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संसारी जीव का परिणमन एक द्रव्य का परिणमन दूसरे द्रव्य में त्रिकाल संभव नहीं।
-जैन-सिद्धान्त अतएव देश में शासन-शासकों का यह कहना, जानना, और मानना कि वे देश के नागरिकों को सुखो-दुःखी कर सकते हैं व उन देशवासियों को सुखी करने में लगे हुए हैं--यह उनकी मान्यता एवं तद्वत विश्वास को प्राप्त होकर उनका तद्वत् आचरण, उनकी मात्र मूर्खता-अज्ञानता का द्योतक एवं आचरण है; अन्य कुछ भी नहीं है ।
संसारी जीव-पुरुष सदेव विभावों में परिणमन करता है । रागद्वेषमय आत्मा के परिणमन करने को विभाव कहते हैं। इन विभावों में आत्मा का परिणमन संसारी सुम्व-दुःख हैं। विभावों की तीव्रता में परिणमन से आत्मा दारुण दुःख पाता है और उनकी मंदता आत्मा के संसारी सुखों में कारण बनती है।
शासनवर्ग एवं शासक वर्ग, स्वयं तीव्रता से विभावों में परिणमन करता, स्वयं के विषय-कपायों के तुष्टीकरण में भीषणता से संलग्न है । इन्हीं विषय-कषायों के तुष्टीकरण हेतु उसकी फौजें एवं पुलिस, विश्वविद्यालय, कचहरियों एवं अस्पताल हैं। इन्हीं के तुष्टीकरण हेतु उनके उद्यम-व्यवसाय के सरकारी-करण हैं उनके विषय-कषायों के तुष्टीकरण की तीव्रता, देशवासियों पर से भीषणता से कर-वसूली करवा रही है।
विषय कषायों का परिणमन, संसारी आत्मा के तीव्र विभावों का परिणमन है । आत्मा का तीव्रतम विभावों में परिणमन ही आज आत्मा का गद आचरण एवं धर्म अथवा जीवन का लक्ष्य कहा जाता है, माना जाता है और इसी में संसार, आज विश्वास को प्राप्त है। यह भी संसार जानता है कि जीवन पर्यन्त विषय-कषायों का तुष्टीकरण होता नहीं है, तथापि स्वय के तुष्टीकरण हेतु देशवासियों का भिन्न-भिन्न उपायों द्वारा भीषणता से शोषण को प्राप्त है।