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________________ अङ्क ९-१०] दर्शनसार-विवेचनाका परिशिष्ट । ४०१ इव उभयं मन्यन्ते । रत्नत्रयं पूजयान्त, अन्थोंको अच्छी तरह देखे विना यह निश्चय. कल्पं च वाचयन्ति, स्त्रीणां तद्भवे मोक्ष पूर्वक नहीं कहा जा सकता कि ये सब ग्रन्थ केवलिजिनानां कवलाहारं-परशासने दर्शनसारके कर्ताके ही हैं । 'नयचक्र ' सग्रन्थानां मोक्षं च कथयन्ति । निः नामके या न्त । न नामके ग्रन्थ दो हैं, एक संस्कृत और दूसरा पिच्छिकाः मयूरपिच्छादिकं न मन्यन्ते। प्राकृत । प्राकृत नयचक्र माणिकचन्द ग्रन्थमाउक्तं च ढाढ़सीगाथासुः लाके द्वारा शीघ्र ही प्रकाशित होनेवाला है । पिच्छण हु सम्मत्तं यह भी देवसेनकृत समझा जाता है। एक करगहिए मोरचमरडंबरए। नयचक्रका उल्लेख विद्यानन्दस्वामी अपने अप्पा तारइ अप्पा प्रसिद्ध ग्रन्थ श्लोकवार्तिकमें करते हैं:- ... तम्हा अप्पा वि झायव्वो॥" संक्षेपेण नयास्तावद्भावार्थः-गोपुच्छक या काष्ठासंघी स्त्रियोंके व्याख्यातास्तत्र सूचिताः। लिए छेदोपस्थापनाकी आज्ञा देते हैं । श्वेताम्बर तद्विशेषाः प्रपञ्चेन सर्वत्र भोजन करना उचित मानते हैं। उनकी संचिन्त्या नयचक्रतः॥ समझमें मांसभक्षकोंके यहाँ भी प्रासुक भोजन अ० १, सूत्र ३३ । करनेमें दोष नहीं है। इस तरह उन्होंने वर्णा परन्तु श्लोकवार्तिक वि० सं० ८०० के. श्रमका लोप किया है । यापनीय दोनोंको मानते लगभग बना हुआ है, अतएव यह नयेचक्र हैं। रत्नत्रयको पूजते हैं, कल्पसूत्रको बाँचते दर्शनसारके कर्ता देवसेनसे बहुत पहलेका है। हैं, स्त्रियोंको उसी भवम मोक्ष, केवलियाको ९ पैंतीसवीं गाथाके ' इत्थीणं पुण दिक्खा' कवलाहार, दूसरे मतवालोंको और परिग्रहधा- इस पदका अभिप्राय वचनिकाकारने यह रियोंको मोक्ष मानते हैं । नि:पिच्छिक या लिखा है कि मूलसंघमें स्त्रियोंको ' छेदोमाथुरसंघी मोरकी पिच्छी रखना आवश्यक नहीं पस्थापना' नहीं कही है; पर काष्ठासंघके प्रवर्त है समझते हैं । जैसा कि 'ढाढसी' नामक ग्रंथम कने उन्हें छेदोपस्थापना की. या फिरसे दीक्षा कहा है कि मोर और चमर ( गोपुच्छ ) की देनेकी आज्ञा दी है । इसके लिए कुन्दकुन्द पिच्छिके आडम्बरमें सम्यक्त्व नहीं है । आत्मा स्वामीके किसी पाहुड़की यह गाथा दी है:ही आत्माको तारता है । इस लिए आत्माका इत्थीणं मुणपभवे (?) ही ध्यान करना चाहिए। 'अज्जाए छेओपठवणं। . ८ दर्शनसार वचनिकाके कर्ता लिखते हैं- दिक्खा पुण संगहणं “ या आचार्यके किये भावसंग्रह प्राकृत, णत्थीति निरूवियं मुणिहिं॥ तत्त्वसार प्राकृत, आराधनासार प्राकृत, नयचक्र इसी काष्ठासंघके प्रकरणमें देवेन्द्रसेन-नरेन्द्र- संस्कृत, आलापपद्धति संस्कृत, धर्मसंग्रह संस्कृत- सेनविरचित सिद्धान्तसार दीपकका उल्लेख किया प्राकृत, इत्यादि केई ग्रन्थ हैं । देवसेन नामके है और लिखा है कि यह काष्ठासंघका ग्रन्थ । केई आचार्य हो गये हैं।" इसलिए इन सब है। आश्विन सुदी ५ सं० १९७४ वि० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522836
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size12 MB
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