________________
प्रस्तावना
जैन-शासन और उसमें आत्मा का परिणमन
ज्ञान देने लेने की वस्तु नहीं है । आत्मा का गुण ज्ञान है जो कि दर्शनरूप समस्त संसार को देखता जानता है, किन्तु संसारी आत्मा सदेवकाल राग, द्वेष, मोहभावों में परिणमन करता है, जिस कारण पुद्गल द्रव्य के सूक्ष्म परमाणु, स्वयं आत्म प्रदेशों में प्रवेशकर, अपने ही स्निग्ध रूक्ष गुणों से स्कंधरूप बनते रहते हैं जिसे कार्मण शरीर कहते हैं और, जिसके आठ भेद हैं; जिन्हें घातिया कर्म - ज्ञानावरण, दर्शनावरण मोहनीय तथा अंतराय कर्म व अघातिया कर्म - वेदनीय, आयु. नाम और गोत्र कहते हैं । ये चार घातिया कर्म आत्मा के शुद्ध दर्शन ज्ञान गुण को आच्छादित कर देते हैं और ऐसा संसारी आत्मा राग, द्वेष, मोह, रूप अज्ञानभाव में सदैव परिणमन करता रहता है । आत्मा का इस प्रकार परिणमन होने से वे चार घातिया कर्म अपने फलरूप चार अघातिया कर्म उपजाते हैं और इन्हीं के फलरूप संसारी आत्मा चार गतियों में भ्रमण करता, छह कायों में शरीर धारण कर, उपजता विनशता रहता है और जन्म जरा व मृत्यु के दुःख सदैवकाल भोगता रहता है । यह क्रिया सदैव जारी रहती है और इसे जीव की क्रमबद्ध पर्याय कहते हैं ।
आत्मा का शुद्ध दर्शन ज्ञान में आचरण, उसका सत्याचरण है, जिसे धर्म कहते हैं और आत्मा का राग, द्वेष, मोह रूप अंज्ञान में आचरण, उसका असत्याचरण है । सत्याचरण से आत्मा सदेव सुखी होता है और असत्याचरण से आत्मा सदेव दुःखी होता है ।
सत्य - आचरण में कभी कोई विवाद अथवा समस्याएँ खड़ी नहीं होती और आत्मा के असत्याचरण में विवाद एवं समस्याएँ सदैव खड़ी होती रहती हैं और वे आत्मा के असत्याचरण की तीव्रता में सदेव बढ़ती ही जाती हैं । आज जगत् में मनुष्य जाति में असत्याचरण का भीषण प्रकोप है, जिस कारण से वह मनुष्य जाति भीषणता से विवाद समस्याओं में उलझती जाती है । असत्याचरण भी बढ़ता जाता है और उसी प्रकार मनुष्य जाति का विवाद समस्याओं में उलझना भी बढ़ता हो जाता है । ज्ञान एवं सत्य को न जान मनुष्य जाति का लक्ष्य सत्याचरण की ओर
कहीं भी नहीं है ।
Gamb
मलय
तिलोग्राम - सागर २१-६-७३
७