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________________ ४१६ जैनहितेषी भाग १३ गरज यह कि कविशिरोमणि जिनसेनाचार्यने “ ज्ञानावरणक्षयोपशमापादितकलागुणइस नियमके वशवर्ती होकर कि काव्यमें मधु- ज्ञतया चारित्रमोहस्त्रीवेदोदयप्रकर्षादंपानका वर्णन रहना चाहिए और यह खयाल गोपांगनामोदयावष्टंभाच्च परपुरुषानेति करके कि स्त्रियोंकी शोभा और सुन्दरताका गच्छतीत्येवं शीला इत्वरी, ततः कुत्सायां मधुपानसे विशेष सम्बन्ध है, अपने ग्रन्थमें कः, इत्वरिका ।" अर्थात् ज्ञानावरणी कर्मके चौथे कालकी आदिकी स्त्रियोंको भी मद्य पीने- क्षयोपशमसे प्राप्त हुई नृत्य गान आदि वाली वर्णन किया है, ऐसा जान पड़ता है। कलाओंकी जानकारीसे, चारित्रमोह रूप स्त्रीवेद है और अंगोपांग नामक नाम कर्मके उदयसे ___ यदि वास्तवमें ऐसा ही है, तो ये कविताके : जो परपुरुषोंसे समागम करती है उसे इत्वरी ग्रन्थ बड़ी सावधानीसे पढ़े जाने चाहिए । इनके , ' कहते हैं । इसमें निन्दावाचक 'क' मिलकर 'प्रत्येक शब्दको जिनवाणी समझ लिया जायगा । इत्वारिका ' शब्द बनता है । वेश्याकी तो सत्यश्रद्धानमें बाधा आनेकी बड़ी भारी गणना परस्त्रीमें नहीं हो सकती है, इसी कारण संभावना है। और यदि ऐसा नहीं है तो मदिरा सप्त व्यसनोंमें 'परस्त्रीसेवनसे' 'वेश्यासेवन' पीनेका उक्त कथन क्या अर्थ रखता है, इसके व्यसन जुदा बतलाया गया है। यदि इन दोनों साफ तौर तौरपर खुल जानेकी बहुत बड़ी व्यसनोंमें कुछ तारतम्य न होता, तो ये जुदे जुदे आवश्यकता है। विद्वानोंको इस ओर ध्यान देना नहीं बतलाये जाते ।। चाहिए। (क्रमशः) उक्त सब प्रमाणोंसे हम यह नहीं सिद्ध कर नोट-लेखक महाशयने जो यह लिखा है कि रहे हैं कि वेश्यागमन पाप नहीं है; नहीं, पाप उस समय वेश्यायें इतनी बुरी दृष्टि से नहीं देखी तो वह है ही; किन्तु परस्त्रीसेवनके बराबर नहीं जाती थीं, जितनी कि आजकल देखी जाती है। और इसी कारण आचार्योंने उसे स्वदारहैं, सो इसकी पुष्टि हमारे श्रावकाचारोंके सन्तोषियोंके लिए अनाचार नहीं, किन्तु अती. ग्रन्थोंसे होती है। सबसे पहले आचार्य सोमदेव- चार माना है। के यशस्तिलकका यह श्लोक देखिए:- अब रहा, वेश्याओंको घृणाकी और आदरकी वधूवित्तस्त्रियौ मुक्त्वा सर्वत्रान्यत्र तज्जने । दृष्टिसे देखना, सो इसका सम्बन्ध देशकालके माताश्वसा तनूजति मातब्रह्म गृहाश्रम ॥ अनसार जनसाधारणके झकाव पर है। अर्थात् अपनी स्त्री और वित्तस्त्री (वेश्या) को संभव है श्रीजिनसेन स्वामीके समयमें उस छोड़कर अन्य सब स्त्रियोंको माता, बहिन और प्रान्तमें जहाँ कि वे रहते थे वेश्यायें पुत्रीके समान समझना, यह गृहस्थाश्रमका घणित न समझी जाती रही हों। आज भी हम ब्रह्मचर्य है । इससे मालूम होता है कि, सोम- देखते हैं कि मालवा, मध्यप्रदेश और यू. पी. के देवके मतसे वेश्याका सम्बन्ध रखने पर भी , कुछ जिलोंमें वेश्याका व्यसन जितना बुरा समझा जो गृहस्थ पराई स्त्रियोंका त्यागी है, वह एक • जाता है, उतना बिहार और बंगालमें नहीं समझा प्रकारका ब्रह्मचारी है। _ जाता। कर्नाटक प्रान्तमें इस समय भी जिनेन्द्र __इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धि और राजवार्तिक आदि ग्रन्थों में वेश्यासंभोगको स्वदारसन्तोषव्रतका : भगवान्के अभिषेकके लिए जो जलयात्रोत्सव होता अतीचार बतलाया है, अनाचार नहीं । रत्नकर- है, उसमें वेश्याओंका नृत्य कराया जाता है। वहाँ ण्डश्रावकाचारमें भी इत्वरिकागमन या वेश्यागम- तो कहीं कहीं मन्दिरोंमें भी वेश्यानृत्य होता है; नको स्वदारसन्तोषव्रतका-जिसका दूसरा नाम परन्तु हमारे यहाँ अब पुरुषोंका नृत्य भी समझपरदारनिवृत्ति भी है-अतीचार बतलाया है। दारोंकी आँखोंमें खटकने लगा है।-सम्पादक । राजवार्तिककारने इत्वरिकाका लक्षण किया है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522836
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size12 MB
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