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कर्ता और कर्म बिना कारण के कार्य नहीं होता और जो कार्य अथवा क्रिया है वही कर्म है । और जो कारण है वह गुणस्थान है । जो गुणस्थान कर्ता बनता है, उसी गुणस्थान का सुखदुःख जीव भोगता है, अत: सिद्ध हुआ कि जीव के जो गुणस्थान हैं वे ही संसारी सुख-दुःख हैं। ___ संसारो जीव गुणस्थानवतॊ है और जीव का गुणस्थानों में परिणमन संसार है । संसारी जीव अपने गुणस्थानों के अनुरूप कार्मणशरीर के बनने में निमित्त बनता है और वह कार्मण शरीर पुद्गलपर्याय धारण करता एक पर्याय से दूसरी पर्याय में जा चारों गतियों में सदैव काल भ्रमण करता रहता है और संसारी पर्यायों के मुख-दुःख भोगता रहता
निश्चयनय-व्यवहारनय में उपरोक्त चर्चा :निश्चय का ऐसा मत है कि आत्मा अपने को ही करता है और फिर आत्मा अपने को ही भोगता है, ऐसा हे शिष्य तू जान । -स. ८३
व्यवहारनय का यह मत है कि आत्मा अनेक प्रकार के पूदगलकमं को करता है और उसी अनेक प्रकार के पुद्गलकर्म को भोगता है।-स. ८४
संसारी जोव दो प्रकार के हैं-शुद्ध और अशुद्ध । अशुद्ध जीव का परिणमन आकुलता सहित होता है वह परद्रव्य में सदैव सुखों को ढूंढता है और न पा दुःखी होता है ।
शुद्ध जीव का परिणमन निराकुलता में होता है, वह स्वयं के दर्शनज्ञान गुण में सुख को ढूंढता पाता, सदेव सुखी होता है। पर की आकुलता का उसे, सुखों का कारण नहीं तथापि आकुलता का दुःख भी नहीं।
तिलोग्राम-सागर ९.३-७३
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