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शुद्ध आत्मा (परिभाषा)
"जो शुद्ध दर्शन-शानमय आत्मा है मो ही में हूं अन्य जो भाव हैं, वे पर भाव हैं, मुमसे भिन्न हैं, मैं उन पर भावों वाला नहीं हूँ; वे सब जड़-अचेतन भाव हैं, ऐसा जो स्वर विवेकी में हैं, वही में हैं, में अन्य नहीं हैं।"
"दर्शन-शान-चाग्त्रि रूप परिणत आत्मा यह जानता है कि निश्चय से में एक हूँ शुद्ध हूँ दर्शन ज्ञान मय हैं; सदा अरूपी हूं किंचित् मात्र भी अन्य पर द्रव्य परमाणु मात्र भी मेरा नहीं है, यह निश्चय है।" _ "ज्ञानी विचार करता है कि-निश्चय से मैं एक हूँ, शुद्ध हूँ, ममता हित हूँ, ज्ञान दर्शन से पूर्ण हूँ, उम स्वभाव रहता हुआ (में) इन क्रोधादिक मवं आस्रवों को क्षय को प्राप्त कराता हूँ।"
"यह आस्रव जीव के माथ निबद्ध हैं, यह अध्रुव हैं अनित्य हैं, तथा अगरण हैं, और वे दुःख रूप हैं, दुःम्व हो जिनका फल है-ऐसे हैं, ऐसा जानकर ज्ञानी उनमे निवृत्त होता है।"
तिलोग्राम-सागर १५-२-७३
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