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शुद्ध आत्मा का परिणमन-अथवा संयम, आचरण, चारित्र ।
"पूर्वकृत जो अनेक प्रकार विस्तार वाला (ज्ञानावरणी आदि ) शुभाशुभ कर्म है, उससे जो आत्मा अपने को दूर रखता है वह आत्मा प्रतिक्रमण करता है।
भविष्य काल को जो शुभ अशुभ कर्म जिस भाव से बांधता है उस भाव से जो आत्मा निवृत्त होता है, वह आत्मा प्रत्याख्यान है।
वर्तमान काल के उदयागत जो अनेक प्रकार के विस्तार वाला शुभ अशुभ कर्म है उस दोष को जो आत्मा चेतता है-अनुभव करता है-जाता भाव से जान लेता है । अर्थात् उसके स्वामित्व कर्तृत्व को छोड़ देता है वह आत्मा वास्तव में आलोचना है।
जो सदा प्रत्याख्यान करता है, मदा प्रतिक्रमण करता है और सदा आलोचना करता है, वह आत्मा वास्तव में चारित्र है।"
विषय कषाय में आत्मा का आचरण, लड़कपन है, यही मिथ्यात्व है अर्थात मूर्खता का आचरण है इसी विषय कषाय में आत्मा के आचरण को मर्खता का आचरण जान, श्रद्धा को प्राप्त हो, विषय-कषाय रहित आत्मा का आचरण होना मोई बुढ़ापा जान यही मम्यक्त्व है, सम्यक चारित्र है । यही निश्चय मुख जान ।
तिलोग्राम-सागर १२-३-७३
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