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________________ . अङ्क ९-१०] प्रमालक्षण। ४२१ निर्मथनसमर्थैरपि परपक्षनिरासादपि स्व- श्रीबुद्धिसागराचार्यैर्वृत्तैर्व्याकरणं कृतम् । पक्षस्य पारिशेष्यासिद्धिरिति ।” अस्माभिस्तु प्रमालक्ष्म वृद्धिमायातु साम्प्रतम् ॥ पूर्वाचार्योंके द्वारा प्रमाणलक्षणके विषयमें इस टीका-श्रीबुद्धिसागराचार्यैः पाणिनि-चन्द्रप्रकार सार्थक उपेक्षाकी जाने पर भी जिनेश्वर- जैनेन्द्र-विश्रान्त-दुर्गटीकामवलोक्य वृत्तबन्धैःजीने जो यह प्रयत्न किया है, उसका कारण धातुसूत्रगणोणादिवृत्तबन्धैः कृतं व्याकरणं संस्कृतइसके बादकी दो कारिकाओंमें इस प्रकार प्राकृतशब्दसिद्धये । अस्माभिस्तु प्रमालक्ष्म बतलाया गया है: प्रमाणलक्षणम्, अतएव पूर्वाचार्यगौरवदर्शनार्थ तैरवधीरिते यत्तु प्रवृतिरावयोरिह। वार्तिकरूपेण तत्रापि स्वाभिप्रायनिवेदनार्थ वृत्तितत्र दुर्जनवाक्यानि प्रवृत्तेः सन्निबन्धनम् ॥१॥ करणेन च।। शब्दलक्ष्मप्रमालक्ष्म यदेतेषां न विद्यते। अर्थात् श्रीबुद्धिसागर आचार्यने तो पाणिनि, नादिमन्तस्ततो ह्येते परलक्ष्मोपजीविनः ॥ २॥ चन्द्र, जैनेन्द्र, विश्रान्त और दुर्गटीका आदि टीका-शब्दलक्ष्मव्याकरणम्, श्वेतभिक्षूणां व्याकरण ग्रन्थोंका अवलोकन करके संस्कृत स्वीयं न विद्यते तथा प्रमालक्ष्मापि प्रमाणलक्षण- और प्राकृत शब्दोंकी सिद्धिके लिए व्याकरण मपि, येषां स्वीयं न विद्यते । नादिमन्तो नैवादा- ग्रन्थ बनाया और मैंने पूर्वाचार्योंका गौरव वेव एते संभूताः, किन्तु कुतोऽपि निमित्ताद- दिखानेके लिए वार्तिकरूपमें और स्वाभिप्राय चीना एते जाता। ततो ह्येते, तस्मादित्युपसंहारः। प्रकट करनेके लिए अपनी वृत्तिसे भूषित करके हिहेतुपदसूचकः । किम्भूतास्ते इत्याह-परल- यह प्रमालक्षण गन्थ बनाया है। मोपजीविनः बौद्धादिप्रणीतलक्षणमुपजीवितुं प्रमालक्षणके बननेकी यह बात विशेष ध्यान शीलाः, एतदिति हेतुपदम् । उक्तं च खींचती है कि, उस पुराने जमाने में जब जैनोंकेछव्वास सएहि णउत्तरेहिं श्वेताम्बर जैनोंके-स्वकीय लक्षणिक ग्रंथ नहीं थे तइया सिद्धिं गयस्स वीरस्स। और दूसरोंके बनाये हुए ग्रन्थों पर वे अपने ज्ञानके कंबलियाणं दिवी विकासका आधार रखते थे, तब ब्राह्मणों और वलहीपुरिए समुप्पण्णा ॥ बौद्धोंके समान स्वयं उनके स्वयूथ्यों दिगम्बरोंकी अर्थात् इस विषयकी ओर पूर्वाचार्योंद्वारा ओरसे भी उनपर इस बातका आक्षेप हुआ उपेक्षा किये जाने पर भी जो हम दोनोंकी प्रवृत्ति करता था, कि "तुम्हारे स्वकीय लक्षणग्रंथ नहीं हुई है, सो इसमें दुर्जनोंके ये वाक्य कारण हैं हैं, तुम परलक्ष्मोपजीवी हो, इस लिए तुम्हारा कि इनके-श्वेताम्बरोंके-शब्दलक्षण ( व्याक संप्रदाय, नया चला हुआ है। तुम्हारा मत रण) और प्रमाणलक्षणविषयक स्वकीय ग्रन्थ प्राचीन नहीं है।" उस समय दिगम्बर संप्रदानहीं हैं, ये परलक्षणोपजीवी-बौद्धादि ग्रन्थों- यमें जैनेन्द्रादि व्याकरण और परीक्षामुखादि से अपना निर्वाह करनेवाले हैं, अतः ये आदिसे प्रमाणप्रतिपादक ग्रंथ बन चुके थे, इस लिए नहीं हैं, किन्तु किसी निमित्तविशेषसे नये ही उनको अपने साहित्यका अभिमान रखनेका पैदा हो गये हैं । जैसा कि किसीने ( दिगम्बर स्वाभाविक कारण उत्पन्न हो गया था और ग्रन्थकर्त्ताने ) कहा भी है-महावीर भगवानके श्वेताम्बरोंमें ये बने नहीं थे, इस लिए उन पर निर्वाणके ६०९ वर्ष बाद वल्लभीपुरमें श्वेताम्बर- कटाक्ष करनेका प्रसंग दिगम्बरोंको मिल रहा दर्शन उत्पन्न हुआ । अतएव .. था । जिनेश्वरसूरि और उनके भाताको Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522836
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size12 MB
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