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सिद्ध जीव शुद्ध दर्शन ज्ञान गुण में परिणमन करता निराकुल शाश्वत् सुख का भोक्ता सदैव काल एक रूप हो जाता है। __ यथा “सो यह आत्मा लोकप्रमाण असंख्यात प्रदेशी है, उन असंख्यात प्रदेशों में पुद्गल कर्म वर्गणा पिंड मन वचन काय वर्गणाओं की सहायता से जो आत्मा के प्रदेशों का कंपरूप योग का परिणाम है, उसी के अनुसार जीव के प्रदेशों में प्रवेश करते हैं, और परस्पर में एक क्षेत्रावगाह कर बंधते हैं, तथा वे कम वर्गणा पिंड राग, द्वेष मोह भाव के अनुसार अपनी स्थिति लेकर ठहरते हैं, उसके बाद अपना फल देकर क्षय हो जाते हैं।" ___ "जो जीव पर द्रव्य में रागी है, वही ज्ञानावरणादिक कर्मों को बांधता है, और जो राग भाव कर रहित है, वह सब कर्मकलंकों से मुक्त होता है निश्चय कर संसारी आत्माओं के यह रागादि विभाव रूप अशुद्धोपयोग ही भाव बंध है, ऐसा बंध का संक्षेप कथन हे शिष्य; तू समझ ।"
तिलोग्राम-सागर २-२-७३