म कारण ना ना, और मान बहाना, किन्तु पान्ति की दिगा देने म. नामनिया ना मालन नही पान । यह मब तथा मवदना क्या कारण है दा म बटना हुई अगानि कम कर. - और मात काम की जन मानुप जाति का जीवन कम आर. पर एक अगसब प्रत आजदार चाटी के नेता-विचारको के दिन पानीपाना में चक्कर गा रहा। जैन सिद्धान्न अथवा जन कानन म : मिद्धान्त राम का अर्थ कानन है) आत्मा का गण नंतना कहन, मक नोन भेद . जान चनना. २. कम चेतना. :.क.मं फल चनना । जान-ननना कंवरजान ये दोनो एकाथं वाची शब्द है और यह गण नीर्थकर व गिद्ध जीवो कहाना है। एम जीव गास्वन मुम्ब क भोक्ता होन। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कम नेतना और कर्म फल चेतना ये समारो जीवों के गण हैं। ममागे जीव जिस प्रकार के गग द्वेष भावों को करता है. उसी रूप और उम मात्रा में वह अगानि का भोक्ता है और वह अगांति ही दुःख है. जिम आज गग द्वंप की नीव ना में जीव के आचरण मे, आज का मनुष्य नीव्रता में भाग रहा है। गामन में ग्न देगवामी तीव्रता में इन्द्रिय मुखों को प्राप्ति हेतु माधनों को एकत्रित करने म अन्य सभी जन मानुष के प्रति उतना ही नीव्रता में घणा को प्राप्त हो क्रियागील हो जाता है. और सरकारीकरण के व्यवमायो को बन्द कर मामन को उमकं भागोपभोग के माधनों की उपलब्धि न धन जुटाने का मजवर कर देना है और शामन देश क गरीब जनता पर नए-ना कर लाद. उनसे शासन म ग्त कर्मचारियों को चन जटाता है । यह क्रिया आज देश में भीषणना से क्रियाशील है। न नो न्द्रिय मुखों की प्राप्ति की होड मंद गति को प्राप्त है और न ही वह भविष्य में दष्टि गोचर ही है। इन्द्रिय सम्खों की प्राप्ति को ही आज का मानव मुग्य कहना और यह गग आज निन्य चरम मीमा लाघ रहा है । जंन मिद्धान्तम प्रकार के गग म आत्मा के परिणमन का ही कर्म चेतना करते हैं। मी चनना ही आत्मा म अगानि दनी है जिसे कम फल, चनना कहते है। आत्मा म जब अगानि होती है नब मी आत्मा दुःग्वा को अनुभव करना है और पाच इन्द्रियो के. मृग्वा मे दु.म्ब को मिटाने में लगती है. किन्तु टन्द्रिय जनिन मुम्ब ना क्षणिक हान है और मे मुम्वा का परिणाम मम्व दुम्व हो दुख होता है क्योकि मनुष्य उनकी प्राप्ति हत आज मवंय हिमात्मक युद्ध दर म्तर पर कर रहा है और भीषणतम नाग करना हा भी पान न्द्रिय के मुखो का नवीकरण करने में असमर्थ है नथापि चतता नहीं और जबरन पाच टन्द्रियों के मुखों की नीव्रता का प्राप्त हो जाता है. नब उमगेर को भी क्षीण एवं व्याधि-ग्रम्न बना देता है. कि जिम गर म प्राय पर्यन्त उस आत्मा का वास होता है, और गर्गर म उत्पन्न ह व्याधियों का जीवन पर्यंत मा आत्मा भागता हुआ दुवा को प्राप्त होता है। जन मिद्धान्त ने कम नेतना को अज्ञानता कहा है. और अज्ञानता में आत्मा के परिणमन के कारण जो दुम्ब हात है उमे कर्मफल चेतना कहा है। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मो आज देश में इस प्रकार सामन-शामक वर्ग में एव प्रजा वर्ग में अज्ञानता को दो ज्ञान गमनकर आज देश के दोनो वगं हम प्रकार अज्ञानता को शिक्षा-दीक्षा को प्राप जोवन पर्यन इमी अज्ञानता के परि. णमन के कारण भोगापभोगो को ही मात्र सममान का कारण जानकर उमो मदद विश्वासको पाउमो मानण करता हा में दशम अजानना का बनाने मागणना में नो पानियो मेंदा में प्रगान गान का नाम क्या - अज्ञानना नो मा. नारे भाजदेशमा जानना शरणमा मपरम्परहार जोया कम गर यान अपने भोगापभोग कोलिपना काय पणाकाम: पकाबनी हनीप्रमा में अज्ञानता का पापा-मात्राकानीका अवता माग ग म्भव है। वनधान! रामनाम ना ना ना मानो पनायगं के जीवन गम' "मायाकारानपानमोर गरमागरण द्वाग सानी ना प्रामा का विमोबाm. II पतनका पानी निकायो । म नागर जीवन न्यागतम नामनी काममा जापान का मगवादालन म जाना मानव पतन नही मामाकागरण आरमाण नाामन का पजावागामातमागापमा. गाना जटाने १० मजवर दला, ग. म नामा प्रजावग .1 कागदाग : ..लमा नबगानम गगब प्रजावग जोवन म अना ? मी मान मात्रा म जटा मरगा पर अमानव है। यह माना जाना मान । अम्त आज का मननम बनानपान जानना कि विचागका मरकाका अगवान्दार मनात म कारण बन सकता है और विनाकामा प्रयवा मागकरण प्रशानी प्रा.मात्राम 'काल मन ही। जेन गिद्धान्न गा मा.भार महिने मामा के परिणमन का अथवा प्राय मान माया ओर लाभ पी कपायो म परिणमन को. अजानना का परिणमन करना है। म प्रकार का परिणमन तो प्रत्यार ममाग आत्मा म विकार होना ही रहता है किन्न न कपायां अथवा विकाग भावा म जब नीता में प्रात्मा का परिणमन होता है. नवामा आत्मा मरकागकरण अथवा केन्द्रीकरण Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को प्राप्त हो म ओर देश के जनजीवन को एक विचार धारा में चलाने में ममथं ही मक यह त्रिकाल संभव नही। मी परिस्थिति में एक मात्र उपाय उन विकारी भावों की नीव्रता का नाश करने में ही है और यह तभी संभव है कि जब भोग विलासों के माधन जो नगगे में आज भर दिए गए हैं. उनका नाग हो, क्योंकि आजका दावागी उनकी प्राप्ति के गग को तीव्रता से प्राप्त है। वह अज्ञानी है और हर प्रकार का गग बढना हो जाता है। जब तक माधन अपनी नटक-मटव. द्वारा अज्ञानी दा वामी को उनके ग्रहण करने के प्रलोभनों को बढ़ा रहे तब तक उनकी प्राप्ति की अज्ञानता नष्ट होना दाट गोचर नही। जन गद्धान्न गे अज्ञानी आत्मा को मिथ्यादष्टि करना है और प्रेमी आत्माओं परिणाम को मिथ्यात्व अथवा मोह कहना है । टमी को जैन मिद्धान्न आत्मा का अमत्य का आचरण कहता है। आत्मा के ज्ञान के आचरण काही जन मिद्धान्न मन्याचरण कहना है मोमा आचरण आज पृथ्वीनर पर कटी भी दष्टिगोनर नहीं है. आत्मा के अज्ञान और ज्ञान के आचरण के भेद को जत्र आत्मा जानने लगता है और ज्ञान में आत्मा के आचरण काही मन्याचरण जान मा आचरण में विश्वास को प्राप्त होता है तब उस ब्रान्मा को सम्बग्दाट जन सिद्धान्त कहता है। मा आत्मा ही जीवन म विपरीत भोगोपनांग के आचरण का त्यागी होता है ओर मा आत्मा हो म्वय मुग्व व याति को ग्रहण करता है और अन्य को मुग्न यानि दने का मार्ग देने में कारण बनता है माई आज मामन मिथ्यात्व की भीषणता को प्राप्त है वह नो विगाल मात्रा में लगे सरकारी-करण में रत कर्मचारियों के भौगोपभोग के माधना का तृष्टि. करण करने में असमर्थ है. फिर प्रजावर्ग में उमी भौगोपभोग का तृष्टिकरण करने में किस प्रकार ममर्थ होगा यह दृष्टिगोचर नहीं । ___अज्ञानी प्रजा वर्ग नो अज्ञानो है ही किन्त मार्ग दर्शक गामन-गामक वर्ग जब भीषणता में मरमागकणों व कगें हाग गरीव अज्ञानी प्रजा वर्ग को चमना हो जाय तो द ख अगान्ति बढ़ती ही जायगी। हे देश के मानवों ज्ञान-अज्ञान का भेद जानी और ज्ञान में श्रद्धा को प्राप्त हो उमी म आचरण कगे यही मात्र मुख पाति का उपाय है. अन्य नही। तिलोग्राम-मागर ... Saint H2 १०-८-७३ । 1-मागर . ..... Page #77 --------------------------------------------------------------------------  Page #78 --------------------------------------------------------------------------  Page #79 -------------------------------------------------------------------------- _