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आज देश का नागरिक जीवन का अंत तो हो गया किन्तु सरकारी दरवाजे पर नागरिक की पेशी का अंत नहीं हो पाया-सरकारी दृष्टि में उसके गुनाहों का अंत आज देश में नहीं। __सरकारी विभागों के इंसपेक्टर, नागरिक की पकड़जकड़ में बहु. रूपेण बहुसंख्यकता से नागरिक के जीवनरूपी आकाश में क्या टिड्डोदल जैसे नहीं मड़रा रहे हैं ? क्या नागरिक की कमाई की छीना-झपटी इन इंसपेक्टरों और उनके गुरुशामकों का भोजन नहीं है ? क्या आज का नागरिक इन इंसपेक्टरों और शासकों की दया पर जीवन नहीं बिता
___ क्या यही गांधीवादी मुम्व-गांति का नमूना है ?
तिलीग्राम-सागर २७-२-१९७६
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mink naden