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________________ ४२० जनहितैषी [भाग १३ ये तु ब्रह्माद्विषः पापा ण्डाको हेय कहा है + । उन्होंने अपने ग्रंथों में वेदादरं बहिष्कृताः। साधनाभासोंका प्रयोग नहीं किया; केवल विते वेदगुणदोषोक्ति पक्षियोंके साधनोंमें दूषण बताकर ही अपने कथं जल्पन्त्यलजिताः॥ सिद्धान्तोंका समर्थन किया है। यही बात अर्थात्-जो ब्राह्मण निरंतर वेदोंका धारण, प्रमालक्षणके अन्तमें इन दो कारिकाओंके द्वारा अध्ययन, व्याख्यान और पूजन आदि करते हैं कही गई है-- वे तो उनका मिथ्यात्व अभीतक जान नहीं प्रमाणवादिनां तस्माद्वाद एव विचारणा। सके; तब जो ब्रह्मद्वेषी हैं, वेदधर्मसे बहिष्कृत हैं साधनाभासमन्यैस्तु वादिभिरभियुज्यते ॥ और वेदोंके पास तक नहीं जाते वे पापी (जैन तेनावधीरणाप्यत्र महता लक्ष्मशासने । और बौद्ध ) लोग निर्लज्ज होकर वेदोंके गुण परपक्षनिरासो हि साधनाभासतोऽप्यसौ ॥ दोषोंको कैसे कह सकते हैं ? भट्टजीके इन पिछली कारिकाकी टीकामें यह भी सूचित आवेश और आक्रोशयुक्त वचनोंका देखिए किया गया है कि-प्रमाणके लक्षण प्रतिपादन सूरिजीने संक्षेपमें, परंतु कैसे मीठे और मार्मिक करनेमें, प्रयासकी निष्फलता समझकर पूर्वके शब्दोंमें जवाब दिया है। जैनाचार्योंने उस तरफ उपेक्षाकी दृष्टिसे देखा है और इसी लिए हरिभद्रसूरिने अनेकान्तधारणाध्ययनेत्यादि नाक्रोशः फलवानिह । अज्ञैरज्ञाततत्त्वोऽपि पण्डितैरवसीयते ॥ जयपताकामें और अभयदेवसूरिने सम्मतिअर्थात्-धारणाध्ययन इत्यादि श्लोकोंमें. टीकाम परंपक्षका निरसन करने मात्रके उद्देशसे 'ब्रह्माद्विषः' और 'पापा' आदि शब्दोंद्वारा भट्ट ' प्रयत्न किया है । मट्टवादिसरीखे महान् आचाजीने जो अपना आक्रोश प्रकट किया र्यने परपक्षका निर्मलन करनेमें अद्वितीय शक्तिनिष्फल है-उससे कुछ फलकी प्राप्ति नहीं होती। शाली होकर भी नयचक्रकी स्थापना सिद्ध जहाँपर युक्तायुक्तविषयक तात्त्विक विचार करनेके सिवा प्रमाणके लक्षण कहनेका काम किया जाता हो वहाँपर आक्रोश करनेसे अपने- नहीं किया । क्योंकि उन्होंने यही ठीक समझा को या दूसरेको-किसीको भी तत्त्वज्ञानकी था कि, परपक्षका निरसन करनेहीसे स्वपक्षकी प्राप्ति नहीं होती। और जो यह कहा कि तमने- स्वतः सिद्धि हो सकती है । वह टीकाका पाठ वेदोंका अस्वीकार करनेवाले जैनोंने-वेदोंसे दूर यह है:रहनेवालोंने-वेदोंका मिथ्यात्व कैसे जान लिया. -"अत्र प्रमाणलक्षणे, निष्फलत्वादा. सो इसका तो उत्तर यह है कि, जो बात अश यासस्य । अत एव श्रीहरिभद्रसरिपादः युक्तायुक्तविचारशून्य मनुष्य दीर्घकालके संस श्रीमदभयदेवरिपादैश्च परपक्षनिरासे तैसे भी नहीं जान सकते, उसे विद्वान् मनुष्य म्मति-टीकायामिति । अत एव श्रीमन्महा यतितमनेकान्तजयपताकायां तथा सतत्काल जान लेता है। __ मल्लवादिपादैरपि नयचक्र एवादरो विहित महर्षि गौतमने अपने न्यायसूत्रमें, परपक्षका इति न तैरपि प्रमाणलक्षणमाख्यातं परपक्षनिरसन करनेके लिए वादके सिवा जल्प, वि. + हेमचन्द्राचार्यने भी अपनी ' प्रमाणमीमांसा' में तण्डा, छल, जातिप्रयोग आदि करनेकी मी ऐसा करना अन्याय बताया है । लिखा है किअनुज्ञा दी है; परंतु जैन तार्किकॉन केवल एक अमदुत्तरैः परप्रतिक्षेपस्य कर्तुमयुक्तत्वात्, न ह्यनायेन वातहीका उत्तम माना है, जल्प और वित- जयं यशो धनं वा महात्मानः समीहन्ते । ( पृष्ट ३८) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522836
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size12 MB
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