________________
जीव द्रव्य चैतन्य गुण रूप है अथवा अन्य गुण भी है ?
मनुष्य के चित्त का दिवालियापन जितना आज देखा व जाना जाता है, उतना आज से पूर्व कभी नहीं हुवा।
वह सुख और शान्ति को चाहता तो है, किन्तु आज चित्त के पतन के कारण, उसके सभी उपाय दुःखों एवं अशांति को बढ़ाते ही जाते हैं।
पृथिवीतल पर दुःख एवं अशांति, हर वर्ग में भीषणता से बढ़ती दृष्टिगोचर है। मुख शांति को ढूंढ़ता मनुष्य हर स्थान पर पाया, देखा जाता है, किन्तु जब उसको अचेतना हटे तभी मुख शान्ति वह पाए, सो अचेतना तो उसकी निरंतर बढ़ती ही जाती है।
चेतनता का मार्ग तो वह पकड़ता ही नहीं, सुख और शान्ति प्राप्त फिर वह कैसे करे?
हे मानव, आज जो तु प्रमादभाव से उत्तेजित हो, जीवन पर्यन्त, हिसात्मक लडाइयाँ लड़ता ही जाता है सो इन हिंसात्मक लड़ाइयों का अंत तो जीवन पयंत कर नहीं पाता और जीवन का अंत हो जाता है।
इस प्रकार तू दुःख और अशांति को बढ़ाता. जीवन का अंत इनमें इबकर कर देता है और प्रमाद भाव को बढ़ाने वाली जीवन की पूर्ण शिक्षा, अविद्या अथवा कुविद्या को ज्ञान की प्राप्ति की देशा कहता है।
ज्ञान की प्राप्ति की दिशा को पाने पर तु चिरकाल सुख एवं शान्ति पाएगा, उसे दंढ, वह तो उनेजनाओं को हनन करने वालो, अप्रमत्त दशा है, सो प्रमाद भाव का हनन कर।
पर द्रव्य में परिणमन मे तूने प्रमाद भाव ग्रहण किया है, पर द्रव्य में गग, द्वेष, मोह भाव रूप परिणमन को त्यागने पर, स्वद्रव्य में परिणमन से तू सदैव मुग्व शान्ति क्रू भोगेगा। ___ गग-द्वेष भावों के हनन बिना, मुख और शान्ति-हे मानव, तू असभव जान ".......''जो ज्ञानी भी ‘पर द्रव्य मेरा है' ऐसा जानता हुआ, पर द्रव्य सो निज रूप करता है, वह निःसन्देह मिथ्यादष्टि होता है । इसलिए तत्त्वज्ञ 'पर द्रव्य मेग नहीं है'-यह जानकर (लोक का और श्रमण का) पर द्रव्य में कर्तृत्व के व्यवसाय को जानते हुए, यह जानते हैं, कि यह व्यवसाय सम्यग्दर्शन से रहित पुरुषों का है।" तिलीग्राम-सागर
mmm ३-११-७२
- ११ -