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भगवान महावीर ने कहा है :
राग, देष, मोह भावों में आत्मा का परिणमन करना, सो ही अत्याचार है और इन्हीं भावों में परिणमन करने वाला आत्मा हो अत्याचारी है, और ऐसा अत्याचार करनेवाला आत्मा ही स्वयं के किये, उन अत्याचारों का फल भोगता है, इस सिद्धान्त को अन्यथा नहीं किया जा सकता। ऐसा आत्मा ही संसार के दुःखों को जीवन पर्यन्त भोगता है । ऐसा आत्मा ही पुद्गल कामण शरीर बनाने में कारण बन, नवीन पर्याय धारण कर पुनः-पुनः संसार के दुःख भोगता रहता है । ___ जब आत्मा राग, द्वेष मोह में अपने परिणमन को त्यागे, और अपने शुद्ध भावों में-जान दर्शन गुण में परिणमन करे, तभी वह निराकुल सुख पाता है और तभी कार्मण शरीर क्षीण होता जाता है। क्षीण होतेहोते जब इस कार्मण शरीर का नाश हो जाता है. तब आत्मा पुनः संसारी पर्यायें धारण नहीं करता। वह आत्मा अपनी अमूर्तीक (सिद्ध) पर्याय धारण कर शाश्वत मुख का भोक्ता बन जाता है।
सिलीग्राम-सागर १०-४-७३
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