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________________ ४५८ . virarmawww AAMANAMAVAAAAP जैनहितैषी [भाग १३ गोलमालकारिणी सभाके क्लोर्का नाकों दम है । पत्रोंके उत्तर भी बड़ी मुश्किलसे दिये जा सकते हैं । मध्यप्रदेशके समाचार । एक धनी मानी सिंगईजीका अभी हालहीमें एक पत्र आया था । उसका. सारांश यह है कि " मैं वृद्ध हो गया हूँ। मेरी जिन्दगीका सबसे गोलमालकारिणी सभाके अधिवेशन होनेकी बड़ा तजरुबा यह है कि मन्दिर बनवाने और अभी तक कोई उम्मीद नहीं । कारण ! नकद रथप्रतिष्ठायें करानेसे ही जैनधर्मकी वास्तविक नारायणोंकी अकृपा। इनकी कृपाके बिना कोई उन्नति होती है । मैंने इसी प्रकारके ही पुण्यकाम नहीं होता । वे दिन चले गये, जब कार्य करवाके परवार जातिको उन्नतिके शिखरसभाओंके प्लेटफार्म पर अपील हुई कि रुपयोंकी पर चढ़ा दिया है । मेरे द्वारा बीसों परवार झड़ी लग गई। अब तो अधिवेशनके खर्चके 'सिंगई ' और 'सवाई सिंगई ' पदसे विभूषित रुपये भी मुश्किलसे वसूल होते हैं । एक तो किये गये हैं । ये पदवियाँ ' राय साहब ' अब कोई समझदार सभापति बननेको तैयार तथा ' रायबहादुर' के खिताबोंसे जरा भी नहीं होता । क्योंकि कुछ लोगोंने इस पदकी कम नहीं। मैं चाहता था कि परवारोंमें एक प्रतिष्ठा बहुत बढ़ा दी है। अमुक सेठजी अमुक भी कुटुम्ब ऐसा न बचे जो सिंगईके पदसे विभूजैन सभाके सभापति हुए, इसका अर्थ ही लोग षित न हो । पर अब अपने वृद्ध शरीरकी तरफ यह करने लगे हैं कि अमुक 'भोला शिकार ' अमुक देखनेसे यह विश्वास नहीं होता कि, मेरी यह प्रान्तवालोंके पंजेमें जा फँसा। दूसरे, सभापतियोंसे इच्छा पूरी होगी । क्या आप कोई ऐसी तरकीब रुपये माँगे जाते हैं । उनके स्वागत आदिमें जो बतला सकते हैं, जिससे मेरी उक्त साध पूरी हो रुपया खर्च होता है, कमसे कम उतना पानेकी जाय?" यह पत्र बहुत ही महत्त्वका समझा गया; आशा तो उनसे लोग करते ही हैं । यदि कोई इस कारण इसका उत्तर स्वयं गोलमालानन्दजी कंजूस हुआ और कुछ न दे गया, अथवा कम समापतिने अपनी कलम शरीफसे लिखा है। दे गया तो फिर उसकी मिट्टी पलांद की जाती है। उसका सारांश यह है कि, "जबलपुरमें एक बड़ी ऐसी एक दो घटनायें तो अभी हालहीमें हो भारी रथप्रतिष्ठा कीजिए और पत्रोंद्वारा सूचना गई हैं । एक सभापति महाशयके स्वागतमें कर दीजिए कि, जो लोग सिंगई बनना चाहें लगमग ५०० रुपये खर्च किये गये; परन्तु वे वे यह अवसर न चूकें । यह गजरथ परवारचन्दा लिख गये कुल १०१ रुपये ! इस पर मण्डलीकी आरसे चलनेवाला है। इसके फण्डमें लोगोंने उन्हें खूब ही कोसा । ऐसी दशामें जो माई कमसे कम पचास रुपये देंगे, वे सिंगई अधिवेशनके होनेकी आशा कोसों तक नजर बना दिये जायेंगे । रथकी धुरी बहुत ही बड़ी नहीं आती। फिर भी फन्दे लगा रक्खे हैं । बनवाई गई है जिसको सब लोग पकड़ यदि कोई चंडूल फँस गया तो देखा जायगा। सकेंगे। जो लोग पहलेके सिँगई और सवाई सिंगई हैं उन्हें धुरी पकड़नेका अधिकार अधिवेशनका तो अभीतक कोई प्रबन्ध नहीं नहीं होगा । इस तरहसे आप एकही वर्षमै हुआ, पर यह सुनकर लोग खुश होंगे कि सभा- हजारों सिंगई बना सकेंगे । आशा है कि के आफिसका काम जोरों पर है । कामके मारे आपको यह युक्ति पसन्द आयगी ।” सुनते हैं, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522836
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size12 MB
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