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जीव दो प्रकार के होते हैं १. योगी २. अयोगी
संसारी जीव के योग होता है व सिद्ध अयोगी होते हैं। योगी जीवों के गुणस्थान होते हैं । अयोगी जीव गुणस्थानों से मुक्त होते हैं।
गुणस्थान अचेतन हैं, यह अचेतनता प्रथम गुणस्थान में तीव्रतम होती है और गुणस्थान के उठने पर कम होती जाती है । चतुर्थ गुणस्थानवी जीव, जोव द्रव्य के चेतना गुण और अचेतना का भेद जानने लगता है और अविरत सम्यग्दृष्टि नाम पाता है।
चेतनता एवं अचेतनता का भेद जानने पर हो, जीव चेतनता में श्रद्धा को प्राप्त होता है और तदुपरांत वह अचेतनता को नाश करने का मार्ग धारण करता है। __ अचेतनता का पूर्ण नाश बारहवें गुणस्थान में हो जाता है, और ऐसा जीव मात्र चेतनता में परिणमन करने लगता है और तेरहवें गुणस्थानवर्ती केवलज्ञानी तीर्थकर बनता है । ___ आयु कर्म का नाश होने पर ऐसा जीव, अयोगी सिद्ध अवस्था को प्राप्त होता है।
आगम में किस जीव के कोन कोन से गुणस्थान होते हैं, यह वर्णन "योग मागंणा" द्वारा निरूपित है ।
९३ वें सूत्र में मनुष्य स्त्रियों को संयत बताना आगम के विरुद्ध है, क्योंकि संसारी जीव जब तक संसार भ्रमण करता है तब तक उसकी दो अवस्थायें होती हैं १. पर्याप्त, २. अपर्याप्त । इन दोनों अवस्थाओं में किस जीव के कोन कोन गुणस्थान हो सकता है, यह पूर्णतः योग मार्गणा में निरूपित है।
बाद को मार्गणाएं योग मार्गणा के अंतर्गत ही निरूपित है, इस मार्गना के विरुद्ध नहीं जा सकती हैं।
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