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सुख किसे कहते हैं ? "अपने बापसे ही उत्पन्न, संपूर्ण सब पदार्थों में फैला हुआ, निर्मल और अवग्रह ईहा आदि से रहित, ऐसा ज्ञान निश्चय सुख है-इस प्रकार सर्वज्ञ ने कहा है।"
दुस किसे कहते हैं। "जो पांच इंद्रियों से प्राप्त हुआ मुख है, सो ऐसे सुख की तरह दुःख रूप हो है; क्योंकि जो सुख पराधीन है, क्षुधा-तृषा आदि बाधायुक्त है, असाता के उदय से विनाश होने वाला है, कर्म बंध का कारण है; क्योंकि जहाँ इंद्रिय मुख होता है वहाँ अवश्य रागादिक दोषों को सेना होती है-उसी के अनुसार कर्म धलि लगती है और वह सुख-विषय अर्थात् चंचलपने मे हानि वृद्धि रूप है।"
ज्ञान चेतना अतीन्द्रिय मुख है।
कर्म चेतना सांसारिक सुख दुःख हैं । "स्वपर का भेद लिए हुए जीवादिक पदार्थों को भेद सहित तदाकार जानना, वह मान भाव है अर्थात् आत्मा का ज्ञान भाव रूप परिणमना उसे ज्ञान चेतना कहते हैं; और आत्मा ने अपने कर्तव्य से समय-समय में जो भाव किए हैं, वह भावरूप कर्म है वह शभादिक के भेद से अनेक प्रकार है, उसो को कर्म चेतना कहते हैं, और मुख रूप अथवा दुःख रूपउस कर्म का फल है-ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है।
सुख व दुःख का भेद केवलज्ञान अनाकुल सुख है व
अज्ञान ही दुःख है। "जो केवल ऐसा नाम वाला ज्ञान है वह अनाकुल सुख है, और वही सुख सबके जानने रूप परिणाम है, उस केवलज्ञान के आकुलभाव नहीं कहा है, क्योंकि ज्ञानावरणादि चार धातिया कर्म नाश को प्राप्त हुए हैं।
पदार्थों के पार को प्राप्त हुआ केवलज्ञान है तथा लोक और अलोक में फैला हुआ केवलदर्शन है। जब सब दुःखदायक अज्ञान नाश हुआ, तो फिर सुख का देने वाला ज्ञान है, वह प्राप्त हुआ हो।"
तिलीग्राम-सागर ७-१२-७२
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