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अङ्क ९-१०]
जैनसमाजके क्षयरोग पर एक दृष्टि।
मनुष्यगणनाकी रिपोर्टसे मालूम होता है कि नहीं मिलती और इनके शरीरका व्यायाम नहीं हिन्दूसमाजकी गौड, कान्यकुब्ज, 'अग्रवाल, होता। यही दशा इनके घरकी स्त्रियोंकी रहती पल्लीवाल, राजवंशी, लोहिये आदि उच्च जातियाँ है। ये सदैव ही घरके अन्दर बन्द रहती हैं। जिनका कि खान-पान, रहन-सहन, जीविका स्वच्छ वायु तो इनके भाग्य में ही नहीं लिखी ।' आदि जैनजातियों के ही समान है-१९०१ से या तो ये रसोई बनाने, बर्तन मलने और १९११ तकके दश वर्षोंमें जैनियोंसे भी अधिक बच्चोंके पालन पोषणमें लगी रहती हैं, या पलंगघटी है । नगरोंमें रहनेवाले उच्च जातिके हिन्दु- पर बैठी हुई दूसरों पर आज्ञा चलाया करती हैं।
ओंको ध्यानपूर्वक देखनसे भी मालूम होता है पहले प्रकारकी स्त्रियाँ कुछ परिश्रम करती हैं, कि ग्रामीण-परिश्रमशील किसानोंकी अपेक्षा इस कारण वे तो किसी कदर अच्छी भी रहती उनमें सन्तानोत्पति कम होती है और नई उमरके हैं; परन्तु दूसरे प्रकारकी अमीरोंकी बहू-बेटियाँ स्त्री-पुरुषोंकी मृत्यु अधिक होती है। इसका तो सदा ही बीमार रहती हैं । प्रसवकाल तो कारण उनका व्यवसाय है।
इनके लिए बहुत ही भयानक होता है । इससे हिन्दुओंमें सैकड़े पीछे ७५.६ खेती करने- यदि ये बच गई, तो समझो कि इनका दूसरा वाले, १० खेतोंमें मजदूरी करनेवाले और शेष जन्म हुआ। आजकल घरू कामकाज करना सब और और काम करनेवाले हैं । मुसलमानोंमें भी बुरा समझा जाने लगा है । परिश्रमसे घृणा ५० खेती करनेवाले, २५ मजदूरी करनेवाले होना बहुत ही बुरी बात है।
और २५ शिल्प तथा व्यापारादि करनेवाले हैं। ग्रामवासी किसानों और उनकी स्त्रियोंकी इधर जैनियोंमें २२ खेती करनेवाले, ६६ वाणि- दशा इनसे ठीक उलटी है। ये बड़े परिश्रमी ज्य करनेवाले और शेष १२ दीगर काम करने होते हैं और खेतोकी स्वच्छ वायुका सेवन करते वाले हैं । जैनियों में ये जो २२ खेती करनेवाले रहते हैं। इसी कारण ये कम पुष्ट भोजन पाने पर हैं उनमें वे लोग नहीं हैं, जो खेतोंमें खड़े होकर भी उच्च श्रेणीके लोगोंकी अपेक्षा अधिक बलवान् हल चलाते हैं या स्वयं खेती करते हैं । इनमें और हृष्ट पुष्ट होते हैं। इनका स्वास्थ्य बहुत अच्छा अधिकांश जमींदार हैं, जो खेतोंद्वारा उत्पन्न रहता है। इनकी स्त्रियाँ घरका सारा कामकाज हरा धनके द्वारा जीवित रहते हैं । कृषिजीवी करती हैं. पानी भरकर लाती हैं, आटा पासता है, 'हिन्दुओं और मुसलमानोंमें इस प्रकारके जमीं- भोजन बनाती हैं, खेतों पर जाती हैं, और इस दार अधिकसे अधिक ५ प्रति सैकड़ा ही होंगे, तरह परिश्रम करते रहनेसे खूब हड्डी कट्टी रहती शेष परिश्रमी किसान और मजदूर ही होंगे । हिन्दू हैं। न ये स्वयं बीमार रहती हैं और इनकी और मुसलमानों में वाणिज्य और जमींदारी कर- सन्तान नगरवासियोंकी तरह दुर्बल, पीली नेवालोंकी औसत थोड़ी है, पर जो है उसकी और अल्पायु होती है । दशा जैनियोंकी सी ही है।
प्राचीन कालमें नागरिकोंकी ऐसी दशा न उच्च जातिके हिन्दू और जैनी प्रातःकालसे थी। उन्हें परिश्रमसे इतनी घृणा न थी। तीस लेकर सायंकाल तक या तो दुकान पर बैठे चालीस वर्ष पहले इस देशमें हर जगह सैकड़ों रहते हैं, या घरोंके मुलायम गद्दोंपर आरामसे अखाड़े थे। दूकानों पर बैठनेवाले वैश्य लोग पड़े रहते हैं, या एक स्थान पर बैठे हुए लिखा- रातके समय इन अखाड़ोंमें जाकर दंड लगाते, पढ़ीका काम किया करते हैं । इन्हें स्वच्छ हवा बैठकें करतें, मुद्गर घुमाते और कुश्ती खेलते थे।
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