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________________ जैनहितैषी [भाग १३ वर्षके कालमें केवल पाँच ही सात श्वेताम्बर ग्रंथ- निषिद्धाचरणोंका सेवन करनेसे वे प्रमत्त हो कर्ता उत्पन्न हुए हैं। जिस समय देश पर विदोशयोंके गये । अपने अनुरक्त श्रावकोंको साधारण धर्मलगातार आक्रमण होते रहे और सर्वत्र अशांति कथा सुना दे सकनेवाले ज्ञानके सिवा अधिक फैली रही, उससमय भी जब श्वेताम्बर विद्वा- विद्याध्ययन करनेमें वे आलस्यवान बन गये । नोंने हजारों ग्रंथ लिख डाले, तब उस शांतिके ऐसी स्थितिमें साहित्यके विकसित होनेकी संभासमयमें इस बातका कैसे अभाव हो सकता था? वना कहाँतक की जा सकती है ? इसी समयमें उस समयके यतियों-मुनियोंमें लौकिक विद्या- कुछ बौद्धादि विधर्मियोंका भी उपद्रव अधिक ओंका अधिक प्रचार न होनेमें मुझे यह कारण रहा, जिससे जो इस कार्यके लिए समर्थ थे वे प्रतीत होता है कि प्रारंभके शतकोंमें जो मुनि मुनि भी शांतिके अभावमें साहित्यका विकास होते थे, वे बहुधा विशेष विरक्त और उदासीन विशेष नहीं कर सके। होते थे । सिद्धसेन दिवाकर जैसे तेजस्वी और पश्चिम भारतकी प्राचीन राजधानी वल्लभी पराक्रमी क्वचित् ही प्रकट होते थे । जो आत्म- नगरीके विध्वंसके साथ बौद्धोंका भी विस्तार स्वरूपावलोकनमें मग्न रहनेवाले हैं, वे संकुचित होने लगा । विक्रमकी ९ वीं शतातत्त्वचिंतनमें शिथिलता लानेवाले इन बखेड़ोंमें ब्दिके प्रारंभमें गुजरातके मध्यकालीन गौरवके क्यों पड़ने लगे? वे तो परमात्म दशाका स्मरण केन्द्रभूत स्थान अणहिल्लपुरके राज्यतंत्रमें प्रारंभऔर मनन करनेहीमें अधिकतर लगे रहते थे। हीसे जैनोंका सर्वाधिक हस्तक्षेप रहा । अणउनको वही विषय प्रिय लगता था, जिसमें आत्मा हिल्लपुरका जो बड़ा भारी उत्कर्ष हुआ था, वह परमात्माका शुद्धस्वरूप शांतिप्रदायक शब्दों जैनजनताहीके कारण था, यह कहनेमें जरा भी और विचारों में प्रदर्शित किया गया हो। तर्कके आतिशयोक्ति नहीं है । यह बात इतिहाससिद्ध कर्कश कटाक्षोंका, व्याकरणके अटपटे सूत्रों और है। अणहिल्लपुरकी उन्नतिके साथ पश्चिम भारतमें शब्दप्रयोगोंका तथा शृंगारादि नाना रसोंसे प्रचलित रहनेवाले जैनधर्मकी उन्नतिका अभेद चित्तकी निश्चलताको क्षुब्ध कर देनेवाले आलं- संबंध है। ज्यों ज्यों गुजरातका राज्य सुसंगकारिक भाका रटन करनेमें उन्हें रति प्राप्त ठित होता गया और शक्तिमें बढ़ता गया, त्यों हो, यह असंभव था। इस लिए उस समयके त्यों जैनसमाज भी पिछली कई शताब्दियोंकी आत्मदर्शी श्रमण इस विषयकी प्रवृत्तिका बहुत जमी हुई जडताको दूर करता गया । साधुकम सेवन कर सके । परन्तु पिछले शतकोंमें समुदायमें जागृति आने लगी और धर्मप्रचारदेशकी परिस्थति बदल गई, धार्मिक विचारोंमें की ओर उसका उत्साह बढ़ने लगा । यही जडता आ गई, और वैमनस्यकी मात्रा बढ़ समय जिनेश्वरसूरि और बुद्धिसागराचार्यके गई, इस कारण उस प्रकारकी उच्चदशावाली प्रादुर्भावका है । इसके पहले वादिवेताल मुनिवृत्तिका तो लोप होता गया और उसके शान्त्याचार्य, महेन्द्रसूरि, महाकवि धनपाल स्थानमें संयमशैथिल्य और प्रमादाचरणका प्रवेश और उनके बन्धु शोभन मुनि आदि कई विद्वा. हुआ । साधु लोग एक ही जगह बहुत समय नोंके बुद्धिप्रभावने साधुसमूहमें जो विद्योन्नतिके तक निवास करने लगे, और चैत्यों-मंदिरोंकी बीज बो दिये थे, उन्हें इन दोनों बन्धुओंने व्यवस्था देखने-संभालने लगे और गृहस्थोंका जलसिञ्चन करके अंकुरित कर दिया। इन्होंने संपर्क अधिक रखने लगे । इस प्रकार अनेक अपने विशाल शिष्यसमुदायमें केवल धर्म Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522836
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size12 MB
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