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________________ अङ्क ९-१० / प्रमालक्षण । प्रमालक्षण । श्वेताम्बर संप्रदाय का सबसे पहला तर्कलक्षण ग्रंथ । ( लेखक - श्रीयुत मुनि जिनविजयजी । ) विक्रमकी ११ वीं शताब्दी के उत्तरार्धमें जिनेश्वर और बुद्धिसागर नामके दो प्रसिद्ध श्वेताम्बराचार्य हो गये हैं । ये दोनों सगे भाई और गुरुभ्राता थे । विद्वान् तो ये थे ही, साथ ही चरित्रवान् और प्रभावशाली भी थे । इन्होंने अपने समयमें बहुतसे यतियोंकी शिथिल प्रवृत्ति देखकर उसका तीव्र विरोध किया था और अपने उदाहरणके द्वारा लोगोंको शुद्धाचारकी शिक्षा दी थी । इनके समयमें श्वेताम्बर - साहित्यने विकासके एक नवीन मार्गमें प्रवेश किया । यदि श्वेताम्बर साहित्यके प्राचीन और अर्वाचीन इस प्रकार दो विभाग कल्पना कर लिये जायँ, तो ये दोनों बन्धु अर्वाचीन साहित्य के कर्णधार या आदि प्रवर्तक कहे जा सकते हैं । इनके पहले - का जो श्वेताम्बर साहित्य है, वह केवल आगम ग्रन्थोंके साथ ही संबंध रखनेवाला है । हरिभद्र, सिद्धसेन, सिद्धर्षि और अभयदेवके इनेगिने ग्रंथोंके सिवा और कोई भी प्रकीर्णक साहित्य इनसे पहलेका उपलब्ध नहीं हुआ । परंतु इन बन्धुओंके आविर्भावके बाद श्वेताम्बर साहित्यस्रोत सहस्रधाराओंसे बहने लगा और आगे की ३-४ शताब्दियों में वर्षाकालीन जलकी तरह न्याय, व्याकरण, काव्य, अलंकार आदि सब ही क्षेत्रों में विपुलता के साथ व्याप्त हो गया । इन ३ - ४ शतकोंमेंसे प्रत्येक शतकमें शतशः ग्रंथ भिन्न भिन्न विषयोंके लिखे गये और वे जैनसाहित्यकी शोभाको चिरकालतक आश्चर्यान्वित दृष्टि से देखने लायक बना गये । इन बन्धुओंके अवतारके पहले श्वेताम्बरोंके तर्क, शब्द और काव्य आदिके स्वनिर्मित लक्षण ग्रंथ नहीं थे । उस Jain Education International ४१७ समय के विद्वान् ब्राह्मण और बौद्धों के बनाये हुए न्याय, व्याकरण और अलंकारविषयक ग्रंथोंका अध्ययन करके ही पाण्डित्य प्राप्त करते थे और उन्हीं के आधार पर वे अपने सिद्धान्तोंका मण्डन और विपक्षियोंका खण्डन किया करते थे । यद्यपि उस समय सिद्धसेन दिवाकर, मल्लवादी, हरिभद्र और अभयदेव आदि बड़े बड़े ताकिकोंके बनाये हुए न्यायावतार, नयचक्र, अनेकान्त जयपताका और वादमहार्णव (सम्मति - टीका ) आदि अच्छे अच्छे प्रभावशाली तर्क ग्रंथ मौजूद थे और वे ऐसे थे कि उनकी युक्तियोंके आगे परवादियों को युक्तियाँ नहीं सूझती थीं; फिर भी प्रथमाभ्यासी जैनको न्यायशास्त्र के सिद्धान्तोंका प्राथमिक क्रमबद्ध ज्ञान प्राप्त करने के लिए अजैन ग्रन्थोंहीकी शरण लेनी पड़ती थी और इसी कारण इस प्रकारके कितने ही अजैन ग्रंथों पर जैन विद्वानोंको टीका-टिप्पण लिखने पड़े थे । सुप्रसिद्ध बौद्ध तार्किक धर्मकीर्तिरचित न्यायबिन्दुकी धर्मोत्तरवाली व्याख्या पर मल्लवादीका टिप्पण और दिङ्नागके न्यायप्रवेशपर हरिभद्रकी टीका इस कथन के प्रकट प्रमाण हैं । जिनेश्वरसूरि और बुद्धिसागराचार्यको इस प्रकार परकीय साधनसंपत्ति पर अवलम्बित रहकर अपना उत्कर्ष बढ़ाना अच्छा नहीं मालूम हुआ, इस लिए उन्होंने इस बड़ी भारी न्यूनताको पूर्ण करनेका वर्णनीय प्रयत्न करके अपने साहित्यको समुन्नत करनेका सूत्रपात किया । श्वेताम्बर साहित्यका इतिहास देखनेसे पता लगता है, कि इन भ्राताओंके पूर्वके यतियों का अधिकांश भाग तो धर्मशास्त्रोंके पठनपाठन के सिवाय और किसी प्रकार के ग्रन्थोंका परिचय भी नहीं रखता था । न्याय, व्याकरण, काव्य आदि. लौकिकी विद्याओंका ज्ञाता तो उस समय कोई विरला ही होता था । यही कारण है कि विक्रमकी पहली दश शताब्दियों में — इतने बड़े हजार For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522836
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size12 MB
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