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________________ ४१० जैनहितैषी [भाग १३ पर्व २६ में भरतचक्रवर्ती जब दिग्विजयको निकले हैं उस समय उन पर भी वेश्याओंके चवर दुर रहे थे। [ले०-श्रीयुत बाबू सूरजमानजी वकील ।] स्वधुनीकरस्पर्द्धिचामराणां कदम्बकं । दुधुवुरिनार्योऽस्य दिक्कन्या इव संसृताः ॥६५ ।। . वेश्याओंका सत्कार । अर्थात् जब वेश्यायें उस चक्रवर्ती पर गंगाके . आदिपुराणका अध्ययन करनेसे मालूम होता जलकणोंकी समानता करनेवाले चवरोंको ढोरती है कि पहले-कमसे कम ग्रन्थकर्ताके सम• थीं. तब ऐसा मालूम होता था कि दिक्कन्यायें यमें वेश्याओंका आजकलके समान निरादर ही उतर आई हैं। नहीं था। उस समय उनके साथ जैसा व्यवहार भरे दरबार में सिंहासन पर बैठे हुए राजाओंके किया जाता है, वह आज कलकी दृष्टिसे एक ऊपर वेश्याओंके द्वारा चवर दुराये जानेके प्रकारका प्रतिष्ठाका व्यवहार था। नीचे लिखे दृष्टान्त ही इस ग्रन्थमें नहीं मिलते हैं; किन्तु उदाहरणोंसे यह बात स्पष्ट हो जायगी। ऐसा किये जानेकी आज्ञा भी स्पष्टरूपसे दी आदिनाथ भगवानका जीव जिस समय विदे- गई है। श्रावकोंकी ५३ क्रियाओंमें एक 'साहमें उस विदेहमें जहाँ कि सदैव चौथा काल म्राज्य' नामकी भी किया है। इस क्रियाका रहता है-राजा महाबल था, उस समय उस स्वरूप ३८ वें पर्वमें इस प्रकार लिखा हुआ है:पर अनेक वेश्यायें चंवर ढोरा करती थीं: चक्राभिषेक इत्येकः समाख्यातः क्रियाविधिः । सिंहासने तमासानं तदानी खचराधिपं । तदनन्तरमस्य स्यात् साम्राज्याख्यं क्रियान्तरं२५३ दुधुवुश्चामरैवारनार्यः क्षीरोदपाण्डुरैः ॥ २॥ अपरे द्युदिनारंभे धृतपुण्यप्रसाधनः । मदनममार्यो लावण्यांभोधिवीचयः । मध्ये महानृपसभं नृपासीनमधिष्ठितः ।। २५४ ।। सौन्दर्यकलिका रेजुस्तरुण्यस्तत्समीपगाः ॥३॥ दीप्तः प्रकीर्णकवातैः स्वर्धनीसीकरोज्ज्वलैः । -पर्व ५। मारनारीकराधूतैर्वीज्यमानः समन्ततः ।। ३५५ ॥ अर्थात् सिंहासन पर विराजमान हुए उस भावार्थ-चक्राभिषेक क्रियाके अनन्तर 'साम्राविद्याधरनरेश महाबल पर वेश्या स्त्रियों क्षारज- ज्य' नामकी क्रिया होती है। दूसरे दिन प्रातःलके समान उजले चमर ढोरती थीं । उसके काल पवित्र अलंकार धारण करनेवाले महाराज, समीप वे तरुणी स्त्रियाँ कामदेवरूप वृक्षकी कोपलों, लावण्यरूप समुद्रकी तरंगों और सौन्दर्यकी बड़े बड़े राजाओंकी सभाओंके बीचमें सिंहासन कलियोंके समान जान पड़ती थीं। पर विराजमान हों और वेश्यायें उनके ऊपर इसी प्रकारका वर्णन आदिनाथके नीव गंगाके जलकणोंके समान उज्ज्वल चवर डलावें। राजा वज्रनामके सम्बन्धमें भी किया गया है:- वेश्याओंका नृत्य भी उससमय बुरा नहीं उपासनस्थमेनं च वीजयन्ति स्म चामरैः। समझा जाता था । वह उत्सवोंका बहुत ही गंगातरंगसच्छायभंगिभिललिताङ्गनाः ॥ ४० ॥ प्रिय और आवश्यक साधन था। विदेह क्षेत्रमें -पर्व ११। राजा वज्रजंघ (आदिनाथका जीव) और श्रीमअर्थात् सिंहासन पर बैठे हुए उस राजा पर तीके विवाहमें वेश्याओंका नृत्य हुआ थाः- ., सुन्दर स्त्रियाँ गंगाकी लहरोंके समान उजले बर्द्धमानलयैर्नृत्यमारेभे ललितं तदा। और कुछ कुछ तिरछे होकर ऊपर नीचेकी वाराङ्गनाभिकदमीरणनपुरमेवलम् ॥ २४४ ॥ ओर जाते हुए चँवर डुला रही थीं। -पर्व ७ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522836
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size12 MB
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