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________________ ४०० जैनहितैषी [भाग १३ ऊपर वस्त्र रखते थे। रानीने अपने पतिके हृदः ताम्बर सम्प्रदायमें उतनी ही प्रसिद्धि है जितनी यका भाव ताड़कर साधुओंके पास श्वेत वस्त्र दिगम्बर सम्प्रदायमें भगवान् कुन्दकुन्दकी । पहननेके लिए भेज दिये। साधुओंने भी उन्हें इस कारण यह नाम ज्योंका त्यों उठा लिया स्वीकार कर लिया । उस दिनसे वे सब साधु गया और दूसरे दो नाम नये गढ़ डाले गये। श्वेताम्बर कहलाने लगे। इनमें जो साधु प्रधान वास्तवमें 'अर्धफालक' नामका कोई भी सम्प्रथा, उसका नाम जिनचन्द्र था ।” दाय नहीं हुआ । भद्रबाहुचरित्रसे पहलेके किसी - अब इस बातका विचार करना चाहिए कि भी ग्रन्थमें इसका उल्लेख नहीं मिलता। यह भावसंग्रहकी कथामें इतना परिवर्तन क्यों किया भट्टारक रत्ननन्दिकी खुदकी 'ईजाद' है । गया । हमारी समझमें इसका कारण भद्रबाहुका श्वेताम्बराचार्य जिनेश्वरसूरिने अपने 'प्रमाऔर श्वेताम्बर सम्प्रदायकी उत्पत्तिका समय लक्षण' नामक तर्कग्रन्थके अन्तमें श्वेताम्बहै। भावसंग्रहके कर्त्ताने भद्रबाहुको केवल निमि- रोंको आधुनिक बतलानेवाले दिगम्बरोंकी ओरसे - त्तज्ञानी लिखा है, पर रत्ननन्दि उन्हें पंचम उपस्थित की जानेवाली इस गाथाका उल्लेख श्रुतकेवली लिखते हैं। दिगम्बर ग्रन्थोंके अनु- किया है:सार भद्रबाहु श्रुतकेवलीका शरीरान्त वीरनिर्वा- छव्वास सपहिं नउत्तरेंहिं णसंवत् १६२ में हुआ है और श्वेताम्बरोंकी तइया सिद्धिंगयस्स वीरस्स । उत्पत्ति वीर नि० सं०६०३ (विक्रमसंवत् १३६) कंबलियाणं दिही में हुई है। दोनोंके बीचमें कोई साढ़े चारसौ वलहीपुरिए समुप्पण्णा ॥ वर्षका अन्तर है । रत्ननन्दिजीको इसे पूरा अर्थात् वीर भगवानके मुक्त होनेके ६०९ करनेकी चिन्ता हुई । पर और कोई उपाय न वर्ष बाद (विक्रमसंवत् १४० में ) वल्लभीपुरमें था, इस कारण उन्होंने भद्रबाहुके समयमें दुर्भि- काम्बलिकोंका या श्वेताम्बरोंका मत उत्पन्न क्षके कारण जो मत चला था, उसको श्वेता- हुआ । मालूम नहीं, यह गाथा किस दिगम्बरी म्बर न कहकर 'अर्ध फालक' कह दिया और ग्रन्थकी है। इसमें और दर्शनसारमें बतलाये उसके बहुत वर्षों बाद ( साढ़े चारसौ वर्षके हुए समयमें चार वर्षका अन्तर है । यह गाथा • बाद) इसी अर्धफालक सम्प्रदायके साधु जिन- उस गाथासे बिलकुल मिलती जुलती हुई है चन्द्र के सम्बन्धकी एक कथा और गढ़ दी और जो श्वेताम्बरोंकी ओरसे दिगम्बरोंकी उत्पत्तिके उसके द्वारा श्वेताम्बर मतको चला हुआ बतला सम्बन्धमें कही जाती है । और जो पृष्ठ २६५ दिया । श्वेताम्बरमत जिनचन्द्रके द्वारा वल्लभीमें में उद्धृत की जा चुकी है। प्रकट हुआ था, अतएव यह आवश्यक हुआ ७ श्रीश्रुतसागरसूरिने षट्पाहुड़की टीकामें कि दुर्भिक्षके समय जो मत चला, उसका स्थान जैनाभासोंका उल्लेख इस प्रकार किया है:कोई दूसरा बतलाया जाय और उसके चलाने- “गोपुच्छिकानां मतं यथा-इत्थीणं पुण वाले भी कोई और करार दिये जायँ । इसी दिक्खा० । श्वेतवाससः सर्वत्र भोजनं कारण अर्धफालककी उत्पत्ति उज्जयिनीमें बत- प्रासुकं मांसभक्षणां गृहे दोषा नास्तीति लाई गई और उसके प्रवर्तकोंके लिए स्थूलभद्र च न मन्यन्ति । उद्भोजनं निरासं कुर्वन्ति । - वर्णलोपः कृतः।......द्राविडा सावयंप्रासुकं आदि नाम चुन लिये गये । स्थूलभद्रकी श्वे- यापनीयास्तु वै गर्दभा इव ससरा (2) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522836
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size12 MB
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