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श्रीवर्द्धमानाय नमः ।
भाग १३।
जैनहितैषी।
सितम्बर, अक्टूबर १९१७ ।
विषय सूची।
३८७
...
३८८
१ ब्राह्मणोंकी उत्पत्ति-ले० बाबू सूरजभान वकील ... ३७५ ।। २ परामर्श ( कविता )-ले०, पं. रामचरित उपाध्याय ... ३ समाजसुधारंमं सबसे अधिक डर किन लोगोंसे है?
ले-वानिहाल करणजी सेठी एम. एस. सी. ४ विचित्र व्याह । काव्य )-ले०, ५० रामचरित उपाध्याय ... ५ दर्शनसार-विवेचनाका परिशिष्ट ६ हमारे देशका व्यभिचार ( उद्धृत )-ले०, ठाकुर शिव
न सिं! बी. ए. ... ... ... ... ... ... ७ आदि पुराणका अवलोकन-ले०, बाबू सूरजभान वकील ४१० ८ प्रमा लक्ष-ले०, मुनि जिनविजयजी ... ... ... ९ जनजातियों के पारस्परिक बेटी व्यवहारमें हानिकी कल्पना ...
४२४ २० पुस्तक-परिचय ... ... ... ... ... ... ११ पछतावा (प)- ले०, श्रीयुत प्रेमचन्दजी ... ... १० जैनजातिके क्षयरोग पर एक दृष्टि-लेखक-वाबू ___ रतनलाल जैन बी. ए. एल. एल. वी. ... ... १३ गोलमालकारिणी सभाके समाचारले० | युत गड़बड़ानन्द शास्त्री.. ... ...
४५२ ४ शास्त्रमामाण्य ... ... ... ... .... ५ विविध प्रतङ्ग ... ... ... ..
४२८
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संपादक नाथूराम प्रेमी
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प्रार्थनायें ।
रोगोंका इलाज आदि अच्छे २ लेख प्रकाशित होत
हैं। इसकी वार्षिक फीस केवल १)रु. मात्र है। १. जनहितैषी किमी स्वार्थबुद्धिसे प्रेरित होकर निजी नमूना मुफ्त मंगाकर देखिये । लाभके लिए नहीं निकाला जाता है। इसमें जो समय 1
भय पता-वैद्य शङ्करलाल हरिशङ्कर और शक्तिका व्यय किया जाता है वह केवल अच्छे विचारोंके प्रचार के लिए । अतः इसकी उन्नतिमें आयुर्वेदोद्वारक-औषधालय, मुरादाबाद। हमारे प्रत्येक पाठकको सहायता देनी चाहिए।
आढ़तका काम । २. जिन महाशयों को इसका कोई लेख अच्छा मालूम हो उन्हें चाहिए कि उस लेखको जितने मित्रोंको
बंबईसे हरकिस्मक माल मँगानेका .. वे पढ़कर सुना सकें अवश्य सुना दिया करें।
सुभीता। ३. यदि कोई लेख अच्छा न मालूम हो अथवा विरुद्ध हमारे यहांसे बंबईका हर किस्मका माल मालूम हो तो केवल उसी के कारण लेखक या किफायतके साथ भेजा जाता है। तांबें व पीत
सम्पादकसे द्वेष भाव न धारण करने के लिए मवि- लकी चहरें, सब तरहकी मशीनें, हारमोनियम, ." नय निवेदन है।
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सिलवर और अलुमिनियमके बर्तन, सब तरहका आमंत्रण है।
-सम्पादक। साबुन, हरप्रकारके इत्र व सुगन्धी तेल, छोटी
बड़ी घड़ियाँ, कटलरीका सब प्रकारका सामान, भारतविख्यात ! हजारों प्रंशसापत्र प्राप्त! पेन्सिल कागज़, स्याही, हेण्डल, कोरी कापी, , अस्सी प्रकारके बात रोगोंकी एकमात्र औषधि स्लेट, स्याहीसोख, ड्राइंगका सामान, हरप्रकारकी
देशी और विला यती दवाइयाँ, काँचकी छोटी * महानारायण तैल। बड़ी शीशियोंकी पेटियाँ, हरप्रका का देशी
हमारा महानारायण तैल सब प्रकारकी वाय- विलायती रेशमी कपड़ा, सुपारी, इलायची, मेवा, की पीड़ा, पक्षाघात, (लकवा, फालिज ) गठिया कपूर अदि सब तरहका किराना, बंबईकी और सुन्नवात, कंपवात, हाथ पांव आदि अंगोंका बाहरकी हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेजी पुस्तकें, जैन जकड़ जाना, कमर और पीठकी भयानक पीडा, पुस्तकें, अगरबत्ता, दशांगधूप, केशर, चंदन पुरानीसे पुरानी सूजन, चोट, हड्डी या रगका
" आदि मंदिरोपयोगी चीजें, तरह तरहकी छोटी दबजाना, पिचजानो या टेढ़ी तिरछी होजाना
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न होगा। सर्वोपयोगी मासिक पत्र। __ हमारा सुरमा और नमकसुलेमानी यह पत्र प्रतिमास प्रत्येक घरमें उपस्थित होकर अवश्य मँगाइए । बहुत बढ़िया हैं। एक वैद्य या डाक्टरका काम करता है। इसमें स्वास्थ्य.
__ पता-पूरणचंद नन्हेलाल जैन । रक्षाके सुलभ उपाय, आरोग्य शास्त्र के नियम, प्राचीन और अर्वाचीन वैद्यकके सिद्धान्त, भारतीय
co जैन-ग्रन्य-रत्नाकर कार्यालय, हीराबाग, वनौषधिय का अन्वेषण, स्त्र, और बालकोंके नकीठ
पो० गिरगांव, बम्बई ।
Printed by Chintaman Sak haram Deole, at the Bombay Vaibhav Press, Servants of India Society's Building, Sandhurst Road, Girgaon, Bombay.
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Wirabag, Bombay.
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तेरहवाँ भाग । अंक ९-१०
sam)
हितं मनोहारि च दुर्लभं वचः ।
जैनहितैषी
न हो पक्षपाती बतावे सुमार्ग, डरे ना किसीसे कहे सत्यवाणी । बने है विनोदी भले आशयोंसे, सभी जैनियोंका हितैषी हितैषी ॥
ब्राह्मणोकी उत्पत्ति |
[ लेखक, श्रीयुत बाबू सूरजभानजी वकील । ] जनसमाजका विश्वास है कि, जब भागभूमि
नहीं रही और कर्मभूमिका प्रारंभ हुआ, तब भगवान् आदिनाथने उस समय के सभी मनुष्योंको क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन तीन वर्णों में विभा जित कर दिया था । इसके बाद भरतमहाराजने अपनी दिग्विजययात्राके पश्चात् इन्हीं तीनों वर्णों के लोगोंमेंसे कुछ धर्मात्माओंको छाँटा और उन्हें ब्रह्मण करार दिया । तबसे चौथा वर्ण भी हो गया । इसके पहले न तो ब्राह्मण वर्ण ही था और न कोई ब्राह्मण ही था । इसके अनुसार हमारे भाइयों की यह भी श्रद्धा है कि, इस समय जितने भी वेदपाठी ब्राह्मण मौजूद हैं, वे सब भरतमहाराजके बनाये हुए ब्राह्मणों की ही सन्ता नमें से हैं जो चौथे कालमें तो जैनधर्म के अनुयायी थे; पर पीछे पंचमकाल में श्रद्धा भ्रष्ट होकर जैनधर्मके द्वेषी बन गये हैं । परन्तु आदिपुराणके ३८ वैसे लेकर ४२ वें तक पाँच पर्वो का स्वाध्याय करने से यह विश्वास ठीक नहीं मालूम होता है और एक बहुत ही विलक्षण बातका पता लगता है यह
भाद्र, आश्विन २४४३. सितम्बर, अक्टू० १९१७.
लेख उसी विलक्षणताको प्रकट करने के लिए लिखा जाता है । पाठकों को चाहिए कि, वे इसे खूब एकाग्र होकर पढ़ें ।
जब भरत महाराज ब्राह्मण वर्ण निर्माण कर चुके थे, तब उन्होंने अपने दरबारमें आये समस्त राजाओंको एक लम्बा चौड़ा उपदेश हुए था । उसका अभिप्राय यह है कि- “ जो अक्षरम्लेच्छ देशमें रहते हों, राजाओंको चाहिए कि उनपर सामान्य किसानों के समान कर लगावें । जो वेदों के द्वारा अपनी आजीविका करते हैं और अवर्मरूप अक्षरोंको सुनासुना कर लोगोंको ठगा करते हैं वे अक्षरम्लेच्छ कहलाते हैं । पापसूत्रोंसे जीविका करनेवाले अक्षरम्लेच्छ हैं । क्यों कि वे अपने अज्ञानके बलसे अक्षरों से उत्पन्न हुए अभिमानको धारण करते हैं । हिंसा में प्रेम मानना, मांस खानेमें प्रेम मानना, जबर्दस्ती दूसरोंका धन हरण करना और भ्रष्ट होना यही म्लेच्छों का आचरण है और ये ही सब आचरण इनमें मौजूद हैं । ये अधम द्विज ( ब्राह्मण ) अपनी जातिके अभिमान से हिंसा करने और मांस खाने आदिको पुष्ट करनेवाले वेदशास्त्र के अर्थको बहुत कुछ मानते हैं । अतः इनको
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जैनहितैषी
[भाग १३
सामान्य प्रजाके ही समान मानना चाहिए, वयं निस्तारका देवब्राह्मणा लोकसम्मताः । अथवा सामान्य प्रजासे भी कुछ निकृष्ट मानना धान्यभागमतो राज्ञे न दद्म इति चेन्मतं ॥ १८७ ।। चाहिए। ये लोग माननेके योग्य नहीं हैं, किन्तु वे वैशिष्टयं किं कृतं शेषवर्णोभ्यो भवतामिह । ही द्विज (ब्राह्मण) मानने योग्य हैं जो अरहंत- न जातिमात्राद्वैशिष्ठयं जातिभेदाप्रतीतितः॥१८८॥ देवके सेवक हैं। यदि ये अक्षरम्लेच्छ यह कहने गुणतोऽपि न वैशिष्ठयमस्ति वो नामधारकाः । लगें कि लोगोंको संसारसे पाप करनेवाले हम ही वतिनो ब्राह्मणा जैना ये त एव गुणाधिकाः॥१८९॥ हैं, हम ही देव ब्राह्मण हैं और सब लोग हम ही- निव्रता निर्नमस्कारा निघृणाः पशुघातिनः । को मानते हैं, इस वास्ते हम राजाको अपने म्लेछाचारपरा यूयं न स्थाने धार्मिका द्विजाः ॥ १९० । फसलका कुछ भी हिस्सा नहीं देंगे, तो उनसे तस्मादतकुरु म्लछा इव तेऽमी महीभुजां ।
प्रजासामान्यधान्यांशदानाद्यैरविशेषिताः ॥ १९१ ॥ पूछना चाहिए कि अन्य वर्गोंसे तुममें क्या विशे
किमत्र बहुनोक्तेन जैनान्मुत्क्वा द्विजोत्तमान् । पता है और क्यों है ? जातिमात्रसे तो कोई
नान्ये मान्या नरेन्द्राणां प्रजासामान्यजीविकाः॥१९२॥ बड़प्पन हो नहीं सकता, रहे गुण, सो उनका तुममें बडप्पन है नहीं; क्यों कि तुम नामके ही ब्राह्मण उपर्युक्त श्लोकोंसे स्पष्ट सिद्ध है कि, जिन जैनी हो । गुणोंमें तो वे ही बड़े हैं, जो व्रतोंको धारण राजाओंको यह उपदेश दिया गया है उनके ही करनेवाले जैन ब्राह्मण हैं । तुम लोग व्रत-रहित, राज्यमें उस समय ये वेदपाठी ब्राह्मण रहते थे, नमस्कार करनेके अयोग्य, निर्लज्ज, पशुऑकी जो वेद पढ़नेके द्वारा ही अन्य लोगोंसे अपनी हिंसा करनेवाले और म्लेच्छोंके आचरणमें जीविका प्राप्त करते थे, और ये लोग ऐसे नहीं तत्पर हो, इस लिए तुम किसी तरह भी धार्मिक थे, जिन्होंने उसी समय कोई नवीन पंथ खड़ा द्विज ( ब्राह्मण ) नहीं हो । राजाओंको उचित करके अपनेको पुजवाना शुरू कर दिया हो, किन्तु है कि, वेइन अक्षर म्लेच्छोंसे साधारण प्रजाके ही ये लोग अनेक पीढ़ियोंसे माने जा रहे थे । तबही समान अनाजका भाग लेकर इनको सबके समान तो इनको अपनी जातिका आभिमान था; और मानें । ज्यादा कहनेकी जरूरत नहीं है । राजा- उनका यह अभिमान उस समय ऐसा प्रभावओंको उत्तम जैन द्विजों (ब्राह्मणों) के सिवाय शाली हो रहा था कि, जैनराजा भी उनसे कर और किसीको भी पूज्य नहीं मानना चाहिए । " नहीं लेते थे। तबही तो भरत महाराजको यह ये केचिच्चाक्षरम्लेच्छाः स्वदेशे प्रचरिष्णवः।
जरूरत हुई कि वे जैनीराजाओंको भड़कावें तेऽपि कर्षकसामान्यं कर्तव्याः करदा नृपैः ॥१८१॥
कि इनसे क्यों कर नहीं लिया जाता है तान्प्राहुरक्षरम्लेच्छा येऽमी वेदोपजीविनः।
और समझा कि लोग पूज्य नहीं हैं, किन्तु अधर्माक्षरसम्पाठेलीकव्यामोहकारिणः ॥ १८२॥
अन्य प्रजाके समान हैं, इस कारण अन्यप्रजाके यतोऽक्षरकृतं गर्वमविद्याबलतस्तके।
समान इनसे भी कर लेना चाहिए । इतना ही घहत्यतोऽक्षरम्लेच्छाः पापसूत्रोपजीविनः ॥ १८३ ॥ म्लेच्छाचारो हि हिंसायां रतिर्मासाशनेऽपि च ।
नहीं, किन्तु इन वेदपाठी ब्राह्मणांका प्रभाव तो बलात्परस्वहरणं निभूतत्वमिति स्मृतं ॥ १८४ ॥
उस समय इतना अधिक था कि, राजाओंको सोऽस्त्यमीषां च यद्वेदशास्त्रार्थमधमद्विजाः । उपदेश देते समय भरतमहाराजको भी यह भय तादृशं बहु मन्यते जातिवादावलेपतः ॥ १८५॥ उत्पन्न हुआ और इस अपने भयको उन राजा. प्रजासामान्यतैवेषां मता वा स्यानिकृष्टता । ओंके प्रति प्रकट भी कर देना पड़ा कि जब इन ततो नमान्यताऽस्त्येषां द्विजामान्याःस्युराहताः॥१८६॥ ब्राह्मणोंसे अन्य प्रजाके समान कर माँगा
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अङ्क ९-१० ]
ब्राह्मणों की उत्पत्ति ।
३७७
जावेगा तो ये लोग अपने पूज्यपनेके घमेंडमें जैनियोंका इतना विरोध किया गया था कि उनका
कर देने से साफ इनकार कर देंगे और स्पष्ट शब्दों में कहेंगे कि, लोगोंको संसारसे पार करनेवाले हम देवब्राह्मण हैं, हमको सब लोग मानते हैं, इस कारण हम राजाको कुछ भी कर नहीं देंगे ।
जीना भी भारी हो गया था । यहाँ तक कि बौद्ध धर्म तो इस देशसे बिलकुल ही उठ गया और जैनधर्मकी यद्यपि बिलकुल नास्ति नहीं हुई; परन्तु वह भी न होनेके ही बराबर हो गया ।
अंधी श्रद्धासे जो चाहे मान लिया जावे; परन्तु विचार करनेपर तो यह कथन किसी तरह भी भरत महाराज समयके अनुकूल नहीं होता है । क्योंकि आदिपुराणके ही कथनके अनुसार वह कर्मभूमिका प्रारम्भिक काल था; श्री आदिनाथ भगवान् उस समय तक विद्यमान थे; जिन्होंने क्षत्री, वैश्य और शूद्र ये तीन वर्ण बनाकर प्रजाको खेतीं, आदि काम सिखाये थे; अर्थात् वर्णों में विभाजित होने और खेती व्यापार आदि कर्म प्रारम्भ होने को अभी एक पीढ़ी भी नहीं बीती थी । अभीसे ये ऐसे ब्राह्मण कहाँसे आ सकते थे जिनको अपनी जातिका घमंड हो, प्रजाके लोग भी जिनको संसारसे पार करनेवाले मानते हों और राजा लोग भी जिनको अन्य प्रजासे उच्च समझकर उनसे अन्य प्रजाके समान कर न लेते हों और जिनका इतना भारी प्रभाव फैल रहा हो और इतना जबर्दस्त जोर बँध रहा हो कि, वे अपने पूज्यपनके घमंड में राजा को भी कर देने से इनकार कर सकें ।
भारतवर्ष एक ऐसे समय से गुजर चुका है, जब ब्राह्मणोंने जैन और बौद्धोंसे यहाँतक घृणा की थी कि उनकी छाया पड़जाने या कपड़ा भिड़ जानेपर भी वे सचैल स्नान करते थे और ऐसी ऐसी आज्ञायें जारी कर दी गई थीं कि यदि मस्त हाथीसे बचने के वास्ते जैनमन्दिरके अन्दर घुस जानेके सिवाय अन्य कोई भी उपाय न हो, तो भी जैनमंदिर के अन्दर नहीं जाना चाहिए; अर्थात् जैनमंदिर में जानेकी अपेक्षा मर जाना अच्छा है । इसही द्वेषके कारण उस समय बौद्ध और
ऐसे प्रबल द्वेषकी अवस्थामें बौद्धों के समान जैनियोंका भी अस्तित्व न उठ जानेका कारण इसके सिवाय और कुछ नहीं है कि, सारे भारत में हिंदुओंकी प्रबलता होने के समय में भी दक्षिण में जैनी राजा होते रहे हैं जिनकी बदौलत उस समय जैनियोंको दक्षिणमें पनाह मिलती रही हैं। और यहीं पर कुछ आचार्य उस समयकी परि-, स्थिति के अनुसार जैनजातिके जीवित रहनेका उपाय बनाते रहे हैं। उनही उपायोंमेंसे एक उपाय जैन ब्राह्मणों का निर्माण करना भी है जो ऐसे ही किसी समयमें दक्षिण देशमें बनाये गये हैं. और अब भी दक्षिण देशमें मौजूद हैं !
आदिपुराणके कर्ता श्रीजिनसेनाचार्यको हुए अनुमान एक हजार वर्ष बीते हैं । वे दक्षिण देशमें हुए हैं और अधिकतर कर्णाटक देशमें ही रहे हैं, जहाँका राजा अमोघवर्ष जैनधर्मका परम श्रद्धालु, सहायक और जिनसेन स्वामीका परम भक्त था ।
भरत महाराजका उपर्युक्त उपदेश आदिपुराणकर्ता आचार्य महाराज और राजा * मिलता है अमोघवर्षके समय से अक्षर अ जब कि ब्राह्मणोंका सारे ही भारतमें पूरा पूरा जोर हो रहा था, वे सर्वथा पूजे जाते थे, न उनसे किसी प्रकारका कर लिया जाता था और न उनको दंड दिया जाता था; सारे भारतमें उनकी ऐसी मान्यता होनेके कारण राजा अमोघवर्षक राज्यमें भी उनका अन्य प्रजासे कुछ अधिक माना जाना और उनसे कर न लिया जाना कुछ आश्वर्यकी बात नहीं है; परन्तु जैनी राजाके राज्यमें भी जैनधर्मके
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परम शत्रु इन द्वेषी ब्राह्मणोंकी मान्यताका होना आचार्य महाराजको किसी तरह भी सहन नहीं हो सकता था, अतः उन्होंने जैनी राजाका सहारा पाकर इन ब्राह्मणोंको अक्षरम्लेच्छ और साधारण प्रजासे भी निकृष्ट सिद्ध करके उनकी मान्यताको तोड़नेके वास्ते अन्य प्रजाके समान उन पर भी कर लग जानेकी कोशिश की, और स्वयं अमोघवर्ष राजाको समझाने के स्थान में भरत महाराजके द्वारा उस • समय के राजाओं को ऐसा उपदेश देनेकी कथा इस कारण आदिपुराण में वर्णन कर दी कि आगे "होनेवाले जैन राजाओं पर भी इस कथाका असर पड़ता रहे ।
जैनहितैषी -
पर्व ४९ में कथन किया गया है कि एक दिन भरत महाराजने कुछ स्वम देखे; जिनको उन्होंने अनिष्टकारी समझकर यह विचार किया कि इनका फल पंचम कालमें ही होगा; क्योंकि इस समय तो श्री आदिनाथ भगवान् स्वयं विद्यमान हैं । उनके होते हुए ऐसा उपद्रव कैसे सम्भव हो सकता है । इस सतयुग के बीत जानेपर जब पंचम का पाप अधिक होगा, तब ही इन स्वप्नोंका फल होगा, चौथे कालके अन्तमें ही ये अनिष्ट सूचक स्वप्न अपना फल दिखावेंगे । परन्तु भरत महाराजने विचार किया कि, इन स्वमोंका फल श्रीभगवानसे भी पूछ लेना चाहिए, इस कारण वे समवसरण में गये और वहाँ उन्होंने श्रीमहाराज से प्रार्थना की कि, मैंने जो द्विजोंकी सृष्टि की है सो यह कार्य अच्छा हुआ या बुरा, और मैंने जो स्वम देखे हैं उनका फल क्या है ? इस पर श्रीभगवान् ने जो उत्तर दिया है, उसका भावार्थ यह है कि - " तूने जो इन साधुसमान गृहस्थ द्विजोंका पूजन किया है, सो जबतक चौथा काल रहेगा तबतक तो ये अपने योग्य आचरणको पालन करते रहेंगे; परन्तु जब कलियुगसमीप आ जावेगा, तब ये लोग
[ भाग १३
अर्पना जातिके अभिमान के कारण अपने सदाचार से भ्रष्ट होकर इस श्रेष्ठ मोक्षमार्गके विरोधी बन जावेंगे और अपनी जातिके अभिमानसे अपनेको सब लोगोंसे बड़ा समझकर धनकी इच्छासे मिथ्या शास्त्रोंके द्वारा सत्र लोगों को मोहित करते रहेंगे, आदर सत्कार के कारण अभिमान बढ़ जाने से ये लोग मिथ्या घमंड से उद्ध होकर अपने आप ही मिथ्या शास्त्रोंको बना बना कर लोगों को ठगा करेंगे, इन लोगोंकी चेतना - शक्ति पापकर्मसे मलिन हो जायगी, अतः ये धर्मके शत्रु हो जायँगे । ये अधर्मी लोग प्राणियोंकी हिंसा करने में तत्पर हो जायँगे, मधुमांसखाने को अच्छा समझेंगे और हिंसारूप धर्मकी घोषणा करेंगे । ये दुष्ट आशयवाले लोग अहिंसारूप धर्ममें दोष दिखाकर हिंसामय धर्मको पुष्ट करेंगे, पापके चिह्नस्वरूप जनेऊ को धारण करनेवाले और जीवोंके मारनेमें तत्पर ये धूर्त लोग आगामी कालमें इस श्रेष्ठ मार्गके विरोधी हो जायेंगे। इस कारण ब्राह्मणवर्णकी स्थापना यद्यपि इस कालमें कुछ दोष उत्पन्न करनेवाली नहीं है, तो भी आगामी कालमें खोटे पाखंडों की प्रवृत्ति करनेसे यह दोषकी बीजरूप है । परन्तु आगामी कालके लिए दोषकी बीजरूप होने पर भी अब इसे मिटाना नहीं चाहिए । क्योंकि ऐसा करने से धर्मरूप सृष्टिका उल्लंघन हो जायगा । यथा:
"
साधु वत्स कृतं साधु धार्मिकद्विजपूजनं । किंतु दोषानुषंगोत्र कोऽप्यस्ति स निशम्यतां ॥ ४५ ॥ आयुष्मन् भवता सृष्टाय एते गृहमेधिनः । ते तावदुचिताचारा यावत्कृतयुगस्थितिः ॥ ४६ ॥ ततः कलियुगेऽभ्यर्णे जातिवादावलेपतः । तेऽमी जातिमदाविष्टा वयं लोकाधिका इति । भ्रष्टाचाराः प्रपत्स्यते सन्मार्गप्रत्यनीकतां ॥ ४७ ॥ पुरा दुरागमैर्लोकं मोहयंति धनाशया ॥ ४८ ॥ सत्कारलाभसंवृद्धगर्वा मिथ्यामदोद्धताः । जनान् प्रतारयिष्यंति स्वयमुत्पाद्य दुःश्रुतीः ॥ ४९ ॥
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अङ्क ९-१०]
ब्राह्मणोंकी उत्पत्ति। त इमे कालपर्यंते विक्रियां प्राप्य दुर्दशः। महाराजके स्थानमें जैन राजाओंको उपदेश धर्मदहो भविष्यंति पापोपहतचेतनाः ॥ ५० ॥ देनेवाले श्री जिनसेनाचार्य मान लिये जायँ तो सत्त्वोपघातनिरता मधुमासाशनप्रियाः।
सब बात ठीक बैठ जाती है। प्रवृत्तिलक्षणं धर्म घोषयिष्यंत्यधार्मिकाः॥५१॥
___भरत महाराजने जो उपदेश अपने दरबारमें अहिंसालक्षणं धर्म दूषयित्वा दुराशयाः ।
आये हुए राजाओंको दिया था, उसके शेष चोदनालक्षणं धर्म पोषयिष्यंत्यमी बत ॥ ५२ ॥ पापसूत्रधरा धूर्ताः प्राणिमारणतत्पराः ।
भागको पढ़नेसे मालूम होता है कि, उस समय वय॑द्यगे प्रवस्य॑ति सन्मार्गपरिपंथिनः ॥ ५३ ॥
मिथ्याती ब्राह्मणोंका प्रभाव इससे भी अधिक द्विजातिसर्जनं तस्मानाद्य यद्यपि दोषकृत् ।
था, जितना कि ऊपरके कथनसे मालूम हुआ स्याद्दोषबीजमायत्यां कुपाखंडप्रवर्तनात् ।। ५४ ॥ है । यहाँ तक कि जैनी राजा भी उन पर श्रद्धा इति कालांतरे दोषबीजमप्येतदंजसा।
रखकर उनके दिये हुए ‘शेषा' अर्थात् देवता : नाधुना परिहर्तव्यं धर्मसृष्टयनतिक्रमात् ॥ ५५॥ पर चढ़ाई हुई फूलमाला आदिकको या पूजनसे
-पर्व ४१। बची हुई सामग्रीको और उनके देवताओंके श्रीभगवान्ने भरत महाराजके स्वमोंका फल स्नानके पानीको ग्रहण करते थे और उन वर्णन करते हुए भी कहा था कि, आदर सत्का- ब्राह्मणोंके आगे सिर झुकाते थे। उस समय रसे जिसकी पूजा की गई है और जो नैवेद्य खा यह प्रथा ऐसी प्रबल हो रही थी कि इस प्रथाका रहा है ऐसे कुत्तेके देखनेका फल यह है कि छुड़ाना भरत महाराजको भी मुश्किल जान के (पंचम कालमें ) अव्रती द्विज भी गुणी पात्रोंके पड़ता था । देखिए भरत महाराजने राजाओंको समान आदर सत्कार पावेंगे । यथाः- उपदेश देते समय क्या कहा हैशुनोऽर्चितस्य सत्कारैश्चरभोजनदर्शनात् । _ "क्षत्रियोंको बड़ी कोशिशके साथ अपने गुणवत्पात्रसत्कारमाप्स्यत्यवतिनो द्विजाः ॥ १४ ॥ वंशकी रक्षा करनी चाहिए और वह इस
-पर्व ४१। तरह पर हो सकती है कि, उनको अन्य भरत महाराजने राजाओंको उपदेश देते हुए मतवालोंके धर्ममें श्रद्धा रखकर उनके दिये जिन वेदपाठी ब्राह्मणोंकी निन्दा की है उनका हुए शेषा और स्नानोदक आदि कभी ग्रहण मिलान पंचम कालके उन ब्राह्मणोंके साथ नहीं करने चाहिए । यदि कोई कहे कि . करनेसे-जिनका वर्णन श्रीभगवानकी उक्त भविष्य- उनके शेषाक्षत आदि ग्रहण करने में क्या दोष द्वाणी और स्वमफलमें हुआ है-दोनोंका है, तो उसका उत्तर यह है कि इसमें अपने स्वरूप एक ही हो जाता है; अर्थात् यही मालूम महत्वका नाश होता है और अनेक अनिष्ट होता है कि भगवान्ने, ब्राह्मणाका जो स्वरूप होते हैं, इस वास्ते उनका त्याग करना ही पंचमकालमें हो जाना वर्णन किया है मानों उचित है । दूसरोंके सामने सिर झुकानेसे वे ही ब्राह्मण भरत महाराजका उपदेश होते अपने महत्त्वका नाश होता है, इसलिए समय चौथे कालके प्रारम्भमें ही मौजूद थे; उनकी शेषा आदि लेनेसे अपनी निकृष्टता ही या ऐसा मालूम होता है, मानों भरत महाराज ही होती है। कदाचित् कोई पाखंडी किसी प्रकारका पुचम कालमें अवतार लेकर इन पंचम कालके द्वेष करके राजाके सिरपर 'विष-पुष्प ' रख दे, तो ब्राह्मणों पर कर लगानका उपदेश पंचम कालके इसतरह भी राजाका नाश हो सकता है, या जैनी राजाओंको दे रहे हैं । अर्थात्, यदि भरत कोई राजाको मोहित करनेके लिए राजाके सिर
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जैनहितैषी
[भाग १३
पर वशीकरण-पुष्प रख दे, तो वह राजा पागल- इन श्लोकोंसे प्रकट है कि जैनी राजाओंको के समान होकर उसके वशमें हो जायगा । इस अन्य मतियोंके देवताका प्रसाद आदि लेनेसे लिए राजा. लोगोंको अन्यमतवालोंकी शेषा रोकने के लिए भरत महाराजने केवल धर्म उप
आशीर्वाद, शान्तिवचन, शान्तमंत्र और पुण्याह- देश देना ही काफी नहीं समझा है, किन्तु उन्हें वाचन आदि सबका त्याग कर देना चाहिए। बड़े बड़े भय दिखलानेकी भी जरूरत मालूम यदि वह त्याग नहीं करेगा तो नीच कुलवाला हुई है, जिससे स्पष्ट सिद्ध है कि उस हो जायगा । जैनी राजा अरहंत देवके चरणोंकी समय अन्यमतियोंका बहुत ही ज्यादा प्रभाव सेवा करनेवाले होते हैं, इस वास्ते उनको अर- और प्रचार था; परन्तु जिस समयका हंत देवकी ही शेषा आदि ग्रहण करनी चाहिए, यह वर्णन है वह कर्मभूमिका प्रारम्भिक काल जिससे उनके पापोंका नाश हो। जो लोग जैनी था जब कि श्रीआदिनाथ भगवान्ने सब लोगोंको नहीं हैं, उनको कोई अधिकार नहीं है कि वे खेती व्यापार आदि छह कर्म सिखाये थे और क्षत्रियोंको शेषा देवें । इस वास्ते राजा लोगोंको नगर ग्राम आदि बनाकर उन ही लोगोंमेंसे योग्य अपने कुलकी रक्षा करनेके लिए सदा कोशिश पुरुषोंको भिन्न भिन्न देशोंके राजा नियत किये करते रहना चाहिए । यदि वे ऐसा न करेंगे तो थे, और फिर केवलज्ञान प्राप्त करके वे अपनी अन्यमती लोग झूठे पुराणोंका उपदेश सुनाकर दिव्यध्वनिके द्वारा जगत्भरमें सत्य धर्मका उनको ठग लेंगे ॥" मूल श्लोक ये हैं:- प्रकाश कर रहे थे और उनके बेटे भरत महाराज तैस्तु सर्वप्रयत्नेन कार्य स्वान्वयरक्षणं ।
छः खंड पृथिवीको जीतकर ३२ हजार मुकुटबद्ध तत्पीलनं कथं कार्यमिति चेत्तदनूच्यते ॥ १७ ॥ राजाओं पर राज्य कर रहे थे । इस कारण भरत स्वयं महान्वयत्वेन महिम्नि क्षत्रिया: स्थिताः।
महाराजका उपर्युक्त उपदेश उस समयके अनुकूल धर्मास्थया न शेषादिग्राह्यं तैः परलिंगिनां ॥ १८॥
किसी तर तच्छषादिग्रह दोष कश्चन्माहात्म्यविच्युतिः।
सेनाचार्यके समय से यह कथन अक्षर अक्षर मिल अपाया बहवश्वास्मिन्नतस्तत्परिवर्जनं ॥ १९ ॥
जाता है, जब कि सारे ही भारतमें ब्राह्मणोंका माहात्म्यप्रच्युतिस्तावत्कृत्वान्यऽस्य शिरोनतिं ।
जोर हो रहा था और जब कि सारे भारतमें ततः शेषाद्युपादाने स्यानिकृष्टत्वमात्मनः ॥ २० ॥ प्रद्विषन्परपाखंडी विषपुष्पाणि निक्षिपेत् ।
अमोघवर्ष जैसे एक ही दो जैनी राजा दिखाई यद्यस्य मूर्ध्नि नन्वेवं स्यादपायो महीपतेः ॥ २१ ॥
देते थे और बाकी सब ही राजा ब्राह्मणोंके वशीकरणपुष्पाणि निक्षिपेद्यदि मोहने ।
अनुयायी थे । ऐसे समयमें अमोघवर्ष आदि ततोऽयं मूढवद्वृत्तिरुपेयादन्यवश्यतां ॥ २२ ॥ राजाओंका भी इन ब्राह्मणोंके हाथसे उनके तच्छेषाशीर्वचः शांतिवचनाद्यन्यलिंगिनां ।
देवताका प्रसाद लेना, उनको प्रणाम करना, पार्थिवैः परिहर्तव्यं भवेन्यक्कुलतान्यथा ॥ २३ ॥
उनका आशीर्वाद आदि स्वीकार करना और जैनास्तु पार्थिवास्तेषामहत्पादोपसेविनां।
देशभरमें इन ब्राह्मणोंकी प्रतिष्ठा होनेके कारण तच्छेषानुमतिया॑य्या ततः पापक्षयो भवेत् ॥ २४ ॥
इस प्रथाका त्याग कठिनतर होना बहुत ही ततः स्थितमिदं जैनान्मतादन्यमतस्थिताः । क्षत्रियाणन शेषादिप्रदानेरधिकता इति ॥ २९॥
सम्भव मालूम होता है । इससे यही सिद्ध कुलानुपालने यत्नमतः कुर्वेतु पार्थिवः। होता है कि यह सब उपदेश भरत महाराजने अन्यथारन्यैः प्रतार्येरन्पुराणाभासदेशनात् ॥३०॥ अपने समयके राजाओंको नहीं दिया; किन्तु
--पर्व ४२। जिनसेन महाराजने ही यह उपदेश अमोघ
ह
जन
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अङ्क ९-१०]
ब्राह्मणोंकी उत्पत्ति।
वर्ष आदि जैन राजाओंको आदिपुराणमें उक्त है, तब फिर तू आज किस कारणसे ऊँची नाक प्रसंगकी अवतारणा करके दे डाला है। करके मेरे जैसे द्विजोंका आदरसत्कार किये
'आदिपुराणके विषयमें यह अनोखा विचार- बिना ही जा रहा है ? तेरी जाति वही है, जो कि इसमें श्री आदिनाथस्वामीके समयका कथन पहले थी; तेरा कुल वही है, जो पहले था; और नहीं है; किन्तु उस समयके पुरुषोंके नामसे तू भी वही है, जो पहले था; तो भी तू आज ग्रन्थकर्ताके ही समयका कथन है--केवल अपनेको देवस्वरूप मानता है । देवता, अतिथि, उपर्युक्त उपदेशसे ही सिद्ध नहीं होता है; किन्तु पितृ और अग्निसम्बन्धी कार्य करनेमें तत्पर होभरतमहाराजके द्वारा ब्राह्मण वर्णकी स्थापनाका कर भी तू गुरु-द्विज-देवोंको प्रणाम करनेसे कथन पढ़नेसे भी यही फल निकलता है। विमुख है । जिनेंद्रदेवकी दीक्षा धारण करनेसे क्योंकि भरत महाराजने ब्राह्मण वर्णकी स्थापना अर्थात् जैनी बननेसे तुझको ऐसा कौनसा अतिशय करते समय अपने बनाये हुए ब्राह्मणोंको जो प्राप्त हो गया है ? तू अब भी मनुष्य है और उपदेश दिया था, उसमें सद्गृहस्थपनेकी क्रि- पृथिवीको पैरोंसे स्पर्श करता हुआ ही चलता याका उपदेश देते हुए कहा था कि सत्य, शौच, है।' इस प्रकार अत्यन्त क्रोध करता हुआ यदि क्षम, दम आदि उत्तम आचरणोंको धारण कर- कोई द्विज उलाहना दे तो उसको इस प्रकार नेवाले सद्गृहस्थको चाहिए कि वह अपनेको युक्तिसे भरा हुआ उत्तर देना चाहिए । ” मूल देवब्राह्मण माने । यथाः--
श्लोक ये हैं:धराचरितैः सत्यशौचशांतिदमादिभिः ।
अथ जातिमदावेशात्कश्चिदेनं द्विजब्रुवः। देवब्राह्मणतां श्वाभ्यां स्वस्मिन्संभावयत्यसौ ॥ १०७॥ ब्रूयादेवं किमद्यैव देवभूयं गतो भवान् ॥ १० ॥
-पर्व ३९। त्वमामुष्यायणः किंन किं तेऽम्बाऽमुष्यपुत्रिका।। भरत महाराज यह कह तो गये कि ऐसा ऐसा येनैवमुन्नसोभूत्वा यास्यसत्कृत्यमाद्वधान् ॥३०९ ॥ करनेसे वह जैनी अपनेको देवब्राह्मण माने; जातिः सैव कुलं तच्च सोऽसि योऽसि प्रमेतनः । परन्तु उसही समय उनको इस बातका तथापि देवतात्मानमात्मानं मन्यते भवान् ॥१.१०॥ भय भी उत्पन्न हो गया कि ब्राह्मण जातिके लोग
देवताऽतिथिपित्रग्निकार्येष्वप्राकृतो भवान् । अर्थात् ते लोग जो अनेक पीढ़ियोंसे ब्राह्मण .
गुरुद्विजातिदेवानां प्रणामाच्च पराङ्मुखः ॥११॥ माने जा रहे हैं और सब लोग जिनका आदर
दीक्षां जैनी प्रपन्नस्य जातः कोऽतिशयस्तव। . सत्कार करते हैं, इन हमारे नवीन बनाये हुए
यतोऽद्यापि मनुष्यस्त्वं पादचारी महीं स्पृशन् ॥११२
इत्युपारूढसंरंभमुपालब्धः स केनचित् । देवब्राह्मणों पर क्रोध करके नानाप्रकारके आक्षेप
ददात्युत्तरमित्यस्मै वचोभियुक्तिपेशलैः ॥ ११३ ॥ करेंगे, इस कारण उन्होंने अपने बनाये हुए
-पर्व ३९। ब्राह्मणोंको इसके आगे निम्न लिखित शिक्षा दी। उपर्युक्त श्लोकोंके पढ़नेसे साफ मालूम होता देखिए:
है कि, जिन द्विजोंके क्रोध करनेका भय भरत ___“ यदि अपनेको झूठमूठ द्विज माननेवाला महाराजको हुआ उनको इस बातका मारी घमंड कोई पुरुष अपनी जातिके अहंकारमें इस नवीन था कि हम जातिके द्विज हैं, अर्थात् हम परदेवब्राह्मणको कहने लगे कि 'क्या तू आज ही म्परासे द्विजोंकी संतानमें चले आते हैं और देव बन गया है, क्या तू अमुक आदमीका बेटा जैनी नवीन द्विज बनते हैं, और यह कि वे नहीं है, और क्या तेरी माता अमुककी बेटी नहीं लोग यह भी श्रद्धा रखते थे कि कोई मनुष्य
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३८२ जैनहितैषी
[भाग अपने गुणोंसे द्विज नहीं हो सकता है; किन्तु वर्णन अपनी भविष्यवाणीमें किया था वह भी। जो परम्परासे द्विजोंकी संतानमें चला आता हो भरत महाराजके ब्राह्मण बनानसे बहुत समय वह ही द्विज है । तबही तो भरत महाराजको यह पीछे किया था; अर्थात् अभी तो भरत महाराजखयाल हुआ कि वे मेरे बनाये हुए देव ब्राह्मणों- को ऐसे ब्राह्मणोंका स्वप्न भी नहीं आया था । पर यह आक्षेप करेंगे कि अनेक गुण प्राप्त करने इस वास्ते इस बातको तो अन्धी श्रद्धावाले भी
और अनेक उत्तम क्रियाओंके करने पर भी तू माननेको तैयार नही हो सकते हैं कि भरतद्विज नहीं हो सकता है; क्योंकि तू अमुक माता महाराजके द्वारा ब्राह्मणवर्णकी स्थापना होते समय पिताका बेटा है, अर्थात् द्विजकी सन्तान न ब्राह्मण विद्यमान थे और ऐसे ब्राह्मण विद्यमान होनेसे तू किसी प्रकार भी द्विज नहीं माना जा थे, जिनका कथन उक्त श्लोकोंके द्वारा भरत सकता । इन श्लोकोंसे यह भी स्पष्ट सिद्ध है महाराज अपने बनाये हुए ब्राह्मणोंसे कर रहे हैं। कि, जिस समयका यह कथन है, उस समय हाँ, आदिपुराणके कर्ता आचार्य जिनसेन महाजातिका अभिमान करनेवाले इन मिथ्यात्वी राजके समयकी अवस्था बिलकुल इस कथनके द्विजोंका इतना भारी प्रभाव था कि, यदि कोई अनुकूल पड़ती है; क्योंकि उस समय ब्राह्मणोंका इनको प्रणाम न करता था तो उसपर ये लोग ऐसा ही प्राबल्यथा। क्रोध करके अनेक प्रकारके आक्षेप करते थे; मिथ्यात्वी ब्राह्मणोंके द्वारा किये गये आक्षेअर्थात् सबसे प्रणाम करानेको वे अपना ऐसा पोंका वर्णन करके भरत महाराजने उसका जबर्दस्त अधिकार समझते थे जिसको कोई भी जो कळ उत्तर अपने बनाये हा ब्राह्मणों को उल्लंधन नहीं कर सकता था, यहाँतक कि उनके सिखाया है, उससे भी इसही बातकी पुष्टि होती खालमें ऊँचे दर्जेकी क्रिया करनेवाला जैनी भी है कि, यह कथन भरत महाराजके समयका उनको प्रणाम करनेसे इंकार नहीं कर सकता था। नहीं हो सकता है । क्यों कि इस उत्तरमें
परन्तु क्या यह दशा भरत महाराजके समयमें उन्होंने इस बातके सिद्ध करनेकी कोशिश की सम्भव हो सकती है ? क्या कोई इस बात पर है कि. मनष्यकी उच्चता जन्मसे नहीं है, किन्त विश्वास कर सकता है कि, भरत महाराजके कर्मसे है। अर्थात् उच्च कुल और उच्च जातिमें ब्राह्मण बनानेसे पहले ही या ब्राह्मणवर्ण स्थापन जन्म लेनेसे मनुष्य बड़ा नहीं होता है, किन्तु करनेके दिन ही ऐसी ब्राह्मण जाति मौजूद थी दर्शन-ज्ञानचारित्रकी प्राप्तिसे ही वह उच्च जिसको अपनी जातिका घमंड हो और जिसका होता है। अभिप्राय इसका यह है कि हे ऐसा भारी प्रभाव हो जैसा कि ऊपर वर्णन किया जातिका अभिमान करनेवाले ब्राह्मणो, यद्यपि गया है । आदिपुराणके अन्य कथनोंसे तो यही तम जातिमें ऊँचे हो; परन्तु हम सम्यक्दर्शनसिद्ध होता है कि, उस समय ऐसे. ब्राह्मणांका ज्ञानचारित्रकी प्राप्तिसे ऊँचे हो गये हैं, इस विद्यमान होना तो दूर रहा, किन्तु उस समय वास्ते वास्तवमें हम ही ऊँचे हैं। उस उत्तरका उनका स्वप्नमें भी खयाल नहीं हो सकता अनवाद पह है:था । क्योंक भरत महाराजको तो पंचम कालमें "हे अपनेको द्विज माननेवाले, तू आज होनेवाले ऐसे ब्राह्मणोंका स्वप्न भी इस कथनके मेरा देवपनेका जन्म सुन-श्रीजिनेन्द्रदेव ही बहुत वर्ष पीछे आया था और श्री भगवान्ने मेरे पिता हैं, और ज्ञान ही मेरा निमेल गर्भ है। पंचम कालमें हो जानेवाले ऐसे ब्राह्मणोंका जो उस गर्भमें अरहंतदेवसम्बंधी तीन भिन्न भिन्न
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ब्राह्मणकी उत्पत्ति |
अङ्क ९-१० ]
इन श्लोकोंसे स्पष्ट सिद्ध है कि भरतमहाराज - ब्राह्मणवर्ण स्थापन करते समय जो मिथ्यात्वी ब्राह्मण मौजूद थे, वे जनेऊ पहनते थे और अपनेको ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न हुआ मानते थे । उनही के मुकाबिलेमें भरतमहाराजने अपने बनाये हुए ब्राह्मणों को यह उत्तर सिखाया कि, तुम भी यह कहो कि, हमने जिनेन्द्र भगवान् के मुखसे निकली हुई जिनवाणीको ग्रहण किया है, इस वास्ते हम भी श्रीस्वयम्भू भगवान् के मुख से ही उत्पन्न हुए हैं और जिसप्रकार तुम जनेऊ पहने हुए हो उसी प्रकार हम भी पहने हुए हैं, और तुमको जो अपनी जातिका घमंड मिथ्या है। क्योंकि तुम अपनेको परम्परासे ब्राह्मणकी संतान सिद्ध करके शरीरजन्मका घमंड करते हो । शरीर अनेक दोषोंसे दूषित होता है, इस वास्ते शरीरका अर्थात् जातिका स्वसात्कृत्य समुद्भूता वयं संस्कारजन्मना ॥ ११५ ॥ घमंड नहीं करना चाहिए । रत्नत्रय ग्रहणका अयोनिसंभवास्तेन देवा एव न मानुषाः । और व्रतोंके पालनेका जन्म - जिसको संस्कारवयं वयमिवान्येऽपि संति चेद्द्ब्रूहि तद्विधान् ॥ ११६॥ जन्म कहते हैं - हमने प्राप्त कर लिया है, इस स्वायंभुवान्मुखाज्जातास्ततो देवद्विजा वयं । कारण हमारे माता पिता कोई भी हों, किन्तु व्रतचिह्नं च नः सूत्रं पवित्रं सूत्रदर्शितं
शक्तियों को प्राप्त करके मैं संस्काररूपी जन्मसे प्राप्त हुआ हूँ । मैं बिना योनिके पैदा हुआ हूँ, इस कारण देव हूँ; मनुष्य नहीं हूँ । मेरे समान जो कोई भी हों उन सबको तू देव - ब्राह्मण ही कह । मैं श्रीस्वयम्भू भगवान् के मुख से उत्पन्न हुआ हूँ, इस वास्ते देवद्विज हूँ, मेरे व्रतका शास्त्रोक्त चिह्न यह मेरा पवित्र जनेऊ है । आप लोग द्विज नहीं हैं, किन्तु गलेमें तागा डालकर श्रेष्ठ मोक्षमार्गमें तीक्ष्ण काँटे बनते हुए पापरूप शास्त्रोंके अनुसार चलनेवाले केवल मलसे ही दूषित हैं । जीवोंका जन्म दो प्रकारका है, एक शरीर जन्म और दूसरा संस्कारजन्म | इस ही प्रकार जैनशास्त्रोंमें मरण भी दो प्रकारका कहा है, पहले शरीरके नष्ट होने पर दूसरे भव में दूसरे शरीर के प्राप्त होने को जीवोंका शरीरजन्म समझना चाहिए । इसही प्रकार जिसे अपने आत्माकी प्राप्ति नहीं हुई है, उसको संस्कारोंके निमित्तसे दूसरे जन्मकी प्राप्तिका होना संस्कारजन्म है । इसी प्रकार आयु पूर्ण होनेपर शरीर छोड़ना शरीरमरण है और व्रतोंको धारण करके पापों को छोड़ना संस्कारमरण है । जिसको ये संस्कार प्राप्त हुए हैं, उसका मिथ्यादर्शनरूप पहली पर्यायसे मरण ही हो जाता है । इन दोनों जन्मोंमेंसे यह संस्कारजन्म जो पापसे दूषित नहीं है गुरुकी आज्ञानुसार मुझको प्राप्त हुआ है, इस वास्ते मैं देवद्विज हूँ ।" मूल श्लोक ये हैं:श्रूयतां भो द्विजंमन्य त्वयाऽस्मद्दिव्यसंभवः जिनो जनयिताऽस्माकं ज्ञानं गर्भोऽतिनिर्मलः ॥११४॥ तत्राईतीं त्रिधा भिन्नां शक्तिं त्रैगुण्यसंश्रितां ।
११७ ॥
हम देवद्विज हैं।
३८३
पापसूत्रानुगा यूयं न द्विजा सूत्रर्कटकाः । सन्मार्गकंटकास्तीक्ष्णाः केवलं मलदूषिताः ॥ ११८ ॥ शरीरजन्म संस्कारजन्म चेति द्विधा मतं । जन्मांगिनां मृतिश्चैवं द्विधाम्नाता जिनागमे ।। ११९ ।। देहांतरपरिप्राप्तिः पूर्वदेहपरिक्षयात् । शरीरजन्म विज्ञेयं देहभाजां भवांतरे ॥ १२० ॥
तथा लब्धात्मलाभस्य पुनः संस्कारयोगतः । द्विजन्मतापरिप्राप्तिर्जन्मसंस्कारजं स्मृतं ॥ १२१ ॥ शरीरमरणं स्वायुरंते देहविसर्जनं । संस्कारमरणं प्राप्तत्रतत्यागः समुज्झनं ॥ १२२ ॥ यतोऽयं लब्धसंस्कारो विजहाति प्रगेतनं । मिथ्यादर्शनपर्यायं ततस्तेन मृतो भवेत् ॥ १२३ ॥ तत्रसंस्कारजन्मेदमपापोपहतं परं । जात नो गुर्वनुज्ञानादतो देवद्विजा वयं ॥ १२४ ॥ --पवे ३९ ।
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. जैन हितैषी
[ भाग १३
उपर्युक्त सारा कथन भरतमहाराजके समयसे गौरव प्राप्त कर लिया है, वे उत्तम द्विजतो मिलान नहीं खाता है, किन्तु पंचम काल और वर्णान्तःपाती नहीं हो सकते हैं, अर्थात् किसी श्रीजिनसेनाचार्यके समयके बिलकुल अनुकूल प्रकार वर्णसे गिरे हुए नहीं माने जा है; जब कि जैनके विरोधी ब्राह्मणोंका बड़ामारी सकते हैं, किन्तु जो क्षमा शौच आदि गुणोंके । जोर था और जब कि वे जौनयोंके साथ हदसे धारी हैं, संतोषी हैं, उत्तम और निर्दोष आचरणन्यादा द्वेष करते थे। मालूम होताहै कि, इसही रूपी आभूषणोंसे भूषित हैं, वे ही सब वर्गों में द्वेषकी अग्निसे भड़ककर और अमोघवर्ष जैसे उत्तम हैं और जो निंद्य आचरण करनेवाले हैं, जैनराजाका आश्रय पाकर ही आचार्य महाराजने पापरूप आरम्भमें सदा लगे रहते हैं और सदा इस ब्राह्मणोंकी निन्दा की है और राजाओंको भी पशुओंका घात किया करते हैं वे किसी तरह इनके विरुद्ध भड़कानेकी कोशिश की है; परन्तु भी द्विज नहीं माने जा सकते हैं । हिंसामय ऐसी कोशिश करते हुए भी आचार्य महाराजके धर्मको मानकर जो पशुओंका घात करते हैं और हृदयमें इन मिथ्यात्वी ब्राह्मणोंकी परम्परागत पाप शास्त्रोंसे आजीविका करते हैं, नहीं मालूम जातिका प्रभाव और जैन ब्राह्मणोंकी नवीन उनकी क्या दुर्गति होगी । जो अधर्मस्वरूप उत्पत्तिका खयाल बराबर बना रहा है । देखिए धर्मको मानते हैं मैं उनके सिवाय और किसीको भरतमहाराज अपने बनाये हुए ब्राह्मणोंको कर्म-चांडाल नहीं समझता हूँ । जो निर्दय होकर पूर्वोक्त उत्तर सिखानेके पश्चात् क्या समझाते हैं:- पशुओंको मारते हैं वे पापरूप कार्योंके पण्डित
"सच्ची क्रिया करनेवाले ब्राह्मणोंके हृदयसे हैं, लुटेरे हैं, धर्मात्मा लोगोंसे अलग हैं और जातिवादका खयाल दूर करनेके लिए-अर्थात् राजा लोगोंके द्वारा दंड देनेके योग्य हैं। पशुजैन ब्राह्मणोंके हृदयसे इस बातका संकोच हटा- ओंकी हिंसा करनेके कारण जो राक्षसोंसे भी
के लिए कि हम नवीन ब्राह्मण बनते हैं और अधिक निर्दय हैं, यदि ऐसे लोग ही ऊँचे मिथ्यात्वी ब्राह्मण परम्परासे ब्राह्मण संतानमें माने जावेंगे तो दुःखके साथ कहना पड़ता है कि, उत्पन्न होते हुए चले आते हैं, इस कारण जातिके बेचारे धार्मिक लोग व्यर्थ ही मारे गये । अपब्राह्मण हैं-मैं तुमको मैं फिर समझाता हूँ कि, नेको द्विज कहलानेवाले ये लोग पापाचरण जो ब्रह्माकी सन्तान हो उसे ब्राह्मण कहते हैं करते हैं, इस वास्ते बुद्धिमान लोग इनको कृष्ण
और स्वयम्भू भगवान् जिनद्रदेव ब्रह्मा हैं । आ- वर्गमें गिनते हैं, अर्थात् इनको भील म्लेच्छ त्माके सम्यग्दर्शन आदि गुणोंके बढ़ानेवाले होनेके समझते हैं और जैनियोंका आचरण निर्मल है, कारण वे जिनेंद्रदेव आदि परम ब्रह्मा हैं और मुनीश्वर इसवास्ते इनको शुक्ल वर्गमें शामिल करते हैं, लोग यह मानते हैं कि परम ब्रह्म या केवल ज्ञान अर्थात् इनको आर्य मानते हैं। द्विजोंकी शुद्धि उनहीके आधीन है । हरिणका चमड़ा रखनेवाला श्रुति, स्मृति, पुराण, चारित्र, मंत्र और क्रियाजटा दाढ़ी आदि जिसके चिह्न हैं, जिसने ओंसे और देवताओंका चिह्न धारण करने और कामके वश होकर गधेका मुँह बनाया और कामका नाश करनेसे होती है । जो अत्यंत ब्रह्मचर्यसे भ्रष्ट हुआ, वह ब्रह्मा नहीं हो सकता विशुद्ध वृत्तिको धारण करते हैं, उनको शुक्लवर्गी है । इस वास्ते जिन्होंने दिव्य मूर्तिवाले जिनेन्द्र- मानना चाहिए और बाकी सबको शुद्धतासे देवके निर्मल ज्ञानरूपी गर्भसे जन्म लिया है वे बाह्य समझना चाहिए। उनकी शुद्धि और अशुद्धि ही द्विज हैं । व्रत, मंत्र आदि संस्कारोंसें जिन्होंने न्याय-अन्यायरूप. प्रवृत्तिसे जाननी चाहिए ।
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अङ्क ९-१० ]
दया कोमल परिणामोंका होना न्याय है और जीवोंका मारना अन्याय है । इस कारण यह सिद्ध हो गया कि, सब जीवों पर दया करनेसे विशुद्ध वृत्तिको धारण करनेवाले जैनी लोग ही सब वर्णोंमें उत्तम हैं, और द्विज हैं । वे वर्णान्तपाती अर्थात् वर्ण में गिरे हुए नहीं हैं । " मूल श्लोक ये हैं:
ब्राह्मणोंकी उत्पत्ति |
भूयोऽपि संप्रवक्ष्यामि ब्राह्मणान् सत्क्रियोचितान् । जातिवादावलेपस्य निरासार्थमतः परं ॥ १२७ ॥
उपर्युक्त श्लोकोंसे सिद्ध है कि भरतमहाराके ब्राह्मण बनाने से पहले से ब्राह्मण मौजूद थे ब्रह्मणोऽपत्यमित्येवं ब्राह्मणाः समुदाहृताः । और वे अपनेको ब्रह्माकी सन्तान बतलाते थे जैसा' ब्रह्मा स्वयंभूर्भगवान्परमेष्ठी जिनोत्तमः ॥ १२७॥ कि इस पंचम कालके ब्राह्मण बतलाते हैं और. सह्यादि परम ब्रह्मा जिनेंद्रो गुणबृंहणात् । a लोग ब्रह्माकी कथाको उस ही प्रकार मानते परं ब्रह्म यदायत्तमामनंति मुनीश्वराः ॥ १२८ ॥ थे जिस प्रकार आज कल मानते हैं । तब ही नैणाजिनधरो ब्रह्मा जटाकूर्चादिलक्षणः । तो भरत महाराजने अपने बनाये हुए ब्राह्मणोंका यः कामगर्दभो भूत्वा प्रच्युतो ब्रह्मवर्चसात् ॥ १२९ ॥ समझाया कि ब्रह्मा वह नहीं है जिसको ये दिव्यमूर्तेर्जिनेंद्रस्य ज्ञानगर्भादनाविलात् । मिथ्यात्वी ब्राह्मण मानते हैं; किन्तु श्रीजिनेंद्र समासादितजन्मानो द्विजन्मानस्ततो मताः ॥ १३० ॥ देव ही ब्रह्मा हैं । भरत महाराजको ब्राह्मणोंकी
वर्णातःपातिनो नैते मंतव्या द्विजसत्तमाः । व्रतमंत्रादिसंस्कारसमारोपितगौरवाः ॥ १३१ ॥ वर्णोत्तमानिमान् विद्मः शांतिशौचपरायणान् । संतुष्टान् प्राप्तवैशिष्टयानक्लिष्टाचारभूषणान् ॥ १३२ ॥ क्लिष्टाचाराः परे नैव ब्राह्मणा द्विजमानिनः । पापारंभरताः शाश्वदाहत्य पशुघातिनः ॥ १३३ ॥ सर्वमेधमयं धर्ममभ्युपेत्य पशुघ्नतां । का नाम गतिरेषां स्यात्पापशास्त्रोपजीविनां ॥ १३४ ॥ प्रभावका इतना भारी असर पड़ा कि वे यह भी. चोदनालक्षणं धर्ममधर्मे प्रतिजानते । भूल गये कि हमने तो ब्राह्मणोंका एक पृथक् ये तेभ्यः कर्मचांडालान् पश्यामो नापरान् भुवि ॥ १३५ ॥ ही वर्ण स्थापित किया है; किन्तु उनको इन पार्थिवैर्दण्डनीयाश्च लुंटका पापपंडिताः । मिथ्यात्वी ब्राह्मणों के मुकाबले में यही सिद्ध तेऽमी धर्मजुषां बाह्या ये निघ्ननंत्यघृणाः पशून् ॥ १३६ ॥ करते बन पड़ा कि सभी जैनी लोग ब्राह्मण पशुहत्यासमारंभात्क्रव्यादेभ्योऽपि निष्कृपाः ।
इस प्रसिद्धिको भी मानना पड़ा कि जो ब्रह्माकी संतान हो वह ही ब्राह्मण है । इसकी पूर्ति उन्होंने इस तरह पर कर दी कि जो श्रीजिनेंद्रदेवकी वाणीको मानता है वह ही जिनेंद्रदेव अर्थात् ब्रह्माकी संतान है और वह ही ब्राह्मण है । इससे स्पष्ट सिद्ध है कि उस समय भरतमहाराजके हृदय पर उन मिथ्यात्वी ब्राह्मणों के
हैं, क्योंकि सभी जैनी जिनेंद्र देवकी वाणीको
यद्युच्छ्रतिमुशंत्येते हंतैवं धार्मिका हताः ॥ १३७ ॥
श्रुतिस्मृतिपुरावृत्तवृत्तमंत्र क्रियाश्रिता ।
देवता लिंगकामांतकृता शुद्धिर्द्विजन्मनाम् ॥ १३९ ॥
३८५
ये विशुद्धतरांवृत्तिं तत्कृतां समुपाश्रिताः । ते शुक्लवर्गे बोद्धव्याः शेषां शुद्धेः बहिःकृताः ॥ १४० ॥ तच्छुध्यशुद्धी बोद्धव्ये न्यायान्यायप्रवृत्तितः । न्यायोदयार्द्रवृत्तित्वमन्यायः प्राणिमारणं ॥ १४१ ॥ विशुद्धवृत्तयस्तस्माज्जैना वर्णोत्तमा द्विजाः । वर्णातःपातिनो नैते जगन्मान्या इति स्थितं ॥१४२॥ -- पर्व ३९ ॥
मानते हैं । जो जिनेंद्र देवकी वाणीको मानता
मलिनाचारिता ह्येते कृष्णवर्गे द्विजब्रुवा: ।
जैनास्तु निर्मलाचाराः शुक्लवर्गे मता बुधैः ॥ १३५ ॥ है, वह ब्रह्माकी सन्तान है और जो ब्रह्माकी
सन्तान है वह ब्राह्मण हैं, अर्थात् सब ही जैनी
लोग ब्राह्मण हैं ।
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जैनहितैषी
[भाग १३
अपने बनाये हुए नवीन ब्राह्मणोंको पुराने दिनोंमें मिथ्यात्वी ब्राह्मणोंका विद्यमान होना, ब्राह्मणोंके आक्षेपोंसे बचाने और पुराने ब्राह्म- उनका इतना भारी प्रभाव होना, और उनमें णोंकी जातिके घमंडको तोड़नेके लिए भरत- अपनी जातिका इतना भारी घमंड होना, महाराजको यह भी सिद्ध करना पड़ा कि वर्ण किसी तरह भी सम्भव नहीं हो सकता है और या जाति जन्मसे नहीं है, किन्तु कर्मसे है। न ये बातें जो उक्त श्लोकोंमें कहलाई गई हैं, अर्थात् किसीको उच्च या नीच माननेके वास्ते किसी तरह ३२ हजार राजाओंके आधिपति यह नहीं देखना चाहिए कि उसके बाप दादा भरत चक्रवर्तीके द्वारा कही जानेके योग्य पड़दादा आदि कौन थे, किन्तु यह देखना जान पड़ती हैं। चाहिए कि वह स्वयं कैसे कर्म करता है ।
उपर्युक्त श्लोकोंमें बार बार यह भी कहा यदि वह उत्तम कर्म करता है तो उत्तम है।
९ गया है कि जैनी 'वर्णान्तः पाती' अर्थात् वर्णोसे और नीच कर्म करता है तो नीच है ।
' गिरे हुए नहीं हैं, जिससे सिद्ध है कि जिस तब ही तो भरत महाराजने कहा है कि मनुष्य
समयका यह कथन है उस समय जैनी लोग की शुद्धि अशुद्धि हिंसा और अहिंसासे माननी
" सर्वसाधारणमें ऐसे ही माने जाते थे, अर्थात् चाहिए, अर्थात् जो हिंसा करता है उसका कुल
। उस समय अन्य मतका बड़ा भारी प्राबल्य था और जाति कैसी ही उच्च हो; परन्तु वह नीच ही
और जैनी लोग घृणाकी दृष्टि से देखे जाते थे,
में है और जो दया करता है उसका कुल और
परन्तु यह अवस्था किसी तरह भी भरत महाजाति कुछ ही हो, परन्तु वह उच्च ही है। इस
राजके समयकी नहीं हो सकती है; किन्तु ही सिद्धान्तसे भरत महाराजने यह नतीजा नि
यह सारा कथन आचार्य महाराजके ही समयके काल दिया कि जो कोई भी मनुष्य जैनधर्मको
अनुकूल पड़ता है। धारण करके दया धर्मका पालन करता है वह ही उत्तम है और ये प्राचीन ब्राह्मण पशुधात कुछ भी हो, अर्थात् चाहे यह कथन भरत करनेसे नीच हैं।
महाराजके समयका हो और चाहे आचार्य
___ महाराजके समयका; किन्तु इसमें कोई संदेह '' इन श्लोकोंसे यह भी मालूम होता है कि,
क, नहीं है कि आदिपुराणके कर्तीने इन मिथ्यात्वी भरत महाराजको इन पशुघाती ब्राह्मणोंकी ।
। ब्राह्मणोंका कथन करके भरत महाराजके द्वारा मान्यता होनेका बड़ा भारी दुःख था और इन
इन ब्राह्मण वर्ण स्थापन होनेकी बातको असत्य ब्राह्मणोंकी इस पापरूप प्रवृत्तिका दूर होना सिद्ध कर दिया और स्वयं ही यह स्वीकार वे बहुत ही कठिन समझते थे; तबही तो उन्होंने "
| कर लिया कि, भरत महाराजके ब्राह्मण बनानेके अपने इस दुःखको वर्णन करते हुए अपने हि
करत हुए अपन दिन भी ब्राह्मण मौजूद थे और ऐसे ब्राह्मणचित्तकी अति प्रबल कषायको यह कहकर
हकर मौजूद थे, जिनको अपनी जातिका घमंड था शांत किया है कि इन लोगोंको राजाआके द्वारा और जिनके विषयमें भरत महाराजको ब्राह्मण दंड मिलना चाहिए।
वर्ण स्थापन करनेके दिन ही यह भय हो गया परन्तु आदिपुराणके ही दूसरे कथनोंके था कि वे हमारे बनाये हुए ब्राह्मणों पर क्रोध अनुसार भरत महाराजके समयमें और विशेष- करेंगे। (अपूर्ण ।) कर उनके द्वारा ब्राह्मण वर्णकी स्थापना होनेके
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MANARAR aranmasARAN RANANARARA
परामर्श।
SWISSARS Souss
FastwaRamasan
[ले०-श्रीयुत पं० रामचरित उपाध्याय] देश-प्रेम ही सिद्ध मन्त्र है, और सुखोंका मूल सपूतो। भारतके आगे त्रिभुवनको, समझो पगकी धूल सपूतो॥१॥ भिक्षुक बननेसे भिक्षा भी मिल सकती है नहीं सपूतो। निर्जल भूतल पर क्या नलिनी, खिल सकती है कहीं सपूतो ॥२॥ दुखड़ा रोनेसे क्या कोई पाता है सुख-भोग सपूतो। निज उन्नतिके लिए निरन्तर, करो उचित उद्योग सपूतो ॥३॥ साहस-धैर्य-प्रताप-पराक्रम-बुद्धि-एकता-पूर्ण सपूतोजब होजाओगे, तब जगमें सभ्य बनोगे तूर्ण सपूतो॥४॥ कर्मवीर बनना है यदि तो छोड़ो विषय-विलास सपूतो। पहले अपनी चाल सुधारो, क्यों सहते उपहास सपूतो॥५॥ आर्यवंश हो, दस्यु-वंशके लगे बनाने ठाट सपूतो। गौरव मिले तुम्हें फिर कैसे ? खोलो नेत्र-कपाट सपूतो ॥६॥ अपनेको अपना तुम समझो और अन्यको अन्य सपूतो। नागर थे, पर कायर होकर, क्यों बनते हो वन्य सपूतो ॥७॥ विद्या बल वैभवके जो तुम, पहले थे आधार सपूतो। हा। वे ही तुम आज बने हो क्यों जगमें भू-भार सपूतो ॥ ८॥ अब भी अवसर है दिखला दो, मानवताके कर्म सपूतो। कुछ भी लाज नहीं लगती क्यों, सोचो दैशिक धर्म सपूतो॥९॥ क्यों न प्रकट करते हो तुम भी नूतन कला-कलाप सपूतो। क्यों प्रलाप करते हो ? सीखो, करना मेल मिलाप सपूतो ॥१०॥ सोच समझकर करो प्रेमसे, पुण्य पुरुषके काम सपूतो। जिससे नहीं तनिक भी डूबे, आत्म-वंशका नाम सपूतो ॥११॥ हिन्दीको जननी सम मानो, या जानो निज प्राण सपूतो। यदि सचमुच तुम चाह रहे हो, भारतका कल्याण सपूतो ॥१२॥
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जैनहितैषी
[भाग १३ समाजसुधारमें सबसे अधिक कहता है और जो कुछ वह कहता है वह
- युक्तिसंगत भी है या नहीं। डरकन लागासह डर किन लोगोंसे है ?
नई बातकी सफलताके लिए सबसे कठिन ( लेखक, श्रीयुत बाबू निहालकरणजी और सबसे अधिक आवश्यक कार्य यही है कि
सेठी एम. एस. सी.।) मनुष्यके इस डरको किसी न किसी प्रकार जैनसमाजमें सामाजिक सुधारका कार्य
मिटाया जावे और ऐसा प्रयत्न किया जावे कि बहुत दिनोंसे प्रारम्भ हो चुका है और उस कार्य
कमसे कम वह नई बातको सुनने तो लगे।
यदि सुनकर उस पर विचार करना भी प्रारम्भ में सफलता भी बहुत हुई है; किन्तु प्रायः जन
कर दे तब तो बहुत ही अच्छी बात हो। साधारण यह समझता है कि इतना सब प्रयत्न सर्वथा निष्फल हुआ है। कारण इसका वे यह
यही दशा समाजसुधारके कार्यकी है । एक
समय था जब इन बातोंको सुनकर लोग केवल बतलाते हैं कि न तो अभीतक कोई विवाह
हँसते थे। फिर हँसते हँसते गाली गलौज करऐसे प्रचलित हुए कि जिनमें वर और कन्याका
नेका अवसर आया। ऐसे भी अनेक महात्मा वयस बाल्यकालसे परे समझा जावे, न वृद्ध विवाह रुके हैं, न विधवाओंकी दशा कुछ
प्रगट हुए जो धर्मकी दुहाई देकर उनका विरोध
गट सुघरी है, न मृत्युके उपलक्ष्यमें आनन्दभोजोंकी करने लगे । अब ऐसा समय है कि इन सब कमी हुई है, न भिन्न भिन्न जैन जातियोंमें पार
बातोंको छोड़कर समाज यह प्रयत्न करने लगा स्परिक विवाहसम्बंधका सूत्रपात हुआ है, न व्यर्थ
है कि युक्तिद्वारा इन सुधारोंका खंडन किया न्ययहीकी ओर समाजकी दृष्टि गई है और न
जाय । गाली गलौज सर्वथा बन्द नहीं हुए हैं धार्मिक समझे जानेवाले मेलोंहीका कुछ सुधार
और न कभी हो ही सकते हैं; किन्तु इसमें हुआ है । यह सब सच है परन्तु इसके सत्य
सन्देह नहीं कि अब उन प्रश्नों पर विचार करना होने पर भी यह कहना उचित नहीं कि इतने
प्रारम्भ हो गया है । चाहे विचार किसी भी दिनोंका प्रयत्न सर्वथा निष्फल हुआ।
बुद्धिसे किया जावे, किन्तु जब कोई युक्तिद्वारा
दोष निकालनेका प्रयत्न करेगा तब यह अनि मनुष्यका स्वभाव है कि वह सदा नई बातके वार्य है कि उसे उसकी उत्तमताका भी ज्ञान करनेसे डरता है; इस पर यदि कोई कह दे कि हो जायगा। फिर चाहे वह दिखलानेको विरोध इस नई बातमें अमुक दोष है, अमुक कमी है करता ही रहे, किन्तु आन्तरिक विश्वासके विरुद्ध तब तो यह डर और भी अधिक हो जाता है। कोई भी मनुष्य बलपूर्वक कोई बात नहीं कह विशेष कर इस धर्मप्रधान भारतवर्ष में यदि सकता । अशिक्षित समाजको प्रसन्न रखनेके कोई उनसे कह दे कि इसमें तो धर्मका घात लिए वह कितना ही अधिक विरोध करनेका प्रहोता है तब उससे इतना डर लगने लगता है यत्न करे, किन्तु उसके विरोधमें स्वाभाविकता. कि उसका नाम सुनकर ही कानपर हाथ रखने- और सत्य न होनेसे उसका प्रभाव किसी पर पड़ को जी चाहता है । उस समय यह भी देखनेका नहीं सकता और पड़ भी जाय तो ठहर नहीं ध्यान नहीं करता कि दोष दिखानेवाला और सकता । अधार्मिक बतलानेवाला कौन है, उसकी यदि इस दशा पर समाजसुधार पहुँच चुका योग्यता कितनी है, वह किस नीयतसे ऐसा है तब यह कैसे कहा जा सकता है कि सफलता
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अङ्क ९-१०] समाजसुधारमें सबसे अधिक डर किन लोगोंसे है?
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नहीं हुई ? जब हिन्दी जैनगजटने भी विधवा- जाने कब किस दशामें वह वार कर बैठे। और विवाहके विरुद्ध हटवादसे नहीं किन्तु युक्तिसे उसका वार भी बहुधा ऐसा होता है कि काम लेनेकी भी चेष्टाका प्रारम्भ कर दिया है तब ज्ञात नहीं होता कि वह भलाई करता है आन्दोलनकी निष्फलता कैसी ? यही तो सबसे या बुराई। कठिन कार्य था और यदि इसहीमें सफलताके
क
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ठीक इसही प्रकार समाज-सुधारको उनलोगोंसे चिह्न दिखलाई देते हैं तब निराशा क्यों ?
. कुछ अधिक भय नहीं है जो प्रकट रूपसे उसके जो लोग इस सुधारके कार्यमें लगे हैं उन्हें विरोधी है। क्योंकि जैसा ऊपर लिखा जा इस बातको अच्छी तरह समझ लना चाहिए कि चका है हम उन पर धीरे धीरे विजय प्राप्त कर यह निराशा उत्पन्न करनवाल व हा लाग है जा रहे हैं। वे हमारी सेनाद्वारा घिर चुके हैं, , सुधारके विरोधी हैं । उनका यह भी एक अस्त्र और कुछ समयके बाद अवश्य ही उन्हें सन्धि: है। क्योंकि यदि सुधारकोंमें निराशाको स्थान करनी पड़ेगी, क्योंकि उन्हें ज्ञात हो जायगा मिल गया तो यह निश्चय है कि सब बातें युक्ति- कि वास्तवमें उनका पक्ष असत्य था। संगत, लाभदायक और सत्य होने पर भी उनका कार्य ढीला हो जायगा और सम्भवतः निर्बल किन्तु प्रत्येक समाजमें ऐसे लोग बहुत होते हैं होने पर भी विरोधियोंकी जीत हो जायगी। जो कहते हैं कि सुधार तो होना चाहिए, किन्तु पूजनीय पं. मदनमोहन मालवीयने हालही में सहसा नहीं । पहले तो धीरे धीरे समस्त समाहिन्दविश्वविद्यालयमें एक व्याख्यानमें कहा जको इस ओर आकृष्ट करना चाहिए और जब था कि “निराशासे और मझसे वैर है।" मतभेद न रह जाय तब समाजकी ओरहीसे उनका भाव यह भी था कि यदि सफलताके एक नियमद्वारा सुधार कर लिया जायगा। मतचिह्न न भी दिखलाई दें तब भी आशाको छोड भेद रहते भी यदि दो चार मनुष्य ही सुधारके देना कायरता है । अतः विरोधियोंके इस कार्यको कर डालेंगे तो बड़ी हानि होगी। सारा , अस्त्रका मुकाबला सावधानीसे करना चाहिए। समाज उनके विरुद्ध हो जायगा और फिर
किन्तु इस लेखमें मेरी इच्छा एक और ही उनकी कोई भी न सुनेगा । सुधार भी रक्खा बातकी ओर सुधारकोंका ध्यान आकृष्ट करनेकी रह जायगा। है । युद्धमें सेनापतियोंको सबसे पहले यह यह मत देखनेमें बड़ा सुन्दर जान पड़ता है। विचार लेना पड़ता है कि शत्रुका बल किस तरफ सुधारके हितके लिए ऐसी सलाह देनेवालोंको अधिक है, वह कौन कौन शस्त्र काममें ला रहा सुधारका विरोधी कहनेकी मी इच्छा नहीं होती है और उनसे बचनेके क्या क्या उपाय हैं। किन्तु और सुधारकोंका काम रोकनेका प्रयत्न करनेके । इनसे भी अधिक ध्यान उन्हें इस बातका रखना कारण विरोधी लोग भी इनसे प्रसन्न रहते हैं। पड़ता है कि कहीं अपनी ही सेनामें तो कोई फल यह होता है कि इन लोगोंका समाजमें शत्रुका पक्षपाती नहीं है । क्योंकि शत्रु जो बहुत आदर हो जाता है। इनके दोनों हाथों वार करता है वह प्रकट रूपसे करता है और लडू रहते हैं । सुधारकने यदि कोई साहसका उससे बचनेका उपाय भी आसानी से हो जाता कार्य किया तो ये उसकी निन्दा करने लगते है। किन्तु जो मित्र बनकर शत्रका पक्ष ग्रहण हैं और धैर्यसे कार्य करनेकी सलाह देते हैं। करता है उससे बहुत डरना चाहिए; क्योंकि न विरोधी लोग कहने लगते हैं-"देखो साहब,
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जैनहितैषी
[भाग १३ अमुक महाशय मी तो सुधारके पक्षपाती हैं । करते हैं उससे अवश्य ही नवयुवक साहसी वे मी कहते हैं कि कार्य अनुचित हुआ।” सुधारकोंका उत्साह कम हो जाता है और ___ अतः सुधारके पक्षपातियोंको सोच रखना उनके कार्यमें बाधा पड़ती है। चाहिए कि ये ही लोग उनके कार्यों सबसे यहाँ प्रश्न हो सकता है कि इन लोगोंसे अधिक विघ्न डालनेवाले हैं। ये मित्र बनकर भी इतना भय करनेकी तो कोई आवश्यकता नहीं शत्रुकी सहायता करते हैं । इन्हींसे सदा सचेत देख पड़ती । सुधार ये भी चाहते हैं। केवल रहनेकी आवश्यकता है । इससे यह मतलब धीरे धीरे करना चाहते हैं। इसमें बुराई क्या है ? नहीं कि इनसे भी हम विरोध कर लें; किन्तु क्यों कि कहा है कि खरहे और कछुएकी दौडमें इनकी सलाह मानना अवश्य ही भयंकर है । धीरे धीरे चलनेवाला कछुआ ही अन्तमें जीतता है। यदि हम यह निश्चय कर लें कि इनकी सलाह किन्तु यह समझनेमें अधिक कठिनाई नहीं न मानेंगे तब इनसे अधिक हानिकी सम्भावना होगी कि इन लोगोंकी कछुएसे तुलना नहीं की नहीं, क्योंकि इनके लिए प्रकट रूपसे विरोधि- जा सकती। कछुआ तो चलनेका काम स्वयं ही योंमें मिल जाना भी अब असम्भव होगया है। करता है । वह इसमें किसीका मुँह नहीं
ऊपर लिखा जा चुका है कि ये लोग ऐसा ताकता । किन्तु ये लोग उस अफीमचीकी कार्य समाजमें आदर पानेकी इच्छासे करते भाँति खुद तो कुछ करना नहीं चाहते; पथिहैं । किन्तु इससे ऐसा न समझना चाहिए कि ककी राह देखते हैं । और अपनी सुस्तीको ये हृदयसे भी सुधारके विरोधी होते हैं । मेरा उचित दिखानेके लिए दूसरोंको भी काम न अनुमान है कि अंतरंग इच्छा इनकी भी सुधा- करनेका उपदेश देते हैं । जो लोग वास्तवमें रके पक्षमें होती है। किन्तु कमी इस बातकी काम करते हैं उनके लिए कछुएका उदाहरण है कि इनमें साहस नहीं होता । अपने अभीष्ट- वास्तबमें लाभदायक है । उन्हें यह अवश्य ही की सिद्धिके लिए जो कष्ट सहना पड़ता है उचित है कि चाहे कार्य धीरे धीरे करें, किन्तु उसके लिए ये लोग तैयार नहीं हैं । इनकी मन लगाकर जब तक समाप्त न हो जाय दशा प्रायः उस अफीमची जैसी है जो बेर करते ही रहें । खरहेकी भाँति कभी बहुत जल्दखानेकी इच्छा रहने पर भी पास पड़ा हुआ 'बाजी करके कभी सर्वथा शिथिल हो बैठना वेर अपने हाथसे उठाकर मुँहमें रखनेका कष्ट किसी दशामें भी उचित नहीं कहा जा सकता। नहीं उठाना चाहता था और उधरसे जानेवाले हाँ, यदि कोई समाप्ति तक अविश्रान्त परिश्रम पथिकसे कहता था कि कृपा कर इस बेरको करते रहनेकी भी शक्ति रखता हो और कछुमेरे मुँहमें डाल दीजिए।
एसे आधक वेगसे चल भी सके तो उसकी ___ इसही प्रकार सुधारकके इच्छुक होने पर भी हमें प्रशंसा ही करनी पड़ेगी।
इनकी आत्मा ऐसे पथिककी खोजमें रहती है जो इसके अतिरिक्त यह भी न भूल जाना चा। कष्ट स्वयं सह ले और सफलताका आनन्द हिए कि इतिहास इसमें हमें क्या शिक्षा देता
इन्हें मनाने दे। यदि इतना ही होता तो हमें है। क्या आजतक कभी कोई नई बात मनुइनकी शिकायत करनेकी आवश्यकता न होती; ध्यने ग्रहण की है जिसे किसी न किसी महापुरुकिन्तु ये लोग अपनी अकर्मण्यता और बोदे- पने कष्टं सह कर, विरोधकी पर्वाह न करके पनको छुपाने के लिए जिस मार्गका अवलम्बन स्वयं न कर डाला हो ! बड़ी बातोंको जाने दीजिए
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अङ्क ९-१०]
विचित्र ब्याह । कारखानोंमें मशीनोंका प्रयोग करनेमें भी कि- था ? या किसी साहसी पुरुषने ही उपने उदातना विरोध हुआ था ! पृथ्वीके भ्रमणका हरणसे इस सुधारकी नीव रक्खी ? विदेशसिद्धान्त स्थिर करनेवाले वैज्ञानिकोंको कितना यात्रा काश्मीरी पंडितोंमें क्या सर्व सम्मतिसे कष्ट सहना पड़ा था ! चेचकका टीका कितने
" स्वीकार हो गई तब ही किसीने विलायत जानेका
साहस किया अथवा विपरीत इसके पहले विरोधके बाद प्रचलित हुआ है !
किसी साहसी पुरुषके वहाँसे लौट आने ही पर जब इन साधारण बातोंका यह हाल है तब यह मत स्वीकार किया गया ? जो बातें मनुष्यके जीवनसे निकट सम्बन्ध । रखती हैं उनकी क्या कथा ! क्या तीर्थकर,
इन सब बातोंमें इतिहास स्पष्ट कहता है कि बुद्धदेव, ईसा मसीह या मुहम्मद साहिब इस
साधारण मनुष्य केवल अनुकरण कर सकते हैं। बातका इंतजार करते रहे थे कि लोग उनके मन
नवीन बातका आरंभ सदा कोई एक साहसी को पहले अच्छा समझने लगें तब उसका
व्यक्ति ही करता है । समाज सर्व सम्मतिसे..
कभी कोई नया नियम नहीं बनाता। उसे तो खुल्लम खुल्ला प्रचार करें और क्या ऐसा न करनेसे उनमेंसे अनेकोंको दुःसह कष्ट नहीं सहने
ऐसा जबर्दस्ती करना पड़ता है । अतः यदि पड़े ? और क्या उन्ही कष्टोंका परिणाम यह सुधार अभीष्ट है तो जिन लोगों में ऐसे नये कार्य नहीं है कि आज लाखों करोड़ों मनुष्य उनके करनेका साहस है उन्हें जो बातें रोकती हैं, जो उपदेशोंसे लाभ उठा रहे हैं ? आधुनिक बातोंको जो लोग उनका उत्साह घटाना चाहते हैं। वे लीजिए। पारसियोंमें जब पर्दा दूर किया गया तब अवश्य ही हानिकर हैं । उनसे सचेत रहना क्या कोई पंचायत बैठकर ऐसा एक नियम बना अवश्य ही बुद्धिमानी है।
विचित्र ब्याह । . [ले०, श्रीयुत पं० रामचरित उपाध्याय ।]
चतुर्थ सर्ग। जैसे तैसे रामदेव की, क्रिया सुशीलाने कर दी,
कुछी दिनों में उसके मनमें, स्वस्थिति आशाने कर दी। विस्मृतिने भी दिया सहारा, रामदेव कुछ भूल गये,
हरिसेवकने उसके उरमें, उपजाये सुख-मूल नये ॥१॥ आशाका है अजब तमासा, मृतमें जीवन भरती है,
विस्मृति उसके पूर्व दुखोंको झटपट आकर हरती है। दोनों ही हैं मनो सहेली, दोनों ही रहती हैं साथ। ___दुखी जन्तुके सँगमें दुखको; दोनों ही सहती हैं साथ ॥२॥ कहा सुशीलासे आशाने, हरिसेवक पण्डित होगा, .. उससे फिर सुख तुझे मिलेमा, देश मात्र मण्डित होगा।
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जैनहितैषी
[भाग १३
विस्मृतिने भी कहा उसी क्षण, निजपतिका मत ध्यान धरो,
आगे मुख हो चलो निरन्तर, पीछेको मत कान करो ॥३॥ हरिसेवकका शास्त्र-रीतिसे, कर्णवेध-संस्कार हुआ,
शिष्टाचार हुआ पूज्योंका, और मंगलाचार हुआ। जगमें नहीं किसीकी भी स्थिति, एक रंग रह जाती है,
जो रोती थी प्रथम सुशीला, आज वही हँस गाती है ॥४॥ सुदिन सुलग्न सोध कर उसका विद्यारम्भ हुआ सुखसे, _____ तुरत उसे वह आ जाता था, सुनता था जो गुरु-मुखसे। विद्याध्ययन देखकर सुतका. सुखी सुशीला हई बडी.
यद्यपि उसे अर्थकी चिन्ता-मनमें थी हरघड़ी कड़ी ॥५॥ रामदेवके रहने पर भी, यदपि सुशीला धनी न थी, ___ किन्तु आजसी वस्तु अपावन, कभी जातिमें बनी न थी। जो जन उसका कहलाता था, हुआ पराया आज वही,
जिस पर रहा भरोसा; उसके काम न आया आज वही ॥६॥ जहाँ सुशीला जा पड़ती थी, भूमि-भार हो जाती थी,
सीधे मुख वह था न बोलता, जब वह जिसे बुलाती थी। यदि विचार कर देखा जावे, तो स्थिर होगी बात यही,
दीन बराबर कभी दुखी हैं, नारकीय भी जीव नहीं ॥७॥ नीचोंसे भी नीच वही है जिसके पास न हो कलदार,
गुण-सागर भी हो जाता है जग में निर्धन जन बेकार। चाहे वह रूठे या रीझे, हानि, लाभकी बात नहीं,
ऊसर भूपर गरल-कुसुम या, खिल सकता है कमल कहीं ? ॥८॥ निर्धन जन हो निर्बल होता, निर्बल हो अधिकार-विहीन,
अनधिकारसे परिभव सहता, अपमानित हो शोकविलीन । शोकातुर हो वह मर जावे, यदि आशाका मिले न संग,
आशा डोरी बँधा विश्व है, उड़ती नभमें यथा पतंग ॥९॥ यदि न सहारा आशा देती, कभी सुशीला मर जाती,
___ या उस हतह्वदया अबलाकी, सुधिबुधि वरवस हर जाती। होनहार पर लख निज सुतको, उसके सब दुख दूर गये,
और हृदय-मन्दिरमें सुन्दर, जगे मनोरथ नये नये ॥१०॥ सुत मिला जिसको गुरु-भक्त हो, स्वजनमें अनुरक्त सशक्त हो। अति सुखी उसको अनुमानिए, सुकृतका उसके फल जानिए ॥११॥ यदि गुणी विनयी वर विज्ञ हो, तनय, और नयज्ञ कृतज्ञ हो। तब भला जननी दुख क्यों सहे ? हतमनोरथ होकर क्यों रहे ? ॥ १२ ॥
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अङ्क ९-१०]
विचित्र ब्याह ।
जो कुछ हो उद्योगशील थी बड़ी सुशीला, लिखना पढ़ना हरिसेवकका पड़ा न ढीला दुख वह सहती स्वयं किन्तु सुतको सुख देती, सुतको विद्यादान दिला यशको थी लेती १३ ज्ञान-दानके तुल्य अन्यका दान नहीं है, क्योंकि विज्ञके तुल्य अन्यका मान नहीं है। रजत-कनक-भू-रत्न सदा क्या रह सकते हैं ? क्या विद्याको नाशवान भी कह सकते हैं ? ।। खो जाती है कभी हाथमें संपति आकर, पर देती है साथ सदा विद्या जीवन भर । कंचन पाकर मनुज पाप भी कर सकता है, किन्तु विज्ञ क्या पाप-गर्त में गिर सकता है ? ॥१५॥ बुधजन अपने नाम अमिट चाहें तो कर दें, निर्बलमें भी महाशक्ति चाहें तो भर दें। कठिन समस्या-पूर्ति विज्ञ ही कर सकता है, दुःख-भारक्या अज्ञ देशका हर सकता है ? १६ कल्पवृक्ष है काठ उपल चिन्तामणि भी है, विद्याके वे तुल्य इसीसे नहीं कभी हैं। पारसमणि निजतुल्य किसीको क्या करता है ? पर अज्ञोंको विज्ञ, विज्ञजन कर सकता है। इसी लिए जो ज्ञान-दान देते दिलवाते, वे प्राणी हैं धन्य पुण्य अक्षय हैं पाते।। उनके यशको सदा जगतमें बुध गाते हैं, उनके दोनों लोक जगतमें बन जाते हैं ॥ १८ ॥ इसी बातको ठीक सुशीला भी कहती थी, भले काममें सदा सती तत्पर रहती थी। रक्तनीरको एक किया दृढ़तासे उसने, तनय पढ़ाना ठान लिया स्थिरतासे उसने ॥१९॥ हरिसेवक भी खेल तमाशों में न लगा था, केवल विद्याध्ययन रंगमें खूब रँगा था। उससे कोई द्रोह नहीं कुछ भी करता था, दुर्जनसे रह दूर, सुजनसे वह डरता था ॥२०॥ उसका भाषण बड़ा मधुर था बड़ा सरल था,दुर्व्यसनोंको मान रहा वह महा गरल था। परकी निन्दा कमी नहीं करनेवाला था, गुरुकी आज्ञा शीस सदा धरनेवाला था ॥२१॥ सत्य वचनका मिला हुआ था, उसे सहारा, परको करना दुखी न उसने कभी विचारा। कभी स्वममें भी न मांसको उसने देखा, मद उत्पादक वस्तु पापमय उसने लेखा ॥ २२॥ हिन्दीमें सत्प्रेम सदा उसका रहता था, मुक्तकण्ठसे उसे राष्ट्रभाषा कहता था। हिन्दू, हिन्दी, हिन्द, जपा करता था मनमें, देशोन्नतिका ध्यान उसे रहता था मनमें॥२३॥ 'विद्यालयको नित्य चला जाता था घरसे, मगमें रुकता कहीं नहीं था, गुरुके डरसे । उसको आलस-छूत तनिक भी नहीं लगी थी, उसके मनमें पठन-प्रीति निःसीम जगी थी। होता था हर साल परीक्षोत्तीर्ण नेमसे, उसे इसीसे सभी देखते रहे प्रेमसे। • छुट्टीमें भी कभी न सोता था वह दिनमें, विलासिताका लेश नहीं था उसके मनमें ॥
इस प्रकार अठारह वर्षका, नव युवा हरिसेवक हो गया। पर विवाह हुआ उसका नहीं, पड़ गई जननी अति शोकमें ॥ २६ ॥ बहुत सोच किया पर अन्तमें, स्थिर किया मनमें उसने यहीअब विवाह करूँ जिस भाँति हो, मम कुमार कुमार रहे नहीं ॥ २७॥
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जैनहितैषी
[भाग १३ दर्शनसार-विवेचनाका यहाँ तक कि गधे जैसे नीच जीवके प्रति भी
प्रणाम नमस्कार करना उनका धर्म है। यह परिशिष्ट।
विवेकरहित तपस्वियोंका मत है । दर्शनसारका लेख छप चुकनेके बाद इसके २ भावसंग्रहमें मस्करिपूरणका कुछ अधिक सम्बन्धमें हमें और भी कुछ बातें ऐसा मालूम परिचय दिया है । परिचयकी गाथायें ये हैं:हुई हैं, जिनका प्रकाशित कर देना उचित जान पड़ता है।
मसयरि-पूरणरिसिणो, १ राजवार्तिक अध्याय ८, सूत्र १, वार्तिक
उप्पण्णो पासणाहतित्थम्मि ।
सिरिवीरसमवसरणे, १२ में वसिष्ठ, पराशर, जतुकर्ण, वाल्मीकि,
अगहियझुणिणा नियत्तेण ॥ १७६ ॥ व्यास, रोमहर्षि, सत्यदत्त आदिको वैनयिक बत
बहिणिग्गएण उत्तं, लाया है। लक्षण दिया है-'सर्वदेवतानां
मझं एयारसांगधारिस्स। सर्वसमयानां च समदर्शनं वैनयिकत्वम् ।' णिग्गइ झुणी ण, अरहो, अर्थात् सब देवोंको और सब मतोंको समान णिग्गय विस्सास सीसस्स ॥१७७॥ दृष्टिसे देखना वैनयिक मिथ्यात्व है । इस वैन
ण मुणइ जिणकहियसुयं, यिक मिथ्यात्वका स्वरूप * भावसंग्रहमें इस संपइ दिक्खाय गहिय गोयमओ। प्रकार बतलाया है:
विप्पो वेयभासी, वेणइयमिच्छदिही,
तम्हा मोक्खं ण णाणाओ॥१७८॥ हवइ फुडं तावसो हु अण्णाणी।
अण्णाणाओ मोक्खं निग्गुणजणं पि विणओ,
एवं लोयाण पयडमाणो हु। पउज्जमाणो हु गयविवेओ॥८८॥ देवो अ णत्थि कोई, विणयादो इह मोक्खं,
सुण्णं झाएह इच्छाए ॥ १७९ ॥ किजइ पुणु तेण गद्दहाईणं ।
इनमेंसे १७८ वी गाथाका अर्थ ठीक नहीं अमुणिय गुणागुणण य,
बैठता । ऐसा मालूम होता है कि, बीचमें एकाध विणयं मिच्छत्तनडिएण ॥ ८९॥ __ अभिप्राय यह है कि इस मतके अनयायी गाथा छूट गई है । भावार्थ यह है कि, पार्वविनय करनेसे मोक्ष मानते हैं । गुण और अव- नाथके तीर्थमें मस्करि-पूरण ऋषि उत्पन्न हुआ। गुणसे उन्हें कोई मतलब नहीं। सबके प्रति- वार भगवानकी समवसरणसभासें जब वह *यह ग्रन्थ हमें हालहीमें जयपुरके एक सज्जनकी
" उनकी दिव्य ध्वनिको ग्रहण किये विना ही कृपासे प्राप्त हुआ है । इसकी एक प्रति दक्खन ला
" लौट आया, वाणीको धारण करनेवाले योग्यकालेज पूनाके पुस्तकालयमें भी यह है। छोटासा पात्रके अभावसे जब भगवानकी वाणी नहीं प्राकृत गाथाबद्ध ग्रन्थ है। इसकी श्लोकसंख्या ७७० खिरी, तब उसने बाहर निकल कर कहा कि है । जयपुरकी प्रतिके लिखे जानेका समय पुस्तकके मैं ग्यारह अंगका ज्ञाता हूँ, तो भी दिव्य ध्वनि अन्तमें 'ज्येष्ठ सुदि १२ शुक्र संवत् १५५८' दिया हुआ है। इसके रचयिता विमलसेन गणिके शिष्य
मानता है, जिसने अभी हाल ही दीक्षा ग्रहण देवसेन हैं । दर्शनसारके कर्ता देवसेन और ये एक ही
- की है और वेदोंका अभ्यास करनेवाला ब्राह्मण हैं, ऐसा इस ग्रन्थकी रचनाशैलीसे और इसके भीतर जो श्वेताम्बरादि मतोंका स्वरूप दिया है, उससे है, वह गोतम ( इन्द्रभूति ) इसके लिए योग्य मालूम होता है।
। समझा गया । अतः जान पड़ता है कि ज्ञानसे
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अङ्क ९-१० ]
मोक्ष नहीं होता है । वह लोगों पर यह प्रकट करने लगा कि अज्ञानसे ही मोक्ष होता है । देव या ईश्वर कोई है ही नहीं । अतः स्वेच्छापूर्वक शून्यका ध्यान करना चाहिए ।
भट्टारक लक्ष्मीचन्द्रके शिष्य पं० वामदेवके बनाये हुए संस्कृत भावसंग्रहके भी हमें इसी समय दर्शन हुए* । यद्यपि पं० वामदेवने इस बातका कहीं उल्लेख नहीं किया है; परन्तु मिलान करने से मालूम हुआ कि उन्होंने प्राकृत भावसंग्रहका ही न्यूनाधिकरूपमें अनुवाद करके अपना यह ग्रन्थ बनाया है । मस्करिपूरणके सम्बन्धमें उन्होंने नीचे लिखे ५ श्लोक लिखे हैं । इनसे पूर्वोक्त गाथाओं का अभिप्राय अच्छी तरह स्पष्ट हो जाता है ।
दर्शनसार विवेचनाका परिशिष्ट ।
वीरनाथस्य संसदि ॥ १८५ ॥ जिनेन्द्रस्य ध्वनिग्राहि.
भाजनाभावतस्ततः । शक्रेणात्र समानीतो
ब्राह्मणो गोतमाभिधः ॥ १८६ ॥ सद्यः स दीक्षितस्तत्र सध्वनेः पात्रतां ययौ । ततः देवसभां त्यक्त्वा निर्ययौ मस्करीमुनिः ॥ १८७ ॥ सन्त्यस्मदादयोऽप्यत्र मुनयः श्रुतधारिणः । तांस्त्यक्त्वा सध्वनेः पात्रमज्ञानी गोतमोऽभवत् ॥ १८८ ॥ संचिन्त्यैवं कुधा तेन दुर्विदग्धेन जल्पितम् । मिथ्यात्वकर्मणः पाकाज्ञानत्वं हि देहिनाम् ॥ १८९ ॥ इसकी एक हस्तलिखित प्रति श्रीयुत पं० उदयलालजी काशलीवालके पास मौजूद है । प्रन्थकर्ताने अपनी गुरुपरम्परा इस प्रकार दी है— विनय चन्द्रत्रैलोक्यकीर्ति - लक्ष्मीचन्द्र और वामदेव । प्रन्थके रचनेका समय नहीं दिया ।
*
हेयोपादेयविज्ञानं देहिनां नास्ति जातुचित् । तस्मादज्ञानतो मोक्ष
इति शास्त्रस्य निश्चयः ॥ १९० ॥ अर्थात् – वीरनाथ भगवान् के समवसरणमें जब योग्य पात्रके अभावमें दिव्यध्वनि निर्गत नहीं हुई, तब इन्द्र गोतम नामक ब्राह्मणको आये । वह उसी समय दीक्षित हुआ और दिव्यध्वनिको धारण करनेकी उसी समय उसमें पात्रता आ गई। इससे मस्करिपूरण मुनि सभाको छोड़कर बाहर चला आया । यहाँ मेरे जैसे अनेक श्रुतधारी मुनि हैं, उन्हें छोड़कर दिव्यध्वनिका पात्र अज्ञानी गोतम हो गया, यह सोचकर उसे क्रोध आगया । मिथ्यात्वकर्मके उदयसे जीवधारियोंको अज्ञान होता है। उसने कहा देहियों को हेयोपादेयका विज्ञान कभी हो ही नहीं सकता । अत एव शास्त्रका निश्चय है कि अज्ञानसे मोक्ष होता है ।
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दर्शनसारकी वचनिकामें + मस्करिपूरणके
३९५
,
+ बाम्बे रायल एशियाटिक सुसाइटीकी रिपोर्टमें डा० पिटर्सनने 'दर्शन-सार वचनिका का एक जगह हवाला दिया है और लिखा है कि यह ग्रन्थ जयपुरमें है । तदनुसार हमने इसकी खोज करनी शुरू की और हमें जयपुरसे तो नहीं; परन्तु देवबन्दसे श्रीयुत बाबू जुगलकिशोर जीके द्वारा इसकी एक प्रति प्राप्त हो गई । इसके कर्त्ता पं० शिवजीलालजी हैं । माघ सुदी १० सं० १९३३ को सवाई जयपुरमें यह बनकर समाप्त हुई । इसकी श्लोकसंख्या लगभग ३५०० और पत्र १६२ हैं । इसमें गाथाओंका अर्थ तो बहुत ही संक्षेपमें लिखा है, संस्कृत छाया भी नहीं दी. है; परन्तु प्रत्येक धर्मका सिद्धान्त और उसका खण्डन खूब विस्तारसे दिया है। मूल गाथाओंमें जिन मतका ' विषयमें भी बहुत कुछ लिखा है । बहुतसे मत उल्लेख है, उनके सिवाय मुसलमान और ईसाई मतके. विषयमें आपने बड़ी गहरी भूलें की हैं। जैसे मस्करिपूरणको मुसलमान धर्मका मूल मान लेना और योपनीय संघको मूर्तिपूजा-विरोधी लोकागच्छ समझ लेना ।
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जैनहितैषी
[भाग १३
सम्बन्धमें नीचे लिखे दो श्लोक उद्धत किये कमलमाल पद्मासनी, गये हैं। पर यह नहीं लिखा कि ये किस ग्रन्थसे द्राविडजती सुमीत ॥३॥ लिये गये हैं। कुछ अशुद्ध और अस्पष्ट भी
रुद्राक्षत्रकूकण्ठधर, जान पड़ते हैं:
मानस्तंभविशेष। पूर्वस्यां वामनेनैव
दाक्षिण द्राविड जानिये,
धर्मचक्र भुजशेष ॥४॥ ___ मदनेन च दक्षिणे।
पंच द्राविड मान ये, पश्चिमस्यां मुसंडेन
तिलक मान (2) रुद्राक्ष । कुलकेनोत्तरेऽपि तत् ॥
माल भस्म मालै जपै, मस्कपूरणमासाद्य
त्रिकसूत्री कोपीन (2)॥५॥ चत्वारोऽपि दिवानिशम् ।
उत्तर द्राविड जानिये, अज्ञानमतमासाद्य (?)
काल चतुर्थज भेक । लोकानुभ्रशतामय (?)॥
पंचमके दो भेद जुत, -, अर्थात् पूर्वदिशामें वामनने, दक्षिणमें मदनने,
कल्प अकल्प अनेक ॥६॥ पश्चिममें मुसण्डने और उत्तरमें कुलकने मस्क- दुसरे दोहेमें द्राविड संघकी प्रतिमाका स्वरूप पूरणके अज्ञान मतका प्रचार किया और लोगोंको यह बतलाया है कि, वह अर्धपल्यंकासन होती भ्रष्ट किया । वचनिकाकारका कथन है कि ये है, उसके मस्तक पर सर्पके पाँच फण होते
हैं, वह सिंहासन पर स्थित होती है और तीन ३ द्राविड़ संघके विषयमें दर्शनसारकी छत्र उसके ऊपर रहते हैं । इसमें यह नहीं कहा वचनिकाके कर्ता एक जगह जिनसंहिताका है कि, वह वस्त्र और आभूषणोंसे युक्त होती प्रमाण देते हुए कहते हैं कि 'सभूषणं सवस्त्रं है। पर जिनसंहिताका उक्त श्लोकार्ध द्राविड स्यात् बिम्बं द्राविडसंघजम्'-द्रविड़ संघकी प्रतिमाको वस्त्राभूषणसहित बतलाता है । प्रतिमायें वस्त्र और आभूषणसहित होती हैं। मालूम नहीं, यह जिनसंहिता किसकी बनाई लिखा है-“ जो बिम्ब गहणां पहस्यो होय हुई है और कहाँ तक प्रामाणिक है। अभी तक तथा अर्ध पल्यंकासन निम्रन्थ हो है सो द्राविड़ हमें इस विषयमें बहुत सन्देह है कि, द्राविड संघका है। " आगे किसी ग्रन्थसे नीचे लिखे संघ सग्रन्थ प्रतिमाओंका पूजक होगा। दोहे उद्धृत किये हैं:
उक्त छह दोहे भी मालूम नहीं किस ग्रन्थके तैल पान प्रासुक कहैं,
हैं । वचनिकाकारने इन्हें कहींसे उठाकर रख - लवण खान है निन्द्य। दिया है, पर यह नहीं लिखा कि इनका भातनको यह (?) धौतजल,
रचयिता कौन है । अन्तके चार श्लोकोंमें सदा पान अनवद्य ॥१॥
द्राविड़ संघके यतियोंका वेश बतलाया है और सिंहासन छत्रत्रयी, __ आसन अर्ध पल्यंक।
उनके कई भेद किये हैं; परन्तु दोहोंकी रचना पंचफणी प्रतिमा जहाँ,
इतनी अस्पष्ट है, और प्रतिके लेखकने भी उन्हें द्राविड संघ सवंक ॥२॥
कुछ ऐसा अस्पष्ट कर दिया है, कि उनका पूरा उत्तरीय अरु अंशु अध,
पूरा अभिप्राय समझमें नहीं आता । इतना उज्ज्वलदोय पुनीत ।
मालूम होता है कि इस संधके यति वस्त्र पहनते
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अङ्क ९-१०] वर्शनसार विवेचनका परिशिष्ट । थे, माला आदि धारण करते थे और तिलक दुद्धिय पत्तं च तहा, भी लगाते थे।
- पावरणं सेयवत्थं च ॥ ५८॥ वचनिकाके कर्त्ताने लिखा है कि ? पंचो
चत्तं रिसिआयरणं, पाख्यान, २ सप्ताशीति, और ३ सिद्धान्तशि
गहिया भिक्खाय दीणवित्तीए ।
उवविसिय जाइऊणं, रोमाणि ये तीन ग्रन्थ द्राविड संघके हैं । संभव
__ भुत्तं वसहीसु इच्छाए ॥ ५९॥ है कि इन ग्रन्थोंकी प्राप्ति जयपुरके किसी
एवं वटुंताणं कित्तिय भण्डारसे हो जाय । यदि ये मिल जायँ, तो
कालम्मि चावि परियलिए। इस संघके विषयमें हमारी जो गाढ़ अज्ञानता संजायं सुभिक्खं, है, वह अनेक अंशोंमें विरल हो सकती है । जंपइ ता संति आइरिओ॥६॥
४ श्वेताम्बर सम्प्रदायकी उत्पत्तिका इतिहास आवाहिऊण संघ, देवसेनसूरिकृत भावसंग्रहमें इस प्रकार दिया है:
__ भणियं छेडेह कुत्थियायरणं।
जिंदिय गरहिय गिण्हह, छत्तीसे वरिस सए
पुणरविचरियं मुणिंदाणं ॥६१॥ विक्कमरायस्समरणपत्तस्स ।
तं क्यणं सोऊणं सोरहे उप्पण्णो
उत्तं सीसेण तत्थ पढमेण । सेवडसंशे हु वलहीए ॥५२॥
को सक्कइ धारे, आसि उज्जेणिणयरे, आयरिओ भद्दबाहुणामेण ।
एयं अइ दुद्धरायरणं ॥६२॥ जाणिय सुणिमित्तधरो,
उववासो य अलाभो, भणिओ संघो णिओ तेण ॥५३॥
अण्णे दुसहाइ अंतरायाई। होहइ इह दुभिक्खं,
एक्कठाणमचेलं, बारह वरसाणि जाव पुण्णाणि ।
__ अजायणं बंभचेरं च ॥६॥ देसंतराय गच्छह,
भूमीसयणं लोचो णियणियसंघेण संजुत्ता ॥ ५४॥
वे वे मासहिं असहिणिज्जो हु। सोऊण इयं वयणं,
वावीस परिसहाई _णाणादेसेहिं गणहरा सव्वे ।
__ असहिणिज्जाई णिचंपि ॥ ६४॥ णियणियसंघपउत्ता,
जं पुण संपइ गहियं, विहरीआ जच्छ सुभिक्खं ॥५५॥ एयं अम्हेहि किंपि आयरणं । एक पुण संति णामो,
इह लोयसुक्खयरणं, .. । संपत्तो वलहि णाम जयरीए । ___ण छंडिमोहु दुस्समे काले ॥६५॥ बहुसीससंपउत्तो,
ता संतिणा पउत्तं, विसए सोरहए रम्मे ॥ ५६ ॥
चरियपभहोहिं जीवियं लोए। तत्थ विगयस्स जार्य,
एयं ण हु सुंदरयं, दुभिक्खं दारुणं महाघोरं ।
दूसणयं जइणमग्गस्स ॥६६॥ जत्थ वियारिय उयरं,
णिग्गंथं पव्वयणं, खोरकेहि कुरुत्ति ॥५७॥ . जिणवरणाहेण अक्खियं परमं । ते लहिऊण णिमित्तं,
तं छडिऊण अण्णं, महियं सव्वेहिं कंबलीदंडं।
पवत्तमाणेण मिच्छत्तं ॥६७॥
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जैनहितैषी
[भाग १३
ता रूसिऊण पहओ,
बड़ा भारी बारह वर्षोंमें समाप्त होनेवाला दुर्भिक्ष सीसे सीसेण दीहदंडेण।
होगा । इस लिए सबको अपने अपने संघके थविरो घाएण मुओ,
साथ और और देशोंको चले जाना चाहिए । जाओ सो वितरो देवो ॥६८॥
५३-५४ । यह सुनकर समस्त गणधर अपने इयरो संघाहिवई,
अपने संघको लेकर वहाँसे उन उन देशोंकी पयडिय पासंड सेवडो जाओ। अक्खइ लोए धम्म,
ओर विहार कर गये, जहाँ सुभिक्ष था। ५५ । सग्गंथे अत्थि णिव्वाणं ॥६९॥
उनमें एक शान्ति नामके आचार्य भी थे, जो सच्छाइ विरइयाई
अपने अनेक शिष्योंके सहित चलकर सोरठ णियणिय पासंड गहियसरिसाई। देशकी वल्लभी नगरीमें पहुँचे । ५६ । परन्तु वक्खाणिऊण लोए,
उनके पहुँचनेके कुछ ही समय बाद वहाँ पर भी पवत्तियो तारिसायरणे ॥७॥ बड़ा भारी अकाल पड़ गया । भुखमरे लोग णिग्गंथं दूसित्ता,
दूसरोंका पेट फाड़ फाड़कर और उनका खाया जिंदित्ता अप्पणं पसंसित्ता।
हुआ भात निकाल निकाल कर खा जाने लगे। जीवे मूढयलोए,
५७। इस निमित्तको पाकर-दुर्भिक्षकी परिस्थिकयमाय (2) गेहियं बहुं दव्वं ॥७१॥ तिके कारण-सबने कम्बल, दण्ड, तूम्बा, पात्र, इयरो विंतर देवो, संती लग्गो उवद्दवं काउं।
आवरण ( संथारा) और सफेद वस्त्र धारण कर जंपइ मा मिच्छत्तं,
लिये । ५८ । ऋषियोंका ( सिंहवृत्तिरूप ) आगच्छह लहिऊण जिणधम्मं ॥७२॥ चरण छोड़ दिया और दीनवृत्तिसे भिक्षा ग्रहण भीएहि तस्स पूआ,
करना, बैठ करके, याचना करके और स्वेच्छाअद्वविहा सयलदव्वसंपुण्णा। पूर्वक बस्तीमें जाकर भोजन करना शुरू कर जा जिणचंदे रइया,
दिया। ५९। उन्हें इस प्रकार आचरण करते सा अज्जवि दिणिया तस्स ॥७३॥
हुए कितना ही समय बीत गया । जब सुभिक्ष अज्जवि सा वलिपूया, पढमयरं दिति तस्स णामेण ।
हो गया, अन्नका कष्ट मिट गया, तब शान्ति सो कुलदेवो उत्तो,
आचार्यने संघको बुलाकर कहा, कि अब इस . सेवडसंघस्स पुज्जो सो ॥ ७४॥
कुत्सित आचरणको छोड़ दो, और अपनी इय उप्पत्ती कहिया,
निन्दा, गर्दा करके फिरसे मुनियोंका श्रेष्ठ आचसेवडयाणं च मग्गभहाणं। रण ग्रहण कर लो ॥ ६०-६१ । इन वचनोंको एच्चो उ8 वोच्छं,
सुनकर उनके एक प्रधान शिष्यने कहा कि अब __णिसुणह अण्णाणमिच्छत्तं॥७५॥ उस अतिशय दुर्धर आचरणको कौन धारण कर
अर्थ-विक्रमराजाकी मृत्युके १३६ वर्ष सकता है ? उपवास, भोजनका न मिलना, तरह बाद सोरठ देशकी वल्लभी नगरीमें श्वेताम्बर तरहकं दुस्सह अन्तराय, एक स्थान, वस्त्रोंका संघ उत्पन्न हुआ । ५२ । ( उसको कथा इस अभाव, मौन, ब्रह्मचर्य, भूमि पर सोना, हर दो प्रकार है ) उज्जयनी नगरीमें भद्रबाहु नामके महीनेमें केशोंका लोच करना, और असहनीय आचार्य थे । वे निमित्त ज्ञानके जाननेवाले थे, बाईस परीषह, आदि बड़े ही कठिन आचरण इस लिए उन्होंने संघको बुलाकर कहा कि एक हैं। ६२-६४ । इस समय हम लोगोंने जो कुछ
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अङ्क ९-१०] दर्शनसार-विवेचनका परिशिष्ट । आचरण ग्रहण कर रखा है, वह इस लोकमें हुआ ग्रन्थ है, प्राचीन है, अतएव हमने उस भी सुखका कर्ता है । इस दुःषम कालमें हम उसे परसे श्वेताम्बर सम्प्रदायकी उत्पत्तिकी इस नहीं छोड़ सकते । ६५। तब शान्याचार्यने कहा कथाको यहाँ उद्धृत कर देना उचित समझा। कि यह चारित्रसे भ्रष्ट जीवन अच्छा नहीं । यह भट्टारक रत्ननन्दिने अपने भद्रबाहुचरित्रका जैनमार्गको दूषित करना है । ६६ । जिनेन्द्र अधिकांश इसी कथाको पल्लवित करके लिखा भगवानने निर्ग्रन्थ प्रवचनको ही श्रेष्ठ कहा है । है । इसमें कोई सन्देह नहीं कि उनकी कथाका उसे छोड़कर अन्यकी प्रवृत्ति करना मिथ्यात्व मूल यही है; परन्तु उन्होंने अपने ग्रन्थमें इस है । ६७। इस पर उस शिष्यने रुष्ट होकर अपने कथामें जो परिवर्तन किया है, वह बड़ा ही बड़े डंडेसे गुरुके सिरमें आघात किया, जिससे विलक्षण है । उनके परिवर्तन किये हुए कथाशान्त्याचार्यकी मृत्यु हो गई और वे मर करके भागका संक्षिप्त स्वरूप यह है- “भद्रबाहु व्यन्तर देव हुए। ६८ । इसके बाद वह शिष्य स्वामीकी भविष्यवाणी होने पर १२ हजार साधु । संघका स्वामी बन गया और प्रकट रूपमें सेवड़ा उनके साथ दक्षिणकी ओर विहार कर गये, या श्वेताम्बर हो गया । वह लोगोंको धर्मका परन्तु रामल्य, स्थूलाचार्य और स्थूलभद्र आदि उपदेश देने लगा और कहने लगा कि सग्रन्थ मुनि श्रावकोंके आग्रहसे उज्जयिनीमें ही रह गये। या सपरिग्रह अवस्थामें निर्वाणकी प्राप्ति हो कुछ ही समयमें घोर दुर्भिक्ष पड़ा और वे सब सकती है । ६९ । अपने अपने ग्रहण किये हुए शिथिलाचारी हो गये । उधर दक्षिणमें भद्रबाहु । पाषण्डोंके सदृश उसने और उसके अनुयायियोंने स्वामीका शरीरान्त हो गया । सुभिक्ष होनेपर शास्त्रोंकी रचना की, उनका व्याख्यान किया उनके शिष्य विशाखाचार्य आदि लौटकर उज्जऔर लोगोंमें उसी प्रकारके आचरणकी प्रवृत्ति यिनीमें आये । उस समय स्थूलाचार्यने अपने चला दी। ७० । वे निम्रन्थ मार्गको दूषित बत- साथियोंको एकत्र करके कहा कि शिथिलाचार लाकर उसकी निन्दा और अपनी प्रशंसा करने छोड़ दो; पर अन्य साधुओंने उनके उपदेशको - लगे...। ७१ । अब वह जो शान्ति आचार्यका न माना और कोधित होकर उन्हें मार डाला। जीव व्यन्तरदेव हुआ था, सो उपद्रव करने लगा स्थूलाचार्य व्यन्तर हुए । उपद्रव करने पर वे .
और कहने लगा कि, तुम लोग जैनधर्मको पाकर कुलदेव मानकर पूजे गये। इन शिथिलाचारियोंसे मिथ्यात्व मार्ग पर मत चलो । ७२ । इससे 'अर्द्ध फालक' (आधे कपड़ोंवाले) सम्प्रदायका उन सबको बड़ा भय हुआ और वे उसकी जन्म हुआ । इसके बहुत समय बाद उज्जयिनीमें सम्पूर्ण द्रव्योंसे संयुक्त अष्ट प्रकारकी पूजा करने' चन्द्रकीर्ति राजा हुआ । उसकी कन्या वल्लभीलगे। वह जिनचन्द्रकी रची हुई या चलाई हुई पुरके राजाको ब्याही गई । चन्द्रलेखाने अर्धउस व्यन्तरकी पूजा आज भी की जाती है फालक साधुओंके पास विद्याध्ययन किया था, ।। ७३ । आज भी वह बलिपूजा सबसे पहले इस लिए वह उनकी भक्त थी। एक बार उसने उसके नामसे दी जाती है। वह श्वेताम्बर संघका अपने पतिसे उक्त साधुओंको अपने यहाँ बुलापूज्य कुलदेव कहा जाता है। ७४ । यह मार्गभ्रष्ट नेके लिए कहा । राजाने बुलानेकी आज्ञा दे श्वेताम्बरोंकी उत्पत्ति कही । इससे आगे अज्ञान दी। वे आये और उनका खूब धूम धामसे मिथ्यात्वका स्वरूप कहा जायगा । ७५।। स्वागत किया गया। पर राजाको उनका वेष
भावसंग्रह विक्रमकी दशवीं शताब्दिका बना अच्छा न मालूम हुआ । वे रहते तो थे नग्न, पर
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४०० जैनहितैषी
[भाग १३ ऊपर वस्त्र रखते थे। रानीने अपने पतिके हृदः ताम्बर सम्प्रदायमें उतनी ही प्रसिद्धि है जितनी यका भाव ताड़कर साधुओंके पास श्वेत वस्त्र दिगम्बर सम्प्रदायमें भगवान् कुन्दकुन्दकी । पहननेके लिए भेज दिये। साधुओंने भी उन्हें इस कारण यह नाम ज्योंका त्यों उठा लिया स्वीकार कर लिया । उस दिनसे वे सब साधु गया और दूसरे दो नाम नये गढ़ डाले गये। श्वेताम्बर कहलाने लगे। इनमें जो साधु प्रधान वास्तवमें 'अर्धफालक' नामका कोई भी सम्प्रथा, उसका नाम जिनचन्द्र था ।” दाय नहीं हुआ । भद्रबाहुचरित्रसे पहलेके किसी - अब इस बातका विचार करना चाहिए कि भी ग्रन्थमें इसका उल्लेख नहीं मिलता। यह भावसंग्रहकी कथामें इतना परिवर्तन क्यों किया भट्टारक रत्ननन्दिकी खुदकी 'ईजाद' है । गया । हमारी समझमें इसका कारण भद्रबाहुका श्वेताम्बराचार्य जिनेश्वरसूरिने अपने 'प्रमाऔर श्वेताम्बर सम्प्रदायकी उत्पत्तिका समय लक्षण' नामक तर्कग्रन्थके अन्तमें श्वेताम्बहै। भावसंग्रहके कर्त्ताने भद्रबाहुको केवल निमि- रोंको आधुनिक बतलानेवाले दिगम्बरोंकी ओरसे - त्तज्ञानी लिखा है, पर रत्ननन्दि उन्हें पंचम उपस्थित की जानेवाली इस गाथाका उल्लेख श्रुतकेवली लिखते हैं। दिगम्बर ग्रन्थोंके अनु- किया है:सार भद्रबाहु श्रुतकेवलीका शरीरान्त वीरनिर्वा- छव्वास सपहिं नउत्तरेंहिं णसंवत् १६२ में हुआ है और श्वेताम्बरोंकी तइया सिद्धिंगयस्स वीरस्स । उत्पत्ति वीर नि० सं०६०३ (विक्रमसंवत् १३६) कंबलियाणं दिही में हुई है। दोनोंके बीचमें कोई साढ़े चारसौ वलहीपुरिए समुप्पण्णा ॥ वर्षका अन्तर है । रत्ननन्दिजीको इसे पूरा अर्थात् वीर भगवानके मुक्त होनेके ६०९ करनेकी चिन्ता हुई । पर और कोई उपाय न वर्ष बाद (विक्रमसंवत् १४० में ) वल्लभीपुरमें था, इस कारण उन्होंने भद्रबाहुके समयमें दुर्भि- काम्बलिकोंका या श्वेताम्बरोंका मत उत्पन्न क्षके कारण जो मत चला था, उसको श्वेता- हुआ । मालूम नहीं, यह गाथा किस दिगम्बरी म्बर न कहकर 'अर्ध फालक' कह दिया और ग्रन्थकी है। इसमें और दर्शनसारमें बतलाये
उसके बहुत वर्षों बाद ( साढ़े चारसौ वर्षके हुए समयमें चार वर्षका अन्तर है । यह गाथा • बाद) इसी अर्धफालक सम्प्रदायके साधु जिन- उस गाथासे बिलकुल मिलती जुलती हुई है
चन्द्र के सम्बन्धकी एक कथा और गढ़ दी और जो श्वेताम्बरोंकी ओरसे दिगम्बरोंकी उत्पत्तिके उसके द्वारा श्वेताम्बर मतको चला हुआ बतला सम्बन्धमें कही जाती है । और जो पृष्ठ २६५ दिया । श्वेताम्बरमत जिनचन्द्रके द्वारा वल्लभीमें में उद्धृत की जा चुकी है। प्रकट हुआ था, अतएव यह आवश्यक हुआ ७ श्रीश्रुतसागरसूरिने षट्पाहुड़की टीकामें कि दुर्भिक्षके समय जो मत चला, उसका स्थान जैनाभासोंका उल्लेख इस प्रकार किया है:कोई दूसरा बतलाया जाय और उसके चलाने- “गोपुच्छिकानां मतं यथा-इत्थीणं पुण वाले भी कोई और करार दिये जायँ । इसी दिक्खा० । श्वेतवाससः सर्वत्र भोजनं कारण अर्धफालककी उत्पत्ति उज्जयिनीमें बत- प्रासुकं मांसभक्षणां गृहे दोषा नास्तीति लाई गई और उसके प्रवर्तकोंके लिए स्थूलभद्र च न मन्यन्ति । उद्भोजनं निरासं कुर्वन्ति ।
- वर्णलोपः कृतः।......द्राविडा सावयंप्रासुकं आदि नाम चुन लिये गये । स्थूलभद्रकी श्वे- यापनीयास्तु वै गर्दभा इव ससरा (2)
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अङ्क ९-१०]
दर्शनसार-विवेचनाका परिशिष्ट ।
४०१
इव उभयं मन्यन्ते । रत्नत्रयं पूजयान्त, अन्थोंको अच्छी तरह देखे विना यह निश्चय. कल्पं च वाचयन्ति, स्त्रीणां तद्भवे मोक्ष पूर्वक नहीं कहा जा सकता कि ये सब ग्रन्थ केवलिजिनानां कवलाहारं-परशासने दर्शनसारके कर्ताके ही हैं । 'नयचक्र ' सग्रन्थानां मोक्षं च कथयन्ति । निः नामके या
न्त । न नामके ग्रन्थ दो हैं, एक संस्कृत और दूसरा पिच्छिकाः मयूरपिच्छादिकं न मन्यन्ते।
प्राकृत । प्राकृत नयचक्र माणिकचन्द ग्रन्थमाउक्तं च ढाढ़सीगाथासुः
लाके द्वारा शीघ्र ही प्रकाशित होनेवाला है । पिच्छण हु सम्मत्तं
यह भी देवसेनकृत समझा जाता है। एक करगहिए मोरचमरडंबरए।
नयचक्रका उल्लेख विद्यानन्दस्वामी अपने अप्पा तारइ अप्पा
प्रसिद्ध ग्रन्थ श्लोकवार्तिकमें करते हैं:- ... तम्हा अप्पा वि झायव्वो॥"
संक्षेपेण नयास्तावद्भावार्थः-गोपुच्छक या काष्ठासंघी स्त्रियोंके व्याख्यातास्तत्र सूचिताः। लिए छेदोपस्थापनाकी आज्ञा देते हैं । श्वेताम्बर तद्विशेषाः प्रपञ्चेन सर्वत्र भोजन करना उचित मानते हैं। उनकी संचिन्त्या नयचक्रतः॥ समझमें मांसभक्षकोंके यहाँ भी प्रासुक भोजन
अ० १, सूत्र ३३ । करनेमें दोष नहीं है। इस तरह उन्होंने वर्णा
परन्तु श्लोकवार्तिक वि० सं० ८०० के. श्रमका लोप किया है । यापनीय दोनोंको मानते
लगभग बना हुआ है, अतएव यह नयेचक्र हैं। रत्नत्रयको पूजते हैं, कल्पसूत्रको बाँचते दर्शनसारके कर्ता देवसेनसे बहुत पहलेका है। हैं, स्त्रियोंको उसी भवम मोक्ष, केवलियाको ९ पैंतीसवीं गाथाके ' इत्थीणं पुण दिक्खा' कवलाहार, दूसरे मतवालोंको और परिग्रहधा- इस पदका अभिप्राय वचनिकाकारने यह रियोंको मोक्ष मानते हैं । नि:पिच्छिक या लिखा है कि मूलसंघमें स्त्रियोंको ' छेदोमाथुरसंघी मोरकी पिच्छी रखना आवश्यक नहीं
पस्थापना' नहीं कही है; पर काष्ठासंघके प्रवर्त
है समझते हैं । जैसा कि 'ढाढसी' नामक ग्रंथम कने उन्हें छेदोपस्थापना की. या फिरसे दीक्षा कहा है कि मोर और चमर ( गोपुच्छ ) की देनेकी आज्ञा दी है । इसके लिए कुन्दकुन्द पिच्छिके आडम्बरमें सम्यक्त्व नहीं है । आत्मा
स्वामीके किसी पाहुड़की यह गाथा दी है:ही आत्माको तारता है । इस लिए आत्माका
इत्थीणं मुणपभवे (?) ही ध्यान करना चाहिए।
'अज्जाए छेओपठवणं।
. ८ दर्शनसार वचनिकाके कर्ता लिखते हैं- दिक्खा पुण संगहणं “ या आचार्यके किये भावसंग्रह प्राकृत, णत्थीति निरूवियं मुणिहिं॥
तत्त्वसार प्राकृत, आराधनासार प्राकृत, नयचक्र इसी काष्ठासंघके प्रकरणमें देवेन्द्रसेन-नरेन्द्र- संस्कृत, आलापपद्धति संस्कृत, धर्मसंग्रह संस्कृत- सेनविरचित सिद्धान्तसार दीपकका उल्लेख किया
प्राकृत, इत्यादि केई ग्रन्थ हैं । देवसेन नामके है और लिखा है कि यह काष्ठासंघका ग्रन्थ । केई आचार्य हो गये हैं।" इसलिए इन सब है। आश्विन सुदी ५ सं० १९७४ वि० ।
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४०३
जैनहितैषी
[भाग १३
हमारे देशका व्यभिचार। सदृश कुचरित्र लोग भी इस समाजमें हैं, पर (लेखक, श्रीयुत ठाकुर शिवनन्दनसिंह बी. ए.) एकदम सारे समाजको अनाचारी मान लेना हम भारतवासी यह माने बैठे हैं कि पहले तो अन्याय है । कुछ दिनांके लिये एक स्कूलमें मैं भारतमें सदाचार छोड़ व्यभिचारका लेश भी
अवैतनिक असिस्टेन्ट हेडमास्तर था। स्कूलके नहीं है और यदि किसी अंशमें है भी, तो नाम- 19
" प्रिंसपलसे मुझसे बहुत मेल बढ़ गया था । मैं मात्रको । कमसे कम विलायतवालों के मकाबले तो प्रायः नित्य ही अपना सन्ध्याका समय उनके इस देशके स्त्रीपुरुष अत्यंत सच्चरित्र हैं। सुबतमें बंगले पर बिताता था । ये सपरिवार बड़े ही कहा जाता है कि विलायतमें तो व्यभिचारके सज्जन थे और सबका बर्ताव मेरे साथ बहुत ही ऐसे घर बने हैं जहाँ स्त्रियाँ छिप कर बच्चे जन भला था। हम सब एक साथ · बैड मिन्टन,'
. 'टेनिस' या 'चेस ' आदि खेल खेला करते आती हैं और उन बच्चोंको दाइयाँ जिलाती हैं * । उनके यहाँ परदा न होनेसे जो जिसे चाहता है, था,
थे। इसमें मेमसाहिबा और उनकी युवा पुत्रियाँ भी अपना लेता है। पराई स्त्रियाँ पराये परुषों के शामिल रहती थीं । वे हारमोनियम या पियानो साथ घूमती हैं और मनमाना आनन्द करती हैं;
बजाकर बड़ी आजादीसे गाकर सुनाती थीं, खूब वे रोकी तक नहीं जातीं । असलमें, उनके यहाँ
__ अच्छी तरह दिल खोल कर बातें करती थीं, बहस
मुबाहिसा करती थीं, और सभ्यतापूर्ण हँसी व्याभिचारका विचार ही नहीं है।
___ दिल्लगी भी करती थीं । अर्थात् जिस आजादीसे यह बात कहाँ तक सत्य है इसका निश्चय ,
१ दो सभ्य पुरुषमित्र आपसमें व्यवहार रखते हैं करना अत्यन्त कठिन ही नहीं, असम्भव है । .
' उसी तरह प्रिंसपलसाहबके घरकी स्त्री और पुरुष हमारे यहाँका रिवाज और रहनेका ढंग उनके
दोनोंके साथ मेरा व्यवहार था। रहनसहनसे ऐसा विरुद्ध है कि हम खामखाह
बार मेरे इस मेलजोलकी खबर धीरे धीरे स्कूलमें उनके चरित्रमें धब्बा लगाते हैं और उनका जीवन
पहुँची । फिर क्या था, हर तरफसे मास्टर लोग यदि पवित्र भी हो तो भी हम उन्हें कलंक लगाते
कटाक्ष करने लगे। फुरसतके घण्टेमें सब लोग और पापाचारी कहा करते हैं। समाजमें, हर तर
एक साथ बैठकर मेरी मीठी मीठी चुटकियाँ हके लोग होते हैं । यद्यपि आगरके सिविल सर्जन
लेने लगे। मिस्टर क्लार्क और मिसेस फुलहम + आदिके
दैव-संयोगसे वहाँ एक नये कलेक्टर बदलकर ___ * छिप कर बच्चे जने जानेका ब्योराः- आये। ये अकसर प्रिंसपल साहबके बँगले पर
सन् इंग्लैण्ड फ्रांस जर्मनी आने लगे । कभी कभी खाना भी यहीं १९०४ ३८,४१२ ७१,७३५ १,७४,७९४ खायें और रातको भी रह जाय । मेम साहिबाने १९०५ ३६,८१४ ७१,५०० १,७७,०६० तो अपना और कलेक्टरका बंगला एक कर रक्खा १९०६ ३९,३१५ ७१,४६६ १,७९,१७८
" था । जब देखिए, वे कलेक्टरसाहबकी जोड़ी १९०७ ३६,१८९ ७१,३०५ १,८०,५८७ १९०८ ३७,५३१ ७१,००९ १,८४,११२
पर नजर आती थीं । हवा खाने दोनों एक साथ, १९०९ ३७,५०९ ७१,२०३ १,८३,७००
नदीकी सैर एक साथ, जहाँ देखिए प्रिंसपलकी ___ + Vide the pioneer and the मेम और कलेक्टर साहब एक ही साथ दिखाई Leader Etc. for March 1913 in which देते थे । दुर्भाग्यवश एक दिन प्रिंसपल साहब the shameful cose was published. भले चंगे स्कूलसे आये और एकाएक बेहोश हो
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अङ्क ९-१०] हमारे देशका व्यभिचार। गये । उनका हृदय बन्द हो गया और वे कुछ ही विवाह बहुत देरमें होता है, बहुतसे स्त्रीपुरुष घण्टोंमें परलोक सिधार गये।
__ आयुपर्यन्त अविवाहित रहते हैं, हम पक्षपातके लाश दफना कर मेम साहिबा अपने बँगले पर रंगीन चश्मेसे उन पर दृष्टि डालते हैं और उनमें न आकर साहब कलेक्टरके साथ उन्हींकी मोटर सर्वथा पाप ही पाप देखते हैं। पर सीधी उनके बँगले पर गई और वहाँ कुल दो खैर, जो हो; मुझे इस लेखमें यह दिखाना सप्ताह रह कर विलायत चली गई। अभीष्ट नहीं है कि भारतमें विलायतसे, अथवा ___ इधर स्कूल क्या, सारे शहरके लोग, कलेक्टर विलायतमें भारतसे अधिक व्यभिचार है । मेरे
और प्रिंसपलकी विधवाको व्यभिचारी-व्याभिचा- इस कथनका अभिप्राय केवल इतना ही है कि रिणी कहकर गालियाँ देते थे। कोई कोई तो दूसरोंकी फूली देखना और अपना ढेंढर न देयहाँ तक कह बैठते थे कि प्रिंसपल साहबको खना अच्छा नहीं । अर्थात् हम दूसरोंका दोष इन्हीं दोनोंने विषसे मार डाला है । पर बात यह देखकर उन पर हँसते हैं, परन्तु अपने दोष पर थी कि स्वर्गीय प्रिंसपल साहब कलेक्टरके बह- आँखें बन्द कर लेते हैं । इस बातकी जाँचके नोई थे । मेम साहिबा कलेक्टरकी सगी बहिन लिए मैं आपको ब्रिटिश राज्यके-जहाँ कि थीं । रंजका यह हाल था कि कुल दो सप्ताहोंमें चौबीसों घण्टे सूर्य अस्त नहीं होते-दुसरे नम्बरके वे २४ पौंड अर्थात् १२ सेर घट गई थीं! शहरमें, भूमण्डलके प्रधान बारहवें नम्बरके शह
. भारतके सुप्रसिद्ध मित्र और कांग्रेसके जन्भ- रमें और भारतके सबसे बड़े शहर कलकत्तेमें, दाता, मिस्टर हयूम लिखते हैं कि-"भारत जो जनसंख्या ( आबादी ) के हिसाबसे बम्बई, और विलायतके लाखों परिवारोंका एक साथ दिल्ली, लाहौर आदि सब शहरोंसे बड़ा है, ले मुकाबला करके देखने से यह निश्चय करना, या चलता हूँ। आइए पहले इस शहरकी जाँच धूमकहना कठिन है कि भारतमें अधिक व्यभिचार है कर करें । घबराइए नहीं। लोगोंको उँगली उठाने या विलायतमें । समाजमें कमजोर स्त्रियाँ और दीजिए, हँसने दीजिए । शरमकी बात तो उस क्रूर पुरुष सदैव रहते हैं, जिनका चरित्र किसी समय होती जब हम तमाशबीनी करने या ऐशो प्रकारकी उच्च शिक्षासे नहीं सुधर सकता । पर, अशरत करने जाते होते । हम लोग तो मर्दुमसाथ ही समाजकी दशा सुधारने, स्त्रीपुरुषोंको शुमारीके अफसरोंकी तरह देशकी सच्ची दशाकी सदाचारी और सच्चरित्र बनानेका एक मात्र जाँच करने चल रहे हैं। उपाय उचित शिक्षा ही है ।” अस्तु, यह किसी
मछुआ बाजार। तरह नहीं कहा जा सकता कि विलायतके शि- मीलों तक सड़कके दोनों तरफ मकानोंके क्षित स्त्री या पुरुष व्यभिचारी हैं।
ऊपरके खण्डोंमें वेश्या खचाखच भरी हैं। ये रेनाल्डके झूठे उपन्यास, मिस्ट्रीज आफ कोर्ट बहुधा मारवाड़िन और एतद्देशीय हैं । जैसे दरआफ लण्डन, स्त्रीत्याग या तलाकके मुकद्दमें, बेमें कबूतर कसे रहते हैं, वैसे ही मकानका अथवा इधर उधरकी उड़ती हुई खबरें सुन कर किराया अधिक होनेसे एक एक कमरेमें चार किसी राष्ट्रको, या एक दो आदमियोंके कुचरित्र चार पाँच पाँच वेश्यायें सड़ा करती हैं। सड़कहोनेसे सारे समाजको चरित्रभ्रष्ट समझ लेना ठीक की पटरियों पर जगह जगह आठ आठ दश नहीं । इन किस्सोंकी पढ़ कर, और यह देख- दश बंगाली लड़कियाँ एक कतारमें नाके नाके कर कि इनके यहाँ परदा नहीं है, स्त्रियों तकका पर खड़ी हैं। इनका स्थान उसी नाकेके ठीक
SSCLAJ
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जैनहितैषी
[ माग १३
सामनेवाली गलीमें है। खुले आम, बीच सड़कमें पहुँच गये । एक तुच्छ बात पर मतभेद होनेसे लोग इन अनाथा लड़कियोंसे हँसी मजाक करते उस आभमानिनी वेश्याने डिप्टी साहब पर हैं । उस झुण्ड या कतारमेंसे जिसकी तरफ गुस्सेसे हाथ चला दिया। डिप्टी साहब अपने इशारा हो जाता है उसे पुरुषके साथ अपने मुँहसे कहते थे कि दोनों मित्र यदि जूता हाथमें स्थानको प्रस्थान करना पड़ता है-क्या अनोखी ले दौड़ कर भाग न जाते, तो खूब ही पिटते, सभ्यता है !
और पलिसके हवाले कर दिये जाते ऊपरसे! लोअर चीतपुर रोडके पीछे कोई महल्ला। वे कहने लगे-" इस दुर्घटनासे मेरे मित्र,
इस महल्लेका नाम स्मरण नहीं आता। यहाँकी जिनका मैं मेहमान था बहुत दुःखी हुए। अपनी दुर्दशा देख कर कलेजा फट जाता है, खून पानी और मेरी झेप मिटानेके लिए मुझसे कुछ न कह • हो जाता है । कई सौ घर बंगाली वेश्याओंके कर वे मुझे एक मनोहर बेल, लता और पुष्पोंसे -- हैं। गलियोंसे भीतरका कोई कोई हिस्सा दिखाई सुशोभित सुन्दर बंगलेमें ले गये । यह सुनकर
देता है । आनन्दपूर्वक निडर होकर लोग तख्तों- कि यह एक वेश्याका बंगला है, मैं धक्कसे रह पर मसनद लगाये ताश खेल रहे हैं और लज्जा गया। डरा कि कदाचित् यहाँ भी न ठुक जायँ, त्याग कर खुलेआम हर तरहका मजाक कर रहे पर यहाँका बर्ताव देशी वेश्याओंसे भी अच्छा हैं। सबसे घृणित बात यह है कि, इन वेश्याओंमें ठहरा ! यह एक यहूदिन वेश्याका बंगला था । बहुतोंकी आयु १० वर्षसे अधिक न होगी। पर ऐसे बहुत से बंगले कलकत्तमें हैं । मैं १५ दिन हाय पेट, और दरिद्रता और उन्हें गहरी कन्द- तक कलकत्तेमें रहा और अकसर शामको किसी रामें गिरानेवाले पुरुषोंकी सभ्यता! हम, तुम ऐसे ही बंगलेमें आनन्दपूर्वक समय व्यतीत करता तीनोंको नमस्कार करते हैं।
रहा। "-गिनते जाइए, यह सभ्यताका सोना गाछी। ____ नमूना है! यहाँ भी वही हृदयविदारक दृश्य है । रास्ता
एडेन गार्डन। चलना मुश्किल है । कामकाजी लोग इस रास्तेसे मैं-( चौंक कर ) क्यों जी, यह अनोखी होकर नहीं जाते, रास्ता बचा कर किसी दूसरी विक्टोरिया सब्जा पेयर तो मोती बाबूकी है न ? तरफसे निकल जाते हैं । यहाँ वेश्यायें राह चलते मेरे मित्र--( मुसकराकर ) खूब, गाड़ी और हाथ पकड़ लेती हैं । टोपी या डुपट्टा ले भागती हैं। जोड़ी तो पहचान गये, पर उसके मालिक सवारों समाजसे गिरी हुई लड़कियोंकी अत्यन्त दीनदशा, पर आँख नहीं ठहरती। बेहयाईकी आखिरी हद्द, और भारतकी सभ्यताकी मैं-अरे ! यह तो स्वयं मोती बाबू हैं, पर तीसरी झलक, यहाँ दीखती है।
उनके बगलमें यह कौन है ? ___ इनके अतिरिक्त एक महल्ला गोरी (यूरोपियन) मेरे मित्र-उन्हींकी घरवाली। वेश्याओंसे भरा है। यहाँ अँगेरज तो बिरले ही मैं-अजी जाओ भी, क्या मैंने उनकी देख पड़ते हैं, हाँ मन चले भारतवासी ठोकरें बीबीको नहीं देखा है ! यह तो रंग ढंगसे कोई खानेके लिए अवश्य आया करते हैं । एक नव- वेश्या मालूम पड़ती है; लेकिन...। युवक अग्रवाल ग्रेजुएट डिप्टी कलेक्टर (शायद मित्र-वेश्या बीबी नहीं तो और क्या है ? हमीं लोगोंकी तरह जाँच करते हुए !) एक लेकिनके बाद चुप क्यों हो गये ! तुम्हें आश्चर्य मित्रके साथ इन्हीं गोरी वेश्याओं से एकके यहाँ है कि मोती बाबू गौहरजानके साथ बैठ कर
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अङ्क ९-१० ]
हवा खाने निकले हैं । अरे यह वह देखो, जौहरी जी मलकाको रहे हैं ।
हमारे देशका व्यभिचार ।
कलकत्ता है । लिये उड़े जा
मैं- और सामने बच्चा किसका बैठा है ? मित्र -- जौहरी महाशयका । अभीसे सीखेगा नहीं तो आगे बापका नाम कैसे रक्खेगा !
मैं -- छिः ! क्या बेहयाई है, कैसी बेशरमी है । मित्र --- बस, तुम तो गँवार ही रहे । कैसी बेशरमी ? वह देखो गाड़ियोंकी तीसरी कतार - एक, दो, तीन (कोई २० तक गिनाकर ) जानते हो उनमें कौन हैं ? पहचानते हो ? सबकी सब वेश्यायें हैं । वे देखो सुशील बाबू उसे गुलदस्ता दे रहे हैं । डाक्टर बाबू फूलों का बटन उसकी साड़ी में लगा रहे हैं। जरा आँख खोल कर देखो - प्र
- प्रमथ बाबू किसके गले में हाथ दिये घूम रहे हैं ? यहाँ दिन भर लोग कस कर काम करते हैं, शामको यदि थोड़ा दिलबहलाव न करें तो मर ही जायँ । रहीं घरकी स्त्रियाँ; सो अव्वल तो उनसे यदि आजादी से बातचीत करें, तो माँ-बाप तानोंसे बेध डालें, और दूसरे उन्हें अपनी गृहस्थी और बालबच्चों के रोने-धोने से कहाँ फुरसत है, जो दिनभरके थके माँदे पतिका दिल बहलाकर उनकी थकावट दूर करें। तुम विलायत में तो रहते नहीं कि हम भारतवासियोंके गृहसौख्यका हाल न जानते हो । हम लोगों का घर तो नरककुंड समझो। यह सभ्यता और बेशरमी नहीं; कलकत्ते में इसकी परम आवश्यकता है ।
थियेटर |
यहाँ भी वही बात । आरचेष्ट्राकी कोच पर दो सीटें हुआ करती हैं । प्रायः सभी कोचों पर बाईजी ( वेश्यायें ) और सेठजी साथ साथ बैठे हैं । किसी भी अमीरजादेकी बगल इन शरीफजादियों से खाली नजर नहीं आती । तमाशा खतम होने पर सेठ साहू
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कार तो अपनी अपनी चिड़ियों के साथ हवागा ड़ियों पर हवा हों गये, रहे किराये की गाड़ी करनेवाले; सो जिसे देखिए वही गाड़ीवाले से किसी 'जान' के मकानका किराया तै कर रहा है । यदि मण्डलीका कोई आदमी घर जानेका नाम लेता है तो दूसरे उसे समझा बुझा कर ठीक कर लेते हैं। कहते हैं कि अरे यार, यह गोल्डेन नाईट ( शनिश्चरकी रात ) बड़ी मुशकिलोंसे सात दिनकी कड़ी मेहनत के बाद प्राप्त होती है, इसे घरकी बेहंगम स्त्री और कलहमें नहीं खोनी चाहिए । ग्रीन पार्टी ।
रविवार को अकसर दोपहर के बाद लोग शहरके बाहर बागबगीचोंमें, दस दस पाँच पाँचकी गोल बाँध कर निकल जाते हैं । कहीं ग्रीन सिरप (भंग) उड़ता है और कहीं हाट वाटर पेग पर पेग चढ़ाया जाता है। हर पार्टी में पार्टी की जान एकाद वेश्या अवश्य रहती है ।
यह रिपोर्ट हम लोगों के भ्रमण करनेकी है । अब सरकारी कागजोंसे देखिए कि इस शहरकी क्या दशा है ।
सन् १९११ की मर्दुमशुमारीकी रिपोर्टसे ज्ञात होता है कि कलकत्ते शहरमें १४,२७१ ( चौदह हजार !! ) वेश्यायें हैं । कलकत्तेकी कुल स्त्रियोंमें से जिनकी उमर २० से ४० वर्षकी M
प्रत्येक बारह- स्त्री पीछे एक वेश्या है ! १२ से २० तककी आयुकी स्त्रियोंमें प्रति सैकड़ा ६ वेश्यायें हैं ! और १०९६ वेश्या - लड़कियोंकी आयु १० वर्ष से भी कम है ९० फीसदी वेश्यायें हिन्दू हैं !
भगवन् ! बारह, दस या इससे भी कम आयुकी वेश्यायें ! भारतमें जैसे बाल-विवाहकी कुरीति चल निकली है वैसे ही बाल वेश्याओंका भी बुरा रिवाज जारी हो गया है । इस अन्धेरके विषयमें डाक्टर एस. सी. मैकेंजी एक स्थान
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४०६ जैनहितैषी
[ भाग १३ पर और खाँबहादुर मौलवी तमीजखाँ दूसरे करते हैं, नीचे क्लबमें फुटबाल आदि अनेक स्थान पर लिखते हैं कि-" बेचारी दीन खेल खेलते हैं और बाबूसाहबान किसी लड़कियाँ पानीमें फूलनेवाली लकड़ीके साथ प्रेमिकाके सड़े डेरेमें अपने स्वास्थ्यका सर्वपानीके टबमें बैठाली जाती हैं जिससे कि वे नाश करते हैं । पहाड़से लौटे हुए एक अंगरेज पुरुषोंके समागमके लिए तैयार हो जायँ । कहीं और हिन्दुस्तानीका स्वास्थ्य उनके आचारकी कहीं यह काम केलेसे लिया जाता है । " गवाही देने लगता है ! '. Dr. Chevers — Means are commonly भारतके कुल शहरोंकी वेश्याओंकी संख्याemployed even by parents to render . जो मर्दुमशुमारीके समय अपना यही पेशा the immature girl ople Viris by बताती हैं-४,७२,९९६ है । बहुतेरी वेश्यायें mechanical means '-बस, यहाँ तो सभ्य- डरसे अथवा लाजसे अपना पेशा कुछ और बता ताका अन्त हो गया !
देती हैं, इसलिए उनकी संख्या इसमें शामिल - सन् १८५२ ईसवीमें कलकत्तेमें १२,४१९ नहीं है । इन पौने पाँच लाखके लगभग वेश्यावेश्यायें थीं और उनमेंसे १०,४६१ हिन्दू थीं । ओंकी वार्षिक आमदनी ६२,४६,००,००० सन् १८७० ई० में इस शहरमें ७,९३९ हिन्दू, (बासठ करोड़!) रुपया है। १,१६२ मुसलमान, ५६ यूरेशियन, ५ यूरो- शोक यह है कि इस प्रकारका खुला व्यभिपियन और ३५ यहूदिन आदि वेश्यायें थीं। चार भारतमें दिनों दिन कम होने के बदले - यह दशा केवल कलकत्ता शहरकी ही नहीं बढ़ता जाता है, और वेश्याओंकी संख्यामें है। इस खुले व्यभिचारका साइनबोर्ड भारतके अधिकता होती जाती है । पनाबकी हिन्दू सभा प्रत्येक शहरके खास बाजार या चौकमें दिखाई लिखती है कि “इस प्रान्तके प्रत्येक मुख्य मुख्य देगा । बम्बईका व्हाइट मारकेट ( सफेद गली), शहरमें व्यभिचारके लिए लड़कियोंकी खरीद लाहौरकी अनार कली, दिल्लीका चावड़ी बाजार, और फरोख्त बढ़ रही है । सन् १९११ में
और लखनऊका खास चौक वेश्याओंसे भरा प्रान्तीय लाट महोदयने, इस बातकी तसदीक पड़ा है । तीर्थराज, पापनाशक, पवित्र काशी- की है।" नगरमें, संयुक्त प्रान्तके सब शहरोंसे अधिक अस्पतालोंके रजिस्टर, दवा बेचनेवालोंके वेश्याओंकी संख्या है। डाक्टर और वैद्य भी यहाँ इश्तिहार और कोढ़ियोंकी संख्यासे भी इस देशके युक्तप्रान्तके सारे शहरोंसे अधिक हैं। (वेश्या- व्यभिचारकी झलक मालूम पड़ती है । कोढ़का ओंकी अधिकताके साथ डाक्टरोंकी ज्यादती होनी रोग चाहे पैतृक भी हो, पर इस रोगके पीछे ही चाहिए। ) प्रयाग, मथुरा, वृन्दावन और सिफलिस (गर्मी) अवश्य हुआ करती है। हरद्वार तक इनका डेरा जमा रहता है । पवित्र प्रोफेसर हिगिन बाटम-जिन्होंने कोढ़ियों में बहुत भमि कनखल' में भी आप इन्हें देख लीजिए। काम किया है-कहते हैं कि आजतक उन्हें कोई नैनीताल आदि पहाड़ोंके ऊपर लोग कुछ कोढ़ी ऐसा न मिला-जिसे खुद अथवा जिसकी ही महीनोंके लिए जाते हैं। बाबू साहबों के साथ छूतसे उसे यह रोग हुआ-सिफलिस न. निकल साथ बाईजीयों ( वेश्याओं ) का डेरा भी चुकी हो । कोढ़की जड़ गर्मी है । यह तो खले बदाऊँ, मुरादाबाद क्या बरेली तकसे वहाँ पहुँच हुए व्यभिचारकी कथा हुई । इससे तो कोई जाता है । अंगरेज तो शामके वक्त बोटिंग इनकार ही नहीं कर सकता । अब रहा गुप्त
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९-१०] हमारे देशका व्यभिचार।
४२७ व्याभिचार, सो उसका जाँचना मनुष्यकी स्त्रीसे पतिवता रहनेकी आशा करना व्यर्थ है । शक्तिसे बाहर है । ईश्वर ही उसकी सच्ची जाँच सम्भव है कि उसे अपने घरका हाल कभी न कर सकता है।
मालूम हो; पर बगलका पड़ोसी उसका कच्चा इस देशमें समाजका ऐसा कड़ा नियम है, चिट्ठा कह सकता है। इसके लिए ऐसी कड़ी सामाजिक सजायें रक्खी सबके ऊपर भारतमें २ करोड ६४ लाखसे गई हैं कि ऐसे लोगोंका प्रत्यक्ष पता लगाना कठिन अधिक विधवायें हैं। मैं इनके आचरण पर ही नहीं, असम्भव है । पर अनुभव अवश्य किया आक्षेप नहीं करता । पर विचार करनेकी बात आ सकता है।
है कि इनमेंसे प्रायः सभी मूर्खा हैं, देव, शास्त्र, ___ पहले घरकी मजदूरिनोंको ले लीजिए । ये धर्म और ज्ञानसे सर्वथा अनभिज्ञ हैं । केवल यह विवाहिता तो अवश्य होती हैं, पर युवावस्थामें जानती हैं कि उनके कुलमें विधवाविवाह नहीं अपने मालिकके घर, किसी न किसी नवयुवक होता । उन्हींका हृदय प्रश्न करता है कि क्यों सरदारकी शिकार होनेसे शायद ही बचती हैं। नहीं होता ? इसका वे कुछ उत्तर नहीं दे हाँ अवस्था ढल जाने पर चुपचाप अपने पतिके सकतीं। केवल भाग्यमें लिखा है, कर्म फूट गया साथ पतिव्रता बन कर बैठ रहती हैं । सेन्ससके है, आदि कह कह कर मनकी तरंगोंको सुपरिन्टेन्डन्टने लिखा है कि,-"मजदूरिनोंमेंसे शान्त करती हैं। पर इन स्त्रियोंकी शैतान बहुत सी तो सचमुच ही वेश्यायें हैं।" पण्डों, पुरोहितों या ऐसे ही अन्य पाखण्डियोंसे
इसी तरह दूकानों पर बैठनेवाली स्त्रियोंको भेट हो जाने पर, और मौका मिलने पर, अर्ध वेश्या समझना चाहिए; कमसे कम कुच- भाग्यके बलसे ये कबतक कामदेवसे लड़ सकती रित्र स्त्रियोंमें तो इनकी गिनती अवश्य होनी हैं ? आखिर तो मूर्खा स्त्री ही ठहरी न, उनकी चाहिए।
कमजोरी उन्हें यह समझा कर सन्तोष कर दक्षिणभारत ( मद्रास आदि) में बालिका- लेनेके लिए लाचार कर देती है कि-" यह ओंको मंदिरमें देवसेवा निमित्त चढ़ा देनेकी दुराचार भी विधाताने उनके भाग्यमें लिख रक्खा चाल है । वहाँ उन्हें 'विभूतिन' कहते हैं। हो। गावे स्वयं धर्माच्युत नहीं हो रही हैं, बल्कि दे तीर्थयात्रा करती हुई, इस प्रान्त तक आ यह उनके दुर्भाग्यका परिणाम है-जिस दुर्भाजाती हैं और अपनी सञ्चरित्रताका परिचय दे ग्यने, उन्हें जर्जर पतिकी पत्नी बनाया, और जाती हैं।
उसे भी न रहने दिया, वही भाग्य पिशाच उन्हें ___ उन विवाहित पुरुषोंकी स्त्रियाँ-जो अत्यन्त आज इस गढ़ेमें झोंक रहा है। चलो, यह भी सही निर्बल हैं, रोगी हैं, वृद्ध या शक्तिहीन हैं, और 'विधिका लिखा को मेटनहारा '-" बस खतम । जिन्होंने जान बूझ कर व्याह करके स्त्रियोंके हाँ, यह बहुत जरूरी बात अवश्य है कि कहीं गले पर छुरियाँ चलाई हैं.-कबतक पातिव्रत बात खुल न जाय, नहीं तो जन्म जन्मान्तर, धर्म निबाह सकती हैं ? अथवा उन अनाचारी पुश्त दरपुश्तके लिए खानदान भरको जातिच्युत अत्याचारियोंकी स्त्रियाँ, जो अपना घर छोड़ होना पड़ेगा । सो, इसके लिए जबतक तीर्थयाकर बाजारकी हवा खाते हैं, कबतक और कहाँ आके लिए द्रव्य, पापोंको धोनेवाली बड़ी बड़ी । निरादरता सहती हुई पतिव्रता रहेंगी। जो नदियाँ, घरकी पुरानी चालकी संडासें, या
पुरुष श्रीभक्त नहीं, श्यागामी है, उसे अपनी अन्धे कुएं मौजूद हैं, इससे भी भय नहीं।
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जैनहितैषी
[भाग १३
भगवन् ! क्या ही दीन दशा है । विश्वबन्धुके बारशनकी (गर्भपात करनेकी) दवा पूछने लगे। मकानके पास ही एक कुलीन ब्राह्मण महाशयका साहब लाल हो गये । जमीन पर जोरसे पैर घर था। उनके यहाँ एक परम रूपवती युवती पटककर और 'छिः' कहकर लौट गये । बंगले विधवा थी। उनके घर परदेका कड़ा नियम पर पहुँचकर उन्होंने इस बातकी सूचना पुलिस था । तो भी विश्वबन्धु उनके यहाँ बेरोकटोक कप्तानके पास भेज दी। जाया करते थे। कुछ दिनोंके बाद जब न उसी दिन रातको देवदत्तकी चचेरी बहिन जाने क्यों ब्राह्मण महाशयने मकान छोड़ देनेका अकस्मात् मर गई और रातोंरात चिता पर भस्म निश्चय किया, तब विश्वबन्धुने अपनी माँसे कह कर दी गई। यह विधवा थी। कई दिनके बाद सुन कर उस मकानको खरिदवा लिया। ब्राह्मण देवदत्तकी तलबी कोतवालीमें हुई । सुना जाता महाशय सपरिवार अपने देश ( कन्नौज) चले है कि वहाँके देवताने अपनी पूजा पाई और गये और उस मकानकी मरम्मत शुरू हुई। रिपोर्ट में लिख दिया कि देवदत्त प्रतिष्टित रईस एक कोठरी, जिसे पण्डिताइन ठाकुरजीकी हैं । उस दिन, उनकी बहिनको हैजा हो गया कोठरी कहा करती थीं, और जो सालमें था, इसीलिए साहबको बुलाया था। वे एबारशन केवल कुलदेवकी पूजाके समय खोली नहीं बल्कि रेस्ट्रिक्टिव चेक ( restrictive जाती थी, बड़ी सड़ी नम और बदबूदार heckc ) की या बन्धेजकी दवा पूछना चाहते थी। उसे पक्की करा देना निश्चय हुआ । नम थे, और यह कानूनन कोई जुर्म नहीं है। मिट्टीको खोद कर फेंक देनेके लिए मजदूर यह दोहरे खूनका नमूना है । यहाँ तो समाखोदने लगे । सुना जाता है कि उसमेंसे एक ही जमें जबतक बात छिपी है, तबतक सब ठीक, उमरके कई बच्चोंके पंजर निकले ! एक तो और यदि खुलनेकी नौबत आई तो बस 'विष' बिलकुल हालहीका दफनाया जान पड़ता था ! या 'त्याग'। ले जाकर कहीं दूरके शहरमें या प्रभो ! भारतको ऐसे भयंकर पापोंसे बचाइए। तीर्थस्थानमें छोड़ आये। कुछ दिनों तक मुहहमें बल और निर्मल बुद्धि प्रदान कीजिए, ब्बतके मारे कुछ खर्च भेजा और फिर बन्द कर जिससे हम इन कुरीतियोंका अन्त कर सकें। दिया । ऐसी अनाथा स्त्रियोंकी क्या दशा होती
सिविल सर्जन साहब जेल और अस्पताल होगी उसे पाठक स्वयं विचार सकते हैं। आदिसे लौटकर लगभग एक बजे बंगले पर आये। भारतकी ऊपर बतलाई हुई कई लाख वेश्यायें टेबुलपर एक तार मिला, जिसका आशय यह कौन हैं ? हम भारतवासियोंके घरकी विधवायें, था कि “ रोगी सख्त बीमार है । जल्दी आनेकी हमारी ही बहिनें और बेटियाँ, या उनकी कृपा कीजिए । देवदत्त ।” साहब बड़े ही सन्तति । हमारी ही असावधानी, निर्दयता और दयालु हैं । उसी समय घोड़े पर सवार होकर निष्ठुरताके कारण उनकी यह दशा हुई है। रवाना हो गये। उन्होंने देवदत्तके घर पहुँच कर १ रामकली, विन्ध्याचल-" मैं क्षत्रानी हूँ। पूछा कि रोगी कहाँ है ? देवदत्त हाँफते हाँफते बालविधवा हूँ। मेरे भाई दर्शन करानेके हीलेसे मुझे आये और बोले हुजूर, बड़ी गलती हुई, माफ यहाँ छोड़ गये । उनके इस तरह त्याग करदेनेका कीजिए । साहबने डपटकर पूछा कि बतलाओ कारण मैं समझ गई, इस लिए मैंने कभी पत्र रोगी कहाँ है । देवदत्त गिड़गिडाते हुए साहबके नहीं भेजा और न लौटनेकी चेष्टा की। हाथमें फीस रखकर पैरों पर लोट गये और ए- अब भीख माँगकर अपना गुजर करती हूँ।
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अङ्क ९-१०] हमारे देशका व्यभिचार।
४०९ मैं सर्वथा असहाय हूँ। और कोई जरिया एक सौ और बीस रुपया कर्ज होगया है। इस पेट पालनेका नहीं है । उमर २०-२१ पुत्रीके सयानी होने पर इसीको बेचकर, अथवा वर्षकी है। यहाँ मुझसी ही अभागिने ८-९ वेश्या बना कर कर्ज अदा करूँगी।" स्त्रियाँ और हैं । उनका चरित्र ठीक नहीं है। क्या अन्धेर है ! स्त्रियों पर कैसा अत्याचार
२ लछमी, वृन्दावन-" मैं ब्राह्मणी हूँ। मेरी किया जा रहा है ! स्त्रियाँ चाहे कितनी ही गई सास आदि कई स्त्रियाँ मुझे यहाँ छोडकर चल गुजरी क्यों न हों, पर बिना बेईमान शैतान पुरुदी। पत्र भेजने पर उत्तर मिला कि अपना बाँके बहकाये वे अपने धर्मसे कभी नहीं डिगतीं। कर्तव्य स्मरण करो, यहाँ लौटकर क्या मुँह स्त्रियोंका चरित्र बिगाड़ना पुरुष जातिका काम दिखाओगी, वहीं जमनामें डूब मरो । मेरी माँ है। बाज हरामजादोंने तो सैकड़ों स्त्रियोंकी मिट्टी नहीं है । पिताने मेरे पत्रका कभी उत्तर नहीं पलीद कर दी है । यह ठीक है कि ताली दोनों दिया ।”
हाथसे बजती है; पर समाज केवल स्त्रियोंको ही ___३ श्यामा, हरद्वार-“ मेरे पिता मुझे यहाँ
र क्यों दण्ड देता है ? अनाथा स्त्रियाँ ही क्यों धरसे
निकाली जाती हैं ? कुचरित्र पुरुष जिनका छोड़ गये हैं।"
व्यभिचार स्त्रियोंके मुकाबले सौ पचास गुना ४ राजदुलारी, गया- "मेरे ससुरालके लोग
राग आधिक होता है क्या सजा पति हैं ? इन पापोंकी बड़े धनी हैं । यहाँ मुझे पुरोहितजी छोड़ गये हैं।
जड़, पाखण्डी कुचाली पुरुषोंका, समाज क्यों कुछ दिनों तक पाँच रुपया मासिक आता रहा,
नहीं तिरस्कार करता ? ऐसा न करना इन पापिपर अब कोई खबर नहीं लेता । पत्रोत्तर भी नहीं योंको स्त्रियोंका सर्वनाश करनेके लिए सहारा देना आता ।"
और अनाथ, असहाय अबलाओं पर घोर अत्या५ नलिनी और सरोजिनी, काशी-"हम चार करना है। दोनों अभागिनें बंगालकी रहनेवाली हैं । हम हमारा समाज, जिसे हम मूर्खतावश अति दोनोंका एक ही घरमें विवाह हुआ था। नलिनी उत्तम समझ बैठे हैं और जिसकी पवित्रता पर विधवा हो गई । मेरे पति मुझे एक लड़की होने फूले नहीं समाते, बिलकुल निर्जीव, निर्बल और · पर वैराग्य लेकर चल दिये। मेरे ससुरजी पन्द्रह सर्वदा अशिक्षित मनुष्योंका समूह है। इस समारु० मासिक पेन्शन पाते थे। काशीवास करने जको सच्चरित्र स्त्रियोंकी आह और कुचरित्र यहाँ आये और हम दोनोंको साथ लेते आये। नियोंका पाप भस्मीभूत कर रहा है और यदि तीन महीनेके बाद मर गये । एक परिचित इस पर लोगोंने ध्यान न दिया तो यह आह बंगाली महाशय सहायता देनेके बहानेसे मिले कुछ ही काली समाजको जलाकर राख कर
और एक दिन हम दोनोंका कुल जेवर चुरा ले देगी-सावधान ! * गये । फिर इससि लगी हुई पुलिसकी एक घट- * हिन्दी ग्रन्थरत्नाकर सीरीजमें शीघ्र ही प्रकानासे बलपूर्वक हम अनाथाओंका सर्वनाश किया शित होनेवाले 'देशदर्शन ' नामक ग्रन्थका एक गया और इस दीन हीन दशाको पहुँचाई गई। अध्याय ।
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जैनहितैषी
[भाग १३
पर्व २६ में भरतचक्रवर्ती जब दिग्विजयको निकले हैं उस समय उन पर भी वेश्याओंके
चवर दुर रहे थे। [ले०-श्रीयुत बाबू सूरजमानजी वकील ।]
स्वधुनीकरस्पर्द्धिचामराणां कदम्बकं ।
दुधुवुरिनार्योऽस्य दिक्कन्या इव संसृताः ॥६५ ।। . वेश्याओंका सत्कार । अर्थात् जब वेश्यायें उस चक्रवर्ती पर गंगाके . आदिपुराणका अध्ययन करनेसे मालूम होता जलकणोंकी समानता करनेवाले चवरोंको ढोरती है कि पहले-कमसे कम ग्रन्थकर्ताके सम• थीं. तब ऐसा मालूम होता था कि दिक्कन्यायें यमें वेश्याओंका आजकलके समान निरादर ही उतर आई हैं। नहीं था। उस समय उनके साथ जैसा व्यवहार भरे दरबार में सिंहासन पर बैठे हुए राजाओंके किया जाता है, वह आज कलकी दृष्टिसे एक ऊपर वेश्याओंके द्वारा चवर दुराये जानेके प्रकारका प्रतिष्ठाका व्यवहार था। नीचे लिखे दृष्टान्त ही इस ग्रन्थमें नहीं मिलते हैं; किन्तु उदाहरणोंसे यह बात स्पष्ट हो जायगी। ऐसा किये जानेकी आज्ञा भी स्पष्टरूपसे दी
आदिनाथ भगवानका जीव जिस समय विदे- गई है। श्रावकोंकी ५३ क्रियाओंमें एक 'साहमें उस विदेहमें जहाँ कि सदैव चौथा काल म्राज्य' नामकी भी किया है। इस क्रियाका रहता है-राजा महाबल था, उस समय उस स्वरूप ३८ वें पर्वमें इस प्रकार लिखा हुआ है:पर अनेक वेश्यायें चंवर ढोरा करती थीं:
चक्राभिषेक इत्येकः समाख्यातः क्रियाविधिः । सिंहासने तमासानं तदानी खचराधिपं ।
तदनन्तरमस्य स्यात् साम्राज्याख्यं क्रियान्तरं२५३ दुधुवुश्चामरैवारनार्यः क्षीरोदपाण्डुरैः ॥ २॥
अपरे द्युदिनारंभे धृतपुण्यप्रसाधनः । मदनममार्यो लावण्यांभोधिवीचयः ।
मध्ये महानृपसभं नृपासीनमधिष्ठितः ।। २५४ ।। सौन्दर्यकलिका रेजुस्तरुण्यस्तत्समीपगाः ॥३॥
दीप्तः प्रकीर्णकवातैः स्वर्धनीसीकरोज्ज्वलैः । -पर्व ५।
मारनारीकराधूतैर्वीज्यमानः समन्ततः ।। ३५५ ॥ अर्थात् सिंहासन पर विराजमान हुए उस
भावार्थ-चक्राभिषेक क्रियाके अनन्तर 'साम्राविद्याधरनरेश महाबल पर वेश्या स्त्रियों क्षारज- ज्य' नामकी क्रिया होती है। दूसरे दिन प्रातःलके समान उजले चमर ढोरती थीं । उसके
काल पवित्र अलंकार धारण करनेवाले महाराज, समीप वे तरुणी स्त्रियाँ कामदेवरूप वृक्षकी कोपलों, लावण्यरूप समुद्रकी तरंगों और सौन्दर्यकी बड़े बड़े राजाओंकी सभाओंके बीचमें सिंहासन कलियोंके समान जान पड़ती थीं।
पर विराजमान हों और वेश्यायें उनके ऊपर इसी प्रकारका वर्णन आदिनाथके नीव गंगाके जलकणोंके समान उज्ज्वल चवर डलावें। राजा वज्रनामके सम्बन्धमें भी किया गया है:- वेश्याओंका नृत्य भी उससमय बुरा नहीं उपासनस्थमेनं च वीजयन्ति स्म चामरैः। समझा जाता था । वह उत्सवोंका बहुत ही गंगातरंगसच्छायभंगिभिललिताङ्गनाः ॥ ४० ॥ प्रिय और आवश्यक साधन था। विदेह क्षेत्रमें
-पर्व ११। राजा वज्रजंघ (आदिनाथका जीव) और श्रीमअर्थात् सिंहासन पर बैठे हुए उस राजा पर तीके विवाहमें वेश्याओंका नृत्य हुआ थाः- ., सुन्दर स्त्रियाँ गंगाकी लहरोंके समान उजले बर्द्धमानलयैर्नृत्यमारेभे ललितं तदा। और कुछ कुछ तिरछे होकर ऊपर नीचेकी वाराङ्गनाभिकदमीरणनपुरमेवलम् ॥ २४४ ॥ ओर जाते हुए चँवर डुला रही थीं।
-पर्व ७ ।
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आदिपुराणका अवलोकन ।
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अर्थात् इसके बाद वेश्याओं या गणिकाओंने अर्थात् वहाँ पर 'जय जय' ऐसे मंगल शब्द बढ़ती हुई लयोंके साथ सुन्दर नृत्य करना आरंभ करनेवाले वन्दीजनोंके साथ महाराज भरत किया। उस समय उनके पैरोंके नूपुर और कर. शिबिर या छावनीके भीतर जाकर राजभवनके धनीके धुंघरू बजते थे।
__महाद्वारपर पहुँचे । वहाँ अन्तःपुरके रक्षकोंने इसी प्रकार जब आदिनाथ भगवान्का राज्या- और वेश्याओंने उन्हें मंगलाक्षत और आशीभिषेक हुआ उस समय राजमहलमें वेश्यायें, गा र्वाद दिये । इसके बाद वे अपने भवनके भीतर रही थीं और देवांगनायें नाच रही थीं:- पहुँचे जिसके ऊपर ध्वजायें फहरा रही थीं।
तदानन्दमहाभेर्यः प्रणेदुर्नपमन्दिरे। __ आगे पर्व २९ के नीचे लिखे श्लोक पढ़नेसे मंगलानि जगुर्वारनार्यो नेटुः सुराङ्गनाः ॥१९७॥ मालूम होता है कि ये वेश्यायें दिग्विजय यात्रामें
१६। भरतमहाराजके लश्करके साथ साथ चलती भगवान् आदिनाथके राज्याभिषेकके समय रही हैं:वेश्याओंका नृत्य होना वेश्यानृत्य करानेकी वित्रस्तरपथमुपाहृतस्तुरंगैः आज्ञाके ही समान समझा जाना चाहिए। आगे पर्यस्तो रथ इह भग्नधूनिरक्षः। जब भगवानको वैराग्य हुआ और उनके पुत्रोंका एतास्ता द्रुतमुपयांत्यपेत्य मार्गाद्राज्याभिषेक हुआ, उस समय भी यह परम वारस्त्रीवहनपराश्च वेगसर्यः । आवश्यक कार्य किया गया
वित्रस्तः करभनिरीक्षणाद्गजोऽयं
भीरुत्वं प्रकटयति प्रधावमानः । एकतोऽप्सरसां नृत्यमस्पृष्टधरणीतल ।
उत्त्रस्थात्पतति च वेसरादमुष्माद्सलीलपदविन्यासमन्यतो वारयोषिताम् ॥ ८६ ॥
_ विस्रस्तस्तनजघनांशुका पुरंध्री ॥ -पर्व १७ ।
अर्थात् घोड़ोंने (हाथियोंसें) डरकर इस . अर्थात् एक ओर तो अप्सराओंका जमीनको
रथको कुमार्गमें ले जाकर पटक दिया है, इसका न छूनेवाला ( अधर ) नृत्य हो रहा था और
धुरा जुआ आदि टूट गया है और वेश्याओंको दूसरी ओर वेश्याओंका नृत्य होता था, जिसमें ले जानेवाली ये खच्चरियाँ अपना मार्ग छोड़कर वे बड़ी सुन्दरतासे पैर रखती थीं।
बहुत शीघ्र दौड़ी जा रही हैं। यह हाथी भी वेश्याओंको साथ रखना और उनसे हँसी ऊँटको देखकर डर गया है और भागता हुआ मजाक करना भी उस समय बुरा नहीं समझा अपना डरपोकपना प्रकट कर रहा है । इधर इस जाता था। और तो क्या युद्धके समय भी अतिशय डरी हुई खच्चरीपरसे यह स्त्री नीचे गिर वेश्यायें आवश्यक समझी जाती थीं। जब भरत गई है और इस कारण उसके स्तनों और महाराज अपनी दिग्विजययात्रामें वरतनु नामक जघनोंपरका कपड़ा खिसक गया है। समुद्रस्थ देवताको जीतकर अपने डेरेपर आये, ४२ वें पर्वमें ग्रन्थकर्ताने महाराज भरतकी तब कहा है कि:
दिनचर्याका विस्तारसे वर्णन किया है । वहाँ तत्रोद्धोषितमंगलर्जयजयेत्यानन्दतो बन्दिभि- भोजनके पश्चात् दो पहरका कुछ समय वे स्वान्तःशिबिरं नृपालयमहाद्वारं समासादयन् । किस तरह व्यतीत करते थे, इसके विषयमें अन्तर्वशिक लोकवारवनितादत्ताक्षताशासनः, लिखा है:प्राविक्षनिजकेतनं विधिपतिर्वातोल्लसत्केतनम् ॥ तत्र वारविलासिन्यो नृपवल्लभिकाश्च तं ।'
-पर्व २८ । परिवरुपारूढतारुण्यमदकर्कशाः। १३१
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जैनहितैषी
[भाग १३
तासामालापसंलापपरिहासकथादिभिः। कराया जाता था, युद्धके समय वे सेनाके सुखासिकमसौ भेजे भोगांगैश्च मुहूर्तकम् ॥ १३२ साथ चलती थीं और राजाओंके डेरों पर उनके
अर्थात् उस समय जवानीके मदसे उन्मत्त हुई रणवासोंके पास ही रहती थी, जीत आदिके वेश्यायें और राजवल्लभायें उनके चारों ओर खुशीके मौकों पर मंगल अक्षत और आशीर्वाद आकर बैठ जाती थीं। उनके आलाप-संलाप, देनेका महान् काम उन्हें ही सोंपा जाता था, हँसी, मजाककी बातोंके द्वारा वे (महाराज दो पहरको राजालोग उनके साथ हँसी-मजाक भरत ) घड़ी भर सुखसे निवास करते थे। करते थे और वे भेटके तौर पर भी दूसरोंको
इससे मालूम होता है कि, उस समय वेश्यायें दी जाती थीं। अब प्रश्न यह है कि जब राजाओंकी एक आवश्यक सामग्री थीं और वेश्यायें ऐसे आदरकी सामग्री हैं, तब आजकल उनके साथ हँसी खुशीमें घड़ी-दो घड़ी व्यतीत जनसमाजके नेता, उपदेशक, व्याख्याता, पत्रकरना वे अपना एक नित्य-कर्म समझते थे। सम्पादक आदि इनके नृत्यादि बन्द करानेके
आगे पर्व ४५ के कछ श्लोकोंसे यह भी लिए क्यों जमीन असमान एक कर रहे हैं ? जब मालूम होता है कि, उस समय वेश्यायें भेटमें या आदिपुराण जैसे मान्य ग्रन्थमें 'साम्राज्य' तोहफेमें मी दी जाती थीं। देखिए:- क्रिया ऐसी महान क्रियामें वेश्याद्वारा चवर हेमांगदं ससोदर्यमुपचर्य ससंभ्रमं ।
दुरानेकी स्पष्ट आज्ञा है, तब विवाहादि उत्सपुरो भूय स्वयं सर्वैर्भोग्यैः प्रापूर्णकोचितैः ॥१८२॥ वोंमे वेश्यानृत्य करानेका निषेध क्यों किया नृत्यगीतसुखालापर्वारणारोहणादिभिः । वनवापीसर:क्रीडाकन्दुकादिविनो दनैः ॥ १८३ ।। हमारी समझमें वेश्याओंके सम्बधका उक्त अहानि स्थापयित्वैवं सुखेन कतिचित्कृती। वर्णन ग्रन्थकर्ताकी निजकी कल्पना है। काव्यके तदीप्सितगजाश्वास्नगणिकाभूषणादिकं ॥ १८३ ॥ सौन्दर्यको बढानेकी दृष्टिसे और अपने समयके प्रदाय परिवारं च तोषयित्वा यथोचितं । राजाओंमें वेश्याओंकी विशेष प्रतिपत्ति देखनेसे चतुर्विधेन कोशेन तत्पुरी तमजीगमत् ॥ १८५॥ ही उन्होंने इस प्रकारका वर्णन करना उचित
इनका भावार्थ यह है कि, जयकुमारने अपने समझा होगा। उनके समयमें वेश्यायें इस दृष्टिसे साले हेमांगद और उसके भाइयोंका सब प्रकारके नहीं देखी जाती होंगी, जिससे कि आजकल भोगोपभोगोंसे, नाच तमाशोंसे, हाथी घोड़े देखी जाती हैं। आदिकी सवारियोंसे, सरोवर आदिकी सैरों और तरह तरहके खेलोंसे सत्कार किया और जब वे जाने लगे तब उन्हें उनके दिलपसन्द हाथी,
मद्यपान । घोड़े, अस्त्र, वेश्यायें, और आभूषण आदि पदार्थ जिस समय आदिनाथ भगवान छह महीनेका भेट किये।
उपवास ग्रहण करके ध्यानस्थ हुए, उस समय ___ अभीतक जो कुछ कहा गया, उससे यह नमि और विनमि नामके राजकुआरोंने आकर मालूम होता है कि, चौथे कालमें वेश्याओंका उनसे प्रार्थना करना शुरू की कि आपने जिसपूरा पूरा आदर सत्कार था । राजदरबारोंमें प्रकार अपने पुत्रोंको राज्य दिया है उसी प्रकार वे राजाओंके मस्तकों पर चवर ढोरती थीं; हमको भी दीजिए। इस पर धरणेन्द्रने आकर राज्याभिषेक आदि उत्सवोंमें उनका नृत्य उन्हें समझाया और उन दोनोंको विजयाध पर्वत.
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अङ्क ९-१० ]
पर ले जाकर वहाँका राज्य दे दिया और इस तरह उन्हें सन्तुष्ट कर दिया । राज्य देने से पहले धरणेन्द्रने यहाँ निवास करनेवाली विद्याधरियों के रूपादिका वर्णन किया था, जिसको आदिपुराणके कर्ताने बहुत विस्तार के साथ लिखा है । इस प्रसङ्गका एक श्लोक देखिए:
आदिपुराणका अवलोकन ।
नेत्रैर्मधुमदाता त्रैरिन्दीवरदलायतैः । मदनस्येव जैत्रास्त्रैः सालसापाववीक्षितैः + ॥१९१॥ - पर्व ८ ।
अर्थात् उनके नेत्र शराब के नशेसे कुछ कुछ लाल हो रहे थे, कमलपत्रों के समान विशाल थे, आलसके साथ कटाक्ष फेंकते थे और ऐसे जान पड़ते थे मानों कामदेवके विजयी शस्त्र हों । इस इलोकमें नेत्रोंको ‘ ' विशेमधुमदाताम्र' षण दिया है, जिसका अर्थ होता है, शराबके नशेसे लाल हुए नेत्र | मालूम नहीं, कर्मभूमि की आदिमें उन विद्याधरियों को यह शराब कहाँसे मिलती थी, कौन इसे बनाता था, उन्होंने किससे इसका बनाना सीखा था और क्यों वे इसका पीना अनुचित नहीं समझती थीं ।
आगे चलकर एक स्थानमें धणेन्द्र उन राजकुमारोंसे कहता है :
इह मृणालनियोजितबन्धनैरिहवतंस सरोरुहताढनैः । इह मुखासवसेचनकैः प्रियान्विमुखयन्तिरतेः कुपिताः त्रियाः ॥ - पर्व १९ ।
अर्थात् कुपित हुई स्त्रियों में से कोई कोई कमनाल तन्तुओंके बन्धनोंसे, कोई कोई सिरमें पहने हुए कमलोंकी चोटोंसे और कोई कोई अपने मुँह में भरी हुई शराब के कुरलोंसे अपने • अपने पतियोंको रतिक्रीडासे हटा रही हैं । ... इस श्लोक मादरा के वास्ते आसव शब्द आया है।
+ इस श्लोकका अन्य आगेके अनेक श्लोकोंके साथ है। इसी कारण इसमें 'क्रिया' नहीं है ।
४१३
भरत महाराज जब दिग्विजय करते हुए दक्षिणकी ओर गये, तब वहाँ उनकी सेना के विषयमें लिखा है:
निपपे नालिकेराणां तरुणानां नतो रसः । सरस्तीरतरुच्छायाविश्रान्तैरस्य सैनिकैः ॥ १४ ॥ -पर्व ३० ।
अर्थात् सरोवर के किनारे लगे हुए वृक्षोंकी छाया में आराम करनेवाले सैनिकोंने नारियलके तरुण वृक्षोंसे बहते हुए रसको पीया ।
नारियल के वृक्षों का रस एक प्रकारकी शराब ही है । इस बात की पुष्टि इसी पर्वके नीचे लिखे श्लोक से होती है:
नालिकेरा सवैर्मत्ताः किञ्चिदाघूर्णितेक्षणाः । यशोऽस्य जगुरामन्द्रकुहरं सिंहलांगनाः ॥ २५ ॥ अर्थात् सिंहलद्वीपकी तरुण स्त्रियाँ - जो और इस कारण जिनके नेत्र कुछ कुछ घूम रहे नारियलकी शराब पीकर उन्मत्त हो रही थीं थे, भरतका यशोगान कर रही थीं ।
भरतकी सेना के लोग क्षत्रिय वर्णके थे, जो उस समयका सबसे उत्तम वर्ण गिना जाता था । मालूम नहीं उन्होंने इस उन्मादक रसका पीना क्यों स्वीकार किया और सिंहलद्वीपकी स्त्रियाँ कौन थीं जो शराब पीकर उन्मत्त हो जाया करती थीं ।
जब भरतमहाराजका दूत बाहुबलिकी राजधानी में यह सन्देशा लेकर पहुँचा कि या तो अधीता स्वीकार कर लो, या युद्धके वास्ते तैयार हो जाओ, तब ग्रन्थकतीने वहाँकी स्त्रियोंकी रात्रिक्रीडा आदिका वर्णन करते हुए लिखा हैः
नास्वादि मदिरा स्वैरं नाजघ्रे न करेऽर्पिता । केवलं मदनावेशात्तरुण्यो भेजुरुकता ॥ १८७ ॥ उत्संगसंगिनी भर्तुः काचिन्मदविघूर्णिता । कामिनी मोहनास्त्रेण बतानंगेन तर्जिता ॥ १८८ ॥ पर्व ३५, अर्थात् वहाँकी जबान स्त्रियाँ शराब को इच्छापूर्वक पिये विना, सुँघे विना और हाथमें लिये विना ही केवल कामदेव के आवेश से उन्मत्त हो गई थीं।
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जैनहितैषी
[भाग १३
अपने पतिकी गोदमें बैठी हुई और मस्तीसे के युद्धके समय पर्व ४४ में ग्रन्थकर्त्ताने फिर घूमती हुई कोई कामवती स्त्री कामदेवके मोहन रात्रिक्रीडाका वर्णन किया है:अस्त्रसे घायल हो रही थी।
खण्डनादेव कान्तानां ज्वलितो मदनानलः । १८७ वें श्लोकका यह वाक्य कि वे स्त्रियाँ जाज्वलीत्ययमेतेनेत्यत्यजन्मधु काश्चन ॥ २८८ ॥ शराबके पीये विना ही उन्मत हो गई थीं यदि वृथाभिमानविध्वंसी नापरं मधुना विना।
कलहान्तरिताः काश्चित्सखीभिरति पायिताः ॥२८९।। भारतवर्षकी आजकलकी भले घरोंकी स्त्रियोंके :
प्रेम नः कृत्रिमः नैतत्किमनेनेसि काश्चन । लिए कहा जाय, तो मेरी समझमें बहुत ही
दूरादेव त्यजन् स्निग्धाः श्राविकेवासवादिकं ॥ २९० ॥ अनुचित और असभ्यताका सूचक समझा जाय। म
।" मधु द्विगुणितं स्वादु पीतं कान्तकरार्पितं । हाँ, यदि यूरोपकी मेमोंके वास्ते ऐसा कहा जाय, कान्ताभिः कामदुर्वारमातङ्गमदवर्द्धनम् ॥ २९१ ॥ तो शायद बुरा न समझा जाय । क्योंकि अर्थात-कामकी आग तो जली थी, पतिके उनमेंसे कोई कोई शराब पीती हैं और उनके
१ वियोगसे; परन्तु उस वियोगिनीने शराबका पुरुष तो अवश्य ही पीते हैं । यह विचार करके
पीना छोड़ दिया, उसने समझा कि यह आग बड़ा आश्चर्य होता है कि आदिपुराणके कर्त्ताने
इस शराबसे ही प्रज्वलित हुई है। कितनी ही सतयुगके प्रारंभकी आर्यस्त्रियोंके लिए ऐसा कथन
कलहान्तरिता स्त्रियोंको-जिन्होंने पतिके साथ क्यों कर दिया।
, कलह की थी और इस कारण जिनके पति चले अच्छा अब जरा आगे और भी चलिए। गये थे-उनकी सखियोंने खूब शराव पिला दी; मधौ मधुमदारक्तलोचनामास्खलतिम् । कारण व्यर्थक अभिमानको नष्ट करनेके लिए बहु मेने प्रियः कान्तां मूर्तामिव मदश्रियम्॥११९॥ शराबसे अच्छी कोई चीज नहीं है । जब हमारा
-पर्व ३७ । प्रेम बनावटी नहीं है, तब हमें शराब पीनेकी अर्थात् भरत महाराज वसन्त ऋतुमें अपनी क्या आवश्यकता है, इस खयालसे बहुतही स्त्रिउस पटरानीको-जिसके नेत्र मदिराके मदसे योंने शराबको श्राविकाओंके समान, दूरहीसे लाल हो रहे थे और जिसकी चाल डगमगा रही छोड़ दिया था। कितनी ही स्त्रियाँ दुर्निवार कामथी-मूर्तमान मदकी शोभाके समान बहुत रूपी हाथीके मदको बढ़ानेवाले और अपने मानते थे-बहुत ही प्यार करते थे।
पतिके हाथसे दिये हुए स्वादिष्ट मद्यको दूना पी इस श्लोकमें 'मधमद' शब्द आया है जि- गई थीं। सका अर्थ 'शराबका नशा ' होता है। आँखों- इन श्लोकोंमेंसे पहले, दूसरे और चौथे श्लोकका लाल होना और चालका डगमगाना ये दो में शराबके लिए 'मधु' शब्द आया है और बातें इस शराबके पीनेको और भी स्पष्ट कर तीसरे श्लोकमें 'आसव ' शब्द आया है। देती हैं। परन्तु भरत महाराजकी पटरानीके इससे इनके पूर्वमें आये हुए श्लोकोंके मधु और विषयमें इस प्रकारकी कल्पना करनेको भी जी आसब आदि शब्दोंका अर्थ और भी अच्छी नहीं चाहता है। कहीं ग्रन्थकर्त्ताने ऐसी बातें तरहसे स्पष्ट हो जाता है। यह सन्देह नहीं रहता अपने कवित्वका उत्कर्ष दिखालनेके लिए ही कि, इनके कुछ और ही अर्थ होंगे। तो नहीं लिख दी हैं ?
२९० नम्बरके श्लोकसे यह मालूम होता है कि आगे जयकुमार और अर्ककीर्ति (भरतपुत्र) जिन स्त्रियोंके सम्बन्धमें यह कथन किया गया
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अङ्क ९-१०]
आदिपुराणका अवलोकन । है वे श्राविकायें नहीं थीं; परन्तु जब ये सब हमारी समझमें सतयुगमें या चौथे कालके बातें तीर्थकर भगवानकी दिव्य ध्वानके अनुसार प्रारंभमें स्त्रियोंका इस प्रकार मद्यपायी होना लिखी गई हैं, तब प्रश्न यह है कि तीर्थकर भग- विश्वासके योग्य नहीं । या तो ग्रन्थकर्त्ताने वानको क्या आवश्यकता थी कि वे उस नगरकी अपने समयकी सर्व साधारण जनोंकी प्रवृत्तिके स्त्रियोंके गुप्तसम्भोगदिका खुल्लमखुल्ला वर्णन अनुसार ये सब बातें लिखी हैं, या काव्यों महाकरते? दूसरा प्रश्न यह है कि वे स्त्रियाँ कौन थीं? काव्योंके नियमोंकी पालना करनेके लिए उन्हें -आर्या या म्लेच्छा ? यदि आर्या थीं तो किस यह सब वर्णन करना पड़ा है । काव्यों और वर्णकी थीं और उनके वर्णमें क्या यह शराब महाकाव्योंमें कितने कितने सर्ग रहने चाहिए पीनेकी रीति प्रचालित थी अथवा अपने वर्णके और उन स!में किन किन विषयोंका वर्णन प्रतिकूल ही वे ये सब क्रियायें कर रही थीं ! रहना चाहिए, संस्कृत साहित्यमें इस प्रकारके तीसरा प्रश्न यह है कि, जब उस समय आदि- अनेक नियम निर्धारित हैं । पीछे पीछे ये नाथ भगवान्के समवसरणमें उनकी दिव्यध्वनि नियम कवियोंके लिए प्रायः अनुलंघनीय बन संसारके जीवोंको सूर्यके समान सन्मार्ग दिखला गये थे, ऐसा जान पड़ता है । यही कारण है रही थी, तब स्त्रियोंमें इस तरहकी बढ़ी चढ़ी जो पिछले महाकाव्योंमें रात्रिक्रीड़ा वर्णन और शराबखोरी कहाँसे आ घुसी ? चौथा प्रश्न यह मधुपान वर्णनके कमसे कम एक एक सर्ग है कि उस कर्मभूमिके प्रारंभिक कालमें ही क्या अवश्य रचे गये हैं । जान पड़ता है, अन्य लोग शराब बनाना और उसका पीना सीख कवियोंके समान जैन कवियोंने भी इन नियमोंगये थे ?
को सिर झुकाकर मान लिया था । यही कारण ___ मद्यपानलीलाके इन और इन्हींके सामान है जो चन्द्रप्रभ और धर्मशर्माभ्युदय आदि अन्य प्रकरणों में इस बातकी ओर विशेष लक्ष्य "
- जैनकाव्योंमें भी इस विषयके एक एक दो दो
१ सर्ग मौजूद हैं । आदिपुराणको भी इसके कर्त्ताने जाता है कि यह मद्यपान जहाँ तहाँ स्त्रियोंको
'' एक महाकाव्यके रूपमें रचा है और इसी ही कराया गया है, पुरुषोंको नही । एकाध कारण इसकी रचनामें उन्हें संस्कृत काव्योंके प्रसंगको छोड़कर ( जैसे कि भरतकी नियमोंको मानकर चलना पड़ा है । उन्होंने सेनाके सिपाहियोंका नारियलका रस पीना ) संस्कृत कवियोंके इस नियमको भी माना है कि पुरुष इस व्यसनसे बरी ही रक्खे गये हैं । सुन्दर स्त्रियोंके पैरोंके लगनेसे, उनके पैरोंके पर्व ४६ में एक दरिद्रीकी कथा लिखी गई है । घुघरुअकि शब्दसे, और उनके मुखकी मदिराके दरिद्रीने मुनि महाराजके उपदेशसे आठ प्रका- 3
- कुरलोंसे बहुतसे वृक्ष फूल उठते हैं । रके पापोंका त्याग कर दिया था । यह त्याग
__ योषितां मदगण्डूषैपुरारावरंजितैः ।
कुर्वन् वामानिभिश्चालमांध्रपानपि कामुकान् । २७३। उसके पिताको पसन्द नहीं आया, इस लिए वह
-पर्व ४३। अपने लड़केको मुनि महाराजके पास उक्त इसके सिवाय जब शृंगाररसका वर्णन करना त्यागको वापस करनेके लिए लेकर चला । ग्रन्थकर्ताको अभीष्ट था, तब यह संभव नहीं मार्गमें उसे आठों पापोंके अपराधी घोर दण्ड कि वह ऐसी बातोंको न लिखता । क्योंकि स्त्रिपाते हुए मिले, जिनमें मदिरा पीनेका अपराध योंकी उन्मत्तता और मदविह्वलताको प्रकट किये करनेवाली एक स्त्री ही थी। ( देखो श्लोक विना शृंगाररसका चरम उत्कर्ष नहीं दिखलाया २८१-८२।)
जा सकता।
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भाग १३ गरज यह कि कविशिरोमणि जिनसेनाचार्यने “ ज्ञानावरणक्षयोपशमापादितकलागुणइस नियमके वशवर्ती होकर कि काव्यमें मधु- ज्ञतया चारित्रमोहस्त्रीवेदोदयप्रकर्षादंपानका वर्णन रहना चाहिए और यह खयाल गोपांगनामोदयावष्टंभाच्च परपुरुषानेति करके कि स्त्रियोंकी शोभा और सुन्दरताका गच्छतीत्येवं शीला इत्वरी, ततः कुत्सायां मधुपानसे विशेष सम्बन्ध है, अपने ग्रन्थमें कः, इत्वरिका ।" अर्थात् ज्ञानावरणी कर्मके चौथे कालकी आदिकी स्त्रियोंको भी मद्य पीने- क्षयोपशमसे प्राप्त हुई नृत्य गान आदि वाली वर्णन किया है, ऐसा जान पड़ता है। कलाओंकी जानकारीसे, चारित्रमोह रूप स्त्रीवेद
है और अंगोपांग नामक नाम कर्मके उदयसे ___ यदि वास्तवमें ऐसा ही है, तो ये कविताके :
जो परपुरुषोंसे समागम करती है उसे इत्वरी ग्रन्थ बड़ी सावधानीसे पढ़े जाने चाहिए । इनके ,
' कहते हैं । इसमें निन्दावाचक 'क' मिलकर 'प्रत्येक शब्दको जिनवाणी समझ लिया जायगा । इत्वारिका ' शब्द बनता है । वेश्याकी तो सत्यश्रद्धानमें बाधा आनेकी बड़ी भारी गणना परस्त्रीमें नहीं हो सकती है, इसी कारण संभावना है। और यदि ऐसा नहीं है तो मदिरा सप्त व्यसनोंमें 'परस्त्रीसेवनसे' 'वेश्यासेवन' पीनेका उक्त कथन क्या अर्थ रखता है, इसके व्यसन जुदा बतलाया गया है। यदि इन दोनों साफ तौर तौरपर खुल जानेकी बहुत बड़ी व्यसनोंमें कुछ तारतम्य न होता, तो ये जुदे जुदे आवश्यकता है। विद्वानोंको इस ओर ध्यान देना नहीं बतलाये जाते ।। चाहिए।
(क्रमशः) उक्त सब प्रमाणोंसे हम यह नहीं सिद्ध कर नोट-लेखक महाशयने जो यह लिखा है कि रहे हैं कि वेश्यागमन पाप नहीं है; नहीं, पाप उस समय वेश्यायें इतनी बुरी दृष्टि से नहीं देखी तो वह है ही; किन्तु परस्त्रीसेवनके बराबर नहीं जाती थीं, जितनी कि आजकल देखी जाती है। और इसी कारण आचार्योंने उसे स्वदारहैं, सो इसकी पुष्टि हमारे श्रावकाचारोंके सन्तोषियोंके लिए अनाचार नहीं, किन्तु अती. ग्रन्थोंसे होती है। सबसे पहले आचार्य सोमदेव- चार माना है। के यशस्तिलकका यह श्लोक देखिए:-
अब रहा, वेश्याओंको घृणाकी और आदरकी वधूवित्तस्त्रियौ मुक्त्वा सर्वत्रान्यत्र तज्जने । दृष्टिसे देखना, सो इसका सम्बन्ध देशकालके माताश्वसा तनूजति मातब्रह्म गृहाश्रम ॥
अनसार जनसाधारणके झकाव पर है। अर्थात् अपनी स्त्री और वित्तस्त्री (वेश्या) को संभव है श्रीजिनसेन स्वामीके समयमें उस छोड़कर अन्य सब स्त्रियोंको माता, बहिन और प्रान्तमें जहाँ कि वे रहते थे वेश्यायें पुत्रीके समान समझना, यह गृहस्थाश्रमका घणित न समझी जाती रही हों। आज भी हम ब्रह्मचर्य है । इससे मालूम होता है कि, सोम- देखते हैं कि मालवा, मध्यप्रदेश और यू. पी. के देवके मतसे वेश्याका सम्बन्ध रखने पर भी ,
कुछ जिलोंमें वेश्याका व्यसन जितना बुरा समझा जो गृहस्थ पराई स्त्रियोंका त्यागी है, वह एक
• जाता है, उतना बिहार और बंगालमें नहीं समझा प्रकारका ब्रह्मचारी है।
_ जाता। कर्नाटक प्रान्तमें इस समय भी जिनेन्द्र __इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धि और राजवार्तिक आदि ग्रन्थों में वेश्यासंभोगको स्वदारसन्तोषव्रतका :
भगवान्के अभिषेकके लिए जो जलयात्रोत्सव होता अतीचार बतलाया है, अनाचार नहीं । रत्नकर- है, उसमें वेश्याओंका नृत्य कराया जाता है। वहाँ ण्डश्रावकाचारमें भी इत्वरिकागमन या वेश्यागम- तो कहीं कहीं मन्दिरोंमें भी वेश्यानृत्य होता है; नको स्वदारसन्तोषव्रतका-जिसका दूसरा नाम परन्तु हमारे यहाँ अब पुरुषोंका नृत्य भी समझपरदारनिवृत्ति भी है-अतीचार बतलाया है। दारोंकी आँखोंमें खटकने लगा है।-सम्पादक । राजवार्तिककारने इत्वरिकाका लक्षण किया है
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अङ्क ९-१० /
प्रमालक्षण ।
प्रमालक्षण ।
श्वेताम्बर संप्रदाय का सबसे पहला तर्कलक्षण ग्रंथ । ( लेखक - श्रीयुत मुनि जिनविजयजी । ) विक्रमकी ११ वीं शताब्दी के उत्तरार्धमें जिनेश्वर और बुद्धिसागर नामके दो प्रसिद्ध श्वेताम्बराचार्य हो गये हैं । ये दोनों सगे भाई और गुरुभ्राता थे । विद्वान् तो ये थे ही, साथ ही चरित्रवान् और प्रभावशाली भी थे । इन्होंने अपने समयमें बहुतसे यतियोंकी शिथिल प्रवृत्ति देखकर उसका तीव्र विरोध किया था और अपने उदाहरणके द्वारा लोगोंको शुद्धाचारकी शिक्षा दी थी । इनके समयमें श्वेताम्बर - साहित्यने विकासके एक नवीन मार्गमें प्रवेश किया । यदि श्वेताम्बर साहित्यके प्राचीन और अर्वाचीन इस प्रकार दो विभाग कल्पना कर लिये जायँ, तो ये दोनों बन्धु अर्वाचीन साहित्य के कर्णधार या आदि प्रवर्तक कहे जा सकते हैं । इनके पहले - का जो श्वेताम्बर साहित्य है, वह केवल आगम ग्रन्थोंके साथ ही संबंध रखनेवाला है । हरिभद्र, सिद्धसेन, सिद्धर्षि और अभयदेवके इनेगिने ग्रंथोंके सिवा और कोई भी प्रकीर्णक साहित्य इनसे पहलेका उपलब्ध नहीं हुआ । परंतु इन बन्धुओंके आविर्भावके बाद श्वेताम्बर साहित्यस्रोत सहस्रधाराओंसे बहने लगा और आगे की ३-४ शताब्दियों में वर्षाकालीन जलकी तरह न्याय, व्याकरण, काव्य, अलंकार आदि सब ही क्षेत्रों में विपुलता के साथ व्याप्त हो गया । इन ३ - ४ शतकोंमेंसे प्रत्येक शतकमें शतशः ग्रंथ भिन्न भिन्न विषयोंके लिखे गये और वे जैनसाहित्यकी शोभाको चिरकालतक आश्चर्यान्वित दृष्टि से देखने लायक बना गये । इन बन्धुओंके अवतारके पहले श्वेताम्बरोंके तर्क, शब्द और काव्य आदिके स्वनिर्मित लक्षण ग्रंथ नहीं थे । उस
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समय के विद्वान् ब्राह्मण और बौद्धों के बनाये हुए न्याय, व्याकरण और अलंकारविषयक ग्रंथोंका अध्ययन करके ही पाण्डित्य प्राप्त करते थे और उन्हीं के आधार पर वे अपने सिद्धान्तोंका मण्डन और विपक्षियोंका खण्डन किया करते थे । यद्यपि उस समय सिद्धसेन दिवाकर, मल्लवादी, हरिभद्र और अभयदेव आदि बड़े बड़े ताकिकोंके बनाये हुए न्यायावतार, नयचक्र, अनेकान्त जयपताका और वादमहार्णव (सम्मति - टीका ) आदि अच्छे अच्छे प्रभावशाली तर्क ग्रंथ मौजूद थे और वे ऐसे थे कि उनकी युक्तियोंके आगे परवादियों को युक्तियाँ नहीं सूझती थीं; फिर भी प्रथमाभ्यासी जैनको न्यायशास्त्र के सिद्धान्तोंका प्राथमिक क्रमबद्ध ज्ञान प्राप्त करने के लिए अजैन ग्रन्थोंहीकी शरण लेनी पड़ती थी और इसी कारण इस प्रकारके कितने ही अजैन ग्रंथों पर जैन विद्वानोंको टीका-टिप्पण लिखने पड़े थे । सुप्रसिद्ध बौद्ध तार्किक धर्मकीर्तिरचित न्यायबिन्दुकी धर्मोत्तरवाली व्याख्या पर मल्लवादीका टिप्पण और दिङ्नागके न्यायप्रवेशपर हरिभद्रकी टीका इस कथन के प्रकट प्रमाण हैं । जिनेश्वरसूरि और बुद्धिसागराचार्यको इस प्रकार परकीय साधनसंपत्ति पर अवलम्बित रहकर अपना उत्कर्ष बढ़ाना अच्छा नहीं मालूम हुआ, इस लिए उन्होंने इस बड़ी भारी न्यूनताको पूर्ण करनेका वर्णनीय प्रयत्न करके अपने साहित्यको समुन्नत करनेका सूत्रपात किया ।
श्वेताम्बर साहित्यका इतिहास देखनेसे पता लगता है, कि इन भ्राताओंके पूर्वके यतियों का अधिकांश भाग तो धर्मशास्त्रोंके पठनपाठन के सिवाय और किसी प्रकार के ग्रन्थोंका परिचय भी नहीं रखता था । न्याय, व्याकरण, काव्य आदि. लौकिकी विद्याओंका ज्ञाता तो उस समय कोई विरला ही होता था । यही कारण है कि विक्रमकी पहली दश शताब्दियों में — इतने बड़े हजार
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जैनहितैषी
[भाग १३
वर्षके कालमें केवल पाँच ही सात श्वेताम्बर ग्रंथ- निषिद्धाचरणोंका सेवन करनेसे वे प्रमत्त हो कर्ता उत्पन्न हुए हैं। जिस समय देश पर विदोशयोंके गये । अपने अनुरक्त श्रावकोंको साधारण धर्मलगातार आक्रमण होते रहे और सर्वत्र अशांति कथा सुना दे सकनेवाले ज्ञानके सिवा अधिक फैली रही, उससमय भी जब श्वेताम्बर विद्वा- विद्याध्ययन करनेमें वे आलस्यवान बन गये । नोंने हजारों ग्रंथ लिख डाले, तब उस शांतिके ऐसी स्थितिमें साहित्यके विकसित होनेकी संभासमयमें इस बातका कैसे अभाव हो सकता था? वना कहाँतक की जा सकती है ? इसी समयमें उस समयके यतियों-मुनियोंमें लौकिक विद्या- कुछ बौद्धादि विधर्मियोंका भी उपद्रव अधिक ओंका अधिक प्रचार न होनेमें मुझे यह कारण रहा, जिससे जो इस कार्यके लिए समर्थ थे वे प्रतीत होता है कि प्रारंभके शतकोंमें जो मुनि मुनि भी शांतिके अभावमें साहित्यका विकास होते थे, वे बहुधा विशेष विरक्त और उदासीन विशेष नहीं कर सके। होते थे । सिद्धसेन दिवाकर जैसे तेजस्वी और पश्चिम भारतकी प्राचीन राजधानी वल्लभी पराक्रमी क्वचित् ही प्रकट होते थे । जो आत्म- नगरीके विध्वंसके साथ बौद्धोंका भी विस्तार स्वरूपावलोकनमें मग्न रहनेवाले हैं, वे संकुचित होने लगा । विक्रमकी ९ वीं शतातत्त्वचिंतनमें शिथिलता लानेवाले इन बखेड़ोंमें ब्दिके प्रारंभमें गुजरातके मध्यकालीन गौरवके क्यों पड़ने लगे? वे तो परमात्म दशाका स्मरण केन्द्रभूत स्थान अणहिल्लपुरके राज्यतंत्रमें प्रारंभऔर मनन करनेहीमें अधिकतर लगे रहते थे। हीसे जैनोंका सर्वाधिक हस्तक्षेप रहा । अणउनको वही विषय प्रिय लगता था, जिसमें आत्मा हिल्लपुरका जो बड़ा भारी उत्कर्ष हुआ था, वह परमात्माका शुद्धस्वरूप शांतिप्रदायक शब्दों जैनजनताहीके कारण था, यह कहनेमें जरा भी
और विचारों में प्रदर्शित किया गया हो। तर्कके आतिशयोक्ति नहीं है । यह बात इतिहाससिद्ध कर्कश कटाक्षोंका, व्याकरणके अटपटे सूत्रों और है। अणहिल्लपुरकी उन्नतिके साथ पश्चिम भारतमें शब्दप्रयोगोंका तथा शृंगारादि नाना रसोंसे प्रचलित रहनेवाले जैनधर्मकी उन्नतिका अभेद चित्तकी निश्चलताको क्षुब्ध कर देनेवाले आलं- संबंध है। ज्यों ज्यों गुजरातका राज्य सुसंगकारिक भाका रटन करनेमें उन्हें रति प्राप्त ठित होता गया और शक्तिमें बढ़ता गया, त्यों हो, यह असंभव था। इस लिए उस समयके त्यों जैनसमाज भी पिछली कई शताब्दियोंकी आत्मदर्शी श्रमण इस विषयकी प्रवृत्तिका बहुत जमी हुई जडताको दूर करता गया । साधुकम सेवन कर सके । परन्तु पिछले शतकोंमें समुदायमें जागृति आने लगी और धर्मप्रचारदेशकी परिस्थति बदल गई, धार्मिक विचारोंमें की ओर उसका उत्साह बढ़ने लगा । यही जडता आ गई, और वैमनस्यकी मात्रा बढ़ समय जिनेश्वरसूरि और बुद्धिसागराचार्यके गई, इस कारण उस प्रकारकी उच्चदशावाली प्रादुर्भावका है । इसके पहले वादिवेताल मुनिवृत्तिका तो लोप होता गया और उसके शान्त्याचार्य, महेन्द्रसूरि, महाकवि धनपाल स्थानमें संयमशैथिल्य और प्रमादाचरणका प्रवेश और उनके बन्धु शोभन मुनि आदि कई विद्वा. हुआ । साधु लोग एक ही जगह बहुत समय नोंके बुद्धिप्रभावने साधुसमूहमें जो विद्योन्नतिके तक निवास करने लगे, और चैत्यों-मंदिरोंकी बीज बो दिये थे, उन्हें इन दोनों बन्धुओंने व्यवस्था देखने-संभालने लगे और गृहस्थोंका जलसिञ्चन करके अंकुरित कर दिया। इन्होंने संपर्क अधिक रखने लगे । इस प्रकार अनेक अपने विशाल शिष्यसमुदायमें केवल धर्म
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अङ्क ९-१० ]
शास्त्रों के ही नहीं, न्याय, व्याकरण, काव्य, कोष, नाटक, छन्द, अलंकार आदि सभी विषयोंके अध्ययन के प्रचारको चढ़ाया * 1 इनका अनुकरण और और साधुमण्डलोंने भी उत्साहके साथ किया, जिसके कारण ३०-४० वर्षहीमें सैकड़ों प्रौढ पण्डित तैयार हो गये और उन्होंने अपने पाण्डित्यसे जैनधर्मको और उसके साहित्यको उत्तम रीति से विभूषित करना शुरू कर दिया । इन्होंने शिथिलाचारका बड़े जोरशोरसे निषेध करना प्रारंभ किया और अणहिलपुरकी राजसभामें कई शिथिलाचारपोषक यतियोंके साथ वाद करके उनको निरुत्तर किया, जिससे यतिसमूहमें फिर शुद्धाचरणकी प्रवृत्ति बढ़ने लगी ।
पहले कहा जा चुका है कि जिनेश्वरसूरि और बुद्धिसागरसूरिके पहले श्वेताम्बरोंके न्याय, व्याकरण आदि लक्षणग्रंथ नहीं थे और यह न्यूनता उन्हें बहुत खटकी । इसकी पूर्ति करनेके लिए जिनेश्वरसूरिने एक उत्तम तर्कलक्षण ग्रंथ और बुद्धिसागराचार्यने एक सर्वांगपूर्ण शब्दलक्षणशास्त्र बनाया । तर्कलक्षण ग्रंथका नाम है- ' प्रमालक्षण' और शब्दशास्त्रका नाम है–'बुद्धिसागर-व्याकरण ' + | श्वेताम्बर संप्रदायके यही दोनों तर्क और शब्दविषयके सबसे पहले लक्षण ग्रंथ हैं ! यद्यपि श्वेताम्बर साहित्य में
* इस बातका उल्लेख जिनेश्वरसूरिके प्रशिष्य वर्द्धमानाचार्यने अपने बनाये हुए 'आदिनाथ चरियम् ' नामक प्राकृत ग्रंथकी प्रशस्तिमें जो संवत् ११६० पूर्ण हुआ है— किया है ।
प्रमालक्षण ।
सूरिजिणेसर सिरि बुद्धिसागरा सागरो व्व गंभीरा । सुर-गुरु-सुक्क सरिच्छा सहोयरा तस्स दो सीसा ॥ वायरण- च्छन्द निघण्टु-कव्व नाडय पमाणसमयेसु । अणिवारियप्पचारा जाणमइ सयलसत्थेसु ॥
+ इसकी समाप्ति संवत् १०८० में, मारवाड़के बालिपुर (जालौर) में हुई है । इसी वर्ष में जिनेभरसूरिने हरिभद्रके अष्टक संग्रहकी भी टीका की है।
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इस समय इनसे भी बड़े बड़े न्याय और व्याकरणके अनेक ग्रंथ मौजूद हैं और उनकी उत्तमता और अनुपमता अच्छे अच्छे अजैन विद्वानों ने भी प्रमाणित की है; परन्तु वे सब इनके पीछे बने हैं ।
यह ग्रंथ सूत्रात्मक नहीं, किन्तु धर्मकीर्ति के न्यायवार्तिकके सदृश वार्तिकरूप है । महाम सिद्धसेन दिवाकरके प्रसिद्ध ग्रंथ न्यायावतार के 'प्रमाणं स्वपरावभासि, ज्ञानं बाधविवर्जितम् ।
66
प्रत्यक्षं च परोक्षं च, द्विधा मेयविनिश्वयात् ॥
""
इस आदि श्लोकको मूल मानकर इसीके व्याख्यानके रूपमें ४०५ कारिकायें बनाई गई हैं और फिर उनको अपनी ही बनाई हुई विस्तृत वृत्तिसे स्पष्ट और पल्लवित किया है। इस प्रमाण और प्रमेयके साथ सम्बन्ध रखनेवाले सभी विषयोंके लक्षण बहुत अच्छी तरह से प्रतिपादित किये गये हैं । दिङ्नाग, धर्मकीर्ति, शान्तिरक्षित, कुमारिल आदि प्रख्यात नैयायिकों के विचारोंकी भी जगह जगह आलोचना- प्रत्यालोचना की गई है। ग्रंथ रोचक और प्रतिपादक पद्धतिसे लिखा गया है। इसमें कहीं कहीं कटाक्षयुक्त वाक्योंका भी प्रयोग किया है; परंतु असभ्यता के साथ नहीं । एक उदाहर लीजिए
महान्
मीमांसक कुमारिल भट्टने अपने श्लोकवार्तिक्रमें वेदोंकी आप्तता सिद्ध करते हुए में आकर एक जगह वेदोंको अनाप्त माननेवाले जैन और बौद्धोंके लिए लिखा है कि
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धारणाध्ययनव्याख्यानित्यकर्माभियोगिभिः । मिथ्यात्वहेतुरज्ञातो दूरस्यैर्ज्ञायते कथम् ॥
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४२०
जनहितैषी
[भाग १३
ये तु ब्रह्माद्विषः पापा
ण्डाको हेय कहा है + । उन्होंने अपने ग्रंथों में वेदादरं बहिष्कृताः।
साधनाभासोंका प्रयोग नहीं किया; केवल विते वेदगुणदोषोक्ति
पक्षियोंके साधनोंमें दूषण बताकर ही अपने कथं जल्पन्त्यलजिताः॥ सिद्धान्तोंका समर्थन किया है। यही बात अर्थात्-जो ब्राह्मण निरंतर वेदोंका धारण, प्रमालक्षणके अन्तमें इन दो कारिकाओंके द्वारा अध्ययन, व्याख्यान और पूजन आदि करते हैं कही गई है-- वे तो उनका मिथ्यात्व अभीतक जान नहीं प्रमाणवादिनां तस्माद्वाद एव विचारणा। सके; तब जो ब्रह्मद्वेषी हैं, वेदधर्मसे बहिष्कृत हैं साधनाभासमन्यैस्तु वादिभिरभियुज्यते ॥ और वेदोंके पास तक नहीं जाते वे पापी (जैन तेनावधीरणाप्यत्र महता लक्ष्मशासने । और बौद्ध ) लोग निर्लज्ज होकर वेदोंके गुण
परपक्षनिरासो हि साधनाभासतोऽप्यसौ ॥ दोषोंको कैसे कह सकते हैं ? भट्टजीके इन
पिछली कारिकाकी टीकामें यह भी सूचित आवेश और आक्रोशयुक्त वचनोंका देखिए
किया गया है कि-प्रमाणके लक्षण प्रतिपादन सूरिजीने संक्षेपमें, परंतु कैसे मीठे और मार्मिक
करनेमें, प्रयासकी निष्फलता समझकर पूर्वके शब्दोंमें जवाब दिया है।
जैनाचार्योंने उस तरफ उपेक्षाकी दृष्टिसे देखा
है और इसी लिए हरिभद्रसूरिने अनेकान्तधारणाध्ययनेत्यादि नाक्रोशः फलवानिह । अज्ञैरज्ञाततत्त्वोऽपि पण्डितैरवसीयते ॥
जयपताकामें और अभयदेवसूरिने सम्मतिअर्थात्-धारणाध्ययन इत्यादि श्लोकोंमें. टीकाम परंपक्षका निरसन करने मात्रके उद्देशसे 'ब्रह्माद्विषः' और 'पापा' आदि शब्दोंद्वारा भट्ट
' प्रयत्न किया है । मट्टवादिसरीखे महान् आचाजीने जो अपना आक्रोश प्रकट किया र्यने परपक्षका निर्मलन करनेमें अद्वितीय शक्तिनिष्फल है-उससे कुछ फलकी प्राप्ति नहीं होती। शाली होकर भी नयचक्रकी स्थापना सिद्ध जहाँपर युक्तायुक्तविषयक तात्त्विक विचार करनेके सिवा प्रमाणके लक्षण कहनेका काम किया जाता हो वहाँपर आक्रोश करनेसे अपने- नहीं किया । क्योंकि उन्होंने यही ठीक समझा को या दूसरेको-किसीको भी तत्त्वज्ञानकी था कि, परपक्षका निरसन करनेहीसे स्वपक्षकी प्राप्ति नहीं होती। और जो यह कहा कि तमने- स्वतः सिद्धि हो सकती है । वह टीकाका पाठ वेदोंका अस्वीकार करनेवाले जैनोंने-वेदोंसे दूर यह है:रहनेवालोंने-वेदोंका मिथ्यात्व कैसे जान लिया. -"अत्र प्रमाणलक्षणे, निष्फलत्वादा. सो इसका तो उत्तर यह है कि, जो बात अश यासस्य । अत एव श्रीहरिभद्रसरिपादः युक्तायुक्तविचारशून्य मनुष्य दीर्घकालके संस
श्रीमदभयदेवरिपादैश्च परपक्षनिरासे तैसे भी नहीं जान सकते, उसे विद्वान् मनुष्य म्मति-टीकायामिति । अत एव श्रीमन्महा
यतितमनेकान्तजयपताकायां तथा सतत्काल जान लेता है।
__ मल्लवादिपादैरपि नयचक्र एवादरो विहित महर्षि गौतमने अपने न्यायसूत्रमें, परपक्षका इति न तैरपि प्रमाणलक्षणमाख्यातं परपक्षनिरसन करनेके लिए वादके सिवा जल्प, वि. + हेमचन्द्राचार्यने भी अपनी ' प्रमाणमीमांसा' में तण्डा, छल, जातिप्रयोग आदि करनेकी मी ऐसा करना अन्याय बताया है । लिखा है किअनुज्ञा दी है; परंतु जैन तार्किकॉन केवल एक अमदुत्तरैः परप्रतिक्षेपस्य कर्तुमयुक्तत्वात्, न ह्यनायेन वातहीका उत्तम माना है, जल्प और वित- जयं यशो धनं वा महात्मानः समीहन्ते । ( पृष्ट ३८)
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अङ्क ९-१०] प्रमालक्षण।
४२१ निर्मथनसमर्थैरपि परपक्षनिरासादपि स्व- श्रीबुद्धिसागराचार्यैर्वृत्तैर्व्याकरणं कृतम् । पक्षस्य पारिशेष्यासिद्धिरिति ।” अस्माभिस्तु प्रमालक्ष्म वृद्धिमायातु साम्प्रतम् ॥
पूर्वाचार्योंके द्वारा प्रमाणलक्षणके विषयमें इस टीका-श्रीबुद्धिसागराचार्यैः पाणिनि-चन्द्रप्रकार सार्थक उपेक्षाकी जाने पर भी जिनेश्वर- जैनेन्द्र-विश्रान्त-दुर्गटीकामवलोक्य वृत्तबन्धैःजीने जो यह प्रयत्न किया है, उसका कारण धातुसूत्रगणोणादिवृत्तबन्धैः कृतं व्याकरणं संस्कृतइसके बादकी दो कारिकाओंमें इस प्रकार प्राकृतशब्दसिद्धये । अस्माभिस्तु प्रमालक्ष्म बतलाया गया है:
प्रमाणलक्षणम्, अतएव पूर्वाचार्यगौरवदर्शनार्थ तैरवधीरिते यत्तु प्रवृतिरावयोरिह। वार्तिकरूपेण तत्रापि स्वाभिप्रायनिवेदनार्थ वृत्तितत्र दुर्जनवाक्यानि प्रवृत्तेः सन्निबन्धनम् ॥१॥ करणेन च।। शब्दलक्ष्मप्रमालक्ष्म यदेतेषां न विद्यते। अर्थात् श्रीबुद्धिसागर आचार्यने तो पाणिनि, नादिमन्तस्ततो ह्येते परलक्ष्मोपजीविनः ॥ २॥ चन्द्र, जैनेन्द्र, विश्रान्त और दुर्गटीका आदि टीका-शब्दलक्ष्मव्याकरणम्, श्वेतभिक्षूणां व्याकरण ग्रन्थोंका अवलोकन करके संस्कृत स्वीयं न विद्यते तथा प्रमालक्ष्मापि प्रमाणलक्षण- और प्राकृत शब्दोंकी सिद्धिके लिए व्याकरण मपि, येषां स्वीयं न विद्यते । नादिमन्तो नैवादा- ग्रन्थ बनाया और मैंने पूर्वाचार्योंका गौरव वेव एते संभूताः, किन्तु कुतोऽपि निमित्ताद- दिखानेके लिए वार्तिकरूपमें और स्वाभिप्राय चीना एते जाता। ततो ह्येते, तस्मादित्युपसंहारः। प्रकट करनेके लिए अपनी वृत्तिसे भूषित करके हिहेतुपदसूचकः । किम्भूतास्ते इत्याह-परल- यह प्रमालक्षण गन्थ बनाया है। मोपजीविनः बौद्धादिप्रणीतलक्षणमुपजीवितुं प्रमालक्षणके बननेकी यह बात विशेष ध्यान शीलाः, एतदिति हेतुपदम् । उक्तं च खींचती है कि, उस पुराने जमाने में जब जैनोंकेछव्वास सएहि णउत्तरेहिं
श्वेताम्बर जैनोंके-स्वकीय लक्षणिक ग्रंथ नहीं थे तइया सिद्धिं गयस्स वीरस्स।
और दूसरोंके बनाये हुए ग्रन्थों पर वे अपने ज्ञानके कंबलियाणं दिवी
विकासका आधार रखते थे, तब ब्राह्मणों और वलहीपुरिए समुप्पण्णा ॥
बौद्धोंके समान स्वयं उनके स्वयूथ्यों दिगम्बरोंकी अर्थात् इस विषयकी ओर पूर्वाचार्योंद्वारा ओरसे भी उनपर इस बातका आक्षेप हुआ उपेक्षा किये जाने पर भी जो हम दोनोंकी प्रवृत्ति करता था, कि "तुम्हारे स्वकीय लक्षणग्रंथ नहीं हुई है, सो इसमें दुर्जनोंके ये वाक्य कारण हैं हैं, तुम परलक्ष्मोपजीवी हो, इस लिए तुम्हारा कि इनके-श्वेताम्बरोंके-शब्दलक्षण ( व्याक संप्रदाय, नया चला हुआ है। तुम्हारा मत रण) और प्रमाणलक्षणविषयक स्वकीय ग्रन्थ प्राचीन नहीं है।" उस समय दिगम्बर संप्रदानहीं हैं, ये परलक्षणोपजीवी-बौद्धादि ग्रन्थों- यमें जैनेन्द्रादि व्याकरण और परीक्षामुखादि से अपना निर्वाह करनेवाले हैं, अतः ये आदिसे प्रमाणप्रतिपादक ग्रंथ बन चुके थे, इस लिए नहीं हैं, किन्तु किसी निमित्तविशेषसे नये ही उनको अपने साहित्यका अभिमान रखनेका पैदा हो गये हैं । जैसा कि किसीने ( दिगम्बर स्वाभाविक कारण उत्पन्न हो गया था और ग्रन्थकर्त्ताने ) कहा भी है-महावीर भगवानके श्वेताम्बरोंमें ये बने नहीं थे, इस लिए उन पर निर्वाणके ६०९ वर्ष बाद वल्लभीपुरमें श्वेताम्बर- कटाक्ष करनेका प्रसंग दिगम्बरोंको मिल रहा दर्शन उत्पन्न हुआ । अतएव .. था । जिनेश्वरसूरि और उनके भाताको
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४२२
जैनहितैषी
[ भाग १३
ये कटाक्ष असह्य मालूम दिये, इस लिए स्वयं ही महान् व्याकरण बनानेमें समर्थ हैं। उन्होंने अपने संप्रदायके तद्विषयक साहित्य- राजाने साहाय्य देना स्वीकार किया; जिससे स्थानको भी अशून्य बना देनेका यह काम एक वर्ष भरहीमें आचार्यजीने सवालक्ष श्लोककर दिखाया और अपने अर्वाचीनत्वको प्रमाण सर्वांगपूर्ण सिद्धहेमशब्दानुशासन नामक तिरोहित कर दिया ! परन्तु यह बात समझमें व्याकरण बना दिया । नहीं आती कि इस प्रकारके एक दो ग्रंथोंके अस्तु । यदि ये दूसरोंके द्वारा किये जानेबन जानेसे आक्षेपक लोग कैसे शान्त हो गये वाले कटाक्षोंकी बातें सच हों तो श्वेताम्बर होंगे और श्वेताम्बरोंकी प्राचीनताका कैसे सम्प्रदायके अनुयायियोंको कटाक्षकर्त्ताओंका स्वीकार करने लग गये होंगे । इसके सिवाय उपकार ही मानना चाहिए, जिनके कारण उनके यह बात भी विचारणीय है कि जो दिगम्बर साहित्यका बहुत ही विकास हुआ और उससे लोग श्वेताम्बरों पर कटाक्ष करते थे वे, समूचे भारतीय साहित्यकी शोभामें भी अपरिअपने साहित्यमें भी पूज्यपाद और माणिक्य- मित वृद्धि हुई । १२-९-१९१७ । बम्बई । नन्दि आदिके प्रादुर्भावके पहले इस प्रकारके नोट—प्रमालक्षणके कर्ता जिनेश्वरसूरि शोंका अभाव होने पर अपनी आदिमत्ता या बटे भारी तार्किक समझे जाते हैं, तब मालूम प्राचीनताको कैसे प्रमाणित करते होंगे ? नहीं कि उनकी तर्कप्रवण बुद्धिमें यह बात
कहा जाता है कि, हेमचंद्राचार्यको अपना सुप्र- कैसे जंच गई कि तर्कलक्षणग्रन्थ बना देनेसे सिद्ध व्याकरण सिद्धहेमशब्दानुशासन भी इसी श्वेताम्बरसम्प्रदाय परसे अर्वाचीनत्वका आरोप प्रकारका एक कारण उपस्थित होनेसे बनाना पड़ा उठा दिया जायगा । एक तो इस बात पर था । प्रबन्धचिन्तामणिमें लिखा है, कि हेमच- विश्वास ही नहीं होता है कि किसी विचारशील न्द्राचार्य सिद्धराज जयसिंहकी सभामें एकदिन विद्वानके द्वारा श्वेताम्बरसम्प्रदाय पर इस किसी एक काव्य पर अपना अपूर्व अर्थचातुर्य प्रकारके आक्षेप किये जाते होंगे । क्योंकि प्रकट कर रहे थे। उसे सनकर राजा बहत लक्षणग्रन्थोंका होना न होना प्राचीनता या खुश हुआ और उनके पाण्डित्यकी प्रशंसा करने अर्वाचीनताका हेतु नहीं हो सकता । दूसरे लगा। एक ब्राह्मण विद्वान्को यह बात सहन न यदि साधारण लोगोंके द्वारा ऐसे आक्षेप किये हुई । वह बोला-महाराज, इसमें इनकी क्या * अस्मिन् काव्ये निःप्रपञ्चे प्रपञ्चमाने तद्वचनचातुरीशोभा है ? हमारे ही व्याकरणादि शास्त्रोंके चमत्कृतचेता नृपस्तं प्रशंसन् कैश्चिदसहिष्णुभिरस्मप्रभावसे ये इतनी विद्वत्ता प्राप्त कर सके हैं। च्छानाध्ययनबलादेतेषां विद्वत्तेत्यभिहिते राज्ञा पृष्ठाः राजाने आचार्यजीके सामने देखा, तब वे बोले श्रीहेमचन्द्राचार्याः । पुरा श्रीजिनेन श्रीमन्महावीरेणन्द्रस्य , कि, पहले हमने तुम्हारा नहीं, किन्तु वह व्याकरण पुरतः शैशवे यद्व्याख्यातं तज्जैनव्याकरणमधीयामहे पढा है; जिसे महावीर जिनने अपनी बाल्या. वयमिति । तद्वाक्यानन्तरमिमा पुराणवार्तामपहायास्मा
कमेव सन्निहितं नृपं व्यारणकर्तारं कमपि तेति तत्पि. वस्थामें इन्द्रके सामने प्रकट किया था। ब्राह्मणने .
शुनवाक्यादनु ते प्राहुः-यदि श्रीसिद्धराजः सहायीभवति कहा
तदा कतिपयैरेव दिनैः पञ्चाङ्गमपि नूतनं व्याकरणं यदि कोई आधुनिक व्याकरणकर्ता आपमें हो रचयामः।......श्रीहेमाचार्यैः श्रीसिद्धहेमाभिधान पश्चातो हमें बतलाइए । हेमचंद्राचा र्यने उत्तर दिया कि अमपि व्याकरणं सपादलक्षप्रन्थप्रमाणं संवत्सरेण स्चयां यदि महाराज सिद्धराज साहाय्य करें, तो मैं चक्रे । (प्रबन्धचिन्तामणिः, पृ० १४६-७.)
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अङ्क ९-१० ]
“
भी जाते रहे हों, तो उनका निराकरण इन ग्रन्थोंके बन जानेसे हो गया होगा, यह बात नहीं मानी जा सकती । इनके बन जाने पर भी तो यह कहनेकी गुंजाइश बनी ही रही होगी कि इनके लक्षणग्रन्थ अभी हालहीके, अर्थात् ग्यारहवीं शताब्दिके बने हुए हैं, अतएव इनका सम्प्रदाय प्राचीन नहीं, अर्वाचीन ही है । इन ग्रन्थोंके बन जानेसे केवल इस आक्षेपको अवश्य ही स्थान नहीं रहा होगा कि श्वेताम्बर सम्प्रदायमें शब्द और न्यायके लक्षणग्रन्थ नहीं हैं । इससे अधिक और किसी आक्षेपके निवारणकी आशा इनसे नहीं की जा सकती । छव्वास सहि' आदि गाथा किसी दिगम्बरी ग्रन्थपरसे उध्दृत की गई है, ऐसा जान पड़ता है; परन्तु उसमें यह हेतु श्वेताम्बरदर्शनकी अर्वाचीनता सिद्ध नहीं की गई है कि श्वेताम्बरोंमें लक्षणग्रन्थ नहीं हैं, कारण वे अर्वाचीन हैं | यह तो परम्परासे चली आई केवल एक कथा है । इस तरह विचार करनेसे मालूम होता है कि ग्रन्थकर्त्ताने जो अपने ग्रन्थके रचे जानेका कारण बतलाया है, वह सर्वोशमें ठीक नहीं है । वास्तवमें इस कारका इतना ही अंश ठीक जान पड़ता है कि ग्रन्थकर्ताको अपने यहाँकी यह कमी - लक्षण - ग्रन्थ नहीं हैं, यह त्रुटि - खटक गई, इससे उन्होंने अपने सम्प्रदायका अगौरव समझा और अन्तमें इस दिशा में प्रयत्न किया ।
देकर
इस
४२३
श्रीजिनेश्वरसूरिके वाक्योंसे विक्रमकी ग्यारहवीं शताब्दिके लगभगके और उसके आगेकी शताब्दियोंके जैनविद्वानोंके उन भावोंका आभास मिलता है जिनके वशवर्ती होकर उन्होंने सैकड़ों अनुकरणमूलक ग्रन्थों की रचना की है। व्याकरण, छन्द, काव्य, कोश, अलंकार आदि विषय ऐसे हैं कि इनसे किसी धर्मका कोई विशेष सम्बन्ध नहीं है; परन्तु वह समय ऐसा था, जैनों और जैनतरोंका पारस्परिक सम्बन्ध इतना विच्छिन्न हो रहा था, और असहिष्णुता इतनी बढ़ रही थी कि जैनोंको इन विषयोंके भी स्वतन्त्र ग्रन्थ रचनेकी प्रतीत हुई । उन्हें यह असह्य हो गया हमारे धर्म के अनुयायी दूसरोंके बनाये हुए थ पढ़ें। अपने यहाँ भी सब विषयोंके ग्रन्थ बनने चाहिए, यह भावना उनमें बराबर बढ़ती गई और इसने उन्हें जैनतरोंसे सर्वथा पृथ दिया । हमारी समझमें जैनविद्वानोंका यह पृथक् पृथक् विषयों पर ग्रन्थ लिखने का प्रयत्न उक्त भावनाके वशवत होकर नहीं, किन्तु समूचे भारतीय साहित्यको उन्नत बनानेकी दृष्टिसे होता तो बहुत अच्छा होता, उसकी कमनीयता और महनीयता कुछ और ही होती और वह केवल जैनोंके लिए ही नहीं, किन्तु जैनतरोंके लिए भी अभिमानकी वस्तु होती ।
- सम्पादक ।
प्रमालक्षण ।
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४२४ जैनहितैषी
[भाग १३ जैनजातियों के पारस्परिक बेटी- उन धनिक जातियोंके लोग जिनमें कन्यायें कम व्यवहारमें
हैं छोटी जातियों पर टूट पड़ेंगे और उनकी सारी
कन्याओंको हथया लेंगे। इसका फल यह होगा हानिकी कल्पना।
कि छोटी जातियोंके लड़के कुंआरे रह जायेंगे
और निधन होनेके कारण अन्य जाति के लोग कुछ समय पहले सूरतके 'दिगम्बर जैन' उन्हें कन्या देंगे नहीं । परन्तु वास्तवमें यह शंका
में श्रीयुत पण्डित पन्नालालजी वाकली. निरर्थक है। कारण एक तो ऐसी जाति शायद वालने एक छोटासा लेख प्रकाशित कराया था ही कोई हो जिसमें निर्धन ही निर्धन हो, धनी
और उसमें यह प्रतिपादन किया था कि, जब कोई न हो । सभी जातियों में धनी और निधन एक जाति दूसरीसे सम्बन्ध करने लगेगी तब पाये जाते हैं और जिन जातियों में एनी अधिक निर्धन जातिकी पुत्रियों को दूसरी जातिके धनिक हैं, उनमें निर्धन भी बहुत हैं जो दूसरी जातिके ब्याह ले जायेंगे, वृद्धविवाहकी वृद्धि होगी निर्धनोंको अपनी लड़कियाँ खुशीसे देनेको
और कंगालों के लड़के आधिक अविवाहित रहेंगे। तैयार हो जायेंगे। तासरे धनी प्रायः धनियोंके ही यह लेख पारस्परिक बेटी-व्यवहारके विरोधि- साथ सम्बन्ध करते हैं; गरीबोंके साथ तो उस यों को इतना पसन्द आया कि उन्होंने उसे कई समय करते हैं अब उनकी उम्र बहुत अधिक पत्रोंमें उद्धृत करके प्रकाशित किया। इच्छा हो जाती है। सो ऐसे लोगोंको तो रुपयोंके हुई कि उक्त लेखके विरुद्धमें हम भी कुछ लिखें, जोरसे कहीं न कहीं लड़कियाँ मिल ही जायगी; परन्तु उसके कुछ ही समय पहले जैनहितैषी चाहे वे जातिमें मिलें या दूसरी जातियोंमें । भाग ११ पृष्ठ ६२८ में हमारा एक 'जैन यदि वे दूसरी जातिकी कन्यायें ले आयेंगे तो जातियों में पारस्परिक विवाह' शीर्षक विस्तृत उनकी जातिकी कन्यायें औरोंके लिए बची लेख प्रकाशित हो चुका था और उसमें उक्त रहेंगी। बात यह है कि इस प्रश्नका विचार लेखकी प्रायः सभी बातोंका उत्तर दिया जा समग्र जैन समाजके हानिलाम पर दृष्टि रखकर चुका था, इस लिए हमने उस समय इस विष- करना चाहिए । तगाम जैन जातियोंमें जितनी यो मौन रहना ही उचित समझा; पर देखते हैं कन्यायें हैं, यदि उन सबका यथोचित सम्बन्ध कि वह लेख हाईकोर्टकी 'नजीर' बन रहा है। हो जाय, किसीको कुँआरी न रहना पड़े और जैनगजटके सम्पादकने ता. १७ सितम्बरके विवाहका क्षेत्र बढ़ जानेसे यह निस्सन्देह है कि गजटमें उसे फिर पेश किया है, इस लिए आव- लड़कियाँ कुँआरी न रहेंगी तो समझना होगा श्यक हुआ कि उसकी भ्रामकता प्रकट कर दी कि पारस्परिक विवाहसम्बन्ध लाभकारी है । यदि जाय । पहले हम अपने पूर्वोल्लिखित लेखका ही इससे किसी एक जातिको कुछ हानि भी हो वह अंश उध्दृत कर देते हैं, जिसमें इस विष- और आरंभमें ऐसा होना कई अंशों में संभव भी यकी चर्चा की गई है:
है, तो सारे जैनसमाजके लाभके खयालसे “ यह शंका की जाती है कि पारस्परिक उसको दर गुजर करना होगा। विवाहसम्बन्ध जारी होनेसे पहले पहल उन कुछ लोगोंका यह खयाल है कि सब जातिजातियोंको बहुत हानि उठानी पड़ेगी, जिनकी योंमें बेटीव्यवहार होने लगनेसे कन्याविक्रय संख्या थोड़ी है और जो निर्धन हैं। क्योंकि बढ़ जायगा । ऐसे लोग अपने विचारोंकी पुष्टिमें
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अङ्क ९-१०] हानिकी कल्पना।
४२५ यह युक्ति देते हैं कि, जो लोग अपनी लड़- संख्यामें इतनी कमी हुई है । यह देखा जाय कि कियोंको बेचते हैं उनके लिए विक्रीका क्षेत्र जिस समयकी बात कही गई है उस समय बढ़ जायगा और इस कारण वे जिस जातिमें मुरादाबाद जिलेमें ब्याहे, कुंआरे और रँड्डुए पुरुषोंकी अधिक धन देनेवाले मिलेंगे उसी जातिमें अपना तथा ब्याही, कुंआरी और विधवा स्त्रियोंकी संख्या काम बनानेकी कोशिश करेंगे, परन्तु यह युक्ति कितनी थी और उसके बाद पाँच दश वर्षमें उस इस प्रश्नके एक ही ओर दृष्टि डालकर की जाती संख्यामें कितना अन्तर पड़ गया। इसका हिसाब है; यह नहीं सोचा जाता कि जब बेचनेवालेके भी प्रकट किया जाय कि यह नया सम्बन्ध जारी लिए विक्रीका क्षेत्र बढ़ जाता है तब खरीददारोंके होनेपर मुरादाबादकी कितनी लड़मियाँ बाहर गई लिए भी तो खरीद करनेका क्षेत्र छोटा नहीं रहता और बाहरसे कितनी वहाँ आई । इस तरह पूरी है। जो रुपये देकर ब्याह करना चाहेंगे उनके जाँच किये बिना ऐसी बातों पर विश्वास नहीं किया लिए फिर लड़कियाँ भी तो बहुत मिलने लगेंगी; जा सकता । यह बहुत संभव है कि कुँआरोंकी वे बेचनेवालोंके बढ़ते हुए लोममें सहायक संख्या और ही किन्हीं कारणोंसे बढ़ गई हो क्यों होंगे ?"
और समझ यह लिया गया हो कि इस नये सम्ब__ श्रीयुत पं० पन्नालालजीने अपने लेखमें मुरादा- न्धसे ऐसा हुआ है । एक तो ऐसा हो नहीं सकता बाद जिलेके खण्डेलवालोंका एक दृष्टान्त दिया है कि मुरादाबादकी लड़कितमाहरवालोंने ले जिसका सार यह है कि “उक्त जिलेके खण्डेवा- तो ली हों, पर दीं बिलकुल ही न हों। क्योंकि लोके साथ देहली, अलीगढ़ आदिके खण्डेलवा- मुरादाबाद जिलेमें भी तो रईसों और धनियोंका लोंका बेटीव्यवहार नहीं होता था। क्योंकि अभाव नहीं है । उन्होंने जब बाहरके रईसोंको मुरादाबादवाले दो या तीन गोत टालकर ही अपने लड़कियाँ दी होंगी तब ली भी तो होंगी, सम्बन्ध कर लेते थे, पर देहली अलीगढ़वालोंमें इसी प्रकार मुरादाबाद जिलेमें जिस प्रकार निर्धन चार गोत्र टालकर विवाह होते थे। कुछ लोगोंके लोग हैं, उसी प्रकार अलीगढ़ आदिमें भी उनका प्रयत्नसे मुरादाबादवालोंने अपने यहाँ चार गोतों- अभाव नहीं है । अलीगढ़ आदिवाले धनियोंने का टालना स्वीकार कर लिया और तब उनका कुछ यह प्रतिज्ञा तो की ही न होगी कि हम देहली आदि लोगोंसे विवाहसम्बन्ध होने मुरादाबाद के ही गरीबोंकी लड़कियाँ लायेंगे, अपने लगा । इसका फल यह हुआ कि, मुरादाबादके आसपासके गरीबोंकी नहीं लेंगे, जिससे कि यह रईसोंकी जितनी लड़कियाँ थीं वे तो देहली समझ लिया जाय कि मुरादाबादके गरीबोंकी अलीगढ़ आदिके रईसोंके यहाँ पहुंच गई और सारी लड़कियाँ अलीगढ़ आदिमें चली गई । और इधरके निर्धनोंके लड़के कोरे रह गये । उनके थोड़ी देरके लिए यदि यह भी मान लिया जाय पास इतना धन नहीं कि वे अलीगढ़ आदिसे कि मुरादाबाद जिलेमें कुँआरोंकी संख्या बढ़ गई, लड़कियाँ ला सकें। बस, यही एक मात्र कारण है तो इसके साथ यह भी मानना पड़ेगा कि, अलीकि मुरादाबाद मिलेके लड़के कुंआरे रह जाते गढ़ आदिके खण्डेलवालोंमें कुँआरोंकी संख्या हैं।" हमारी समझमें यह दृष्टान्त तब तक प्रमाण- कम हो गई होगी। क्योंकि यह तो निश्चय है के रूपमें ग्रहण नहीं किया जा सकता, जबतक कि खण्डेलवाल जातिमें अधिक उम्रतक या वहाँके खंडेलवालोंकी संख्याके अंक उपस्थित जीवनभर कुमारी रहनेवाली लड़कियाँ नहीं हैं। करके यह न समझा दिया जाय कि कुँआरोंकी अर्थात् लड़कियाँ तो मुरादाबाद और अलीगढ़
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४२६
जैनहितैषी
[भाग १३
आदिकी ब्याही ही गई होगी, और कुँआरोंकी हरण भी लगभग खंडेलवालोंके पूर्वोक्त दृष्टान्तके संख्या भी उतनी ही होगी जितनी कि लड़कि- ही समान है । सम्पादक महाशयको शायद यह योंकी कर्माके हिसाबसे रहनी चाहिए; अन्तर ध्यान ही नहीं रहा है, कि पद्मावती पुरवारोंके सिर्फ यह पड़ा होगा कि, अलीगढ़ आदिकी ओर सिवाय और और जातियोंके लोग भी निर्धन जो अधिक कुँआरे रहते थे, सो उनके बदले यहाँ और ग्रामोंमें रहनेवाले हैं, इस लिए वे पद्मावती मुरादाबाद जिलेमें अधिक हो गये होंगे। अभिप्राय पुरवारोंके साथ सम्बन्ध कर सकते हैं । नगरयह कि समग्र खण्डेलवाल जातिके लाभकी दृष्टिसे निवासियों और धनियोंके यहाँ इतने अधिक मुरादाबाद और अलीगढ़-दिल्लीवालोंका बेटी- लड़के नहीं होते हैं कि वे सारे ग्रामवासियोंकी व्यवहार बुरा नहीं कहा जा सकता। लड़कियोंको चट कर जायँगे और ग्रामवासी
यदि इस प्रकारका सम्बन्ध बुरा समझा लड़कोंके लिए लड़कियाँ बचेंगी ही नहीं । जायगा, तब तो फिर जातियोंकी जो वर्तमान इसके सिवाय नगरनिवासियोंके यहाँ लड़कियाँ संख्या है उसमें और भी वृद्धि करनेकी आव- भी तो होती हैं। उनके लिए भी तो लड़के श्यकता होगी । ब्याहका क्षेत्र इससे भी अधिक चाहिएँ । यदि यह कहा जाय कि वे अपनी संकीर्ण कर देना लाभदायक सिद्ध होगा । फिर लड़कियाँ धनियोंको देंगे, तो फिर जितने धनितो मारवाड़के जो लोग अन्य प्रान्तोंमें बस गये योंके यहाँ धनियोंकी लड़कियाँ जायँगी, उतनी हैं और धनी होगये है उनके साथ मारवाडमें गरीबोंकी लड़कियाँ भी तो धनियों के यहाँ जानेसे रहनेवालोंको अपना भी ब्याह-सम्बन्ब बन्द कर बची रहेंगी। इसके सिवाय पद्मावती पुरवारोंके ही देना चाहिए। क्योंकि वे लोग मारवाड़में आ- पड़ोसमें रहनेवाली एक अग्रवाल जाति है । सुनते हैं कर लड़कियाँ ले तो जाते हैं, पर देते अपने इस जातिमें कन्याओंको वर नहीं मिलते। बीसों लड़आसपास रहनेवाले धनियोंको है । और इस कियाँ जीवनभर कुमारी रहती हैं। यदि पारस्परिक युक्ति के अनुयायी बनने के लिए तो इतना ही क्यों, सम्बन्ध जारी हो जायगा, तो ये लड़कियाँ प्रत्येक नगर और ग्रामवालोंको भी यह नियम पद्मावती पुरवारोंको ब्याही जायँगी । इसके बना लेना चाहिए कि वे दूसरे नगर और ग्राम- सिवाय यदि यह डर अनिवार्य ही हो, कि वालोंको अपनी लड़कियाँ न दें !
गरीब ग्रामवासियोंकी सारी लड़कियाँ छिन दिगम्बर जैनमें गुरुजीके उक्त लेख पर एक जायँगी और वे कुँआर रह जायेंगे तो इसके सम्पादकीय नोट भी था । उसमें कहा गया था लिए और उपाय भी तो किये जा सकते हैं । कि निर्धन और ग्रामनिवासिनी जैन जातियोंके अहमदाबादके श्वेताम्बर जैनोंकी एक धनिक लिए यह पारस्परिक बेटीव्यवहार विषतुल्य जाति काठियावाड़के ग्रामोंसे लड़कियाँ ले तो सिद्ध होगा और इसके लिए पद्मावती पुरवार आती थी; परन्तु देती नहीं थी। इस पर एक जातिका दृष्टान्त दिया था। लिखा था कि इस सज्जनने काठियाबाड़ियोंको चेताया और तब जातिके अधिकांश लोग ग्रामोंमें रहते हैं और उन्होंने यह नियम कर दिया कि अहमदाबादनिर्धन हैं । उनसे शहरवाले दूसरी जातिके लोग वालोंको उतनी ही लड़कियाँ दी जायँ, जितनी कि लड़कियाँ ले तो जायँगे; पर देंगे नहीं । क्यों कि उनकी अपने गाँवों में ब्याह कर लाई जाय। पद्मावती कोई भी नगरनिवासी अपनी लड़कीको ग्राममें पुरवार भी चाहें तो इसी प्रकारका एक नियम और निर्घनके यहाँ नहीं देना चाहता । यह उदा- बना सकते हैं, जिससे वे इस डरसे बचे रहें ।
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पुरुष
अङ्क ९-१०]
हानिकी कल्पना। तमाम जैन जातियोंमें बेटीव्यवहार होने होगी, कन्याविक्रय कम होगा, और इसी तरहके लगेगा, तो यह स्थिर और निश्चित है कि कुंआरे और भी बहुतसे लाभ होंगे, जिनका विचार हम पुरुषोंकी संख्या घटेगी । विवाहका क्षेत्र बढ़ जैनहितैषी भाग ११ पृष्ठ ६२८ के लेखमें विस्ताजानेसे वर्तमानमें जितने पुरुषोंका विवाह हो रके साथ कर चुके है। सकता है, उतनेसे अधिक पुरुष ब्याहे जा छोटी छोटी जातियोंके बचानेके लिए-जिनकी सकेंगे । इस बातको अच्छी तरह समझनेके जनसंख्या बहुत ही थोड़ी रह गई है-इससे लिए कल्पना कीजिए कि तमाम जैन जातिके अच्छा और कोई भी उपाय नजर नहीं आता । विवाहयोग्य स्त्रीपुरुषोंकी संख्या दश हजार गत आसौज सुदी १० के जैनमित्रमें 'बुढेले' है और वह नीचे लिखी पाँच जातियोंमें नामक जैन जातिकी जनसंख्याका एक कोष्टक विभक्त है:--
प्रकाशित किया गया है । उससे मालूम होता
कन्या है कि इस जातिमें पुरुषोंकी संख्या ४५४ और खण्डेलवाल
१४०० ११०० स्त्रियोंकी ३७२ है। इनमेंसे १७७ पुरुष और परवार
१०६० ९४० १७८ स्त्रियाँ विवाहित हैं । विधवाओंकी संख्या अग्रवाल १४५० १५५०
___ ९४ है। ४५ बर्षकी उमरसे कमके ७३ पुरुष. पद्मावती पुरवार
७०० और १३१ बालक इस तरह कुल २०४ पुरुष ४०. . - विवाहयोग्य हैं, परन्तु कन्याओंकी संख्या कुल
---- १०० ही है । अर्थात् इस जातिके १०४ पुरुषोंके ५३१०
भाग्यमें जीवन भर विना स्त्रीके रहना लिखा है। अब यदि इन सब जातियोंमें अपनी अपनी पाठक सोचें कि ऐसी दशामें यह जाति कितने जातिके ही भीतर विवाह होगा तो खंडेलवालोंमें समयतक अपना अस्तित्व बनाये रह सकती है। ३००, परवारोंमें १२०, पद्मावतीपुरवारों में यदि इसे अन्य जातिवालोंके साथ ब्याह करनेकी १०० और हूमड़ोंमें २०० पुरुष नियमसे आज्ञा मिल जायगी, तो इनमेंसे बहुतसे पुरुष अविवाहित रहेंगे । अर्थात् चाहे जो उपाय किया ब्याहे जा सकेंगे क्योंकि अन्य बड़ी बड़ी जातिजाय, इतने लोग कुँआरे रहेंगे ही। क्योंकि योंमें कन्याओंकी संख्या इतनी कम नहीं है। प्रत्येक जातिमें लड़कियोंकी संख्या कम है। इसमें तो आधेसे भी अधिक कम है। ..
और अग्रवालोंमें पुरुषोंकी संख्या कम है, इसलिए यह संभव है कि दो चार जातियोंकी उनमें १०० लड़कियाँ कुंआरी रहेंगी । इस परिस्थिति ऐसी हो कि उन्हें इस पारस्परिक तरह सब जातियोंमें ७२० पुरुष और १०० व्यवहारसे कुछ हानि होनेकी संभावना हो, पर लड़कियाँ कुँआरी रहेंगी, परन्तु यदि सब वह हानि ऐसी नहीं हो सकती कि उसका कोई जातियोंका परस्पर विवाह होने लगेगा तो प्रतीकार ही न हो और उसके कारण सारे जै५३१०--४६९०=६२० पुरुष ही कुंआरे रहेंगे नसमाजकी भलाई के इस व्यवहारको रोक रक्खा और लड़की एक भी न रहेंगी, अर्थात् पार- जाय । किसीएक जातिकी रक्षाके लिए, जैसा स्परिक विवाहसे २०० पुरुष और १०० लड़कियाँ कि ऊपर पद्मावतींपुरवारोंके सम्बन्धमें कहा अधिक ब्याही जा सकेंगी। इसके सिवाय अन- गया है, खास नियम भी बनाये जा सकते हैं मेलविवाह कम होंगे, पारस्परिक प्रीतिकी वृद्धि और उससे वह हानिसे बचा ली जा सकती है।
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४२८
जैनहितैषी
[ भाग १३ ।
सारे जैनसमाजमें एकाध जाति ऐसी भी निकल अंक११में 'खण्डगिरि और कलिंगाधिपति खारवेल' सकती है जिसमें विवाहयोग्य पुरुषों और नामका एक लेख प्रकाशित किया था । हितैषीके कन्याओंकी संख्या बराबर हो और सबके साथ नियमित पाठकोंको उसका स्मरण होगा। उस लेखसम्बन्ध करनेसे उसे यह हानि हो कि उसकी का मूल इन्हीं लेखोंमें है । इन लेखोंने-विशेषकन्यायें दूसरी जातियोंमें अधिक चली जायँ करके हाथी गुफावाले लेखने-जैनधर्मके इतिहासऔर उसके यहाँके कुछ पुरुष कुंआरे रह जायें। पर एक अपूर्व प्रकाश डाला है । ईसवी सनसे अवश्य ही यह उस एक जातिके लिए हानिका कोई २०० वर्ष पहले कलिंगदेशमें महामेघकार्य है. परन्त जैसा कि पहले भी कहा जा वाहन खारवेल नामका एक बहुत ही प्रतापी चुका है हमें इस विषयमें समग्र जैनसमाजके राजा होगया है। भिक्षुराज भी इसका नाम था। लाभपर अधिक दृष्टि रखनी चाहिए । समाजके इसे राजा नहीं, महाराजा अथवा सम्राट् कहना कार्यमें व्यक्तियों को अपने स्वार्थोंका बलि देना चाहिए। क्योंकि इसने प्रबलप्रतापादित ही पड़ता है। उन्हें यह सोचकर सन्तोष करना मगध देश पर चढ़ाईकी थी और उसे जीत लिया पड़ता है कि समाजका जो लाभ है, उसमें था । लेखमें खारवेलका जन्मसे लेकर ३८ हमारा भी हिस्सा है।
वर्षकी अवस्थातकका जीवन वृत्तान्त दिया जो सज्जन इस विषयके विरोधी हैं, उन्हें है । यद्यपि लेखके अनेक अंश खंडित हो अपने और और विरोधोंको भी उपस्थित करना गये हैं; फिर भी वह बतलाता है कि उस चाहिए जिससे उन पर विचार किया जा सके समय उड़ीसाका प्रधान धर्म जैन था । खारवेल और यह विषय अच्छी तरहसे निर्णीत हो जाय! जैनधर्मका परम श्रद्धालु और प्रचारक था।
उसने सिंहासन पर बैठनेके दूसरे वर्षमें विदर्भ पुस्तक-परिचय ।
( बरार) और महाराष्ट्रमें जैनधर्मके प्रचारका प्रयत्न किया, १२ वें वर्षमें मगध पर चढ़ाई की
और उसमें विजय प्राप्त करके वह आदिनाथ १ प्राचीनजैनलेखसंग्रह ( प्रथम भाग)। भगवान्की उस प्रतिमाको वापस लेकर लौटा सम्पादक, श्रीयुत मुनि जिनविजयजी और जिसे कि नन्द राजा कलिंगसे ले गया था । प्रकाशक, आत्मानन्द जैनसभा, भावनगर । इस प्रतिमाको खारवेलने एक बड़ा भारी मन्दिर डिमाई आठ पेजी साइज । पृष्ठसंख्या १००। बनवाकर उसमें स्थापित कराई । राज्यके तेरहवें मूल्य आठ आना । उड़ीसा प्रान्तमें कटकके वर्षमें उसने कुमारी (खण्डगिरि ) पर्वत पर समीप भुवनेश्वर नामका एक प्रसिद्ध स्थान है। देश देशके महाविद्वानों और जैनसाधुओंको वहाँसे कोई ४-५ मीलके अन्तर पर खण्डगिरि बुलाकर एक बड़ी भारी सभा की। उसकी पट्ट
और उदयगिरि नामकी दो पहाड़ियाँ हैं। इन राणीने जैनसाधुओंके रहनेके लिए गुफायें दोनों पहाड़ियोंके शिखरों पर कई छोटी बड़ी बनवाई । ये सब लेख प्राकृत भाषामं है और गुफायें हैं। इन गुफाओंमेंसे हाथी गुहाका प्रसिद्ध इनकी लिपि अशोकके समयकी लिपिसे मिलती शिलालेख और दूसरे तीन छोटे छोटे लेख अनेक जुलती हुई है। सबसे पहले एक साहबको सन् टीकाओं और टिप्पणियों सहित इस पुस्तकमें १८३० में इन लेखोंका पता लगा था। प्रकाशित किये गये हैं। हमने जैनहितैषी भाग ९ तबसे अबतक इनके विषय में विद्वानोंमें जो
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अङ्क ९-१० ] पुस्तक-परिचय ।
४२९ कुछ चर्चा हुई है और इनके मुश्किलसे पढ़े अच्छी उपयोगी पुस्तक लिखनेके लिए हम जाने आदिके सम्बन्धमें जितनी घटनायें हुई हार्दिक धन्यवाद देते हैं। हैं उन सबका इतिहास भी इस पुस्तकमें दिया २ हर्षचरित भाषा। लेखक, पं० प्यारेलाल गया है । कोई ५० वर्ष तक तो यह लेख शर्मा दीक्षित, प्रकाशक, मनोरमा कार्यालय, अच्छी तरहसे पढ़ा ही नहीं गया था और इसके मंडी धनौरा (यू.पी.)। आकार डबल क्राउन सोलह सिवाय कि यह बौद्धोंका है, किसीने इसके पेजी । पृष्ठ संख्या ८० । मूल्य आठ आने ।
जैन होनेके विषयमें तो कल्पना भी नहीं की थी। संस्कृत कादम्बरीके कर्ता 'बाणभट्ट' संस्कृतके सबसे पहले गुजरातके सुप्रसिद्ध इतिहासज्ञ पं० सुप्रसिद्ध कवि हो गये हैं । गद्यकाव्यकी रचनामें भगवानलाल इन्द्रजीने इन लेखोंको अच्छी तो वे बेजोड़ समझे जाते हैं । उन्होंने अपने तरह पढ़ा और इनके एक एक शब्द पर टीका आश्रयदाता राजा हर्षवर्द्धनके नामको अमर बना टिप्पणी करके इनके सम्पूर्ण आभिप्रायको प्रका- देनेके लिए 'हर्षचरित' नामका भी एक काव्य शित किया। पुस्तकमें पं० भगवानलालजीके लिखा था। संस्कृतमें जो थोड़ेसे ऐतिहासिक लेखका पूरा अनुवाद दिया गया है। साथ ही श्रीयुत काव्य हैं, हर्षचरित भी उनमें से एक है। इसमें पं० केशवलाल ध्रुव महाशयका लेख भी अन्तमें कविने अपने वंशका, अपना, महाराज हर्षवर्द्धनके जोड़ दिया गया है, जिसमें खारवेलके इतिहास- वंशका और उनके यशका विस्तारसे परिचय पर कुछ और भी नया प्रकाश डाला गया है। दिया है । 'हर्ष' भारतवर्षका सुप्रसिद्ध सम्राट कलिंगदेशके इतिहासादिके सम्बन्धमें और भी हो गया है । उसके समान प्रबलप्रतापी और जो जो जानने योग्य बातें मिल सकी हैं, आदर्श राजा बहुत ही कम हुए हैं । चीनको सम्पादक महाशयने उन सबका इस पुस्तकमें प्रसिद्ध यात्री हुएनसंग इसीके समयमै यहाँ यथास्थान संग्रह कर दिया है। गरज यह कि आया था। उसने अपने यात्राविवरणमें जिन उक्त लेखोंके मर्मको समझनेके लिए जो कुछ बातोंका जिक्र किया है, उनमें से अनेक बातें साधनसामग्री चाहिए वह सब इस सुसम्पादित हर्षचरितसे मिलती हैं । इस पुस्तकमें उसी पुस्तकमें संग्रह कर दी गई है । पुस्तककी संस्कृत 'हर्षचरित' का सारांश लिखा गया है । भाषा गुजराती है । अच्छा होता, यदि यह मूलमें जो लम्बे लम्बे समास और विशेषण हैं, उन्हें हिन्दीमें भी प्रकाशित हो जाती । जैन विद्वा- छोड़कर केवल कथाभागका ही यह अनुवाद नोको इसकी एक एक प्रति अवश्य मँगा लेना है। अच्छा होता, यदि इसमें मूलका कुछ रसचाहिए । यह श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों भाग भी लाया जाता । ऐसा करनेसे लोग इसे सम्प्रदायके अनुयायियोंके कामकी चीज है। उत्कण्ठाके साथ पढ़ते । भूमिकामें महाराजा हर्ष क्यों कि ये लेख उस समयके हैं, जब शायद और बाणका कुछ ऐतिहासिक परिचय अवश्य दिगम्बर और श्वेताम्बर ये दो भेद ही जैन- ही दिया जाना चाहिए था। इसके बिना साधाधर्ममें नहीं हुए थे । इससे इस बातका पता रण पाठक नहीं समझ सकेंगे कि यह ग्रन्थ लगाने के भी साधन मिलेंगे कि आजसे २१०० कितने महत्त्वका है। वर्ष पहले जैनधर्मका स्वरूप वर्तमान दिगम्बर ३वेदान्तकाविजयमंत्र-लेखक और प्रकासम्प्रदायसे अधिक समानता रखता था या शक, स्वामी सत्यदेव परिव्राजक, जानसेनगंज, श्वेताम्बर सम्प्रदायसे । मुनि महोदयको ऐसी प्रयाग । पृष्ठसंख्या २८ । मूल्य- डेड आना
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जैनहितैषी
[माग १३
इसके प्रारंभके १६ पृष्ठोंमें स्वामीजीका एक ५ स्वराज्यकी पात्रता और इंग्लैण्डके व्याख्यान है, जिसमें वेदान्तके-आत्मा अजर स्वराज्यका इतिहास । अनुवादक, पं० रामेअमर है, सदा सत्यपथ पर आरूढ रहना और श्वर पाठक और प्रकाशक, ' ग्रन्थप्रकाशक एक आत्माका अन्यान्य आत्माओंके साथ घनिष्ठ समिति' काशी। डबल काउन सोलहपेजी साइज। सम्बन्ध है,-इन तीन• सिद्धान्तों पर विचार पृष्ठसंख्या ५४ । मूल्य पाँच आने । पुस्तकमें किया है और बतलाया है कि, ये सिद्धान्त ही दो लेख हैं । पहला ४४ पृष्ठका है। कलकत्तेके भारतवासियोंकी विजयके मंत्र हैं । इनके अनु- सुप्रसिद्ध अँगरेजी पत्र ‘माडर्न रिव्यू के सम्पासार चलनेसे वे जीवनयात्रामें कभी नहीं हार दक श्रीयुक्त रामानन्द चट्टोपाध्यायने एक सकते। आत्मवादी पौर्वात्य और प्रकृतिवादी Towards Home Rule नामकी पुस्तक लिखी पाश्चात्य लोगोंका इस शताब्दिमें एक बड़ा है। यह उसीके पहले लेखका अनवाद है। भीषण संग्राम होनेवाला है । उसमें हमारी जीत इसमें यह अच्छी तरहसे सिद्ध कर दिया गया अवश्य होगी, यदि हम वेदान्तके असली है कि भारतमें स्वराज्यको प्राप्त करनेकी यथेष्ट सिद्धान्तोंके पथ पर चलने लगे । स्वार्थी लोगोंने पात्रता है। हमारे हितशत्रुओंकी औरसे जो वेदान्त के असली सिद्धान्तोंको बिगाड़ डाला है। थोथी और अविचारितरम्य दलीलें यह सिद्ध आदि । व्याख्यानके आगेके पृष्ठोंमें आत्मवशी करनेके लिए दी जाती हैं कि भारतवासी या संयमी योद्धाके लक्षण भगवद्गीताके कुछ स्वराज्य पानेके योग्य नहीं हैं, उनके युक्तियुक्त श्लोक उद्धृत करके और उनका स्पष्टीकरण और मुँहतोड़ उत्तर देनेमें खकन कोई बात करके बतलाये हैं। पुस्तक अच्छी है। यदि उठा नहीं रखी । जो लोग स्वराज्यसम्बन्धी वेदान्त के बिगड़े हुए रूपका और असली रुएका आन्दोलन के विद्धमें हैं, अथवा जो यह समझते अन्तर भी शास्त्रीय पद्धति बतला दिया गया है कि भारत इसके योग्य नहीं है, उन्हें इस होता, तो यह और भी कारकी चीज होती लेखको अवश्य पढ़ जाना चाहिए । मूल पुस्तक
और इसका प्रभाव भी कुछ अधिक गहरा अन्यान्य लेख भी शीघ्र प्रकाशित होने चाहिएँ। पड़ता।
अनुवाद मजेका हुआ है। भाव समझने में कोई ४ मनुष्यजीवनके कार्तव्य । लेखक और दिक्कत नहीं पड़ती। दूसरा १० पजा लेख प्रकाशक, बाबू सूरजमलजी जैन, मल्हार गंज, केसरीके सम्पादकः श्रीयुत नरसिंह चिन्तामणि इन्दौर । पृष्ठसंख्या ६४ । मूल्य पाँच आने । केलकरके लिखे हुए मराठी निमयका अनुवाद इसमें सच्चरित्रता, आचरण और आदतोंका है। यह अनुवाद अच्छा नहीं हुा । भाषामे सम्बन्ध, मितव्ययिता, स्वच्छता, परोपकार, मराठीपन मौजूद है। कहीं कहीं मूल लेकका उदारता, कठिनाई और विद्याभ्यास आदि १६ अभिप्राय मुश्किल से समझमें आता है । पुस्तकके विषयों पर छोटे छोटे पाट हैं और वे लेखकने टाइटिलपेज पर तो पाठकजी अनुवादकर्ता प्रकट अपने विचारोंके अनुसार स्वतन्त्र लिखे हैं। किये गये हैं, परन्तु पहले लसके ऊपः अमराजैसा कि 'बक्तव्य' में स्वीकार किया गया है, वतीके वकील श्रीयुत जयराम के.सव असनारेका पुस्तकमें शृंखलाबद्ध विचार नहीं हैं, फिर भी नाम है । मालूम नहीं, इसका कारण क्या है। वे उपयोगी और शिक्षाप्रद हैं । विद्यार्थियों और ६ राष्ट्रीय शिक्षा । प्रकाशक, 'अन्यप्रकायुवकोंको इनसे बहुत लाभ हो सकता है। शक समिति' काशी। श्रीमती बीसेण्टके साथी
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अङ्क ९-१०]
पुस्तक-परिचय।
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मि० जार्ज एस. आरंडेलने मद्रासके वैश्य छात्र- हासकी दृष्टिसे उनका बहुत कुछ मूल्य है । सम्मेलनके समक्ष एक शिक्षासम्बन्धी व्याख्यान इसी प्रकारके छह रासाओंका संग्रह पहले दिया था। यह उसीका हिन्दी अनुवाद है। भागमें और तीनका दूसरे भागमें है । प्रारंभमें इसके अनुवादकर्ता हैं, श्रीयुत नारायण राजाराम प्रत्येक रासेका संक्षिप्त सार, तत्सम्बन्धी ऐतिहासोमण । पृष्ठसंख्या ४४ । मूल्य चार आने । सिक टिप्पण और ग्रन्थकर्ताका परिचय भी व्याख्याता महाशय विदेशी हैं; परन्तु भारत लगा दिया गया है । इसके लिए सम्पादक महावर्ष पर उनका प्रेम है और यहाँकी प्राचीन शयने यथेष्ट परिश्रम किया है। इन सब रासासभ्यता पर उनकी भक्ति है, इस कारण उन्होंने ओंमेंसे चार विक्रमकी १६ वीं शताब्दिके, तीन जो कुछ कहा है एक सच्चे भारतवासीके समान १७ वींके और दो१८ वीं शताब्दिके बने हुए हैं। कहा है । यहाँकी प्राचीन शिक्षापद्धति बहुत काव्यकी दृष्टिसे इनकी रचना बहुत ही साधारण अच्छी थी, वह धर्ममूलक थी, धर्म उसका प्राण श्रेणीकी है । इस प्रकारके और भी कई रासे था; उससे शारीरिक, मानसिक और आध्या- इस पुस्तकमालाके आगे निकलनेवाले भागोंमें त्मिक शक्तियोंका विकास होता , था, वर्तमान प्रकाशित किये जायेंगे । सूरि महोदयका यह शिक्षाप्रणालीमें धर्मको। कोई स्थान नहीं है, प्रयत्न प्रशंसनीय है। इस समय छात्रोंकी शारीरिक उन्नति पर ध्यान ८ जेनरल जार्ज वाशिंगटनका जीवन. नहीं दिया जाता, छात्र देशहितसम्बन्धी चरित्र । लेखक, श्रीयुत पं० रामप्रसाद त्रिपाठी कामोंसे दूर रक्खे जाते हैं, उनके लिए देशभक्ति एम. ए. । प्रकाशक, बाबू मनोहरदास, शारदा अपराध है, सरकारकी शिक्षानीति अच्छी नहीं बुकडिपो, काशी। डबल क्राउन सोलह पेजी है, शिक्षाखातेके सारे सूत्र देशवासियोंके साइजके १८० पृष्ठ । कपड़ेकी जिल्दसहित हाथमें होने चाहिएँ, .. आदि अनेक बातों पर पुस्तकका मूल्य एक रुपया । अमेरिकाका संयुक्त इसमें विचार किया गया है और राष्ट्रीय शिक्षाके राज्य पहले इंग्लैण्डका उपनिवेश था । उसका प्रचारपर जोर दिया गया है । अनुवाद मजेका है। शासन इंग्लैण्डकी पार्लमेंण्टके द्वारा होता था।
७ ऐतिहासिक राससंग्रह-भाग १ लो अमेरिकामें जो फरासीसी बसते थे, उन्होंने एक अने २ जो। संशोधक और सम्पादक, शास्त्रविशा- बार वहाँके इंग्लैंडवासियोंके साथ जमीनके रद जैनाचार्य श्रीविजयधर्मसूरि ए. एम. ए. एस. सम्बन्धमें झगड़ा किया। झगड़ा बहुत बढ़ गया बी. । प्रकाशक, अभयचन्द भगवानदास गाँधी, और वह युद्धसे शान्त हुआ। इस फरासीसी प्रबन्धक, श्रीयशोविजयजैनग्रन्थमाला । इसके युद्ध में इंग्लैण्डका धन बहुत खर्च हुआ था, पहले भागमें डिमाई आठ पेजी आकारके १५० इसलिए पार्लमेण्टने इस युक्तिको उपस्थित करके
और दूसरे भागमें ११० पृष्ठ हैं । मूल्य प्रत्ये- उक्त खर्चको नये टेक्सोंके द्वारा अमेरिकावालोंसे कका आठ आना । गुजराती भाषामें जैनकवि- वसूल करनेका निश्चय किया कि इस युद्धसे • योंने सैकड़ों ‘रासा' ग्रन्थ बनाये हैं, इस अमेरिकावालोंका ही बहुत लाभ हुआ है । पर यह बातकी चर्चा हितैषीमें कई बारकी जा चुकी बात अमेरिकावालोंको असह्य हुई। उन्होंने टैक्स है। इन रासाओंमें बहुतसे रासा ऐसे हैं, जिनके देनेका विरोध करना शुरू किया । झगड़ा बहुत कथानायक स्वयं ग्रन्थकर्ताओंके समयमें या बढ़ गया। पार्लमेंटका पित्त ऊँचा हो गया । उनसे कुछ पहले हो गये हैं और इसलिए इति- उसने कठोर नीतिका अवलम्बन किया और
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उसका परिणाम स्वभावतः अमेरिकावालोंको अपने हठ पर दृढतासे आरूढ रहने में हुआ । अन्तमें युद्धक भेरी बज उठी, इंग्लैण्ड से सेनायें आने लगीं । लगातार कई वर्षोंतक यह युद्ध होता रहा और अमेरिकावालोंने अपना सर्वस्व लगाकर वह ' स्वाधीनता' प्राप्त की, जिसे वे आज ऊँचा मस्तक किये हुए भोग रहे हैं। इस युद्ध के प्रधान नेता जार्ज वाशिंगटन थे। उन्हीं के अश्रान्त परिश्रम, देशभक्ति, उत्साह, सच्चरित्रता आदि गुणों के कारण यह विजय प्राप्त हुई थी । इस ग्रन्थ में इसी महात्माका- अमेरिका की स्वाधीनताके पिताका - जीवनचरित्र लिखा गया हैं । प्रत्येक देशभक्तके पढ़ने की चीज है। चरित्र के साथ ही साथ अमेरिका के संक्षिप्त इतिहासका भी इससे परिचय प्राप्त हो जायगा । भाषा साधारणतः अच्छी है । प्रूफसंशोधन सावधानी से नहीं किया गया ।
जैनहितैषी -
नीचे लिखी हुई पुस्तकें धन्यवादपूर्वक स्वीकार की जाती हैं:
१ कृपण ( प्रहसन ) । ले० और प्र० --बाबूफूलचन्द जैन, शिकोदाबाद ( यू. पी. ) ।
२ चार सालकी सम्मिलित रिपोर्ट, बुंदेल - खण्ड जैन संस्कृत एंग्लो वर्नाक्यूलर स्कूल, बांदा | प्र० - नायक राजारामजी मंत्री ।
३. जैनों का धर्म, ४ पर्युषण पर्व में क्या करना, ५ इन्दौरका जैनसमाज और फूटका राज्य । प्रकाशक, जैनसमाज सेवक मण्डल, गौराकुंड, इन्दौर सिटी ।
७ चन्द्रकला नाटक | ले०, पं० मुन्नालाल शर्मा और प्रकाशक, लाला माँगीलालजी गुप्त, छावनी नीमच |
[ १ ]
खंडित दुर्गानाथ जब कालेज से निकले तो 'उन्हें जीवननिर्वाहकी चिंता उपस्थित हुई वे दयालु और धार्मिक पुरुष थे । इच्छा थी कि ऐसा काम करना चाहिए जिससे अपना जीवन भी साधारणत: सुखपूर्वक व्यतीत हो और दूसरोंके साथ भलाई और सदाचरणका भी अवसर मिले | ६ वार्षिक रिपोर्ट १२-१३ वें वर्षकी, श्री वे सोचने लगे-यदि किसी कार्यालय में कुर्क बन स्याद्वाद महाविद्यालय, काशी । जाऊँ तो अपना निर्वाह तो हो सकता है किन्तु सर्व साधारण से कुछ भी सम्बन्ध न रहेगा | वकालत में प्रविष्ट हो जाऊँ तो दोनों बातें सम्भव हैं, किन्तु अनेकानेक यत्न करने पर भी अपनेको पवित्र रखना कठिन होगा। पुलिस विभागमें दनिपालन और परोपकार के लिए बहुत से अव
८ बारहवाँ वार्षिक विवरण - तीर्थक्षेत्र कमेटी बम्बई | प्र०, लाला भागमल प्रभुदयालजी ।
[ भाग १३
९ दो वर्षों की रिपोर्ट, दि० जैन श्राविकाश्रम, मुरादाबाद । प्रका०, गंगादेवी ।
१० सप्तभंगीनय । ले०, लाला कन्नोमल एम. ए. । प्र०, आत्मानन्द जैन ट्रेक्ट सुसाइटी, अम्बाला शहर |
११ शिशु-लोरी । संग्रहकती और प्रकाशक, श्रीयुत बनवारीलाल गुप्त, कासगंज, एटा ।
१२ जैनभजनतरंगिणी । ले०, कविवर हीरालालजी महाराज | प्रकाशक, नौरतनमल, बोहरा, जैनपुस्तकप्रचारक मंडल, अजमेर।
१३ माधुर्यलता । लेखक, कुमुद । प्रकाशका धन्नालाल कठरया, माणिक ग्रन्थमाला कार्यालय, बीना इटावा, ( सागर ) सी. पी. |
१४ जैन सिद्धान्त विद्यालयकी सातवीं वार्षिक रिपोर्ट । प्र०, पं० वंशीधर जैन, मोरेना ( ग्वालियर ) ।
पछतावा ।
( लेखक --श्रीयुत प्रेमचन्दजी ।)
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अङ्क ९-१० ]
सर मिलते रहते हैं; किन्तु एक स्वतन्त्र और सद्विचार- प्रिय मनुष्य के लिए वहाँकी हवा हानिप्रद है । शासनविभाग नियम और नीतियोंकी मर मार रहती है। कितना ही चाहो पर वहाँ कड़ाई और ढाँट डपटसे बचे रहना असम्भव है । इसी प्रकार बहुत सोचविचार के पश्चात् उन्होंनें निश्चय किया कि किसी जमींदार के यहाँ ' मुख्तार आम' बन जाना चाहिए | वेतन तो अवश्य कम मिलेगा किन्तु दीन खेतिहरों से रात दिन सम्बन्ध रहेगाउनके साथ सद्व्यवहारका अवसर मिलेगा । साधारण जीवन निर्वाह होगा और विचार दृढ होंगे।
पछतावा ।
कुँवर विशालसिंहजी एक सम्पत्तिशाली जमींदार थे। पं० दुर्गानाथने उनके पास जाकर प्रार्थना की कि मुझे भी अपनी सेवामें रखकर कृतार्थ कीजिए । कुँवर साहबने इन्हें सिर से पैर तक देखा और कहा - पण्डितजी, आपको अपने यहाँ रखने में मुझे बड़ी प्रसन्नता होती किन्तु आपके योग्य मेरे यहाँ कोई स्थान नहीं देख पड़ता ।
दुर्गानाथने कहा- मेरे लिये किसी विशेष स्थानकी आवश्यकता नहीं है। मैं हरएक काम कर सकता हूँ | वेतन आप जो कुछ प्रसन्नतापूर्वक देंगे मैं स्वीकार करूँगा । मैंने तो यह संकल्प कर लिया है कि सिवा किसी रईसके और किसीकी नौकरी न करूँगा | कुँवर विशालसिंहने अभिमान से कहा- रईसकी नौकरी नहीं राज्य है । मैं अपने चपरासियोंको दो रुपया माहबार देता हूँ और वे तंजेब के अंगरखे पहनकर निकलते हैं । उनके दरवाजों पर घोड़े बँधे हुए हैं । मेरे कारिन्दे पाँच रुपये से अधिक नहीं पाते किन्तु शादी विवाह वकीलों के यहाँ करते हैं । न जाने उनकी कमाई में क्या बरकत होती है। बरसों तन
वाहका हिसाब नहीं करते। कितने ऐसे हैं जो विना तनख्वाह के कारिन्दगी या चपरासगरी को तैयार बैठे हैं । परन्तु अपना यह नियम
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नहीं । समझ लीजिए, मुख्तार आम अपने इलाके - में एक बड़े जमींदार से भी अधिक रौब रखता है । उसका ठाट वाट उसकी हुकूमत छोटे छोटे राजाओंसे कम नहीं । जिसे इस नौकरीका चसका लग गया है उसके सामने तहसीलदारी झूठी है ।
पण्डित दुर्गानाथने कुँवर साहबकी बातोंका समर्थन न किया जैसा कि करना उनको सभ्यतानुसार उचित था । वे दुनियादारीमें अभी कच्चे थे, बोले- मुझे अबतक किसी रईसकी नौकरीका चसका नहीं लगा है। मैं तो अभी कालेज से निकला आता हूँ । और न मैं इन कारणोंसे नौकरी करना चाहता हूँ जिन्हें आपने वर्णन किये । किन्तु इतने कम वेतनमें मेरा निर्वाह न होगा । आपके और नौकर असामियोंका गला दबाते होंगे। मुझसे मरते समय तक ऐसे कार्य्यं न होंगे । यदि सच्चे नौकरका सन्मान होना निश्वय है तो मुझे विश्वास है कि बहुत शीघ्र आप मुझसे प्रसन्न हो जायँगे ।
कुँवर साहबने बड़ी दृढता से कहायह तो निश्चय है कि सत्यवादी मनुष्यका आदर सब कहीं होता है । किन्तु मेरे यहाँ तनख्वाह अधिक नहीं दी जाती ।
इस प्रतिष्ठा शून्य उत्तरको सुनकर पण्डितजी कुछ खिन्नहृदय से बोले-तो फिर मजबूरी है । मेरे द्वारा इस समय कुछ कष्ट आपको पहुँचा हो तो क्षमा कीजिएगा । किन्तु मैं यह आपसे कह सकता हूँ कि ईमानदार आदमी आपको इतना सस्ता न मिलेगा । कुँवरसाहब ने मनमें सोचा कि मेरे यहाँ सदा अदालत कचहरी लगी ही रहती है। सैकड़ों रुपये तो डिगरी और तजवीजों तथा और और अँगरेजी कागजों के अनुवाद में लग जाते हैं । एक अँगरेजीका पूर्ण पण्डित सहज ही में मुझे
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जैनहितैषी
[भाग १३
मिल रहा है। सो भी अधिक तनख्वाह नहीं लड़के उसे भयकी दृष्टि से देखते। उसके चबूतरे पर देनी पड़ेगी, इसे रख लेना ही उचित है । पैर रखनेका उन्हें साहस न पड़ता। इस दीनताके लेकिन पण्डितजीकी बातका उत्तर देना आव- बीचमें इतना बड़ा ऐश्वर्ययुक्त दृश्य उनके लिए श्यक था, अतः कहा-महाशय, सत्यवादी अत्यंत हृदयविदारक था। किसानोंकी यह मनुष्यको कितना ही कम वेतन दिया जावे दशा थी कि सामने आते हुए थरथर काँपते थे। किन्तु वह सत्यको न छोड़ेगा । और न अधिक चपरासी लोग उनसे ऐसा बर्ताव करते कि पशवेतन पानेसे बेईमान सच्चा बन सकता है। ओंके साथ भी वैसा नहीं होता है। सच्चाईका रुपयेसे कुछ सम्बन्ध नहीं । मैंने पहले ही दिन कई सौ किसानोंने पण्डितजीको ईमानदार कुली देखे हैं और बेईमान बड़े बड़े अनेक प्रकारके पदार्थ भेंटके रूपमें उपस्थित किये, धनाढ्य पुरुष । परन्तु अच्छा; आप एक सज्जन किन्तु जब वे सब लौटा दिये गये तो उन्हें बहुत पुरुष हैं । आप मेरे यहाँ प्रसन्नतापूर्वक रहिए। ही आश्चर्य हुआ । किसान प्रसन्न हुए किन्तु मैं आपको एक इलाकेका अधिकारी बना चपरासियोंका रक्त उबलने लगा । नाई व कहार दूंगा और आपका काम देखकर तरक्की भी खिदमतको आये, किन्तु लौटा दिये गये। कर दूंगा।
अहीरोंके घरोंसे दूधसे भरा हुआ एक मटका दुर्गानाथजीने २०) मासिक पर रहना स्वी- आया । वह भी वापस हुआ । तमोली एक डोली कार कर लिया । यहाँसे कोई ढाई मीलपर पान लाया, किन्तु वे भी स्वीकार न हुए । कई गाँवोंका एक इलाका चाँदपारके नामसे असामी आपसमें कहने लगे कि कोई धर्माविख्यात था । पण्डितजी इसी इलाकेके कारिन्दे त्मापुरुष आये हैं। परन्तु चपरासियोंको तो ये नियत हुए।
नई बातें असह्य हो गई । उन्होंने कहा-हुजूर, [२]
अगर आपको ये चीजें पसन्द न हों तो न पण्डित दुर्गानाथ चाँदपारके इलाकेमें पहुँचे लें मगर रस्मको तो न मिटावें। अगर कोई और अपने निवासस्थानको देखा, तो उन्होंने दूसरा आदमी यहाँ आवेगा तो उसे नये सिरेसे कुँवरसाहबके कथनको बिल्कुल सत्य पाया। यह रस्म बाँधनेमें कितनी दिक्कत होगी। यह यथार्थमें रियासतकी नौकरी सुख सम्पत्तिका सब सुनकर पंडित जीने केवल यही उत्तर दियाघर है । रहनेके लिए सुन्दर बंगला जिसके सिर पर पड़ेगा वह भुगत लेगा । मुझे है । जिसमें बहुमूल्य बिछौना बिछा हुआ इसकी चिन्ता करनेकी क्या आवश्यकता ? एक था, सैकड़ों बीघेकी सीर, कई नौकर चाकर, चपरासीने साहस बाँधकर कहा--इन असामिकितने ही चपरासी, सवारी के लिए एक सुन्दर योंको आप जितना गरीब समझते हैं उतने गरीब टाँगन, सुख और ठाट वाटके सामान उपस्थित। ये नहीं हैं। इनका ढंग ही ऐसा है ! भेग बनाये किन्तु इस प्रकारकी सजावट और विलास-युक्त रहते हैं। देखने में ऐसे सीधे सादे मानों बेसींगकी सामग्री देखकर उन्हें उतनी प्रसन्नता न हुई। गाय हैं, लेकिन सच मानिए इनमेंका एक क्यों कि इसी सजे हुए बंगलेके चारों ओर ऐक आदमी हाईकोरटका वकील है। ' किसानोंके झोंपड़े थे। फूसके घरों में मिट्टीके वर्त- चपरासियोंके इस वादविवादका प्रभाव पंडि. नोंके सिवा और सामान ही क्या था। वहाँके तजी पर कुछ न हुआ। उन्होंने प्रत्येक गृहस्थसे लोगों में वह बंगला कोटके नामसे विख्यात था। दयालुता. और भाईचारका आचरण करना
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अङ्क ९-१०]
पछतावा ।
आरम्भ किया। सबेरेसे ८ बजे तक वे गरीबोंको बोले-कोई है ! जरा इस बुड्ढेका कान तो विना दाम ओषधियाँ देते, फिर हिसाब किता- गरम करे, यह बहुत बढ़ बढ़ कर बातें करता बका काम देखते । उनके सदाचरणने असामि- है। उन्होंने तो कदाचित् धमकानेकी इच्छायोंको मोह लिया । मालगुजारीका रुपया से कहा, किन्तु चपरासियोंकी आँखोंमें चाँदपार जिसके लिये प्रतिवर्ष कुरकी तथा नीलाम- खटक रहा था । एक तेज़ चपरासी कादिर की आवष्यकता होती थी इस वर्ष एक इशारे खाँने लपक कर बूढेकी गर्दन पकड़ी और ऐसा पर वसूल हो गया। किसानोंने अपने भाग धक्का दिया कि बेचारा ज़मीन पर जा गिरा। सराहे और वे मनाने लगे कि हमारे सरकारकी मलूकाके दो जवान बेटे वहाँ चुप चाप खंडे दिनोंदिन बढ़ती हो।
थे । बापकी ऐसी दशा देखकर उनका रक्त गर्म
हो उठा । वे दोनों झपटे और कादिरखाँ पर टूट कुवर विशालसिंह अपनी प्रजाके पालन पोषण पड़े। धमाधम शब्द सुनाई पड़ने लगा । खाँ पर बहुत ध्यान रखते थे। वे बीजके लिए अनाज साहबका पानी उतर गया। साफ़ा अलग जा देते और मजरी और बैलोंके लिए रुपये । फस्ल गिरा । अचकनके टुकड़े टुकड़े होगये । किन्तु कटने पर एकका डेढ़ वसूल कर लेते । चाँदपारके ज़बान चलती ही रही। कितने ही असामी इनके ऋणी थे। चैतका मलूकाने देखा, बात बिगड़ गई। वह उठा और महीना था। फ़स्ल कट कट कर खालियानमें कादिरखांको छुड़ाकर अपने लड़कोंको गालियाँ आरही थी। खलियानमें से कुछ नाज घरमें भी देने लगा। जब लड़कोंने उसीको डाँटा, तब दौड़आने लगा था। इसी अवसर पर कुँवर साहबने कर कुँवरसाहबके चरणों पर गिर पड़ा । पर चाँदपारबालोंको बुलाया और कहा- हमारा बात ययार्थमें बिगड़ गई थी। बूढ़ेके इस विनीत नाज और रुपया बेबाक कर दो। यह चैतका भावका कुछ प्रभाव न हुआ। कुँवरसाहबकी महीना है । जब तक कड़ाई न की जाय तुम आँखोंसे मानों आगके अङ्गारे निकल रहे थे । वे लोग डकार नहीं लेते । इस तरह काम नहीं बोले-बेईमान, आँखोंके सामनेसे दूर हो जा। चलेगा । बूढ़े मलकाने कहा-सरकार, भला नहीं तेरा खन पी जाऊँगा । असामी कभी अपने मालिकसे बेबाक हो सकता है । कुछ अभी ले लिया जाय, कुछ फिर दे ।
बूढेके शरीरमें रक्त तो अब बैसा न रहा था देवेंगे । हमारी गर्दन तो सरकारकी मुट्ठीमें है ।
किन्तु कुछ गर्मी अवश्य थी । वह समझा था कि ... कुँवरसाहब-आज कौड़ी कौड़ी चुका कर .
: ये कुछ न्याय करेंगे, परन्तु यह फटकार सुनकर यहाँसे उठने पाओगे । तुम लोग हमेशा इसी बाला
बोला-सरकार बुढ़ापेमें आपके दरवाजे पर
" पानी उतर गया और तिसपर सरकार हमीको तरह हीला हवाला किया करते हो। - मलूका ( विनयके साथ)-हमारा पेट है "
१ डाँटते हैं । कुँवरसाहबने कहा-तुम्हारी इज्जत सरकारकी रोटियाँ हैं, हमको और क्या चाहिए। अभी क्या उतरी है, अब उतरेगी। जो कुछ उपज है वह सब सरकारहीकी है। दोनों लड़के सरोष बोले-सरकार अपना
कुँवर साहबसे मलूकाकी यह वाचालता सही रुपया लेंगे कि किसीकी इज्जत लेंगे। न गई । उन्हें इस पर क्रोध आगया । राजा, कुँवरसाहब (ऐंठकर)-रुपया पीछे लेंगे। रईस ठहरे । बहुत कुछ खरी खोटी सुनाई और पहले देखेंगे कि तुम्हारी इज्जत कितनी है।
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जैनहितैषी
[ भाग १३
__ जाय । असामियोंको आपने मालगुजारीकी रसीद चाँदपारके किसान अपने गाँव पर पहुँचकर तो नहीं दी है ? पण्डित दुर्गानाथसे अपनी रामकहानी कह ही दुर्गानाथ (कुछ डरते हुए)-जी नहीं, रहे थे कि कुँवरसाहबका दूत पहुँचा और खबर रसीदें तैयार हैं, केवल आपके हस्ताक्षरोंकी देर है। दी कि सरकारने आपको अभी बुलाया है। कुँवरसाहब ( कुछ संतुष्ट होकर )-यह
दुर्गानाथने असामियोंको परितोष दिया और बहुत अच्छा हुआ । शकुन अच्छे हैं । आप घोड़ेपर सवार होकर दरबारमें हाजिर हुए। अब आप इन रसीदोंको चिरागअलीके सिपुर्द - कुँवरसाहबकी आँखें लाल थीं। मुखकी कीजिए । इन लोगों पर बकाया लगानकी आकृति भयंकर हो रही थी। कई मुख्तार और नालिश की जायेंगी, फस्ल नीलाम करा लूँगा। चपरासी बैठे हुए आग पर तेल डाल रहे थे। जब भूखों मरेंगे तब सूझेगी। जो रुपया अबपंडितजीको देखते ही कुँवरसाहब बोले-चाँद- तक वसूल हो चुका है, वह बीज और ऋणके पार वालोंकी हरकत अपने देखी ?
खातेमें चढ़ा लीजिए । आपको केवल यही __पंडितजीने नम्रभावसे कहा-जी हाँ सुनकर गबाही देनी होगी कि यह रुपया मालगुजारीके बहुत शोक हुआ ! यह तो ऐसे सरकश न थे। मदमें नहीं कर्जके मदसे वसूल हुआ है । बस । ___ कुँवरसाहन--यह सब आपहीके आगमनका दुर्गानाथ चिन्तित हो गये । सोचने लगे फल है । आप अभी स्कूलके लड़के हैं । आप कि क्या यहाँ भी उसी आपत्तिका सामना करना क्या जानें कि संसारमें कैसे रहना होता है। पड़ेगा, जिससे बचने के लिए, इतने सोच विचायदि आपका बर्ताव असामियोंके साथ ऐसा ही रके बाद, यह शान्तिकुटीर ग्रहण किया था । रहा तो फिर मैं जमींदारी कर चुका । यह सब क्या जान बूझ कर इन गरीबोंकी गर्दन पर छुरी आपकी करनी है । मैंने इसी दरवाजे पर असा- फेरूँ, इस लिए कि मेरी नौकरी बनी रहे । नहीं, मियोंको बाँध बाँध कर उलटे लटका दिया है यह मुझसे न होगा । बोले-क्या मेरी शहादत
और किसीने चूतक न की। आज उनका यह बिना काम न चलेगा ? साहस कि मेरे ही आदमी पर हाथ चलायें। कुँवर साहड (कोधसे )-क्या इतना कहने में ___ दुर्गानाथ (कुछ दबते हुए)-महाशय, इसमें भी आपको कोई उज्र है ? मेरा क्या अपराध ? मैंने तो जबसे सुना है दुर्गानाथ (द्विविधा में पड़े हुए)-जी यों तो मैंने तभीसे स्वयं सोचमें पड़ा हूँ।
आपका नमक खाया है। आपकी प्रत्येक आज्ञाका कुँवरसाहब-आपका अपराध नहीं तो किसका पालन करना मुझे उचित है, किन्तु न्यायालयमें है ? आपहीने तो इनको सर चढ़ाया। बेगार बन्द मैंने गवाही कभी नहीं दी है। सम्भव है कि यह कर दी, आपही उनके साथ भाईचारेका बर्ताव कार्य मुझसे न हो सके। अतः मुझे लो क्षमा करते हैं, उनके साथ हँसी मजाक करते हैं । ये ही कर दिया जाय। छोटे आदमी इस बर्तावकी कदर क्या जानें। कुँवर साहब ( शासन के द्वंगसे)-यह काम किताबी बातें स्कूलोंहीके लिए हैं। दुनियाके आपको करना पड़ेगा । इसमें हाँ-नहींकी आव्यवहारका कानून दूसरा है । अच्छा जो वश्यकता नहीं । आग आपने लगाई है, हुआ सो हुआ। अब मैं चाहता हूँ कि इन बुझावेगा कौन? . बदमाशोंको इस सरकशीका मजा चखाया दुर्गानाथ ( दृढ़ताके साथ )-मैं झूठ कदापि
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अङ्क ९-१०]
पछतावा।
morrharu
नहीं बोल सकता। और न इस प्रकार शहादत पीछे पीछे जाते थे। मानों अब वे फिर उनसे दे सकता हूँ।
न मिलेंगे। कुँवर साहब (कोमल शब्दों में कृपानिधान. पंडित दुर्गानाथके लिए ये तीन दिन कठिन यह झठ नहीं है। मैंने झठका व्यापार नहीं किया परीक्षाके ये । एक ओर कुँवर साहबकी प्रभावहै। मैं यह नहीं कहता कि आप रुपयेका वसल शालिनी बातें, दूसरी ओर किसानोंकी हाय होना अस्वीकार कर दीजिए। जब असामी मेरे हाय। परन्तु विचारसागरमें तीन दिन तक मणी हैं तो मुझे अधिकार है कि चाहे रुपया निमग्न रहनेके पश्चात् इन्हें धरतीका सहारा ऋणके मदमें वमल करूँ या मालगजारीके मदमें। मिल गया । उनकी आत्माने कहा- यह यदि इतनी सी बातको आप झूठ समझते हैं तो पहली परीक्षा है । यदि इसमें अनुत्तीर्ण रहे तो
आपकी ज़बरदस्ती है । अभी आपने सेसार फिर आरिभक बजता ही हाथ रह जायगी। देखा नहीं । ऐसी सच्चाई के लिए संसार में स्थान निदान निश्चय हो गया कि मैं अपने लाभके नहीं। आप मेरे यहाँ नौकरी कर रहे हैं । इस लिए इतने गरीबोंको हानि न पहुँचाऊँगा । सेवकधर्म पर विचार कीजिए। आप शिक्षित और दसबजे दिनका समय था। न्यायालयके सामने होनहार परुष हैं। अभी आपको संसारमें बहत मेला सा लगा हुआ था । जहाँ तहाँ श्याम वस्त्रादिन रहता है और
बाच्छादित देवताओंकी पूजा हो रही थी। चाँदपारअभीसे आप यह धर्म और सत्यता धारण करेंगे
के किसान झुंडके झुंड एक पेड़के नीचे आकर तो अपने जीवनमें आपको आपत्ति और बैठे । उनसे कुछ दूर पर कुँवरसाहबके मुख्तार निराशाके सिवा और कुछ प्राप्त न होगा । सत्य. आम, सिपाहियों और गवाहोंकी भीड़ थी। ये प्रियता अवश्य उत्तम वस्तु है किन्तु उसकी भी लोग अत्यंत विनोदमें थे। जिस प्रकार मछलियाँ सीमा है।' अति सर्वत्र वर्जयेत्' । अब अधिक पानी पहुँचकर किलोलें करती हैं, उसी भाँति सोचविचारकी आवश्यकता नहीं। यह अवसर ये लोग भी आनन्दमें चूर थे । कोई पान खा ऐसा ही है।
रहा था, कोई हलवाईकी दूकानसे पूरियोंके कुँवर साहब पुराने खुर्राट थे। इस फेंकैनतसे
पत्तल लिये चला आता था। उधर बेचारे कियुधक खिलाड़ी हार गया।
सान पेड़के नीचे चुप चाप उदास बैठे थे कि
आज न जाने क्या होगा, कौन आफत आयेगी, [५]
भगवानका भरोसा है । मुकदमेकी पेशी हुई । इन घटनाके तीसरे दिन चाँदपारके असा- कुँवर साहबकी ओरके गवाह गवाही देने लगेमियों पर बकायालगानकी नालिश हुई । समन कि ये असामी बड़े सरकश हैं । जब लगान आये । घर घर उदासी छा गई । समन क्या थे, माँगा जाता है तो लड़ाई झगड़े पर तैयार यमके दूत थे । देवी देवताओंकी मन्नतें होने हो जाते हैं । अबकी इन्होंने एक कौड़ी भी लगीं । स्त्रियाँ अपने घरवालोंको कोसने लगीं, नहीं दी।
और पुरुष अपने भाग्यको । नियत तारीखके कादिर खाँने रोकर अपने सिरकी चोट दिखाई। दिन गाँवके गँवार कन्धे पर सोटा डोर रक्खे सबके पीछे पंडित दुर्गानाथकी पुकार हुई ।
और अंगोछेमें चबेना बाँधे कचहरीको चले। उन्हीं के बयान पर निपटारा था। वकील साह-सैकड़ों स्त्रियाँ और बालक रोते हुए उनके बने उन्हें खूब तोतेकी भाँति पढ़ा रक्खा था,
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४३८ । . जैनहितैषी
[भाग १३ किन्तु उनके मुखसे पहला वाक्य निकला था में विश्वासघात कर ही गया । यह अच्छा कि मजिस्ट्रेटने उनकी ओर तीव्र दृष्टि से देखा । हुआ कि पं० दुर्गानाथ मजिस्ट्रेटका फैसला वकील साहब बगलें झाँकने लगे । मुख्तार सुनते ही मुख्तार आमको कुंजियाँ और कागज आमने उनकी ओर घूर कर देखा । अहलमद, पत्र सुपुर्द कर चलते हुए । नहीं तो उन्हें इस पेशकार आदि सबके सब उनकी ओर आश्च- कार्यके फलमें कुछ दिन हल्दी और गुड़ पीनेर्यकी दृष्टिसे देखने लगे।
की आवश्यकता पड़ती ! न्यायाधीशने तीव्र स्वरमें कहा-तुम जानते कँवरसाहबका लेन देन विशेष अधिक था ! हो कि मजिस्ट्रेट के सामने खड़े हो ?
चाँदपार बहुत बड़ा इलाका था । वहाँके असादुर्गानाथ (दृढ़तापूर्वक)-जी हाँ भली भांति मियोंपर कई सौ रुपये बाकी थे। उन्हें विश्वास जानता हूँ।
हो गया कि अब रुपया डूब जायगा । वसूल न्याया०-तुम्हारे ऊपर असत्य भाषणका होनेकी कोई आशा नहीं। इस पंडितने असाअभियोग लगाया जाता है।
मियोंको बिल्कुल बिगाड़ दिया । अब उन्हें दुर्गानाथ-अवश्य । यदि मेरा कथन मेरा क्या डर । अपने कारिन्दों और मंत्रियोंसे झूठा हो।।
सम्मति ली । उन्होंने भी यही कहा-अब वकीलने कहा-जान पड़ता है किसानोंके
वसूल होनेकी कोई सूरत नहीं । कागजात दूध घी और भेंट आदिने यह कायापलट कर
न्यायालयमें पेश किये जायें तो इनकम टैक्स दी है । और न्यायाधीशकी ओर सार्थक
लग जायगा । किन्तु रुपया वसूल होना कठिन दृष्टिसे देखा।
है। उजरदारियाँ होंगी। कहीं हिसाबमें कोई ___ दुर्गानाथ-आपको इन वस्तुओंका अधिक
भूल निकल आई तो रही सही साख भी जाती तजरुवा होगा । मुझे तो अपनी रुखी रोटियाँ
रहेगी और दूसरे इलाकोंका रुपया भी मारा । ही अधिक प्यारी हैं।
जायगा। __न्यायाधीश-तो इन असामियोंने सब रुपया बेबाक कर दिया है ?
__ दूसरे दिन कुँवरसाहब पूजा पाठसे नि-- दुर्गानाथ-जी हाँ, इनके जिम्मे लगान- श्चिन्त हो अपने चौपालमें बैठे, तो क्या देखते की एक कौड़ी भी बाकी नहीं है।
हैं कि चाँदपारके असामी झुंडके झुंड चले आ. न्यायालय-रसीदें क्यों नहीं दी ?
रहे हैं। उन्हें यह देखकर भय हुआ कि कहीं . दुर्गानाथ-मेरे मालिककी आज्ञा ।
ये सब कुछ उपद्रव तो न करें, किन्तु कि
का आगे मजिस्ट्रेटने नालिशें डिसमिस कर दीं। आगे आता था। उसने दूरहीसे झुककर वन्दना कुँवर साहबको ज्यों ही इस पराजयकी खबर की । ठाकुर साहबको ऐसा आश्चर्य हुआ, मानों मिली, उनके कोपकी मात्रा सीमासे बाहर हो गई। कोई स्वप्न देख रहे हों। उन्होंने पंडित दुर्गानाथको सैकड़ों कुवाक्य कहे-नमकहराम, विश्वासघाती, दुष्ट । ओह मलूकाने सामने आकर विनयपूर्वक कहामैंने उसका कितना आदर किया, किन्तु सरकार, हम लोगोंसे जो, कुछ भूलचूक हुई कुत्तेकी पूँछ कहीं सीधी हो सकती है ! अन्त- उसे क्षमा किया जाय । हम लोग सब हजूर के
..
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अङ्क ९-१०]
पछतावा।
चाकर हैं; सरकारने हमको पाला-पोसा है । अब कठोरता और निर्दयतासे जो काम कभी न हुआ भी हमारे ऊपर ही निगाह रहे। * वह धर्म और न्यायने पूरा कर दिखाया।
कुँवरसाहबका उत्साह बढ़ा। समझे कि जबसे ये लोग मुकद्दमा जीत कर आये पंडितके चले जानेसे इन सबोंके होश ठिकाने तभीसे उनको रुपया चुकानेकी धुनि सवार थी। हुए हैं। अब किसका सहारा लेंगे। उसी खुर्रा- पंडितजीको वे यथार्थमें देवता समझते थे। टने इन सबोंको बहका दिया था। कड़ककर उनकी रुपया चुका देनेके लिए विशेष आज्ञा बोले-वे तुम्हारे सहायक पंडित कहाँ गये? थी। किसीने अन्न बेचा, किसीने बैल, किसीने वे आ जाते तो जरा उनकी खबर ली जाती। गहने बन्धक रक्खे। यह सब कुछ सहन किया, ___ यह सुनकर मलूकाकी आँखोंमें आँसू भर परन्तु पंडितजीकी बात न टाली। कुँवरसाहबके आये । बोला-सरकार उनको कुछ न कहें। मनमें पंडितजीके प्रति जो बुरे विचार थे वे वे आदमी नहीं, देवता थे । जवानीकी सौगन्ध सब मिट गये । लेकिन उन्होंने सदासे कठोहै,जो उन्होंने आपकी कोई निन्दा की हो । वे रतासे काम लेना सीखा था। उन्हीं नियमों पर बेचारे तो हम लोगोंको बार बार समझाते थे वे चलते थे । न्याय तथा सत्यता पर उनका कि देखो, मालिकसे बिगाड़ करना अच्छी बात विश्वास न था। किन्तु आज उन्हें प्रत्यक्ष देख नहीं । हमसे कभी एक लोटा पानीके खादार पड़ा कि सत्यता और कोमलतामें बहुत बड़ी नहीं हुए । चलते चलते हम लोगोंसे कह गये कि शक्ति है। मालिकका जो कुछ तुम्हारे जिम्मे निकले, ये असामी मेरे हाथसे निकल गये थे। मैं , चुका देना । आप हमारे मालिक हैं । हमने इनका क्या बिगाड़ सकता था ? अवश्य यह आपका बहुत खाया पिया है । अब हमारी पंडित सच्चा और धर्मात्मा पुरुष था । उसमें यही विनती सरकारसे है कि हमारा हिसाब किताब दूरदर्शिता न हो, कालज्ञान न हो, किन्तु इसमें कोई देखकर जो कुछ हमारे ऊपर निकले बताया जाय। सन्देह नहीं कि वह निस्पृह और सच्चा पुरुष था। हम एक एक कौड़ी चुका देंगे तब पानी पियेंगे। . कुँवरसाहब सन्न हो गये। इन्हीं रुपयोंके लिए कैसी ही अच्छी वस्तु क्यों न हो, जब तक कई बार खेत कटवाने पड़े थे । कितनी बार हमको उसकी आवश्यकता नहीं होती तब तक घरोंमें आग लगवाई। अनेक बार मारपीट की। हमारी दृष्टिमें उसका गौरव नहीं होता। हरी कैसे केसे दंड दिये । और आज ये सब आपसे दूब भी किसी समय अशर्फियोंके मोल बिक आव सारा हिसाब किताब साफ करने आये हैं ! जाती है । कुँवरसाहबका काम एक निस्पृह यह क्या जादू है !
मनुष्यके विना रुक नहीं सकता था । अतएव . मुख्तार आमसाहबने कागजात खोले और पंडितजीके इस सर्वोत्तम कार्यकी प्रशंसा किसी असामियोंने अपनी अपनी पोटलियाँ । जिसके कविकी कवितासे अधिक न हुई। चाँदपारके जिम्मे जितना निकला, बे-कान पूछ हिलाये असामियोंने तो अपने मालिकको कभी किसी उसने द्रव्य सामने रख दिया। देखते देखते सामने प्रकारका कष्ट न पहुँचाया, किन्तु अन्य रुपयोंका ढेर लग गया । ६०० रुपया बातकी इलाकोंवाले असामी उसी पुराने ही ढंगसे चलते थे। बातमें वसल होगये । किसीके जिम्मे कुछ बाकी उन इलाकोंमें रगड़-झगड़ सदैव मची रहती न रहा । यह सत्यता और न्यायकी विजय थी। थी। अदालत, मारपीट, डाँट-डपट सदा लगी
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४४०
जैनहितैषी
[भाग १३
रहती थी । किन्तु ये सब तो जमींदारीके अब इस कलेजेके टुकड़ेको किसे सौंपूँ, जो सिंगार हैं । विना इन सब बातोंके जमींदारी उसे अपना पुत्र समझे। लड़केकी माँ स्त्रीजाति कैसी ? क्या दिन भर बैठे बैठे वे मक्खियाँ मारें ? न कुछ जाने न समझे। उससे कारवार सँभ
कुँवरसाहब इसी प्रकार पुराने ढंगसे अपना लना कठिन है। मुख्तार आम, गुमाश्ते, कारिन्दे प्रबन्ध सँभालते जाते थे। कई वर्ष व्यतीत हो कितने हैं परन्तु सबके सब स्वार्थी, विश्वासघाती। गये । कुँवरसाहबका कारवार दिनों दिन चमकता एक भी ऐसा पुरुष नहीं जिस पर मेरा विश्वास ही गया। यद्यपि उन्होंने ५ लड़कियों के विवाह बड़ी जमे। कोर्ट आव वाई सके सुपुर्द करूँ तो वहाँ धुमधामके साथ किये, परन्तु तिस पर भी उनकी भी ये ही सब आपत्तियाँ । कोई इधर दबायेगा बढतीमें किसी प्रकारकी कभी न हुई । हाँ, कोई उधर । अनाथ बालकको कौन पूछेगा ? शारीरिक शक्तियाँ अवश्य कुछ कुछ ढीली पड़ती हाय, मैंने आदमी नहीं पहिचाना ! मुझे हीरा गईं । बड़ी भारी चिन्ता यही थी कि इस बड़ी मिल गया था, मैंने उसे ठीकरा समझा ! कैसा सम्पत्ति और ऐश्वर्यका भोगनेवाला कोई उत्पन्न सच्चा, कैसा वीर, दृढ़प्रतिज्ञ पुरुष था। यदि न हुआ। भानजे भतीजे और नवासे, इस रियासत वह कहीं मिल जावे तो इस अनाथ बालकके पर दाँत लगाये हुए थे।
दिन फिर जायँ । उसके हृदयमें करुणा है, कुवरसाहबका मन अब इन सांसारिक झग- दया है। वह एक अनाथ बालक पर तरस खायगा। डोंसे फिरता जाता था। आखिर यह रोना धोना हा ! क्या मुझे उसके दर्शन मिलेंगे। मैं उस किसके लिए । अब उनके जीवन नियममें एक देवताके चरण धोकर माथे पर चढाता । आँपरिवर्तन हुआ।द्वार पर कभी कभी साधू सन्त धूनी सुओंसे उसके चरण धोता । वही यदि हाथ रमाये हुए देख पड़ते । स्वयं भगवद्गीता और लगाये तो यह मेरी डूबती हुई नाव पार लगे । विष्णुपुराण पढ़ते। पारलौकिक चिन्ता अब नित्य
| रहने लगी । परमात्माकी कृपा ! साधू सन्तोंके ठाकुर साहबकी दशा दिन पर दिन बिगड़ती आशीर्वादसे बुढ़ापेमें उनके एक लड़का गई। अब अन्तकाल आ पहुँचा ! उन्हें पंडित पैदा हुआ । जीवनकी आशायें सफल हुई। दुर्गानाथकी रट लगी हुई थी। बच्चेका मुँह देखते दुर्भाग्यवश पुत्रके जन्महीसे कुँवरसाहब शारी- और कलेजेसे एक आह निकल जाती । बार बार रिक व्याधियों में ग्रस्त रहने लगे । सदा वैद्यों पछताते और हाथ मलते । हाय ! उस देव
और डाक्टरोंका तांता लगा रहता था । ताको कहाँ पाऊँ । जो कोई उसके दर्शन करा लेकिन दवाओंका उलटा प्रभाव पड़ता । दे आधी जायदाद उसके न्योछावर कर दूं। प्यारे ज्यो त्यों करके उन्होंने ढाई वर्ष बिताये। अन्तमें पंडित ! मेरे अपराध क्षमा करो । मैं अन्धा था, उनकी शक्तियों ने जवाब दे दिया। उन्हें. मालूम अज्ञान था । अब मेरी बाँह पकड़ो। मुझे डूबहो गया कि अब संसारसे नाता टूट जायगा। नेसे बचाओ। इस अनाथ बालक पर तरस अब चिन्ताने और धर दबाया-यह सारा माल खाओ। हितार्थी और सम्बन्धियोंका समूह असबाब, इतनी बड़ी सम्पत्ति किस पर छोड़ सामने खड़ा था। कुँवर साहबने उनकी ओर जाऊँ ? मनकी इच्छायें मनहीमें रह गई । लड़- अधखुली आँखोंसे देखा। सच्चा. हितैषी कहीं केका विवाह भी न देख सका । उसकी तोतली देख न पड़ा । सबके चेहरे पर स्वार्थकी झलक बातें सुननेका भी सौभाग्य न हुआ । हाय थी। निराशासे आँखें मूंद लीं । उनकी स्त्री फूट
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अङ्क ९-१०]
जैनसमाजके क्षयरोग पर एक दृष्टि ।
४४१
जैनसमाजके क्षयरोग पर
धर्म
फूट कर रो रही थी। निदान उसे लज्जा त्या- सन् १८९१-१४, १६, ६३८. गनी पड़ी । वह रोती हुई पास जाकर बोली- सन् १९०१-१३, ३४, १४०. प्राणनाथ, मुझे और इस असहाय बालकको किस सन् १९११-१२, ४८, १८२. पर छोड़े जाते हो ? कुँवर साहबने धीरेसे कहा- अर्थात् १८९१ से लगाकर १९११ ई० पंडित दुर्गानाथ पर । वे जल्द आवेंगे । उनसे कह तकके २० वर्षों में ११ प्रतिशत कम हो गई । यदि देना कि मैंने सब कुछ उनके भेट कर दिया। यह घटोतरी इसी तरह जारी रही तो दोसौ या यह मेरी आन्तम बसीयत है।
तीनसौ वर्षों में यह जैनधर्म भारतसे उठ जावेगा, अब तनिक भारतवर्षके अन्य धर्मावलम्बियों के
बढ़ने और घटनेको देखिए:एक दृष्टि ।
सन् १८९१ से १९०१ सन् १९०१ से १९११ तक जनसंख्यामें तक जनसंख्यामें
प्रतिशत बढ़ना या प्रतिशत घटना तथा (लेखक, श्रीयुत बाबू रतनलाल जैन
घटना।
बढ़ना। बी. ए. एल एल. बी.) हम लोग कहते आते हैं कि जैनधर्म अ- बोट
+ ३२.९ बढ़ना + १३.१ बढ़ना नादि कालसे है और यह धर्म एक समय भारत- ईसाई + २८ + ३२.६ , वर्षका मुख्य धर्म रहा है । इस धर्मको सेवन सिक्ख + १५.१ , + ६.३३ , . करके अनन्त जीव मुक्त होकर सच्चिदानन्द पदको ।
मुसलमान
+ ६.७ ,
पारसी प्राप्त हुए हैं । ऐतिहासिक प्रमाणोंसे भी यह सिद्ध हिन्द
| -- .३ घटन + १५.०४, है कि जैनधर्म भारतवर्षका एक बहुत बड़ा धर्म जैनी
-- ६.४ घटना रहा है । इस धर्मने सम्राट् चन्द्रगुप्त और खारवेल आदिके आश्रित रहकर केवल भारत- ऊपरके कोष्टकसे पता लग जायगा कि वर्षका ही नहीं संसार भरके जीवोंका कल्याण भारतकी सब जातियों के लोग बढ़े परन्तु अभागे किया है। प्राचीन जैन साहित्य पर दृष्टि डालनेसे जैनी घटे। १९०१ ई० से १९११ तकके दस विदित होता है कि इस धर्मके अनुयायी बड़े बड़े वर्षों में कल भारतवासी ११.८ प्रति सैकड़ा और दिग्गज और जगद्विजयी विद्वान् रहे हैं, और वे कल हिन्दु १५.०४ प्रति सैकड़ा बढ़े, किन्तु गणनाम भी कम न थे। ..... .. जैनी ६.४ प्रति सैकड़ा कम हुए। जैनी लोग भी
पर आज जैनियोंकी संख्या तथा उसके अन्य भारतवासियोंकी तरह ११:८ प्रति सैकड़ा विद्वानों पर दृष्टि डालते ही मालूम पड़ जाता बढने चाहिए थे, परन्तु वे घटे हैं उलटे ६.४ प्रति है कि अब यह धर्म नामका ही धर्म रह गया सैकड़ा । जैनियोंकी वास्तविक घटोतरी १८.३ प्रति है । संसारके जीवोंकी उन्नति करनेसे इसने मुँह सैकड़ा हुई है । भला इस घटीका कोई हिसाब मोड़ लिया है और अब यह इस लोकसे लुप्त है ! जिस जातिमें मनुष्य-संख्या इस तेजीके होना चाहता है । इसकी जनसंख्याको देखिए साथ घटे क्या वह जाति-चाहे उसकी संख्या कि यह कितनी तेजीसे नाश हो रही है:- करोड़ोंकी क्यों न हो-जीवित रह सकती है !
+
+
।
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४४२
जैनहितैषी
[ भाग १३
जैनीलोग तो केवल साढ़े बारह लाख ही रह लगता है के बिजनौर जिलेमें जैनियोंकी ओरसे गये हैं !
बिजनौरके जैनियोंकी जो गणना सन् १९११ __ हे जैनधर्मावलिम्बयो, यदि तुम जैनधर्मको के लगभग की गई था वह १९११ ई० की भारत-वर्षमें स्थित रखना चाहते हो, तो मोह- सरकारी रिपोर्टमें दी हुई गणनासे मिलती है। निद्रा छोडो और उन कीड़ोंको पहचानो जिन्होंने इस लेखके साथमें चार कोष्टक प्रकाशित जैनजातिके मलमें लगकर उसे खोखला किये जाते हैं। उनमेंसे पहले कोष्टकमें यक्तकर डाला है । यह जैनधर्म और जैनजातिके प्रान्तके प्रत्येक जिलेकी जैन जनसंख्या दी • जीवन भरणका प्रश्न है । इसको अच्छी तरह हुई है, जिससे यह ज्ञान हो जायगा कि किस
मनन कर निर्णय करो और इसके मूलमें लगे किस जिले में १८९१ ई० से १९११ ई० तक के • हुए कीड़ोंको पहचानकर दूर कर दो। तुम्हारा दस वर्षामं और १९०१ ई० से १९११ ई० के सम्यक्त्वका स्थितिकरण अंग कहाँ गया जो तुम तकके दस वर्षों में कितनी घटोतरी या बदोतरी अपने भाइयोंका नाश होते हुए देखते हो और हुई हे । सहारनपुर, मुजफ्फरनगर, अलीगढ़, उनके बचानेका कोई प्रयत्न नहीं करते । यदि मथुरा, आगरा, फर्रुखाबाद, मैनपरी, एटा, कानआपके हृदयमें धर्मका कुछ भी अंश शेष है तो पुर और इलाहाबादके जिलों पर अधिक ध्यान कटिबद्ध होकर खड़े हो जाओ और जैन- देनेकी आवश्यकता है। * जातिके क्षयको रोको।
___ दूसरे कोष्टकमें मुख्य मुख्य नगरोंकी जैन - यद्यपि भारतवर्ष एक बहुत ही बड़ा देश है, और हिन्दू जनसंख्या सन् १९०१ और उसमें बहतसे प्रान्त हैं और भिन्न भिन्न प्रान्तोंके सन् १९११ की दी हुई है। इससे ज्ञात हो रीति-रिवाजामें कुछ अन्तर भी है, तो भी जायगा कि सन् १९०१ ई० से १९११ ई० वेरीतिरिवाज जिनसे जैनधर्मानुयायियोंकी तकके दस वर्षों में किस किस नगरमें जैनसंसंख्या दिनपर दिन ह्रास होरहा है, साधारणतः ख्याकी कितनी घटोतरी या बढ़ोतरी हुई है और एकसे हैं । यह हो सकता है कि एक प्रान्तमें साथमें यह भी मालूम हो जावेगा कि उन नग
क कारणसे जैनियोंकी संख्या अधिक हानि रोंमें उन्हीं दस वर्षों में कितने हिन्दू भाई घटे हैं हुई हो और दूसरे प्रांतमें किसी दूसरे ही कारणसे या बढ़े हैं। होस लेखमें जैनियोंका नाश और उसके अलीगढ़, आगरा, फिरोजाबाद, कोसी, एटा. iण बतलानेके लिए युक्तप्रान्तके जैनियांकी कानपुर, इलाहाबाद और रामपुर रियासतकी
या दी गई है । जो कारण जैन जातियोंके जनसंख्याओं पर अधिक ध्यान देना चाहिए । नाशके युक्तप्रान्तमें हैं, लगभग वे ही कारण -
* सन् १८९१ ई० की सरकारी रिपोर्ट के अन्दर बहत अन्य प्रान्तों पर भी लागू होते हैं।
. त्रुटियाँ रहगई थीं । एक तो बहुतस जैनी जैनियोंमें गिने जो मनुष्य-संख्या इस लेख में दी है वह मनुष्य
जानेस रह गये थे, इसलिए कई स्थानोंपर जैनी १८९१ गणनाकी सरकारी रिपोर्टसे है और वह दिग
से १९०१ ई. तकके दस वर्षोंमें बढ़े मालूम होते हैं, स्बर
दूसरे युक्तप्रान्त के हिन्दू और मुसलमानोंकी संख्या गों की संख्यासे भी मिलती है । सरकारी रिपोर्ट में १८९१ से १९०१ ई० के अन्दर दस वर्षोंमें बहुत जो जैनियोंकी संख्या दी गई है, वह करीब बढ़ी थी, इसलिए उक्त दस वर्षों में जैन जनसंख्या करीब ठीक है। उसकी सत्यताका पता इससे भी भी बढ़नी चाहिए थी, वह बढ़ी न थी।
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अङ्क ९-१०]
जैनसमाजके क्षयरोग पर एक दृष्टि ।
तीसरे कोष्टकसे यह ज्ञात हो जायगा कि चाहिए थे, या यह कहना चाहिए कि जैनसंयुक्त प्रान्तके जुदा जुदा भागोंमें सन् १९११, जातिको घटना ही न चाहिए था। १९०१, १८९१ व १८८१ ई० में कुल दस मनुष्यगणनाकी रिपोर्टके देखनेसे और सहस्र जनसंख्यामें जैनी कितने थे, और वे समीपवर्ती हिन्दूसमाजकी नगरवासी अग्रवाल, कुल जनसंख्याकी अपेक्षा कितने घटे बढ़े हैं। खंडेलवाल, पल्लीवाल आदि वैश्य जातियों, गौड, इससे मालूम हो जायगा कि अन्यमतावलम्बी सनाढ्य आदि ब्राह्मण जातियों, और अन्य उच्च कितने बढ़ गये और उनकी अपेक्षा हम जातियोंकी स्थिति पर दृष्टि डालनेसे मालूम कितने घट
होता है कि, इन उच्च जातियोंका -हास हो रहा चौथे कोष्टकसे यह ज्ञात हो जावेगा कि है और इनका क्षय जैनजातियोंसे भी अधिक सन् १९११ ई० में जैनी किस किस आयुके है । यहाँ यह प्रश्न उठ सकता है कि जब ये कितने थे और वे विवाहित, अविवाहित या उच्च जातियाँ कम हो रही हैं तो हिन्दू जातिकी रँडुवे, कैसे थे। इससे यह भी ज्ञात हो जायगा कमी प्रतिशत १.४ ही क्यों ? जैन जातिकी कि सन् १९११ में कितनी विधवायें किस किस · भाँति १० प्रतिशत या उससे भी अधिक क्यों अवस्था की थी।
नहीं ? यह प्रतिशत १-४ की कमी इस लिए सन् १९०२ ई० में युक्तप्रान्तकी जो जैन- है कि हिन्दू जातिमें ग्रामवासी जाट, धीवर, जनसंख्या ८४,५८२ थी वह १९११ ई० में चमार, भंगी आदि नीच जातियाँ भी सम्मिलित ७५,७९५ रह गई । अर्थात् १० प्रतिशत कम हैं जिनकी संख्या सदैव बढ़ा करती है और हो गई । इन वर्षों में हिन्द प्रति सैकडे १.४ उनके सम्मिलित होनेके कारण हिन्दू जातिमें और मुसलमान १.१ घटे। ईसाई ७३.७ बढ़े अधिक कमी नहीं मालूम होती ।
और आर्यसमाजी दूने हो गये । ___ यद्यपि जैनी आर्यसमाजियों और ईसाइयों- काकथन है कि जावित, निरोगी और धनवान्
सम्पत्तिशास्त्रके वेत्ताओं और बड़े बड़े विद्वानोंके समान बढ़ने न चाहिए थे; क्योंकि ये आर्य
जातिकी जनसंख्या ३० वर्षमें दुगुनी हो जाती समाजियों और ईसाइयोंके समान अन्यधर्मा
है, अर्थात् प्रति दस वर्षमें २५ प्रतिशत बढ़ वलम्बियोंको जैनी नहीं बनाते, तो भी ये
जाती है। पर हमारे इस युक्तप्रान्तकी जैनहिन्दुओं और मुसलमानोंकी अपेक्षा आधिक मालि
' जातिकी वृद्धिकी तो बात ही क्या यह तो कदापि न घटने चाहिए थे । यदि ये घटते तो
। उलटी दस वर्षों में १० प्रतिशत घट गई, अर्थात् "हिन्दुओं और मुसलमानोंकी भाँति प्रति सैकड़े ।
है इसकी २५ प्रतिशतकी स्वाभाविक वृद्धि रुकी १.४ और १.१ ही घटते; परन्तु ये घटे हैं ।
और १० प्रति शत घटोतरी हुई, इस तरह इसका १० प्रति सैकड़े । युक्तप्रान्तकी जनसंख्याके
कुल ह्रास ३५ प्रतिशत हुआ। हासका मुख्य कारण प्लेग है । जैन जाति अन्य जातियोंकी अपेक्षा आधिक धनवान है, इस लिए उक्त बातोंसे पता लगता है कि, जैनजाति यह जाति अपनी इस कालरूप प्लेगके मुँहसे अनेक रोगोंसे पीड़ित है । जबतक रोगोंका अन्य जातियोंकी अपेक्षा आधिक रक्षा कर सकती अनुसंधान न किया जावेगा, तबतक न ये रोग यी, इस हेतुसे जैनी मुसलमान और हिन्दुओंकी दर किये जा सकते हैं और न रोगोंसे बचनेके भाँति १.१ और १.४ प्रतिशत कम न होने उपाय सोचे जा सकते हैं।
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जैनहितैषी -
[ भाग १३
जैन समाज के नाश होनेके मुख्य मुख्य हाहाकारसे आकाश भी गूँज उठा है। निर्धनता के कारण ये हैं:
१. प्लेग आदि रोग,
होनेसे समाजको पुष्टकारी भोजन नहीं मिलता । दूध और घी जिन पर कि पूर्वकाल में भारतवासियोंका जीवन निर्भर था, आजकल भारतवर्षसे
२ निर्धनता, या दरिद्रता,
३ स्वास्थ्य ( तन्दुरुस्ती ) की ओरसे उदा- बिदा हो रहे हैं। इनके न मिलने से स्त्री पुरुष सीनता,
४ बाल्यविवाह,
५ वृद्धविवाह,
६ व्यभिचार,
७ पुरुषोंका अविवाहित रह जाना, ८ छोटी छोटी जातियोंका होना और अपनी जातिके अतिरिक्त अन्य जातिमें विवाह न करना, ९ विवाह के समय बहुत से गोत्रोंका टालना १० एक ही जातिमं ऊँच नीच घर और ११ आर्यसमाजी हो जाना मिल जाना ।
दुर्बल हो गये है और दुर्बलता के कारण ये शीघ्र रोगों के पंजों में पड़ जाते हैं । निर्धन होनेसे रोगोंका इलाज नहीं किया जा सकता, अपनेको मृत्यु के हाथमें तत्काल ही सौंप देना पड़ता है। यही कारण है कि भारतवासी यूरोप आदि देशो की तरह संख्या में नहीं बढ़ते । जैनी हिन्दुओं और मुसलमानोंकी अपेक्षा अधिक धनवान हैं, इससे निर्धनताका प्रभाव जैनियों पर कुछ कम पड़ा होगा । अब रहा यह कि, फिर हमारी हिन्दू मुसलमानों की अपेक्षा अधिक घटी क्यों हुई, इसका उत्तर यह है कि, अधिक घटीके कारण दूसरे ही हैं ।
तथा हिन्दूओंमें
जैनजाति किसी समय धनवान् श्री, पर अब नहीं है। अब तो यह दिन पर दिन निर्धन होती जाती हैं। इस निर्धनतासे बचने के लिए आबश्यक है कि इसे ब्याह शादियांकी, ज्योनारोंकी, नुक्तोंकी तथा और भी तरह तरहकी फिज़ल खर्चियोंको एकदम उठा देना चाहिए। इन दुःखके दिनों में ये बातें शोभा नहीं देती । निर्धनताका दूसरा कारण व्यापारकी दुर्दशा है। सो इसके लिए नये नये व्यापारोंकी ओर नजर डालना चाहिए । नये ढंगके व्यापार पुराने व्यापारों को मिटाते जा रहे हैं। इसके लिए देशविदेशों में घूमकर और अनुभव प्राप्त करके नये व्यापारोंको हस्तगत करना चाहिए । जातिक धनियाँको ऐसी संस्थायें खोलनी चाहिएँ जिनमें निर्धनों और निरुद्योगियांकां तरह तरहके शिल्प, व्यापार, कृषि आदिके कार्य सिखलाये जायँ और उन्हें जीविका के मार्ग सुगम कर दिये जायें। ३ स्वास्थ्य की ओरसे उदासीनता
४४४
१ प्लेग आदि रोग । जितनी क्षति युक्त प्रान्त में जैन और अजैन संख्या की सन १९०९ ई० से १९९९ ई० तक दस वर्षोंमें इस स्पर्श और वायुके द्वारा बढ़नेवाले प्लेगसे हुई है, उतनी किसी और कारणसे नहीं हुई। कितने ही घरोंका तो नाम तक नहीं रहा । इस भयानक रोगके पंजे में बूढ़े अधिक नहीं फँसे इसने अधिकतर उन युवा पुरुषों और स्त्रियों पर हाथ साफ किया है जिनसे सन्तान उत्पन्न होती है और जनसंख्या बढ़ती है। युवक और युवतियों में भी इसने युवतियोंको अधिक सताया है । सैकड़े पीछे ४५ पुरुष और ५५ स्त्रियाँ मृत्युको प्राप्त हुई हैं। एक तो स्त्रियाँ पुरुषोंसे यों ही कम थी; फिर प्लेगने और अधिक कम कर दीं । चेचक (शीतला) रोगमें बहुत से बच्चे पीडित हुए और उनमें से बहुतसे मर गये। इनके अतिरिक्त अन्य रोगों से भी समाजको हानि पहुँची है ।
२ निर्धनता । इससे युक्तप्रान्त के जैनी ही क्या सारे भारतवासी पीडित हैं । यहाँके भूखों के
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अङ्क ९-१०]
जैनसमाजके क्षयरोग पर एक दृष्टि।
मनुष्यगणनाकी रिपोर्टसे मालूम होता है कि नहीं मिलती और इनके शरीरका व्यायाम नहीं हिन्दूसमाजकी गौड, कान्यकुब्ज, 'अग्रवाल, होता। यही दशा इनके घरकी स्त्रियोंकी रहती पल्लीवाल, राजवंशी, लोहिये आदि उच्च जातियाँ है। ये सदैव ही घरके अन्दर बन्द रहती हैं। जिनका कि खान-पान, रहन-सहन, जीविका स्वच्छ वायु तो इनके भाग्य में ही नहीं लिखी ।' आदि जैनजातियों के ही समान है-१९०१ से या तो ये रसोई बनाने, बर्तन मलने और १९११ तकके दश वर्षोंमें जैनियोंसे भी अधिक बच्चोंके पालन पोषणमें लगी रहती हैं, या पलंगघटी है । नगरोंमें रहनेवाले उच्च जातिके हिन्दु- पर बैठी हुई दूसरों पर आज्ञा चलाया करती हैं।
ओंको ध्यानपूर्वक देखनसे भी मालूम होता है पहले प्रकारकी स्त्रियाँ कुछ परिश्रम करती हैं, कि ग्रामीण-परिश्रमशील किसानोंकी अपेक्षा इस कारण वे तो किसी कदर अच्छी भी रहती उनमें सन्तानोत्पति कम होती है और नई उमरके हैं; परन्तु दूसरे प्रकारकी अमीरोंकी बहू-बेटियाँ स्त्री-पुरुषोंकी मृत्यु अधिक होती है। इसका तो सदा ही बीमार रहती हैं । प्रसवकाल तो कारण उनका व्यवसाय है।
इनके लिए बहुत ही भयानक होता है । इससे हिन्दुओंमें सैकड़े पीछे ७५.६ खेती करने- यदि ये बच गई, तो समझो कि इनका दूसरा वाले, १० खेतोंमें मजदूरी करनेवाले और शेष जन्म हुआ। आजकल घरू कामकाज करना सब और और काम करनेवाले हैं । मुसलमानोंमें भी बुरा समझा जाने लगा है । परिश्रमसे घृणा ५० खेती करनेवाले, २५ मजदूरी करनेवाले होना बहुत ही बुरी बात है।
और २५ शिल्प तथा व्यापारादि करनेवाले हैं। ग्रामवासी किसानों और उनकी स्त्रियोंकी इधर जैनियोंमें २२ खेती करनेवाले, ६६ वाणि- दशा इनसे ठीक उलटी है। ये बड़े परिश्रमी ज्य करनेवाले और शेष १२ दीगर काम करने होते हैं और खेतोकी स्वच्छ वायुका सेवन करते वाले हैं । जैनियों में ये जो २२ खेती करनेवाले रहते हैं। इसी कारण ये कम पुष्ट भोजन पाने पर हैं उनमें वे लोग नहीं हैं, जो खेतोंमें खड़े होकर भी उच्च श्रेणीके लोगोंकी अपेक्षा अधिक बलवान् हल चलाते हैं या स्वयं खेती करते हैं । इनमें और हृष्ट पुष्ट होते हैं। इनका स्वास्थ्य बहुत अच्छा अधिकांश जमींदार हैं, जो खेतोंद्वारा उत्पन्न रहता है। इनकी स्त्रियाँ घरका सारा कामकाज हरा धनके द्वारा जीवित रहते हैं । कृषिजीवी करती हैं. पानी भरकर लाती हैं, आटा पासता है, 'हिन्दुओं और मुसलमानोंमें इस प्रकारके जमीं- भोजन बनाती हैं, खेतों पर जाती हैं, और इस दार अधिकसे अधिक ५ प्रति सैकड़ा ही होंगे, तरह परिश्रम करते रहनेसे खूब हड्डी कट्टी रहती शेष परिश्रमी किसान और मजदूर ही होंगे । हिन्दू हैं। न ये स्वयं बीमार रहती हैं और इनकी और मुसलमानों में वाणिज्य और जमींदारी कर- सन्तान नगरवासियोंकी तरह दुर्बल, पीली नेवालोंकी औसत थोड़ी है, पर जो है उसकी और अल्पायु होती है । दशा जैनियोंकी सी ही है।
प्राचीन कालमें नागरिकोंकी ऐसी दशा न उच्च जातिके हिन्दू और जैनी प्रातःकालसे थी। उन्हें परिश्रमसे इतनी घृणा न थी। तीस लेकर सायंकाल तक या तो दुकान पर बैठे चालीस वर्ष पहले इस देशमें हर जगह सैकड़ों रहते हैं, या घरोंके मुलायम गद्दोंपर आरामसे अखाड़े थे। दूकानों पर बैठनेवाले वैश्य लोग पड़े रहते हैं, या एक स्थान पर बैठे हुए लिखा- रातके समय इन अखाड़ोंमें जाकर दंड लगाते, पढ़ीका काम किया करते हैं । इन्हें स्वच्छ हवा बैठकें करतें, मुद्गर घुमाते और कुश्ती खेलते थे।
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जैनहितैषी
[भाग १३ उन लोगोंके लिए सेर दो सेर दूध एक साँसमें आरंभ कर दें,व्यायाम करें, और तरह तरह के पी जाना कोई बात ही न थी। उस समयकी पारिश्रमके काम करें, तो जैनियोंकाक्षय बहुत कुछ स्त्रियाँ भी ऐसी ही थीं। वे घरके सारे कामकाज रुक जावेगा । बलवान दीर्घायु सन्तान होगी,मृत्यु करती थीं । आज कलकी तरह नाजुक न थीं। कम होंगी, रोग कम सतावेंगे और स्त्रियोंकी संख्या इस समय भी उस समयके उत्पन्न हुए.६०-७० पुरुषोंसे कम न रहेगी। वर्षके बूढे वह शक्ति रखते हैं, जो आजकलके जैसा कि आगे बतलाया जायगा जैनसमाजमें नौ जवानोंमें भी नहीं होती।
स्त्रियोंकी संख्या कम है और इसका कारण यह जैनसमाजको नाशसे बचानेके लिए सबसे है कि, हमारे यहाँ लड़कियाँ और स्त्रियाँ लड़कों पहले परिश्रम करने और. व्यायाम करनेकी शिक्षा और पुरुषोंकी अपेक्षा अधिक मरती हैं। मरें क्यों मिलनी चाहिए । इन कामोंको छोटा या नहीं ? उनके स्वास्थ्यकी ओर ध्यान ही कहाँ दिया असम्मानका सूचक न समझना चाहिए । आरो- जाता है । उनके साथ बुरा वर्ताव किया जाता ग्यता होनेसे-स्वस्थता होनेसे ही धर्मसाधन हो है, वे स्वास्थ्यनाशक पर्दमें रक्खी जाती हैं, सकता है । अतएव इस विषयकी शिक्षा खास बचपनमें माता बना दी जाती हैं और बीमार तौरसे प्रचलित की जानी चाहिए । स्वास्थ्य- होने पर उनकी दवादारूका यथेष्ट प्रयत्न नहीं रक्षाके मोटे मोटे नियमोंका ज्ञान सबको करा किया जाता । मनुष्य जाति के लिए यह बहुत देना चाहिए। कोई रोग ऐसा नहीं, जो उचित ही लज्जाकी बात है कि वह अपने एक अंगको उपाय करनेसे रोका न जा सके। यूरोपवासि- इतना तुच्छ समझता है और दूसरे अंग पर अपयोंने प्लेग, हैजा, चेचक आदि रोगोंको अपने ना सर्वस्व न्योछावर करके भी सन्तुष्ट नहीं होता। देशसे सर्वथा निकाल दिया है । निर्बलता तरह ४ बाल्य-विवाह । प्राचीन समयमें इस तरहके रोगोंको बुलानेकी निमंत्रणपत्रिका है। देशमें विवाह उस समय होता था, जब वर डाक्टर लोग कहते हैं कि क्षयरोग ( तपे- कन्या दोनों यौवनावस्थाको प्राप्त हो जाते थे दिक) के कीड़े सभी मनुष्यों के शरीरमें प्रवेश और विवाहके उद्देश्यको समझने लगते थे । कर जाते हैं, परन्तु वे तबतक हानि नहीं पहुँचा इधर देशकी परिस्थितियों में बड़े बड़े परिवर्तन सकते, जबतक शरीर बलवान् रहता है। मनुष्य होनेसे कोई ४००-५०० वर्षसे यह बाल्यदुर्बल हुआ कि, इन्होंने उसे यमलोकको भेज विवाहकी प्रथा चल पड़ी है। इस प्रथाने देशको देनेका प्रयत्न किया। अन्य रोगोंके कीड़ों- बड़ी भारी हानि पहुँचाई है । यदि यह न होती का भी यही हाल है । बाल्यविवाह कादि कुप्र- तो आज युक्त प्रान्तमें पन्द्रह वर्ष से कम उम्रकी थायें भी निर्बल मनुष्यों पर अधिक हानि- १,२५९ जैनविधवाओंकी हृदयविदारिणी संख्या कारक प्रभाव डालती हैं । यही कारण है, जो सुननेका दिन न आता । १९०१ से १९११ तक दश वर्षोंमें बाल्य- चौथे कोष्टकको देखनेसे मालूम होगा कि विवाहोंके कुछ कम हो जाने पर भी जैनि- युक्तप्रान्तमें सन् १९११ में ५ वर्षसे कम योंका क्षय पहलेसे भी अधिक हुआ है। क्योंकि इन उम्रकी विवाहिता जैन लड़कियाँ २८, पाँचसे दश वर्षोंमें लोग पहलेसे अधिक दुर्बल और १० वर्ष तककी २५२ और १० से १५ तक की वीर्यहीन हो गये हैं । लेखकको विश्वास है कि १३९३ थीं । इसी तरहसे ५ वर्षसे कमके यदि लोग अपने स्वास्थ्यकी ओर ध्यान देना विवाहित लड़के १५, पाँचसे १० तकके १८१,
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अङ्क ९-१०].
जैनसमाजके क्षयरोग पर एक दृष्टि ।
Am
दशसे १५ तकके ७६२ और १५ से २० रुकावट डालता है । लड़कियोंका विवाह हुआ तकके १७०५ थे।
कि उनका पढ़ना लिखना समाप्त हो गया । ___ इस बाल्यविवाहसे जो हानि होती है, उसका इधर घरमें बहू आई कि लड़केका मन पढ़नेसे पता इलाहाबाद, कानपुर, बनारस आदि नगरोंकी हटने लगा। दोनोंका ही ज्ञान अधूरा रह जाता जैनजनसंख्याकी घटीसे-जो १९०१ से १९११ है। न वह संसार चलानेके योग्य होती है तक दश वर्षों में हुई है-लगेगा । जैनियोंकी और न यही अपनी यथेष्ट उन्नति कर सकता है। संख्या कम हो जानेका कारण प्लेग भी है, परन्तु सन् १९११ की गणनाके अनुसार सारी जैनप्लेगने जैनियोंको हिन्दुओं और मुसलमानोंकी विधवाओंकी संख्या १,५३,२९७ और युक्तअपेक्षा अधिक सताया होगा, यह बात ध्यानमें प्रान्तकी विधवाओंकी ८,०१२ है। ये सब उम्रकी नहीं आ सकती । क्योंकि जैनी अन्य लोगोंकी विधवायें हैं। इनमेंसे १५ वर्षसे कम उम्रकी अपेक्षा अधिक धनी हैं, इस कारण ये अपनी सारे देशमें १,२५९ और युक्त प्रान्तमें ६४ हैं । रक्षा भी अधिक कर सकते हैं । जैनी और यह उन विधवाओंकी संख्या है, जिनकी उम्र लोगोंकी अपेक्षा बहुत ही घटे हैं। इसके मनुष्यगणनाके समय १५ वर्षसे कम थी; पर कारण अवश्य ही कुछ और हैं । इन नगरोंके १५ वर्षसे कम उम्रमें विधवा होनेवाली स्त्रियोंकी जैनियोंमें विवाहके समय कन्याकी आयु दश संख्या इससे बहुत अधिक होगी। हमारी समग्यारह वर्षकी और वरकी तेरह चौदह वर्षकी झमें सारी विधवाओंका सातवाँ हिस्सा ऐसा होगा, होती है । विवाहके पश्चात प्राय एक ही वर्षके जिसे इस उम्रके पहले वैधव्य प्राप्त हो गया है। भीतर दोनोंका संयोग होने लगता है । मेरठ अर्थात् सारे भारतमें २० हजारसे अधिक और कमिश्नरीकी हालत कुछ अच्छी है । वहाँ साधा- युक्त प्रान्तमें एक हजारसे अधिक जैन विधवायें रणतः विवाहके समय कन्याकी आयु १२ वर्षकी ऐसी हैं, जो १५ वर्षसे पहले विधवा हो गई हैं।
और वरकी १५-१६ वर्षकी होती है। विवाह- साधारणतः कन्याओंका विवाह १०-१२ के २-३ वर्ष बाद गोना होता है और तब वर्षके भीतर हो जाता है । इस वयमें और १५ दोनोंका संयोग होता है । इससे वहाँ बाल्य- वर्षमें लगभग ४ वर्षका अन्तर होगा । भारतविवाहने कम हानि पहुँचाई है।
वर्षकी आयुका परिमाण साधारणतः (औसत • बाल्यविवाहसे स्त्री-पुरुष दुर्बल, शक्तिहीन, दर्जा ) २२ वर्ष है । इसमें छोटे छोटे बच्चोंकी निस्तेज, रोगी और सुखहीन हो जाते हैं। आयु भी शामिल है । यदि हम ११ वर्षसे इनको बहुत ही थोड़ी आयु प्राप्त होती है। अधिक उम्रके मनुष्योंकी उम्रका हिसाब लगा३५-४० वर्षकी उम्र में ही ये बूढ़े हो जाते हैं। कर औसत उम्र निकालें तो वह २७ या २८ इस देशमें क्षय रोगकी वृद्धि इसी कारणसे वर्ष आवेगी । इस लिए १५ वर्षसे कम उम्र में हो रही है । लड़कियोंको बाल्यविवाहसे बहुत विधवा होनेवाली स्त्रियोंकी संख्या समस्त भारही हानि होती है । वे थोड़ी ही उम्रमें गर्भ धारण तकी जैन विधवाओंकी संख्याका अर्थात् सातवाँ कर लेती हैं और प्रसवके समय या तो मर भाग होगी और इसी लिए हमने ऊपरके पैरेमें जाती हैं, या कठिनाईसे बचकर जीवन भर यह बात कही है। . दुख भोगती हैं।
यह संख्या बड़ी ही भयानक है। इन बाल-- बाल्यविवाह शिक्षाप्रचारके मार्गमें भी बड़ी विधवाओंकी दशाका विचार करके हमें जैसे
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जैनहितैषी
[भाग १३
बने तैसे बाल्यविवाह बन्द कर देना चाहिए । पंजेसे बाहर नहीं हैं । यहाँके बालक ७-८ वर्षयदि कन्याओंका विवाह १५ वर्षसे कमकी के होते ही अश्लील शब्दोंको सुन सुनकर उनके आयुमें न होता तो जैनियोंमें २० हजार विध- उच्चारण करनेमें पटु हो जाते हैं। पहले तो वे वायें न होतीं। वे सधवा रहकर कमसे कम उनका भाव समझे बिना ही उच्चारण करते ४० हजार मनुष्य उत्पन्न करतीं, जिससे जैनि- रहते हैं, पीछे १२-१३ वर्षके लगभग पहुँचने, योंका नाश बहुत कुछ रुक जाता। लड़कियोंका पर उन अश्लील शब्दोंके द्वारा उत्पन्न हुए विवाह १५ वर्षसे पहले और लड़कोंका २० भावोंको प्रयोगमें लानेकी चेष्टा करने लग जाते. वर्षसे पहले कभी मत करो। इसके पहले दोनोंमें हैं । उनकी यह चेष्टा अनंगक्रीड़ा, हस्तही उत्तम सन्तान उत्पन्न करनेकी योग्यता नहीं मैथुन आदि दुष्ट दोषोंके रूपमें प्रकट होती आती।
है । व्यभिचारकी यह पहली सीढ़ी है । .. ५ वृद्धविवाह । जैनसमाजमें कन्याओंकी बाल्यावस्थामें ये भाव अनंगक्रीड़ा आदिके
संख्या बहुत ही कम है । इससे हजारों नवयुव- रूपमें और युवावस्थामें परस्त्रीसेवन, वेश्यागमन कोंको यों ही कुँआरा रहना पड़ता है। उस पर आदिके रूपमें प्रकट होते हैं । जहाँ ये भाव ये बूढ़े लोग अपनी कई कई शादियाँ करके और हृदयमें अंकित हो पाये कि फिर निकाले नहीं भी उनका हक मार देते हैं । जो कन्या किसी निकलते । ये उन्हें सदाके लिए व्याभचारी बना युवकसे शादी करके सुखपूर्वक जीवन व्यतीत गामी या वेश्यागामी बना हआ देखती हैं, अपने
देते हैं । स्त्रियाँ भी जब अपने पुरुषोंको परस्त्रीकरती, और अनेक पुत्र कन्याओंकी माता होती, पातिव्रत्यसे शिथिल होने लगती हैं और अन्तमें . वही एक बूढ़े खूसटके पंजेमें फँसकर दुःखोंके दुराचारिणी बन जाती हैं। पाले पड़ती है, सन्तानहीन या रोगी सन्तानकी यह व्यभिचार भी हमारी संख्याके क्षयका माता होती है और शीघ्र ही विधवा बनकर बड़ा भारी कारण है । इलाहाबाद, अलीगढ़, समाजमै दुराचारोंकी वृद्धि करती है । इस लिए सहारनपुर, आदि नगरोंकी संख्या १९०१ से बुद्धविवाहकी दुष्प्रथाको शीघ्र ही बन्द करना १९११ तकके दश वर्षोंमें बहुत कम गई है। चाहिए । इसके लिए पंचायतियोंको यत्न करना वास्तवमें इनकी संख्या बढ़नी चाहिए थी। चाहिए । पंचायतियोंकी शक्तिको बढ़ाना हम क्योंकि लोगोंकी प्रवृत्ति गाँवों और कस्बोंको छोड़ लोगोंके हाथमें है।
छोडकर शहरोंमें जा बसनेकी ओर बढ़ रही है । ६ व्यभिचार । युक्तप्रान्तके अन्य समा- व्यापारादिके निमित्तसे जैनी लोग शहराम हा जोंकी तरह जैनसमाजमें भी व्यभिचारका बे- आधिक बसते जाते हैं । परन्तु व्यभिचारने शुमार प्रचार हो रहा है । ज्ञात होता है कि संख्याको बढ़ानेके बदले घटाया है । यह शीलवत इस समाजसे बिदा ले चुका है और सभी जानते हैं कि, व्यभिचारी स्त्रीपुरुषोंके एक जैनधर्मका प्रभाव. इसके हृदयसे बिलकुल उठ तो संतान ही नहीं होती और यदि होती है तो गया है । यह समाज केवल ऊपरसे जैनधर्म- निर्बल, रोगी और अल्पायु होती है । व्यभिचारी का अंगा पहने हुए है; जिसके भीतर इसका पुरुष स्वयं भी निर्बल, निस्तेज, साहसहीन, हृदय छुपा हुआ है । इसकी भीतरी हालत बड़ी रोगी और अल्पायु हो जाते हैं । मूत्र रोग तो ही गंदी है । इस व्यभिचारके रोगमें यहाँके युवा उन्हें घेरे ही रहते हैं । स्त्रियों की भी यही दशा ही ग्रसित नहीं हैं, बालक और बूढ़े भी इसके होती है।
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अङ्क ९-१०]
जैनसमाजके क्षयरोग पर एक दृष्टि ।
इस बढ़े हुए व्यभिचारको रोकनेकी ओर कम उम्रके पुरुषोंकी संख्या २१,७०० है, अतः शीघ्र ही ध्यान देना चाहिए। बच्चोंके चरित्र पर इनमें भी प्रति शत १८.५ के हिसाबसे कोई चार छुटपनसे ही बल्कि उनके गर्भमें आनेके हजार पुरुष अविवाहित रह जायेंगे । इस तरह समयसे ही दृष्टि रखनी चाहिए । बच्चे जब कुल ४०,८९५ पुरुषोंमेंसे ७,५०० पुरुष ऐसे हैं, माताके गर्भ में आते हैं, तभीसे उनपर माताके जिनका विवाह नहीं हुआ और न होनेकी बुरे भले विचारोंका प्रभाव पड़ता है । यदि आशा है । ये वे पुरुष नहीं हैं जिन्होंने ब्रह्ममाताके विचार अच्छे होंगे तो बच्चे उन्हें अपनी चर्यव्रत धारण करके अविवाहित रहना स्वीकार प्रकृति बनाकर जन्म लेंगे। इसके बाद उन पर किया है; किन्तु ये वे हैं, जिनके विवाह हो अच्छे संस्कार डाले जायँगे, उनके कानोंमें सदेव नहीं सकते । इस तरह जैनसमाजके पुरुषोंका अच्छे विचार पड़ते रहेंगे, उनकी दृष्टिपथमें पाँचवाँ हिस्सा अविवाहित रह जाता है । यदि सदैव अच्छे कार्य पड़ते रहेंगे और वे अच्छे इनका विवाह हो गया होता और इनके सन्तान आदर्शोकी ओर झुकाये जायेंगे, तो उनके सदा- उत्पन्न होती तो युक्त प्रान्तके जैनियोंमें सन् चारी होनेमें कोई सन्देह नहीं । आगे उन्हें १९११ में जो ९ हजार मनुष्योंकी कमी हुई विद्याध्ययन कराया जाय, नैतिक शिक्षा दी है वह न होती; उलटी कुछ वृद्धि ही होती। जाय, और कर्तव्यशील बनाया जाय, तो उनका जैनसमाजके एक पंचमांश पुरुषोंके अविजीवन बड़ी उत्तमतासे व्यतीत होगा। वाहित रहने के नीचे लिखे कारण हैं:
व्यभिचारी स्त्रीपुरुषों को सदाचारी बनानेके स्त्रियोंकी कमी। युक्त प्रान्तमें सन् १९११ लिए सुशिक्षाका प्रचार, अच्छा उपदेश, अच्छे की गणनाके अनुसार पुरुषों की संख्या ४०,८९५ अच्छे ग्रन्थोंका अध्ययन, अच्छी संगति, सामा- और स्त्रियोंकी ३४,५९२ थी । अर्थात् स्त्रियाँ जिक शासन आदि अनेक उपाय हैं, जिनका पुरुषोंसे ६३०० कम थीं । इनमें कुछ अजैन वर्णन इस छोटेसे लेखमें नहीं हो सकता। स्त्रियाँ भी सम्मिलित हैं । क्यों कि बहुतसे. उनकी ओर भी ध्यान देना चाहिए। स्थानों में अग्रवाल आदि जातियोंके लोग अजैब'
७ पुरुषोका अविवाहित रह जाना लड़कियोंको ब्याह तो लाते हैं; पर अपनी लड़.. भौर कन्याओंकी कमी। चौथे कोष्टकको कियोंको अजैनों में नहीं देते । यदि ये अजैन देखनेसे मालूम होगा कि सन् १९११ में युक्त- स्त्रियाँ जैनों में सम्मिलित न होती तो यह लि. प्रान्तमें २५ बर्षसे अधिक उम्रके पुरुषोंकी योंकी कमी ७००० के लगभग हो जाती। संख्या १९,१०८ थी और उनमें ३,५३६ पुरुष अब प्रश्न होता है कि स्त्रियाँ पुरुषोंसे कम क्यों ऐसे थे, जो अविवाहित थे । जैनसमाजमें पुरु- हैं ? क्या लड़कियाँ लड़कोंसे कम उत्पन्न होती घोंका ब्याह २५ वर्षसे कमकी ही उम्रमें हो हैं, या लड़कोंसे आधिक मर जाती हैं ? और जाता है; अतएव २५ वर्षसे अधिक उम्रके यदि अधिक मरती हैं तो क्यों ? . . कुँआरे पुरुष वे ही होते हैं, जिनके ब्याहे जा- चीन, जापान, भारतवर्ष, अमेरिका आदि नेकी बहुत ही कम आशा होती है। इन अवि- पूर्वीय देशोंमें लड़कियाँ लड़कोंकी अपेक्षा कुछ वाहित पुरुषोंकी औसत प्रति सैकड़े १८.५ कम उत्पन्न होती हैं; ( इंग्लैण्ड, फ्रान्स, जर्मनी पड़ती है । लगभग यही औसत २५ वर्षसे कम आदि पश्चिमीय देशोंमें अधिक उत्पन्न होती उम्रके पुरुषों में भी अविवाहितोंकी होगी।२५वर्षसे हैं। ) परन्तु यह कमी हजार पीछे १५ के
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४५०
जैनहितैषी
[ भाग १३
लगभग ही होती है । इस हिसाबसे जब युक्त पहला कारण नहीं माना जा सकता, दूसरा ही प्रान्तमें ४०,९०० पुरुष हैं, तब स्त्रियोंकी संख्या होगा । अर्थात् रँडुए दोबारा शादी कर लेते हैं। ४०,३०० होनी चाहिए थी; परन्तु वह है और विवाहितोंमें गिन लिये जाते हैं। ३४,५९५, अर्थात् पूर्वीय देशोंकी प्रकृतिके लिहाजसे भी यहाँ ५,७०० स्त्रिया कम हैं, इस प्रान्तमें रँडुए ४,७६९ और विधवायें
८,०१२ हैं, अर्थात् रँडुए विधवाओंसे ३,३४३ जिसके कि कारण कुछ और ही हैं।
कम हैं । रँडुए विधवाओंसे अधिक होने चाहिए , यहाँ पुरुषोंकी अपेक्षा स्त्रियाँ मरती अधिक थे, क्योंकि स्त्रियाँ पुरुषोंसे अधिक मरता हैं, हैं। मनुष्यगणनाकी रिपोर्टमें लिखा है कि, अतएव यह कमी वास्तवमें ३,५०० के लगभग पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियोंकी अधिक मृत्युके होगी । अर्थात् यहाँके ३,५०० रँडुओंने दोबारा कारण उनसे बुरा वर्ताव करना, अधिक काम ब्याह कर लिया है और वे विवाहित गिने लेना, उनका अनादर, उनमें स्वास्थ्यनाशक जाते हैं। पर्देका होना, उनका बालकपनमें विवाह होना
और बचपनमें ही गर्भवती हो जाना, आदि हैं। यदि ये ३,५०० रँडुए दूसरी बार ब्याह न विचार करके देखा जाय, तो ये कारण बहुत करते तो ३,५०० कन्यायें बचजाती
अंशोंमें सच हैं । स्थानसंकोचके कारण इन सब और इनका ब्याह ३,५०० अविवाहित पुरुषों के • कारणों पर विस्तारसे नहीं लिखा जा सकता। साथ होता । दोबारा विवाह करनेवाले अधिक२ पुरुषोंका बारवार विबाह करना और तर धनवान् पुरुष ही होते हैं । निर्धनोंका एक ही
'विवाह कठिनतासे होता है, फिर दूसरे व्याहकी विधवाविवाहका न होना । चौथे कोष्टकको
! तो आशा ही क्या की जा सकती है । इन दोदेखनसे मालूम होगा कि, सन् १९११ में युक्त
बारा ब्याह करनेवाले धनवानोंमें बहुतसे पुरुष प्रान्तमें ४,७६९ रँडुए और ८,०१२ विधवायें।
ऐसे होंगे जिन्हें विवाहके सर्वथा अयोग्य थीं । यहाँ प्रश्न यह उठता है कि, विधवाओंसे .
समझना चाहिए । उनसे सन्तानोत्पत्तिकी आशा रँडुए इतने कम क्यों ? दोनोंकी संख्या बराबर
कदापि नहीं की जा सकती । इस तरह इन्हें • होनी चाहिए थी । इसके दो कारण हो सकते हैं-एक तो यह कि पुरुष स्त्रियोंकी अपेक्षा अधिक
अनसंख्या घटानेके बहुत बड़े कारण गिनना मरते हों । ऐसा होनेसे परलोवासी पुरुषोंकी
चाहिए। स्त्रियाँ (विधवायें) परलोकवासिनी स्त्रियोंके युक्तप्रान्तमें ८,०१२ विधवायें हैं । यदि पतियों ( रँडुओं) से अधिक होंगी। दूसरा यह इनमेंसे वे विधवायें जो विवाह करनेके योग्य हैं, कि रँडुए दोबारा विवाह कर लेते हों और पुनर्विवाह कर लें तो इतने अधिक पुरुष अविरँडुओंकी श्रेणीमेंसे निकलकर विवाहितोंकी वाहित न रहें और जनसंख्याका ह्रास अनेक श्रेणीमें आ जाते हों और इस तरह रँडुओंकी अंशोंमें रुक जावे । पर प्रश्न यह है कि, क्या संख्या कम हो जाती हो । सरकारी रिपोर्ट में यह जैनसमाजके लिए विधवाविवाहका प्रचार करना अच्छी तरहसे दिखा दिया गया है कि, इस श्रेयस्कर होगा ? भय है कि इसके जारी होनेसे प्रान्तमें स्त्रियाँ ही अधिक मरती हैं, अतएव स्त्रीसमाजके सामनेसे एक उच्च आदर्श जाता विधवाओंकी अपेक्षा रँडुओंकी कमीका उक्त रहेगा। ..
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अङ्क ९-१० ]
वृद्धविवाह, कन्याविक्रय और धनकां दासत्व भी अधिक पुरुषोंके अविवाहित रहनेके कारण हैं । इनके कारण अयोग्यों और धनि योंके तो अनेक विवाह हो जाते हैं, पर बहुतसे सुयोग्यों और निर्धनोंका एक भी नहीं होने पाता । धनके लोभसे लोग स्त्रियोंके असली सुख सुयोग्य पति' के महत्त्वको भूल गये हैं ।
(
जाति युक्त
प्रान्त
खंडेलवाल
अग्रवाल जैसवार
परवार
पद्मावती परवार
पल्लवाल
गोलालारे
विनैकया
ओसवाल
गंगेरवाल
बडेले
वैरेया
फतहपुरिया पोरबाढ
बुड़ेले
लोहिया
गोलसिंघारे
खरौआ
लमेच
गोलापूरव
३७५२
२०९५
जैनसमाजके क्षयरोग पर एक दृष्टि ।
३५६२ १२९३ ५३१३२
२७६५२.
३९३ १३५०३ ३३०० ८६ ५९१२ ९५४५ २३५'१९ ९६८१
८७४४
१४६ २२९७
५७
४२२
१५६२
४२२
१२२
६
१८
१३६
१६.
५९.
१३५
१२५
५५८
५५०
३२९
९८०
१६२२
७१८
राज
सी. पी. पूताना
मालवा
१९००
३२२५
०
६३६.
०
२४
०
२१८ |
९४७६
१५१२
०
०
५२
२५८
७२०
१००
३७६
इस कोष्टकमें पाठक देखेंगे कि, युक्त प्रान्तमें गंगेरवाल, बड़ेले, बरैया, पोरबाल आदि कितनी ही जैन जातियाँ ऐसी हैं जिनकी संख्या ५०० से कम है और जो समग्र भारतमें भी १००० से. कम हैं । दिगम्बर जैन डायरेक्टरीसे विदित होता है, केवल दिगम्बर सम्प्रदायमें जातियाँ ऐसी हैं; जिनकी जनसंख्या ५०० से कम है; १२ ऐसी हैं, जिनकी संख्या ५०० से १००० तक है; २० ऐसी हैं, जिनकी १०००
४१
४५१
८ जैनसमाज में छोटी छोटी जाति-. योंका होना और अपनी जातिके अतिरिक्त अन्य जातियां के साथ ब्याह न करना । जैनसमाजमें ऐसी बहुत सी जातियाँ हैं, जिनकी जनसंख्या ५०० से भी कम है । नीचे लिखे कोष्टकको देखिए । यह ' दिगम्बर जैन डिरेक्टरी' से उद्धृत किया गया है:
पंजाब बम्बई
६१६ ४८१४
२३३४६ ५९६
२०३ १०५८
१० १८८
३५३ १२
०
१७९
०
३८३
बंगाल मुद्रास विहार | मैसूर
For Personal & Private Use Only
१३०८
१७३१
३२१
१३४
३०
११
२०
१३
कुल
१
६४७२६
O ६७१२१
११५ ११०८९
५९ ४१९९६
९ ११५९१
४२७२
५५८२
३६०५.
७०२
७७२.
१६
१५८४
१३५
१२५
५६६
६०२
६२९
१७५०
१९७७
१०६४०
से ५००० तक है और १२ जातियाँ ऐसी हैं, जिनकी संख्या ५००० से अधिक है । इनके अतिरिक्त ऐसी भी कई जातियाँ हैं, जिनकी संख्या २० से लेकर २०० तकके बीच में है । ऐसी जातियाँ बड़े बेगसे कम हो रही हैं । ये दश वर्षमें आधी या एकतिहाई हो जाती हैं । कुछ जातियोंका पता सरकारी रिपोर्टसे उद्धृत किये हुए नीचे लिखे कोष्टक से लगेगा:
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--------------------------------------------------------------------------
________________
४५२
जाति
खंडेलवाल ओसवाल
अग्रवाल
जैनहितैषी -
पुरुष
इसससे मालूम होगा कि २० वर्षमें खंडेल - वाल आधे हो गये, ओसवाल और भी कम हो और अग्रवाल प्रति शत १२ कम हो गये अग्रवाल जातिकी जनसंख्या अधिक है, इस कारण उसकी कमी सैकड़ा पीछे केवल . १२ हुई जब कि ओसवालों और खंडेलवालोंकी क्षति बहुत अधिक हुई है । क्योंकि इनकी संख्या युक्तप्रान्तमें बहुत कम है ।
इन जातियोंकी अधिक क्षतिका कारण यह है कि इनमें विवाह बड़ी कठिनाईसे होते हैं । विवाहका क्षेत्र छोटा होनेसे और गोत्र आदिकी अधिक झुंझटों से प्रायः बेमेल विवाह करना पड़ते हैं और इस प्रकारके विवाहों से जनसंख्याकी वृद्धिमें कितनी रुकावट पड़ती है, यह बतलानेकी जरूरत नहीं है ।
।
१०४८
६८३ २१११६
बड़ी जातियाँ धीरे धीरे घटती जाती हैं और घटते घटते छोटी हो जाती हैं । इसके बाद उनका क्षय होना शुरू होता है और अन्तमें वे नामशेष हो जाती हैं । जो जाति जितनी छोटी है, विवाहसंबन्ध करने में वह उतना ही अधिक कष्ट भोगती है और नाशके सन्मुख भी उतने ही शीघ्र जाती है ।
सन् १८९१
हमारी समझमें इधर की तमाम जैनजातियोंमें पारस्परिक विवाह होने लगना बहुत कल्याणकर होगा । इसमें न तो धार्मिक दृष्टिसे कोई हानि है और न सामाजिक दृष्टिसे । जैनशास्त्र इसका निषेध नहीं करते, वरन् उनमें तो ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्य जैसे जुदा जुदा वर्णोंमें भी बेटीव्यवहार करनेकी आज्ञा है । इधर जितनी जैन जातियाँ हैं, वे सब वैश्य वर्णकी हैं । उनमें पहले भले ही कोई क्षत्रिय रही हों, परन्तु इस समय तो व्यवसाय के कारण वे सभी
स्त्री
९३७
५४४
१७४००
सन् १९११
पुरुष
For Personal & Private Use Only
[ भाग १३
४७३
२२४
१८६५०
स्त्री
६३
२०
१५१४
वैश्य हैं। इन एक वर्णकी जातियोंके पारस्परिक सम्बधको कोई भी धर्मशास्त्र बुरा नहीं बतला सकता । जिन जातियोंमें एकसा व्यवसाय होता है, जिनका खानापीना रहनसहन एकसा है और जिनके धार्मिक सांसारिक विचार एकसे हैं, उनके पारस्परिक सम्बन्धमें सामाजिक दृष्टिसे भी कोई हानि संभव नहीं हो सकती लाभ अवश्य ही अगणित होंगे । विवाह करना बहुत सुगम हो जायगा, कन्याओंके लिए योग्य वर मिलने लगेंगे, किसीको अपनी कन्यायें लाचार होकर रोगी, दुर्बल, बूढ़े पुरुषोंको न देनी पड़ेगी, अनमेल और अनुचित विवाहसे होनेवाली मौतें न होंगी, आरोग्य और दीर्घजीवी सन्तान अधिक उत्पन्न होगी और छोटी छोटी जातियाँ नाशसे बचकर फिर अपने समूहको बढ़ाने में समर्थ होंगी ।
कुछ समय पहले मलकापुरके पोरवाड़ोंने मालवा और नीमाड़ के पोरवाड़ों को एक पत्र लिखा था । ये दोनों एक ही पोरवाड़ जातिकी शाखायें हैं, जिनका विवाहसम्बन्ध देशभेदके कारण किसी समयमें बन्द हो गया है । पत्रका सारांश यह है कि हमारी संख्या इतनी कम हो गई है कि, अब हमको अपनी पुत्रियोंको ठिकाने लगाना कठिन हो गया है । अब या तो हमारी कन्यायें कुँआरी रहेंगी, या उनका सम्बन्ध हमें अपने समीपके रिश्तेदारोंके साथ अनुचित रीतिसे करना होगा और या उन्हें अजैनों को देना होगा । यदि आप लोग हमारे साथ विवाहसम्बन्ध शुरू कर दें तो हमारा उद्धार हो जाय । यही दशा हमारी और भी अनेक जातियोंकी हो रही है । उन्हें नाशसे बचानके लिए इस पारस्परिक विवा हसे बढ़कर और कोई उपाय नहीं है ।
( शेष आगे । )
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________________
कोष्टक पहला ।
संयुक्त प्रान्त
मेरठ कमिश्ररी
१ देहरादून
२ सहारनपुर ३ मुजफ्फरनगर ४ मेरठ
५ बुलन्दशहर
६ अलीगढ़
आगरा कमिश्ररी
७ मथुरा
८ आगरा
९ फर्रुखाबाद
१० मैनपुरी
११ इटावा
१२ एटा
१३ बरेली
१४ बिजनौर
१५. बदायूँ
१६. मुरादाबाद १७ शहाजहाँपुर १८ पीलीभीत
१९ कानपुर २० फतेहपुर २१ बाँदा
२२ हमीरपुर
२३] इलाहाबाद
जिला
रुहेलखंड कमिश्ररी
२६ बनारस २७ मिर्जापुर २८ जौनपुर
संयुक्तप्रान्तकी जिलेवार जैन संख्या ।
१९०१
पुरुष स्त्रियाँ
دو
39
"
33
23
जिला
"
د.
در
"
"
जिला
33
इलाहाबाद कमिश्नरी
"
23
"
""
ज़िला
""
"
झाँसी
૨૪
33
व ललितपुर " २५ जालौन
""
बनारस कमिश्ररी
در
در
जिला
?!.,
21
|
१८९१
पुरुष
४४३३४
१९७२२
१६१
३३२५
५२५५
-८९९३
६७१
१३१७
१६१६५
१२९२
७३०६.
५३७
३१८८
११७८
२६६४
१२१३
५२६
१२९
५३२
२०
| ६९४०
२४५
४५
१३४
५५
२७२
१३३४
४७६५
९०
२४१
८६
१३४
स्त्रियाँ
३७८०० ४४२१७
१६१६३
२०५७८
२२८१
१०६७ |
२
४७२
१००
४७०
७३
१९०
११३
१८८
२७५९
३०८९
२५९९ २३८८
४१४१
५६१७
४५१७
४४६९
७३८७
९११८ ७८१२
९३३०
६१३
94
७५८
७१४
११९०
१७८१
१५४८. १५६४
१३५७० | १५३३८
१२८६७ | १३१२२
११११
१३७१
११४७
६१५६
७०१९ ५९३४
५११
३७९
३६२
२५७२
२९५८
२३६०.
८३९ -१२५६
१०८१
२३५५
१९८९
१०९६
६७
५६१
४४
३६१
१७
२
१६
6 ू
६७५२
१७०
१५०
५२
२९६
११८७
४७८१
६७७८
३८९
»
३२
१७७
३५
५९३
५५०४
७८
७८
२११ |. ३२०
५२
१४७
२
१९८
१.१६
For Personal & Private Use Only
३७९९०
३९९५० ३३७६०
१७३६३ १८६५३ १५३८८
३१
**
७३
७९६
६१००
२७२
२५६९
१०६४
२३२१
९२० | १०२८
३३२
१४
१९११
२
६४६२ |
२१९
४२
१८५
२४
६७१
५२५६
५५
• २९५
पुरुष
१८२
१०९
४७६
१२१
४१०
१५
३
६८२८
.२६०.
४.१.
१४१
४१
३२१.
५८८१
१४३
२४८
४५३
१७०
७०
स्त्रियाँ
१३२
२०६३.
३६९४
७६०५
६३७
१२६७
१०८७५
६६१
५११०
२२८
२०३६
८६९
१९७१
९१२
**
७६
३७५
१२
१६३
४०
१५९
४४
३१६
५४८८
१२३
१९७
१३१
६१
Page #82
--------------------------------------------------------------------------
________________
४५४
१८९१ .. पुरुष स्त्रियाँ
१९०१ पुरुष स्त्रियाँ
१९११ पुरुष स्त्रियाँ
२६
१८
१८
५५
६८
३२
२७
.
२९ गाजीपुर ३० बलिया
गोरखपुर कमिश्नरी । ३१ गोरखपुर . जिला | ३२ बस्ती ३३. आजमगढ़
कमायू कमिश्ननरी । ३४ नैनीताल जिला
३५ अलमोड़ा' .. ३६ गढ़वाल
१६
१४
७७२
अवध प्रान्त लखनऊ कमिश्नरी
१२९० ११७७ | ११२३ I ५७५५१०। ५३४
१०३१ । ४८५ |
९४५ ४८५
३७१
ज़िला
४१९
३७८
२४३
११
.३७ लखनऊ ४-३८ उन्नाव
३६ सयबरेली २४. सीतापुर
१-हरदोई ४२ खेरी
१२६
१.८
१
फैज़ाबाद कमिश्नरी ४३ फैजाबाद जिला ४४ गोंडा ४५ बहरायच ४६ सुलतानपुर ४७ पस्तावगढ़, " ४८ बाराबंकी
देशी रियासतें. रामपुर रियासत
५०४
३१८
२८४
A
.
९९
१०३
७५
२७८ १४९ २९
११० २०
टेहरी
,
१२
.
८
संयुक्त देश आगरा व .. अवध व देशीय रियासतें
| ४५७२३ ३९०८० | ४५४४३ ३९१३९ | ४१०७३
३४७२२
पक्त प्रान्त
हिन्दू मुसलमान
EE ईसाई
३२,४३,९२२ ३१,०२,७२९ ३४,३९,८९७ ३२,९१,१३७ ३४,६६,२८७ ३१,९२,०५८.
३७,२९४ २१,१४७ ५९,५५५ ४२,९१४ १,००,८१८ ७,१३१ । १२,१६४ ९,८८९ ३६,१५५ २९,१२० ७३,२०२ ५७,९५२
"- आर्यसमाजी
For Personal & Private Use Only
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--------------------------------------------------------------------------
________________
मेरठ
"
संयुक्त प्रान्तके मुख्य मुख्य नगरोंकी जैन तथा हिन्दू जन-संख्या । ४५५ कोष्टक दूसरा। १९०१ जैन १९११ १९०१ हिन्दू १९११ जिला नगर पुरुष स्त्रियाँ पुरुष स्त्रियाँ पुरुष स्त्रियाँ पुरुष स्त्रियाँ देहरादून देहरादून १०३ ७१ ७६ ५८ । ८५९० ५८५७ ११६०६ ७४१२ सहारनपुर सहारनपुर ७९२. ७४०७५९ ६७३ | १४६८९ ११६८९ १४८१८ १०२३२
देवबन्द १८९ १८३ १६५ १५१ ४२६९ ३६८९ ३८२१ ३१०३ रूडकी
६७ ३०६९ ३२, ४४९६ ३५४२ ४४१२ ३०९०. मेरठ
४१२ ३१९ ४३६ ३३७ |२१९५९ १७६८० २०८९२ १६३५० सरधना ४५८ ३९७ ४०६ ३३० | २७८९ २५६१ २०९९ १७४५ बड़ौत
५३३ ४९९ ६८० ४९८ २४८० १९६२ २४८१ १७७२ बागपत
१८९ १३३ २२४ १८७ २०३० १५६३ १८१९ १३१५ मुजफ्फरनगर मुजफ्फरनगर ४५० २९४ ४२१ ३०६ ७५९९ ५२४८ ७६०३ ५१९२ कैरना
२४६ १८९ २३८ २२१ ३९०६ ३६८५ ३५.३ २७५५ कांधला
३२५ २९९ १४६ १३१ २८३१ २५६९ २०३६ १७५३ . बुलंदशहर खुर्जा
१६२ १४५ १०६ १११ | ८४१६ ७४६२ ७८१६ ६६६९ सिकन्दराबाद २१४ २०३ २४४ २१५ | ५५०५ ५०९५ ५८०४ ४९०३ अलीगढ़ कोयल (अलीगढ) ३२४ २९५ २२८ १५० २२५५४ १८५२२ १९७५५ १५२५६ हाथरस
३१६ २९४ ३१६ २५० १९५५० १६५८३ | १७५६३ १३६२७ आगरा
आगरा १९५२ १५३८ १५१५ १२३९ ५६६५७ ५०७७२ ५६७७२ ५६७६९
फिरोजाबाद ४०६ ३९८ ३३६ २९५ ५२१० ४६८७ ४००६ ३४८६ मथुरा मथुरा |१२२ ७४ ११३ ५८ २३६४० २०७३४ २३०४५ १९१८८ कोसी
२५२ २१८ १६७ १३१ | २९८१२५१५२२९७ १९०४ फर्रुखाबाद फर्रुखाबाद ७१ ४८ १०७ ९८ २०७५९ १७५७० २२८९५ २१०५६
(फतहगढ) मेनपुरी मेनपुरी
२०० १५५ , ७५८० ६३६५ ६५३१ ५१५५ इटावा इटावा
४७६ ४०६ ५२८ ४४८ | १५४५८ १३०९५ १५३८२ १३१६२ एटा जलेसर
१२८ ९५ ४३०८ ३५६८ ३९६९ ३३२९ पटा
२९४ २२९ १२६ १०५ २८०२ २०३९ २२९६ १६६५ बिजनौर नजीबाबाद ९९ १०८ ६७ ६४ | ४६७० ४६६५ ४१५४ ३५१८ बिजनौर
२८ १७ ३६ ३२ ४२३९ ३५३९ ४३२८ ३५५८ बदायूँ बिलसी
८८ ७० ७६ ६२ - २४१७ २१०४ २२४१ १७.३ मुरादाबाद मुरादाबाद
१२५ ११७/१४६ ११७ १६५१४ १४४७२ १६७२४ १३२१६कानपुर कानपुर
३२८ २१७ २१२ १३८७२४२६ ५६१३१ ६४२१६ ४७१४३ बाँदा .
१२३ १२७ ९९ ११० । ८००१ ८१२७ ७५९३२७ इलाहाबाद इलाहाबाद
२५० ३०४ १५३ १४६ ५५७७२ ५०५३९ ५८६१८४५२१६ साँसी झाँसी
१०९ ९८.१५११२० १९१२२ १८०३५/ २२४९९ २.९८८ मानरामपुर
१४६ १६२ ५० ४७ ७५१९ ७७३८ ५७८५ ५७०९ ललितपुर १६०५६.१६८८ ६७७ - ४२०१ ४१०५ ४६५४४११० जालौन कालपी
३६ २०२६ १३ ३५३३ ३५६२. ३६८० ३६१० बनारस. बनारस |१७७ १६६ १७५ १३७ ७८१५४ ७३३३४ १९१६१५ १०२२८१ मिर्जापुर मिर्जापुर
७१ २ ३० ३२ ३२६८६ ३३३२८ | १२९५६ १२०५६ गोरखपुर पोरखपुर
४० ५१ २५ २७२१०१८ १९९४२ २०३९५ १७१९७ लखनऊ लखनऊ
२७८ २३२ |७४९१७ ६५२६० ७५५५५ ५८८२६ बहरायच बहरायच
६९७३ ५८६० ६८०२ ५४०३ सीतापुर सीतापुर
६५८२ ४३६० ७७५७ ५०९१ बाराबंकी बाराबंकी १७
४४३८ ३६६३ ४५०६ १३४३ रामपर स्टेट रामपुर .... ५७ ५० ७२ ६१ । ९१३९ ८२३२/ ७६६७ ६७५७
बाँदा
For Personal & Private Use Only
Page #84
--------------------------------------------------------------------------
________________
४५६ कोष्टक तीसरा ।
युक्तप्रान्त में प्रति दश हजार मनुष्यों में जैनी कितने थे और उनमें प्रति सैकड़ा कितनी हानिवृद्धि हुई ।
ढ़वाल ।
विभाग
पश्चिमी हिमालय |
देहरादून अल्मोडा नैनीताल, ग ३७७
·
हिमालयकी पश्चिमी तराई ॥
सहारनपुर, बरेली, बिजनौर, पी- ५३९३ लीभीत, खेरी ।
गंगाका पश्चिमी मैदान ।
मुजफ्फरनगर, मेरठ, बुलन्दशहर,
वर्तमान सं
ख्या सन्
१९११ ई. सन्
गंगाका मध्य मैदान ।
कानपुर, फतहपुर, इलाहाबाद, लखनऊ, उन्नाव, रायबरेली, सीता-२७२८ पुर, हरदोई, फैजाबाद, सुल्तानपुर, अताबगढ़, बाराबंकी
मध्य भारत ।
बाँदा, झाँसी, हमीरपुर, जालौन। पूर्वीय सतपुरा मिर्जापुर । हिमालयकी पूर्वीय तराई । गोरखपुर, बस्ती, गोंडा, बहरायचा गंगाका पूर्वीय मैदान । जौनपुर, गाजीपुर, बलि
या, आजमगढ़
टेहरी गढ़वाल रियासत
रामपुर रियासत ।
हिन्दू
मुसलमान
ईसाई
आर्य
अलीगढ़, मथुरा, आगरा, फर्रुखा ५४२८६ ४९ ५२ ४६
बाद, मैनपुरी, एटा, इटावा, बदा
यूँ मुरादाबाद, शाहजहाँपुर
,
प्रति दस हजार मनुष्यों में जैनी कितने हैं।
//
१७८
|
३१४
१८८१ से १८९१-१९०९ - १८८१ से
१८८१ १८९१ १९०१ १९११ १८९१ तक १९०१ १९११ १९११ तक
૪૨
२४५
१२०२० ५८ | ५५ | ५४
१३१ | २ २ । २
I ग
०
१८ | १७ | १६
२ ३
२ ३ ३
0
०
०
g
ૐ
३
pr
W
२
२
५
१२
४२
५४
१
१
| 2/4 1
| ४०१२१२३८ |८६२७|८६१० | ८१२ ८५०४|
प्रति सैकड़ा हानिवृद्धि कितनी हुई
+१३.९ +४६०४ -८.० +५९.०
- १०.४+६.२. ५.५
१+२००५ - १९.१-४१.७ - ३४.५
२ | +१४८.७ | +१२० ४ -११. ९ |+३८१.१
-३.९
For Personal & Private Use Only
+५.८
?
+६५.९ +१४.२ - ३१.२+३०.२
०
| - ३-७-२१-१ - २७.१
+२३४२-८ +१३३.५-२१·४ +४२८५७
०
- ८.० -४.० -५.२
+६१
·O
-७० +७८३१३+१४५
६६५८३७३ १३४३ १३५३ | १४११ | १४११+७.२ +६.५ १.१ +१२-३
|१९४२ |११|
१९ / १४११/
|GUS४८|9
१३११५४
+४८ +४०
+.७७ - १.४
११ | १२ | २१ २१ | ३८ | + २१.६ | +७५०१ +७२.७/ +२०३.१
| १४ | २८ |
2
-५.४
+९९-६+१००.९
०.९ +४९४.७
Page #85
--------------------------------------------------------------------------
________________
०-५
१८१
कोष्टक चौथा। संयुक्तप्रान्तकी उम्रवार जैन जनसंख्या। १९११। ४५७ आयु जनसंख्या | अविवाहित | विवाहित ।
जन पुरुष स्त्री | पुरुष स्त्री | पुरुष स्त्री |विधुर विधवायें सम्पूर्ण. ७५,४२७ ४०,८९५ ३४,५९२/१९,९९९ १०,४७३/१६,१२७ १६,०४७६४,७६९ ८,०१२ ०-१ वर्ष २,२२८ १,१५९ १,०६९ १,१५७ १,०६५ २ २ . .
८३८ ४१४ ४२४ ४१३ ४२३ १,६९७ ९५३ ७४४ ९५२
८४५ ७७१/ ८३९ १,६२६ ८९७ ७२९ - ८९१
८,००५ ४,२६८ ३,७३७ ४,२५२ ,३, ५-१०, ८,५९१ ४,४०७ ४,१८४४,२१७ ३,९१ १०-१५, ८,७३३ ५,०१७ ३,७१६, ४,२२४ २,२७७ ___७६२ १,३८, ३१ ४६ १५-२०, ५,१५९ ४,०५९ ३,१०० २,२६९ ३२६ १,७०५ २,५९२/ ८५ २०-२५, ७,४९८ ४,०३६ ३,४६२/ १,५०१ ९५ २,३३४ २,९४२/ २०११ २५-३०, ६,४५१ ३,५९२ २,८०६ १,०८९ ४९/२,१९६ २,३००/- ३०७ ३०-३५, ६,०३१ ३,७६३ २,८६६ ४० २१३ २,०३८ ४०५ ३५-४०,, ४,३७९ २,४३९ १,९४० ४१} १४ १,६१४ १,३३९/ ४१४ ४०-४५,, ५,२८३ २,७४० २,५४३
२० १,६८३ १,३५० ४५-५०,, ३,२०३ १,८८८ १,३१५ ५०-५५, ४,०६० २,११८ १,९४२ .. १३/ १,०७५ ५५-६०, १,७४५ ९९१ ७४
६ ३८१ ५७६ ६- २,४९२, १,२१२ १,२८
94
१,०९३
५२१
५५३
७० वर्षसे ११,०७४ भधिक आयुषाले
For Personal & Private Use Only
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________________
४५८
.
virarmawww
AAMANAMAVAAAAP
जैनहितैषी
[भाग १३ गोलमालकारिणी सभाके क्लोर्का नाकों दम है । पत्रोंके उत्तर भी बड़ी
मुश्किलसे दिये जा सकते हैं । मध्यप्रदेशके समाचार ।
एक धनी मानी सिंगईजीका अभी हालहीमें एक पत्र आया था । उसका. सारांश यह है कि
" मैं वृद्ध हो गया हूँ। मेरी जिन्दगीका सबसे गोलमालकारिणी सभाके अधिवेशन होनेकी बड़ा तजरुबा यह है कि मन्दिर बनवाने और अभी तक कोई उम्मीद नहीं । कारण ! नकद रथप्रतिष्ठायें करानेसे ही जैनधर्मकी वास्तविक नारायणोंकी अकृपा। इनकी कृपाके बिना कोई उन्नति होती है । मैंने इसी प्रकारके ही पुण्यकाम नहीं होता । वे दिन चले गये, जब कार्य करवाके परवार जातिको उन्नतिके शिखरसभाओंके प्लेटफार्म पर अपील हुई कि रुपयोंकी पर चढ़ा दिया है । मेरे द्वारा बीसों परवार झड़ी लग गई। अब तो अधिवेशनके खर्चके 'सिंगई ' और 'सवाई सिंगई ' पदसे विभूषित रुपये भी मुश्किलसे वसूल होते हैं । एक तो किये गये हैं । ये पदवियाँ ' राय साहब ' अब कोई समझदार सभापति बननेको तैयार तथा ' रायबहादुर' के खिताबोंसे जरा भी नहीं होता । क्योंकि कुछ लोगोंने इस पदकी कम नहीं। मैं चाहता था कि परवारोंमें एक प्रतिष्ठा बहुत बढ़ा दी है। अमुक सेठजी अमुक भी कुटुम्ब ऐसा न बचे जो सिंगईके पदसे विभूजैन सभाके सभापति हुए, इसका अर्थ ही लोग षित न हो । पर अब अपने वृद्ध शरीरकी तरफ यह करने लगे हैं कि अमुक 'भोला शिकार ' अमुक देखनेसे यह विश्वास नहीं होता कि, मेरी यह प्रान्तवालोंके पंजेमें जा फँसा। दूसरे, सभापतियोंसे इच्छा पूरी होगी । क्या आप कोई ऐसी तरकीब रुपये माँगे जाते हैं । उनके स्वागत आदिमें जो बतला सकते हैं, जिससे मेरी उक्त साध पूरी हो रुपया खर्च होता है, कमसे कम उतना पानेकी जाय?" यह पत्र बहुत ही महत्त्वका समझा गया; आशा तो उनसे लोग करते ही हैं । यदि कोई इस कारण इसका उत्तर स्वयं गोलमालानन्दजी कंजूस हुआ और कुछ न दे गया, अथवा कम समापतिने अपनी कलम शरीफसे लिखा है। दे गया तो फिर उसकी मिट्टी पलांद की जाती है। उसका सारांश यह है कि, "जबलपुरमें एक बड़ी
ऐसी एक दो घटनायें तो अभी हालहीमें हो भारी रथप्रतिष्ठा कीजिए और पत्रोंद्वारा सूचना गई हैं । एक सभापति महाशयके स्वागतमें कर दीजिए कि, जो लोग सिंगई बनना चाहें लगमग ५०० रुपये खर्च किये गये; परन्तु वे वे यह अवसर न चूकें । यह गजरथ परवारचन्दा लिख गये कुल १०१ रुपये ! इस पर मण्डलीकी आरसे चलनेवाला है। इसके फण्डमें लोगोंने उन्हें खूब ही कोसा । ऐसी दशामें जो माई कमसे कम पचास रुपये देंगे, वे सिंगई अधिवेशनके होनेकी आशा कोसों तक नजर बना दिये जायेंगे । रथकी धुरी बहुत ही बड़ी नहीं आती। फिर भी फन्दे लगा रक्खे हैं । बनवाई गई है जिसको सब लोग पकड़ यदि कोई चंडूल फँस गया तो देखा जायगा। सकेंगे। जो लोग पहलेके सिँगई और सवाई
सिंगई हैं उन्हें धुरी पकड़नेका अधिकार अधिवेशनका तो अभीतक कोई प्रबन्ध नहीं नहीं होगा । इस तरहसे आप एकही वर्षमै हुआ, पर यह सुनकर लोग खुश होंगे कि सभा- हजारों सिंगई बना सकेंगे । आशा है कि के आफिसका काम जोरों पर है । कामके मारे आपको यह युक्ति पसन्द आयगी ।” सुनते हैं,
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अङ्क ९-१०]
गोलमालकारिणी सभाके समाचार ।
४५९
.
सिंगईजी इस उत्तरसे बहुत ही खुश हुए हैं। गोलोंकी सराहना कर रहे हैं । मैंने स्वयं कई उन्होंने सूचना भी निकालं दी है । सूचनासे पण्डितोंके मुँहसे सुना है कि, भद्रबाहुसंहिता परवार समाजमें बड़ी खलबली मची है। जो जाली ग्रन्थ है, उसकी समालोचना उचित ही सिंगई, सवाई सिंगई आदि हैं, उनकी बदहवासीका की गई है और त्रिवर्णाचारादि धूर्त भट्टारकोंके तो कुछ ठिकाना नहीं है। सुनते हैं, वे इसका बनाये हुए हैं। इससे जान पड़ता है कि शत्रुकी प्रतिवाद करेंगे। कोई कोई तो अदालततककी भेदनीति काम कर गई । अब वह दिन दूर नहीं शरण लेना चाहते हैं।
है, जब आप लोगोंमें भी रूस सरीखी फूट फूट
निकलेगी और यह सुकोमल अन्धश्रद्धाका राज्य एक बिलकुल ही प्राइवेट समाचार है। ऐसे कठोर ‘परीक्षा' के पंजेमें जा फँसेगा ।" इसका समाचारोंको सर्वसाधारणमें प्रकट करना सभ्य- उत्तर क्या आया है, सो मुझे पढ़नेको नहीं ताके खिलाफ है। इसलिए मैं जैनहितैषीके पाठ- मिला । इतना सुना है कि शास्त्रीय परिषत् . कोंको अच्छी तरह और बारबार सावधान किये अपनी 'सारे दिनमें ढाई कोस' वाली रफ्तारको देता हूँ कि वे इस खबरको बिलकुल ही गुप्त कुछ तेज़ करनेवाली है। रक्खें-यहाँ तक कि कोई गैर आदमी पढ़कर
. ४ सुनानेके लिए भी कहे, तो न सुनावें । सभापति विलायतमें जो योग्यता वृद्ध सेनापति लार्डमहाशय शास्त्रीय परिषत्के साथ इन दिनों एक किचनरकी समझी जाती थी, वही जैनियोंके बहुत जरूरी मामले में पत्रव्यवहार कर रहे पुराने दलमें सरनौवाले पं० रघुनाथदासजीकी हैं । एक पत्रमें लिखा गया है-" आप लोग है। यदि युद्धके प्रारंभमें लार्ड किचनर न होते तो बहुत ही सुस्त हैं । सालभर होनेको आया, इस समय फ्रान्सका नकशा ही बदल गया होता । पर आपकी परिषत्ने कोई भी काम नहीं पं०रघुनाथदासजी भी यदि जैनगटके सम्पादक न किया । शत्रुदल दिन पर दिन प्रबल होता जा होते तो आज बाबू लोगोंने जनसमाजको नेस्त रहा है। पर आपको इसकी जरा भी चिन्ता नाबूद कर दिया होता । आपने अपने पुराने नहीं है । एक मुख्तार साहबके लेख ही गजब ढा जमानेके भद्दे, बेढंगे, बेसिलसिले, पर भयंकर रहे थे कि अब एक वकील साहब और मैदानमें लेखोंकी मारसे अपने प्रतिपक्षियोंके छक्के छुड़ा आ डटे हैं । रूसके -अजेय किलों पर जर्मनी दिये । आपके रौबीले चेहरे और प्रज्वलित नेत्री
और आस्ट्रियाकी भयंकर तोपोंने जो काम ने भी बड़ा काम किया। किसीको आपके सामने किया था, वही इनके लेख कर रहे हैं। यदि खड़े रहनेका भी साहसे न हुआ। इसी समय आपकी दशा रूसके ही समान रही, तो इन लोगोंने सुना कि, आपने अपने पदसे इस्तीफा पेश अन्धश्रद्धाही दीवालोंका पता भी नहीं लगेगा किया है ! इससे वे घबड़ाये और लगे महासभाके कि कहाँ गई । एक तो रूसकी प्रजा जिस मंत्री और जैनमजटके प्रकाशकके विरुद्ध तरह ज़ारके शासनसे असन्तुष्ट थी, उसी तरह आन्दोलन करने । यह ठहरा आन्दोलनका आप लोगोंकी, 'इस कुंभकरण जैसी छेह छह जमाना; इससे इन्द्रका सिंहासन डोल उठा। गोलमहीनेकी नींद और आराम तलबीसे लोग प्रसन्न मालकारिणी सभाके सभापतिने उसी समय महानहीं हैं; दूसरे आपके मेम्बरोंमें भी मतभेद होने सभाके मंत्रीको एक पत्र लिखा कि लार्ड किचलगा है । कई मेम्बर तो खुल्लमखुल्ला शत्रुके - नरके अतल जलमें डूब जानेसे जो हानि ब्रिटिश
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४६०
एम्पायर की हुई है, वही इस महावीरके इस्तीफा देनेसे आपकी होगी । दुनियाको आश्चर्यमें डुबानेवाले इनके पुराने हथखण्डे फिर किस्से कहानियों में ही रह जायँगे । समय पर चेत जाइए, नहीं तो आपको पछताना होगा । और आश्चर्य नहीं जो आप भी इस ' अनारी' पदसे अलग कर दिये जायँ । मंत्री महाशय सटपटाये और लगे खुशामद करने | सम्पादक महाशय आखिर बूढ़े ही तो ठहरे, खुशामद की जरा सी गर्मी से पिघलकर पानी हो गये । चसे लिख बैठे- मैं अपना इस्तीफा बड़ी खुशीसे वापस लेता हूँ । नौजवान प्रकाशकको हँसी आ गई । उसने तत्काल ही इस अनोखे इस्तीफेको प्रकाशित कर दिया। झगड़ा तै हो गया। पुराने दलमें खुशियाँ मनाई जाने लगीं और बाबू लोगों की नानी मर गई ।
- श्रीगड़बड़ानम्द शास्त्री ।
जैनहितैषी -
शास्त्र - प्रामाण्य | ि
परोक्ष प्रमाणके पाँच मैदोंमें आगम या शास्त्र भी एक प्रमाण है । यह भी वस्तु के सच्चे स्वरूप को जाननेका एक साधन है । परन्तु इसको एक मर्यादा के भीतर ही प्रमाणता है । शास्त्रप्रामाण्यका यह मतलब नहीं है कि, इसके माननेवाले अपनी सदसद्विवेकबुद्धिको –— खरा खोटा पहचाननेकी शक्तिको सर्वथा ही तिलाज्जुलि दे देवें और शास्त्र के नामसे वे चाहे जिसकी आज्ञाको सिरपर चढ़ाने लगें । शास्त्रों के आगे मस्तक झुकाने के लिए हम सदा प्रस्तुत हैं, परन्तु पहले हमें यह जान लेना होगा, इस बातकी परीक्षा कर लेनी होगी कि वे वास्तवमें शास्त्र हैं - शास्त्रोंके आप्तप्रणीत आदि लक्षणोंसे युक्त हैं; कहीं शास्त्रोंके नामसे अन्धश्रद्धालुओंके बाजारमें चलनेवाले नकली सिक्के तो नहीं हैं। शास्त्रों के
[ भाग १३
प्रति जनसाधारणकी जो भक्ति और श्रद्धा है, वह इतनी बहुमूल्य और लुभानेवाली है कि उसको प्राप्त करनेको चाहे जिसका मन मचल सकता है— चाहे जिसकी इच्छा हो सकती है कि हम इनके द्वारा लोगों की श्रद्धा और भक्तिका उपभोग करें और अपना स्वार्थ साधन करें । अतएव हमें इस विषय में बहुत ही सावधान रहने की आवश्यकता है । हमें स्मरण रखना चाहिए कि इस समय इस प्रकारके न जाने कितने पोथे शास्त्रोंका नाम धारण करके हमारे यहाँके सरस्वती - भण्डारों के बहुमूल्य वेष्टनोंके परदों मेंसे हमारी विवेकबुद्धि पर तीव्र कटाक्षपात कर रहे हैं-व्यंग्यकी हँसी हँस रहे हैं ।
जब तक हममें श्रद्धा और भक्तिके साथ साथ विवेकबुद्धि भी रही, तबतक इस आगमप्रमाणता से हमें यथेष्ट लाभ होता रहा; परन्तु ज्यों ही हमारी श्रद्धा और भक्तिने विवेकका साथ छोड़ा - वह अन्धश्रद्धा या अन्धभक्तिके रूप में परिणत हो गई, त्यों ही इससे हमारी दुर्दशा होना शुरू हुई । जहाँ हम पहले ज्ञानके उपासक थे, सत्यके अनुयायी थे, वहाँ शास्त्रनामधारी जड़ वाक्योंके भक्त बन गये | अमुक पदार्थक स्वरूप वास्तवमें क्या है, इसके स्थान में अमुक शास्त्रमें वह कैसा बतलाया गया है, हम इसकी चिन्तामें रहने लगे। शास्त्रोंको वह अधिकार प्राप्त हो गया, जो थोड़े समय पहले रूस-सम्राट् जारको प्राप्त था । उनके वाक्य ही सर्वोपरि शासक बन गये । इधर अच्छे ज्ञानियों और अधिकारियोंकी कमी हो रही थी । फिर क्या - था, अन्धाधुन्धी शुरू हो गई। शासनका लोभ साधारण नहीं होता। जो अपात्र और अयोग्य थे उन्होंने भी इस लोभके फेर में पड़कर शास्त्रों की रचना करनी शुरू कर दी और उन्हें बहुमूल्य वेष्टना से वेष्टित करके सरस्वतीमन्दिरों में स्थापित कर दिया ।
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अङ्क ९-१० ]
विविध प्रसङ्ग।
४६१
___ ऐसी दशा में हमें केवल शास्त्र या आगमका और ३१ (?) नवंबरतक सभापति श्री आत्मानाम सुनते ही हथियार न फेंक देना चाहिए । नन्द जैन ट्रैक्ट सोसायटी अम्बाला शहरको यदि ऐसा करोगे तो याद रक्खो, मिथ्यात्वकी भेजना चाहिए । सर्वोत्तम लेखको छपवाने और चुंगलमें फँसे विना न रहोगे । तुम अपनेको स्वाधीन रखनेका सर्व हक सोसायटीको होगा।' समझते भले ही सम्यग्दृष्टियोंके शिरोमणि रहो, इस नोटिसको पढ़कर शायद कुछ भोले भाईयोंने पर वास्तवमें घोर मिथ्यादृष्टि हो जाओगे । यह समझा हो कि उक्त सोसायटीने विद्वानोंकी जिसने विवेकबुद्धिको आलेमें रख दिया है, खरे कदर करना प्रारंभ किया है और वह जरूर
और खोटेकी पहिचान भुला दी है और जो उत्तमोत्तम लेखकोंद्वारा अच्छे अच्छे निबन्ध जड वाक्योंका गुलाम बन गया है वही यदि तय्यार कराकर उन्हें प्रकाशित करनेमें शीघ्र सम्यग्दृष्टि है, तो फिर सम्यग्दृष्टित्वकी महिमा समर्थ होगी । परन्तु यह निरी भूल और कोरा ही क्या रही ? ऐसा सम्यग्दर्शन क्या कोई बड़ा ख्वाब खयाल है । सोसायटीके इस आचरणसे मारी प्रार्थनीय गुण हो सकता है ! शास्त्रोंको उससे ऐसी आशा रखना बिलकुल फिजूल मानो, मस्तक पर चढ़ाओ, पूजो, इसके बिना और निर्मूल है। उसके इस आचरणको कदर आत्मकल्याण नहीं हो सकता, सम्यग्दर्शनकी नहीं, विद्या और विद्वानोंका, एक प्रकारसे प्राप्तिके लिए ये बहुत ही अच्छे साधन हैं; परन्तु अपमान कहना चाहिए । परन्तु अपमान हो या यह ध्यानमें रक्हो कि कागज या ताडपत्र पर सम्मान, इसमें संदेह नहीं कि, सोसायटीने यह लिखा हुआ सब ही कुछ शास्त्र नहीं है । भगवान् नोटिस निकालकर अपनी योग्यताका खासा समन्तभद्रने शास्त्रका लक्षण यह किया है:- परिचय दिया है । उसकी दृष्टि कितनी आप्तोपज्ञमनुल्लन्यमदृष्टेष्टविरोधकम्। संकीर्ण और कितनी अनुभवशन्य है, इसका तत्त्वोपदेशकृत् सार्व शास्त्रं कापथघट्टनम् ॥ पता भी इस नोटिससे भले प्रकार लग जाता
है । जान पड़ता है कि, सोसायटीको अभीतक विविध प्रसंग। यह भी मालूम नहीं कि ' रहस्य ' कहते किसे
हैं; और वह कितने गहरे अध्ययन, मनन, अनु- :
भव और परिश्रमसे सम्बन्ध रखता है । शायद १ विद्वानोंकी कदर। उसने कहींसे रहस्यका सिर्फ नाम सुन लिया 'दिगम्बर जैन' के गांक नं० ११ में, है और इस लिए वह उसे बच्चोंका एक खेल 'श्रीआत्मानंद जैन ट्रैक्ट सोसायटी अम्बाला' समझती है। तभी उसने किसी विद्वानसे विनय, की ओरसे, एक नोटिस प्रकाशित हुआ है, अनुनय, और प्रार्थना आदि करनेकी जरूरत जिसका शीर्षक है विद्वानोंको इनामकी सूचना' न समझकर, उत्तमसे उत्तम निबंधके लिए एकऔर वह नोटिस इस प्रकार है-
दम दस रुपयेकी भारी रकमका इनाम निकाल __'जो सज्जन " जैनसंध्या (प्रतिक्रमण ) का दिया है ! हमारी समझमें यदि सोसायटी रहस्य" इस विषय पर हिन्दी भाषामें लेख मूल्य देकर पाँचसौ रुपयेमें भी ऐसा एक सांगोलिखकर भेजेंगे. उनमेंसे जिसका लेख उत्तम पांग रहस्य तय्यार करा सके, जिसे वास्तवमें होगा उसको यह सोसायटी १०) इनाम देगी। जैनसंध्यावंदनका रहस्य कहना चाहिए, तो लेख फुल्सकेप कागजके २० पृष्ठसे कम न हो उसे अपनेको भाग्यशालिनी समझना चाहिए ।
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जैनहितैषी
[भाग १३
परन्तु पाँचसौ रुपयेकी बला तो बहुत दूर है, नोंसे मिलकर पत्रव्यवहार करके और सर्व प्रकासोसायटीकी संकुचित दृष्टिमें, ऐसे निबन्धके रकी सामग्रीकी सहायताका पूर्ण प्रबंध करके उन्हें लिए, यह दस रुपयेका इनाम भी आधिक जान उन कामोंमें लगाना चाहिए और इस बातका पड़ता है; और इस लिए वह इन दस रुपयोंमें खास खयाल रखना चाहिए कि वे विद्वान यहाँतक हक प्राप्त करना चाहती है कि स्वयं निराकुलतापूर्वक अपने कार्योंका संपादन करते लेखकको उस निबन्धके छपवाने या छपवानेके रहें। ऐसा प्रयत्न होने पर यथेच्छ निबंध लिखे लिए किसी दूसरेको इजाजत देनेका भी अधि- जा सकते हैं, और समाज तथा देशमें एक प्रकारसे कार न रहेगा ! ! ऐसी हालतमें कहना न होगा ठोस कामोंकी नीव पड़ सकती है । आशा है कि सोसायटीकी विवेकदृष्टिमें लेख लेख सब कि, उक्त सोसायटी तथा इस प्रकारकी दूसरी समान हैं-एक कहानी और तात्विक-विवेचन- जैनसंस्थायें भी इस नोटसे कुछ शिक्षा ग्रहण में परस्पर कोई भेद नहीं-जैसा पहाड़ खोदकर करेंगी और अपने कामोंका मार्ग मालूम करेंगी। नहर निकालना वैसा ही एक राजबाहेमेंसे कूल _ -जुगलकिशोर मुख्तार । ( नाली ) निकाल देना दोनों बराबर हैं !!!
जिस समाजकी सभा सोसायटियाँ भी ऐसी २ खाद्य पदार्थों में मिलावट । ऐसी कदरदान और गुणग्राहक हों उसके संसारके सभी देशोंमें खाद्य पदार्थोकी उद्धारमें फिर भला विलम्बका क्या काम ! रक्षाके लिए बड़े कड़े नियम हैं । हिन्दू धर्महमारी रायमें अच्छा हो यदि उक्त सोसायटी शास्त्रोंमें खाद्याखायविचार पर बहुत कुछ अपनी ऐसी उदारता और कदरदानीकी विचार- लिखा गया है और बहुत अच्छा लिखा गया तरंगोंको गुप्त ही रक्खा करे, जिससे उन्हें पेप- है। कुछ समय पहले अँगरेजी पढ़े लिखे लोग रोंमें प्रकाशित करके, उसे व्यर्थ ही विद्वत्समा- अपने धर्मग्रन्थोंकी उन सारपूर्ण बातोंका जके सम्मुख हँसी और लज्जाका पात्र तो न मजाक उड़ाया करते थे। किन्तु भला हो बनाना बड़े । इसमें संदेह नहीं कि आजकल योरपके विज्ञानाचार्योंका कि जिन्होंने नित्य रहस्य, मीमांसा, परीक्षा और तात्त्विक विवेचना• नये सिद्धान्त निकाल कर कीटाणुवाद आदि स्मक निबंधोंके लिखे जानेकी बहुत बड़ी जरू- अनेक तथ्यपूर्ण सिद्धान्तोंका आविष्कार कर रत है। ऐसे निबंधोंसे न सिर्फ जैनसमाज बल्कि दिया । बाजारकी चीजें खाना, जते और कपडे समूचा भारतदेश प्रायः शून्य है। जिस समय पहने भोजन करना अब विज्ञानद्वारा भी अनुदेशमें आज्ञाप्रधानताका युग प्रवर्तित था, उस चित ठहरा दिया गया है। बेचारे स्मृतिकारों समय विना ऐसे निबंधोंके भी काम चल जाता और आचार्योंकी इज्जत रह गई। चौकेकी था । परन्तु अब इस परीक्षाप्रधानी युगमें ऐसा नष्टप्राय प्रथा अब फिर अपने असली रूपमें होना एक प्रकारसे असंभव है । इस लिए ऐसे प्रकट होने लगी है। निबंधोंके लिखाये जानेकी बहुत बड़ी जरूरत किन्तु अब तक खानेके उन पदार्थों के है। परन्तु उनके लिखानेका यह मार्ग नहीं है। विषयमें जिनमें धूर्त और स्वार्थान्ध व्यवसायी इतने भारी काम ऐसे ऐसे क्षुद्र नोटिसों द्वारा अन्य अनावश्यक ही नहीं स्वास्थ्यनाशक पदार्थों कभी साध्य नहीं हो सकते। उनके लिए बडे बड़े की मिलावट करके देशके स्वास्थ्यका नाश आयोजनोंकी जरूरत हैं। खास खास विद्वा- कर रहे थे हमारा ध्यान आकृष्ट नहीं हुआ था।
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अङ्क ९-१०]
विविध प्रसङ्ग।
हमारी गवर्नमेन्ट ने भी उस ओर विशेष ध्यान शालिचूर्ण वा " की तरह उस शुद्ध चीजसे नहीं दिया था। किन्तु हर्षकी बात है कि अपना काम निकाल लें; तभी इन धूर्त व्यवहमारे देशके कुछ समझदार लोगोंने इस सायियोंका मुँह काला और पेट पतला होगा। अत्यन्त आवश्यक आन्दोलनको उठाया है घी ही नहीं, और भी खानेकी जिन जिन चीऔर यथानियम गवर्नमेन्टने उनका साथ दिया जोंमें मिलावट होती है उसके प्रतीकारके लिए हमें है । जो लोग समाचारपत्र पढ़ना पाप नहीं सम- सचेष्ट होना चाहिए । तभी अल्पायु भारतवासियों झते उन्हें यह विदित ही होगा कि कलकत्तेमें की रक्षा होगी। -ज्वालादत्त शर्मा । (वैद्यसे) मिश्रित घीके विषयमें कैसा आन्दोलन हुआ है । हम चाहते हैं कि इस तरहका आन्दोलन ३ घतके बदले दूसरे पदार्थ ।। हर प्रान्त, हर शहर, हर गाँव और हर घरमें इस समय जब कि शुद्ध घृतका मिलना बड़ा हो । जिन चीजों पर हमारा स्वास्थ्य दुष्प्राप्य हो गया है और अनेक प्रकारके हानिनिर्भर है, जो हमारे रक्तको बनाती हैं, उनमें कारक और अभक्ष्य पदार्थों के द्वारा बनाया हुआ यदि कोई मिलावट करता है-नहीं, विष मिलाता घृत नामक विषाक्त पदार्थ सर्वत्र प्रचलित हो है तो हमें उसके इस आचरण पर जितना क्रोध रहा है, ऐसी अवस्थामें घृतका सर्वथा त्याग आये थोड़ा है । हमें उसके प्रतीकारके लिए कर देना ही उचित जान पड़ता है । घृतके कोई बात उठा न रखनी चाहिए। यदि अच्छी बदले दूसरे पदार्थों से भी काम चल सकता है। तरह आन्दोलन किया जाय, हिन्दू मुसलमानों- तिलीका तेल, मूंगफलीका तेल, नारियलका को बता दिया जाय कि घीमें चर्बी मिलती तेल, आदि कई तेल घृतके बदले काममें लाये है, गाय भैंसकी ही नहीं सुअर और साँप तक- जा सकते हैं । यद्यपि मिलावटी घृतमें भी ये की चर्बीका उसमें सपिण्डन होता है तो कोई पदार्थ मिलाये जाते हैं, परंतु उसमें कई पदार्थोंकारण नहीं कि भारतकी ये धर्मप्राण प्रधान का विरुद्ध संयोग होनेसे वह विषके समान जातियाँ इस तरहके घी या किसी अन्य पदार्थ- हो जाता है । उपर्युक्त तेल पृथक् पृथक् रूपमें को न छोड़ें । पर इसके लिए कुछ स्वार्थत्याग- ही अच्छा गुण करते हैं । तिलीका तेल घृतकी आवश्यकता है। उससे भी अधिक स्वाद- की अपेक्षा अधिक बलकारक है । इस लिए त्यागकी है । जो लोग बाजारकी मिठाइयाँ लोग इस तेलका व्यवहार अधिकतासे करते हैं। खाते हैं उन्हें चाहिए कि अपनी इस बुरी आदत- तथापि तेल अधिक उष्ण और उग्रवीर्य्य होनेको ठीक करें तभी तो ऊँची दूकानधारी हुल. के कारण सब प्रकृतिके मनुष्योंके अनुकूल वाइयोंको फीकी मिठाइयाँ बनानेकी धूर्तता नहीं पड़ता। सरसोंका तेल भी खानेमें अच्छा छोड़ना पड़ेगी। हमें चाहिए कि उत्सव या है, पर यह तिलके तेलसे भी अधिक तीक्ष्ण त्यौहारोंको खूब सादगीसे सम्पन्न कर लें । वृथा और उष्ण है; इस कारण सब लोग इसका उपआडम्बरके चक्रमें पड़ कर धर्मकी हानि न योग नहीं कर सकते । धुले तिलौका तेल करें। देशके वैज्ञानिकोंका कर्त्तव्य है कि वे साधारण तिलोंके तेलकी अपेक्षा अधिक सौम्य घीके जोड़की कोई चीज बतावें । जिन्हें शुद्ध है। इस लिए यह वैसी उष्णता, दाह आदि घी मिलता है वे आनन्दसे उसे खायें, किन्तु विकार पैदा नहीं करता। बहुत लोग तेलको जो उसे नहीं खरीद सकते हैं वे " अभावे नमक, क्षार, हलदी आदि पदार्थोके द्वारा फाड़
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જી
इस लि
जैनहितैषी -
कर घृतकी समान स्वच्छ बनाते हैं । फटे हुए तेल में तेलकी गंध नहीं रहती और सामान्य तेलकी अपेक्षा यह कुछ हलका भी हो जाता है, इस लिए घृतके बदले में व्यवहार किया जा सकता है । घृतके अभाव में मूँगफलीका तेल भी व्यवहार किया जा सकता है । मूँगफलीका तेल पौष्टिक है और इसमें वैसी तीक्ष्णता या उष्णता भी नहीं है । मूँगफली का तेल, खसखस और खरबूजोंकी गिरीके तेलसे अतिशय श्रेष्ठ है। बिनौलेका तेल अत्यंत पुष्टिकारक और जठराग्नि बलकी वृद्धि करता है । बिनौलेके तेल में भी मूँगफलकि तेलकी समान पौष्टिक तत्व अधिक है और यह मूँगफली की समान सस्ता पड़ता है। नारियलका तेल अत्यंत बल वीर्य्यवर्द्धक और पुष्टिकारक है । यह अन्य तेलोंकी अपेक्षा निर्दोष है और उग्रवीर्य भी नहीं है लिए इसका सब लोग मजे में व्यवहार कर • सकते हैं। कितने ही डाक्टर इसको कार्ड लिवर आयल के समान पौष्टिक और बलवर्द्धक मानते हैं। दाल, शाकादि व्यंजन और सब प्रकारके पकवान, मिठाई वगैरह पदार्थ इसके द्वारा अच्छे प्रकार तयार किये जा सकते हैं । यद्यपि नारियलके तेलों एक प्रकारकी नारियलकी कुछ गंध आती है, परन्तु वह उसके ताजे तयार किये हुए पदार्थोंमें नहीं आती । दुःख है कि यह तेल रोटी के साथ या दालमें डाल कर नहीं खाया
।
जा सकता ।
- ( वैद्यसे उद्धृत । )
४ ब्रह्मचारीजी और पुनर्जम्मका सिद्धान्त । जैनामित्रमें ता० ८ अगस्तके जयाजी प्रतापसे एक पुनर्जन्म विस्तृत था उद्धृत की गई है जिसका संक्षिप्त सार यह है- " भिण्ड ( ग्वालियर ) से ७ मीलकी दूरी पर नुनहटा एक छोटासा गाँव है । वहाँके काशीराम पट
[ भाग १३.
वारीकी छोटेलाल ठाकुरसे शत्रुता हो गई । काशीरामने जमींदारीके कागजों में कुछ ऐसी लिखा पढ़ी कर दी थी जिससे छोटेलालको बहुत हानि पहुँची थी । एक दिन मौका पाकर छोटेलालने काशीरामका काम तमाम कर दिया और वह भाग गया । काशीराम घोड़ी पर सवार होकर कहींको जा रहा था । एकं पपिलके पेड़के पास पहुँचने पर छोटेलालने उसे गोली मारी, और जब वह नीचे गिर पड़ा, तब उसकी दाहिने हाथकी उँगलियाँ काट डालीं जिनकी सहायतासे लिखकर उसने उसे हानि पहुँचाई थी । ६ नवम्बर १९०८ को काशीराम मारा गया । इसके दो महीने और २५ दिनके बाद बीसलपुरा में जो नुनहटासे ६-७ कोस दूर हैमिहीलाल ब्राह्मणके सुखलाल नामका एक लड़का पैदा हुआ | इसके दाहिने हाथ छोटी उँगली आधी, अँगूठा एक चौथाई और बाकी उँगलियाँ बिलकुल नहीं हैं । छाती में एक गोली जैसा निशान है और वहाँकी कुछ हड्डियाँ भीतरकी ओरको मुँड़ी हुई हैं। जब यह लड़का तीन वर्षका हुआ और बोलने लगा, तब उसके बापने एक दिन पूछा कि विधाता क्या तेरी उँगलियोंको बनाना भूल गये ? उसने कहा कि नुनहटाके छोटेलाल ठाकुरने मेरी उँगलियाँ काटी थीं । मैं पहले जन्म में कायस्थ था और काशीराम मेरा नाम था । मैं घोड़ी पर सवार था, तब मुझे बन्दूक मारी थी और फिर मेरा हाथ काटा था। पीपल के पेड़के पास मेरी जान ली गई थी । इस समय यह लड़का ८- ९ वर्षका है | ग्वालियर स्टेटके किसी राजकर्मचारीने इस मामले की जाँच करके ये सब बातें प्रकाशित कराई हैं । उन्होंने लड़के मा बापके तथा दूसरे कई आदमियों के बयान लिये हैं और उन सबसे यह नतीजा निकाला हैं कि यह मामला बनावटी नहीं है। क्योंकि इस
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अङ्क ९-१०]
विविध प्रसङ्ग ।
तरह झूठा किस्सा गढ़ लेनेका कोई कारण नहीं चर्चिनाम् ' सिद्धान्तके माननेवाले हैं । ऊपरका मालूम होता । जो लोग पुनर्जन्मले सिद्धान्तका नोट इस बातका बहुत बड़ा प्रमाण है । अध्ययन करनेवाले हैं, उनके लिए यह विचार आपने उठाई कलम और लिख दिया कि करने योग्य घटना है।"
काशीरामके जीवने २५ रोज तक कोई पशुइस उद्धृत लेखके नीचे ब्रह्मचारी शीतल- पर्याय धारण कर ली होगी। यह नहीं सोचा कि प्रसादजीका एक नोट लगा हुआ है। उसको मनुष्यों और पशुओंको कुछ समयतक गर्भमें हम यहाँ अक्षरशः उद्धृत करते हैं-" ऊपरका भी रहना पड़ता है । जिस समय किसीका जन्म बयान असत्य नहीं मालूम होता; यह संभव है होता है, ठीक उसी समय वह दूसरे स्थानसे कि २ महीने २५ रोज तक इसके जीवने कोई च्युत होकर आया हुआ नहीं होता; किन्तु पशुपर्याय धारण कर ली हो । जैनसिद्धान्तसे उसके कुछ महीनों पहलेसे वह गर्भमें आ गया ऐसा होना व जातिस्मरणद्वारा पूर्व बात याद होता है। और पशुपर्यायकी तो एक ही कही। आना प्रमाणित है।"
___एक ही पर्यायको धारण करनेके लिए तो दिन ___ इस नोटके पढ़ चुकने पर पाठकोंको विचार पूरे नहीं हैं, पर आपे बीचमें एक पशुपर्याय करना चाहिए कि जैनधर्मके पुनर्जन्मके सिद्धा- और भी धारण करा देते हैं । हम यह नहीं न्तसे उक्त घटना कहाँ तक मेल खाती है । सुख- कहते हैं कि ब्रह्मचारीजी पुनर्जन्म-सम्बन्धी इन लालका जन्म ३१ जनवरी सन् १९०९ को मोटी मोटी बातोंको जानते नहीं हैं; नहीं वे.. हुआ है और जैसा कि उसकी माँने कहा है, मैनधर्मके इस सिद्धान्तसे अच्छी तरह परिचित वह ९ महीने पूरे होने पर १० वें महीने में पैदा होंगे; परन्तु एक तो उन्हें अधिक विचार करहुआ है । अर्थात् १ मई सन् १९०८ के लगभग नेका अभ्यास नहीं है, दूसरे वे इस प्रकारके प्रमा वह अपनी माताके गर्भ में आया होगा। जैन- गोंसे-जिनपर वर्तमानकी जनता कुछ अधिक सिद्धान्तके अनुसार गर्भाधान होनेके साथ ही विश्वास करती है-भरपूर लाभ उठा लेना माताके गर्भस्थानमें जीवकी स्थिति हो जाती है। चाहते हैं और इस लाभके लोभमें वे किसी चरक, सुश्रुत आदि आयुर्वेदके ग्रन्थोंका भी 'ढीले-ढाले । ठीक न बैठते हुए प्रमाणको भी यही सिद्धान्त है। अब देखिए कि काशीरामकी व्यर्थ नहीं जाने देना चाहते । जैनमित्रमें इस हत्या कब हुई थी ? वह ६ नवम्बर १९०८ को प्रकारके नोट अकसर निकला करते हैं और अर्थात् सुखलालके गर्भ में आनेके कोई ६ महीनेके आशा है कि आगे भी निकलते रहेंगे। बाद मारा गया है । तब क्या वह मरनेके पहले ही गर्भमें आ गया था ? ब्रह्मचारीजी जैन- ५ रीति-रवाजोंकी गुलामगिरी। मित्रका सम्पादन इतनी जल्दी करते हैं, और मनुष्य धर्मकी उतनी परवा नहीं करता, उन्हें जैनसिद्धान्त पर चलता-मलिनता-अगाढ़ता- जितनी कि रीति-रवाजोंकी करता है । वह रहित ऐसा — भयंकर ' विश्वास है कि उन्हें धर्मका नहीं किन्तु. रीति-रवाजोंका गुलाम है। किसी विषय पर अधिक विचार करनेकी आव- संसारमें धर्मके नामसे जितने काम हुए हैं, या श्यकता ही नहीं मालूम होती । विषयके भीतर होते हैं, मत समझो कि वे सब धर्मके ही लिए प्रवेश करना-कुछ गहरे पैठना-उनकी समझमें हुए हैं । नहीं, यदि विवेकदृष्टि से देखोगे, तो व्यर्थ है । वे पं० आशाधरके 'कुतः श्रेयोऽति- उनमेंसे अधिकांशके भीतर यह रीति-रवाजोंकी
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४६६ जैनहितैषी
[भाग १३ गुलामगीरी ही दिखलाई देगी । क्या आप इस खर्चियाँ बन्द कर देंगे । हम एक ऐसी बातर्फी समय जितने जैनियोंको देखते हैं, उन सबको ओर पाठकोंका ध्यान आकर्षित करना चाहते जैनधर्मके अनुयायी समझते हैं ? यदि आप ऐसा हैं जिसका उस धर्मसे सम्बन्ध है जिस समझते हैं तो कहना होगा कि आप रीति-रवा- धर्मके ये लोग अपनेको स्वाभाविक 'रक्षक' जाके अनुसरणको ही धर्म समझते हैं। वास्तवमें समझते हैं । स्वर्गीय सेठजी दिगम्बर सम्प्रदायके ये लोग जैनधर्मके नहीं; किन्तु उन रीति-रवा- शुद्धाम्नायी तेरहपंथी जैनी थे और जहाँ तक जोंका अनुसरण कर रहे हैं, जो जैनी कहलाने- हम जानते हैं उनके उत्तराधिकारी पुत्र सेठ वालोंकी जातिमें बहुत समयसे चले आ रहे हैं। टीकमचन्दजी भी इसी आनायके माननेवाले वे यह नहीं सोचते और सोचना पसन्द भी नहीं हैं । यह वह आम्नाय है, जिसको बात बातमें करते कि ये सब रीति-रवाज जैनधर्मके अन- मिथ्यात्वके अनुमोदनका और धर्मके जानेका कूल हैं या नहीं। यही कारण है जो उनमें ऐसे डर लगा रहता है और जिसे केवल जैनेतरोंकी बीसों रीति-रवाज चल रहे हैं, जो जैनधर्मसे ही नहीं श्वेताम्बरादि जैनियोंकी शिक्षा संस्थासर्वथा प्रतिकूल हैं; पर ऐसे नये रीति-रवाज ओंमें भी कुछ देनेमें आगा पीछा सोचना पड़ता नहीं चल सकते जो जैनधर्मके अनकल हैं और है । इसी आम्नायके अगुए सेठजीके इस नुक्तेमें सब तरहसे आवश्यक हैं। रीति-रवाजोंका यह ब्राह्मणों को भोजन कराया गया और उन्हें
चलाना और बन्द करना जीवित समाजोंमें होता लगभग पाँच हजार रुपया दक्षिणामें दिया गया। . है; पर हमारे समाजकी जीवनी शक्ति मर्जित ब्राह्मणोंके सहस्रावधि आशीर्वादोंसे आशा है कि
हो रही है। वह एक कुंभारके चक्रके समान सेठजीकी परलोकगत आत्माको बहुत शान्ति पूर्व प्रेरित शक्तिसे केवल एक ही
मिलेगी ! सुनते हैं, खंडेलवाल समाजके और जा रहा है। उसमें अपनी दिशा बदलनेकी
भी कई धनियोंने इस प्रकारके आशीर्वाद सम्पादन शक्ति नहीं है । समाजके शुभचिंतकोंको अपने
' किये हैं । उनमें यह रीति परम्परासे चली प्रयत्नोंका चरम उद्देश्य ' इसी शक्तिको प्राप्त
- आ रही है।
माप्त रीति-रवाजोंकी-गुलामगीरीका यह एक नोट करा देना' बनाना चाहिए।
_ करने लायक उदाहरण है। बम्बईमें अभी थोड़े ही दिन पहले अजमेरके स्वर्गवासी धनिक राय बहादुर सेठ नेमीचन्दजीका
६ उपवासोंका मूल्य । नुक्ता (तेरहीं) हुआ था। सेठजीकी बम्बईमें
बम्बईम बम्बईमें जयपुरकी तरफके एक ब्रह्मचारी भी एक दूकान है, इस कारण यहाँ भी इस प्रतिवर्ष आया करते हैं । आपका नाम पं० 'काज' का करना आवश्यक समझा गया । मलचन्दजी है। आप किसी भट्टारकके शिष्य शायद कलकत्ता, आगरा आदिस्थानोंमें भी- हैं शायद इसी लिए 'पण्डित' कहलाते हैं । जहाँ जहाँ सेठजीकी बड़ी दूकानें हैं-इसी तरहके भदारकोंके शिष्योंका यह एक मौरूसी पद ' है। नुक्ते किये गये होंगे। पर इनके विषयमें हम यों 'पंडिताई' से आपका जरा भी सम्बन्ध कुछ नहीं कहना चाहते । देशकी वर्तमान दरि- नहीं है। आप यहाँके गुलालबाड़ीके बीसपंथी द्रतासे सर्वथा अपरिचित और धनकी उपयो- मन्दिरमें ठहरा करते हैं और सोलह कारणके ३२ गिताको न समझनेवाले इन धनियोंसे हमें अभी उपवास किया करते हैं । पर इन उपवासोंके आशा भी नहीं है कि, ये इस प्रकार की फिजूल- फलको आप अपने पास नहीं रखते, उदारतापूर्वक
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अङ्क ९-१०].
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विविध प्रसङ्ग। .
४६७
किसी धनी श्रावकके लिए उत्सर्ग कर दिया करते ७ महात्मा गाँधीका हिन्दी हैं । इस फलके लेनेवालेको पारणेके दिन थोड़ी
पुस्तकालय । सी चाँदी भेट करनी पड़ती है । पहले वर्ष सेठ ।
___हमारे पाठक महात्मा गाँधी और उनके चन्नीलाल हेमचन्द जरीवालेने १००१) देकर अहमदाबादके 'सत्याग्रहाश्रम' से परिचित और दूसरे वर्ष स्वर्गीय सेठ माणिकचन्दजीके हैं। गाँधीजी इस समय हिन्दीको राष्ट्रभाषा परिवारवालोंने ५०१) रु० देकर यह पुण्यसम्पादन बनाने और उसका प्रचार करनेका आन्दोलन किया था। गतवर्ष जब कोई तैयार न हुआ तो कर रहे हैं। गुजरातके भिन्न भिन्न स्थानोंमें सेठ चुन्नीलालजीने ही फिर ५०१) रु० भेट किये। वे हिन्दीकी पाठशालायें खोलना चाहते हैं, जिनइस वर्ष उनके भाई सेठ प्रभुदासजीने १०१ ) के द्वारा सर्वसाधारणको हिन्दीकी शिक्षा दी रु० देकर महाराजको पारणा कराया है। जायगी । आपने अपने आश्रमके प्रत्येक विद्याइसके सिवाय पंचायतकी ओरसे भी कुछ चन्दा ।
के लिए हिन्दीका पढ़ना आवश्यक कर दिया करा दिया गया है। विना कुछ भेट लिये आप
है । आपकी इच्छा है कि, आश्रममें हिन्दीका
'एक अच्छा पुस्तकालय भी स्थापित किया 'पारणा नहीं करते । करना भी न चाहिए; जाय । इस पुस्तकालयसे अन्य प्रान्तवासियोंका नहीं तो फिर इतने बड़े तपका महत्त्व ही क्या ध्यान हिन्दीकी ओर विशेष रूपसे आकर्षित रहे ! सुनते हैं, आप अपने निवासस्थानके पास होगा और वे हिन्दीकी अच्छी अच्छी पुस्तकोंसे एक मन्दिर बनवा रहे हैं और ये रुपये उसीके थोड़े बहुत परिचित अवश्य हो जाया करेंगे । लिए संग्रह कर रहे हैं । यद्यपि इस बात पर दूसरे प्रान्तोंके लोग गाँधीजीसे मिलनेके लिए विश्वास करनेका कोई कारण नहीं है; अभीतक निरन्तर ही आया करते हैं । उनके कारण इस किसीने भी यह तलाश नहीं किया है कि मन्दिर समय आश्रम एक तीर्थस्थान बन रहा है । हम बन रहा है या नहीं, और यदि मन्दिर बन रहा अपने हिन्दीप्रेमी पाठकों और पुस्तकप्रकाशकोका है, तो उसमें कितने रुपये लगे हैं सरसा
और पंडित- .
ध्यान इस ओर आकर्षित करते हैं । आशा जीके उदर-मन्दिरमें कितने समा गये हैं, फिर भी
है कि, वे उक्त पुस्तकालयके लिए हिन्दीकी
अच्छी अच्छी पुस्तकें भेजनेकी उदारता दिखला यदि मान लिया जाय कि सब रुपया मंदिर, वेंगे और इस हिन्दीप्रचारके कार्यमें अवश्य ही लगेंगे, तो प्रश्न यह है कि मन्दिरके निमित्त सहायक होंगे। भी इस तरह 'मुँडचिरियों' के समान जबर्दस्ती रदर्शनसारकी रचनाका समय। रुपया वसूल करनेमें कौनसा धर्म है ? इसका
सा धर्म है । इसका दर्शनसारकी ५० वीं गाथाके अर्थमें हमने अनुमोदन तो हमारी समझमें कोई भी धर्मज्ञ उसके बननेका समय विक्रम संवत् ९०९ लिखा नहीं कर सकता । यह कोई श्रेष्ठ आचार नहीं, है; परन्तु उसकी वचनिकाके कर्ता पं० शिवजीकिन्तु अत्याचार है । पर इसमें हम पण्डितजीका लालने संवत ९९० लिखा है । गाथाके 'णवसए कोई दोष नहीं देखते । उन्हें प्राप्ति होती है, णवए' पदकी छाया 'नवशते नवके । न करके इसलिए वे ऐसा करते हैं । दोष है हमारे भोले 'नवशते नवतौ । करने से यह अर्थ ठीक बैठ. भाइयोंका-श्रद्धालु श्रावकोंका, जो इस जाता है। वास्तवमें होना मी यही चाहिए। तरहके दानमें पुण्य समझते हैं और ऐसे लोगोंको संवत् ९९० मान लेनेसे माथुर संघकी उत्पत्ति इस तरहके अत्याचार करनेके लिए और भी आदिके सम्बन्धमें जो शंकायें की गई हैं उनका अधिक उत्साहित करते हैं।
भी समाधान हो जाता है । माथुर संघकी उत्पत्ति
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४६८
विक्रम संवत् ९५३ में बतलाई गई है। संवत् ९०९ के बने हुए ग्रन्थमें उसकी उत्पत्तिका लिखा जाना असंगत मालूम होता था, परन्तु जब दर्शनसार ९९० में बना है, तब इस शंकाके लिए कोई स्थान नहीं रहता । वचनिकामें एक बात और भी लिखी है । वह यह कि देवसेन मुनि वि० संवत् ९५९ में हुए हैं। मालूम नहीं यह समय देवसेनके जन्मका है या उनके मुनि होनेका, और इसके लिए आधार क्या है ।
९ बैरिस्टर साहब का पत्र |
हरदोई, ता. १९ - ८ - १७ प्यारे प्रेमीजी, जैनहितैषी के वर्तमान अंककी बाबत मैं आपका आभारी हूँ, और उसके लिए आपको धन्यवाद देता हूँ । 'दर्शन सारविवेचना' नामका आपका लेख बड़ा ही चित्ताकर्षक है । इस लेख के अंतमें आपने उस भविष्यवाणी पर अश्रद्धा प्रगट की है जो पंचमकालके अंत में अग्निका नाश हो जाने के सम्बंध में है । कुछ समय बीता जब मैंने कहीं पर इस भविष्यद्वाणीको पढ़ा था, तब मुझे भी आश्चर्य हुआ था, परन्तु अब मैं इस नतीजे पर पहुँच गया हूँ कि इस कथनमें कोई भी बात बेहूदा या असंभव नहीं है । संभवतः इस कथनका जो कुछ अभि'प्राय है वह यह है कि कोई ईंधन या लकड़ी नहीं बचेगी, इस वास्ते अग्नि जलाना असंभव हो जायगा । ऐसा मालूम होता है कि इस 'कालके अंत में वनस्पतिके अभाव में मनुष्यों को और जो कुछ मिलेगा वह खाना पड़ेगा, और इस लिए सब लोग मांसाहारी हो जायँगे । उनको कपास भी नहीं मिलेगा और इस वास्ते नंगे ही रहेंगे । और जहाँ तक धर्म और राजासे सम्बंध है उनका हास अभीसे होता जाता है । मेरे खयाल में हम अब भी यह बात स्पष्टरूपसे देख सकते हैं कि दुनिया निकृष्टतम अवस्थाकी ओर तेजीसे जारही है और अब कुछ थोड़ीसी ही और ऐसी दावानलोंकी जरूरत रह
जैनहितैषी -
[ भाग १३
गई है, जैसा कि योरुपका वर्त्तमान युद्ध, जिससे हम रसातलको पहुँच जायँ ।
यदि आप मेरी इस रायको छापना पसंद करें तो आप इसका समुचित हिन्दी शब्दोंमें अनुवाद करके उसे हितैषीके आगामी अंक में प्रकाशित कर देवें ।
मैं आशा करता हूँ कि आप त्रिलोकसारका हिन्दी अनुवाद शीघ्र ही प्रकाशित करेंगे। मैं उसके दर्शनों के लिए बड़ा ही उत्कंठित हूँ । आपका – चम्पतराय जैन, बैरिष्टर-एट-ला ।
बैरिस्टर साहबकी आज्ञानुसार उनके पत्रका हिन्दी अनुवाद प्रकाशित कर दिया जाता है। यह बात समझमें नहीं आती कि इस कालके अन्तमें वनस्पतिका सर्वथा नाश कैसे हो जायगा । इसका अर्थ यह होगा कि वनस्पतिजीवोंकी सृष्टिका ही अभाव हो जायगा । ह नहीं । इसके सिवाय त्रैलोक्यसारकी अद्भुतकी वनस्पतिका नहीं । आशा है कि बैरिस्टर साहब हुई गाथाओं का नाश हो जाना लिखा है, नेकी कृपा करेंगे । इस विषय में कुछ विस्तारसे और सप्रमाण लिख
जरूरत ।
एक ऐसे चतुर विद्यार्थीकी जरूरत है जो श्रीयुत बाबू जुगल किशोरजी मुख्तार देवबन्द जि० सहारनपुर के पास रहकर उनसे जैनधर्म के ग्रंथोंको पढ़ने की इच्छा रखता हो और साथ ही पबलिक सेवा करनेका जिसका भाव हो । ऐसे विद्यार्थीको सात रुपये मासिक वजीफा ( स्कालर्शिप ) दिया जायगा । धर्मग्रंथों का अध्ययन करानेके साथ साथ उससे लिखने पढ़नेसम्बन्धी कुछ पबलिक सेवाका काम भी लिया जा जो विद्यार्थी जाना चाहे उसे अपनी योग्यता आदिका परिचय देते हुए उक्त बाबू साहब से पत्रव्यवहार करना चाहिए ।
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-सम्पादक ।
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हमारे छपाये हुए नये ग्रन्थ ।
___ वृन्दावन कृत चौवीसी पाठ । यह ग्रन्थ बम्बईके सुन्दर टाइपमें अच्छे कागजों पर फिरसे छपाया गया है। छपा भी शुद्धतापूर्वक है । जिन्हें और कहींकी छपाई पसन्द नहीं उन्हें अब इस वम्बईके छपे हुए विधानको या पूजा पाठको अवश्य मँगा लेना चाहिए । मूल्य १०)
जैनपदसंग्रह । कविवर दौलतराम कृत पहला भाग और भागचन्दजी कृत दूसरा भाग पदसंग्रह फिरसे छपाये गये हैं । बहुत दिनोंसे ये मिलते नहीं थे । मूल्य पहले । भागका ।) दूसरेका ।)।
___ बुधजन सतसई । अर्थात् बुधजनजीके उपदेश, नीति, सुभाषित आदि सम्बन्धी ७०० दोहे। यह पुस्तक दुबारा छपाई गई है । मूल्य छह आने ।
जैनबालबोधकके दोनों भाग। श्रीयुत पं० पन्नालाल जीके ये दोनों भाग जैनपाठशालाओंमें बहुत ही प्रचलित रहे हैं। बहुत दिनोंसे समाप्त हो गये थे, अब फिरसे छपाये गये हैं। पहले भामस असंयुक्त और संयुक्त अक्षरोंके शब्दोंका शुद्ध शुद्ध लिखना पढ़ना अच्छी तरह आ जाता है । दूसरे भागमें धार्मिक कथाओंके और धर्मतत्त्वोंके अच्छे अच्छे पाठ हैं । मूल्य पहले भागका ।) और दूसरे भागका ॥ ।
मनोरंजन कहानियाँ । इसमें छोटे छोटे बच्चों को हँसाने और खुश करनेवाली १३ कहानियों का संग्रह है । जो बच्चा पढ़ेगा या सुनेगा वही खुश होगा। किसी किसी कहानीको सुनकर तो बच्चे लोटपोट हो जाते हैं। मूल्य )
रत्नकरण्डश्रावकाचार पद्यानुवाद । पं० गिरिधर शर्माकृत । खड़ी बोलीके सुन्दर पद्योंमें रत्नकरण्डका सुन्दर सरल अनुवाद । जैनपाठशालाओंमें पढ़ाये जाने योग्य । मूल्य =)
माणिकचन्द ग्रन्थमालाके ग्रन्थ । सब ग्रन्थ ठीक लागनके मूल्य पर बेचे जाते हैं। सबसे सस्ते हैं । प्रत्येक मंदिरमें इनकी एक एक प्रति अवश्य रखना चाहिए और संस्कृतके पण्डितोंको वितरण करना चाहिए:
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________________ 1 सागारधर्मामृत सटीक आशाधर कृत / ) 6 प्रद्युम्नचरित महासेनाचार्यकृत 2 लघीयस्त्रयादिसंग्रह अकलंभट्टकृत ) 7 आराधनासार सटीक देवसेनाचार्य कृत / ) / 3 पाश्वनाथचरित वादिराजसूरि कृत . // ) 8 जिनदत्तचरित्र, गुणभद्र कृत ) / 4 विक्रान्त कौरवीय नाटक हस्तिमल्ल कृत।) 9 चारित्रसार चामुण्डराय कृत 5 मैथिल परिणय नाटक / ) 10 प्रमाणनिर्णय वादिराजसूरि कृत ). - बच्चोंके सुधारनेके उपाय / . इसमें बच्चोंकी आदतें सुधारने, उन्हें सदाचारी और विनयशील बनाने, बुरेसे बुरे स्वभावके लड़कोंको अच्छे बनाने, उपद्रवियों और चिड़गिड़ोंको शान्त शिष्ट बनाने के अमोघ उपाय बतलाये गये हैं / प्रत्येक माता पिताको इसे पढ़ डालना चाहिए / इसके अनुसार चलने से उनका घर स्वर्ग बन जायगा / मू० // ) कोलम्बस। * अमेरिका खण्डका पता लगानेवाले असम साहसी कर्मवीर कोलम्बसका आश्चर्यजनक और शिक्षाप्रद जीवनचरित / अभी हाल ही छपकर तैयार हुआ है / नवयुवाओंको अवश्य पढ़ना चाहिए / मूल्य / / / मानवजीवन / सदाचार और चरित्रसम्बन्धी अनेक अँगरेजी, मराठी, गुजराती, बंगला पुस्तकोंके आधारसे यह ग्रन्ध रचा गया है / सदाचारको शिक्षा देने के लिए और सच्चे मनुष्योंकी सृष्टि करनेके लिए यह ग्रन्थ बहुत अच्छा है / इस ग्रन्थक विना कोई घर, कोई पुस्तकालय, और कोई मन्दिर न रहना चाहिए / भाषा बहुत ही सरल और स्पष्ट है / मूल्य 1-) कपड़ेकी जिलदका 1 // उस पार / प्रसिद्ध नाटककार द्विजेन्द्रलालरायके एक सामाजिक नाटक का अनुराद / स्टेजपर खेलनेल यक अपूर्व नाटक है / हिन्दी में इसकी जोड़का एक भी नाटक नहीं है / प्रारं भने एकत्ति भूमिकाक द्वारा इस नाटकके प्रत्येक पात्रके चरित्रकी खूधियां दिखलाई गई हैं / मूल्य सवा रुपया / ग्रन्थपरीक्षा प्रथम भाग और द्वितीय भाग / लेखक, श्रीयुत बाबू जुगलकिशोरजी मुख्तार / पहले भागमें जिसनत्रिणीचार, उमास्वामित्रावकाचार और कुन्दकुन्दश्रावकाचार इन तीन ग्रन्थों की और दूसरे भागने भद्रबाहुसंहिताकी समालोचना प्रकाशित की गई है। ये सब लेख जनहितेषामें निकल चुके हैं / इनका खूब प्रचार होना चाहिए। मूल्य लागत मात्र रक्खा गया है। पहले भागका / -, और दूसरे भागका / ) __ मोक्षमार्गकी कहानियां / रत्नकरण्डश्रावकाचार में जिन जिन स्त्री पुरुषों के उदाहरण आये हैं, उन सबकी 23 कथाओंका संग्रह / यह हाल ही छपी है / मूल्य सात आने / ' मैनेजर, जैनग्रन्थरत्नाकर कार्यालय, गिरगांव-चम्बई. For Personal & Private Use Only