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जैन दर्शन जैन सिद्धान्त ने जोव कर्म व पुद्गल कर्म का भेद किया है और बताया है कि संसारी आत्मा, जीव कर्म का कर्ता एवं भोक्ता है; वह जीव कर्म अथवा भाव कर्मों का कर्ता और उन्हीं भाव कर्मों का भोक्ता है किन्तु पुद्गल कर्म का कर्ता पुद्गल ही है उसका कर्ता भोक्ता आत्मा त्रिकाल नहीं होता। एक द्रव्य की क्रिया दूसरे द्रव्य में नहीं होती। पुद्गल में ज्ञान न होने से पुद्गल सुख-दुःख का भोक्ता नहीं होता। केवल जीव द्रव्य में ज्ञान-अज्ञान होने से, संसारी जीव अज्ञानता में परिणमन करता हुआ संसारी सुखों एवं दुःखों का अपने अज्ञान भावों में परिणमन करने से भोक्ता है। यही अज्ञान भाव, उस जीव का उस अज्ञान भाव की प्रचुरता अथवा मंदता के अनुपात में संसारी दुःख अथवा सुख है। जब जीव ज्ञान भाव में परिणमन करने लगता है, तब संसारी मुख दुःख जो पराधीन होने से दोनों हो दुःख रूप हैं, का अभाव हो जाता है, यही परिणाम जीव का समता भाव का परिणाम है । समता भाव में परिणमन करते हुए जीव के उस निमित्त का नाश हो जाता है जिसके कारण पुद्गल कर्म वर्गणा पिंड आत्म प्रदेशों में प्रवेश कर ज्ञानावरणादि अष्ट कमों का पिंड अर्थात् कार्मण शरीर बनाते हैं। रागद्वेष भाव अचेतन भाव हैं यही अध्यवसान भाव हैं और इन्हीं का निमित्त पा, पुद्गल-परमाणुओं का स्कंध-कार्मण शरीर-आत्म प्रदेशों में बनता रहता है और जब राग द्वेष भावों में आत्मा का परिणमन रुक कर राग, द्वेष रहित समता भावों में परिणमन होने लगता है तब पुद्गल परमाणुओं का आत्म प्रदेशों में प्रवेश रुक जाता है। समता भावों में आत्मा का परिणमन होने के उपरान्त कार्मण शरीर के पुद्गल परमाणुओं का आत्म प्रदेशों से निकलना जारी हो जाता है और नया प्रवेश नहीं होता यह पुद्गल परमाणुओं का खिरना निर्जरा द्वारा जारी रहता हुआ जब वे पुद्गल परमाणु पूर्णतः खिर जाते हैं तो निमित्त के अभाव में उनका प्रवेश पुनः नहीं होता और जीव द्रव्य शुद्ध अवस्था को प्राप्त होता है; जिसे सिद्ध अवस्था कहते हैं। संसारी सुख-दुःख तो भाव कर्म होते हैं,
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