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________________ अङ्क ९-१० ] ब्राह्मणों की उत्पत्ति । ३७७ जावेगा तो ये लोग अपने पूज्यपनेके घमेंडमें जैनियोंका इतना विरोध किया गया था कि उनका कर देने से साफ इनकार कर देंगे और स्पष्ट शब्दों में कहेंगे कि, लोगोंको संसारसे पार करनेवाले हम देवब्राह्मण हैं, हमको सब लोग मानते हैं, इस कारण हम राजाको कुछ भी कर नहीं देंगे । जीना भी भारी हो गया था । यहाँ तक कि बौद्ध धर्म तो इस देशसे बिलकुल ही उठ गया और जैनधर्मकी यद्यपि बिलकुल नास्ति नहीं हुई; परन्तु वह भी न होनेके ही बराबर हो गया । अंधी श्रद्धासे जो चाहे मान लिया जावे; परन्तु विचार करनेपर तो यह कथन किसी तरह भी भरत महाराज समयके अनुकूल नहीं होता है । क्योंकि आदिपुराणके ही कथनके अनुसार वह कर्मभूमिका प्रारम्भिक काल था; श्री आदिनाथ भगवान् उस समय तक विद्यमान थे; जिन्होंने क्षत्री, वैश्य और शूद्र ये तीन वर्ण बनाकर प्रजाको खेतीं, आदि काम सिखाये थे; अर्थात् वर्णों में विभाजित होने और खेती व्यापार आदि कर्म प्रारम्भ होने को अभी एक पीढ़ी भी नहीं बीती थी । अभीसे ये ऐसे ब्राह्मण कहाँसे आ सकते थे जिनको अपनी जातिका घमंड हो, प्रजाके लोग भी जिनको संसारसे पार करनेवाले मानते हों और राजा लोग भी जिनको अन्य प्रजासे उच्च समझकर उनसे अन्य प्रजाके समान कर न लेते हों और जिनका इतना भारी प्रभाव फैल रहा हो और इतना जबर्दस्त जोर बँध रहा हो कि, वे अपने पूज्यपनके घमंड में राजा को भी कर देने से इनकार कर सकें । भारतवर्ष एक ऐसे समय से गुजर चुका है, जब ब्राह्मणोंने जैन और बौद्धोंसे यहाँतक घृणा की थी कि उनकी छाया पड़जाने या कपड़ा भिड़ जानेपर भी वे सचैल स्नान करते थे और ऐसी ऐसी आज्ञायें जारी कर दी गई थीं कि यदि मस्त हाथीसे बचने के वास्ते जैनमन्दिरके अन्दर घुस जानेके सिवाय अन्य कोई भी उपाय न हो, तो भी जैनमंदिर के अन्दर नहीं जाना चाहिए; अर्थात् जैनमंदिर में जानेकी अपेक्षा मर जाना अच्छा है । इसही द्वेषके कारण उस समय बौद्ध और Jain Education International ऐसे प्रबल द्वेषकी अवस्थामें बौद्धों के समान जैनियोंका भी अस्तित्व न उठ जानेका कारण इसके सिवाय और कुछ नहीं है कि, सारे भारत में हिंदुओंकी प्रबलता होने के समय में भी दक्षिण में जैनी राजा होते रहे हैं जिनकी बदौलत उस समय जैनियोंको दक्षिणमें पनाह मिलती रही हैं। और यहीं पर कुछ आचार्य उस समयकी परि-, स्थिति के अनुसार जैनजातिके जीवित रहनेका उपाय बनाते रहे हैं। उनही उपायोंमेंसे एक उपाय जैन ब्राह्मणों का निर्माण करना भी है जो ऐसे ही किसी समयमें दक्षिण देशमें बनाये गये हैं. और अब भी दक्षिण देशमें मौजूद हैं ! आदिपुराणके कर्ता श्रीजिनसेनाचार्यको हुए अनुमान एक हजार वर्ष बीते हैं । वे दक्षिण देशमें हुए हैं और अधिकतर कर्णाटक देशमें ही रहे हैं, जहाँका राजा अमोघवर्ष जैनधर्मका परम श्रद्धालु, सहायक और जिनसेन स्वामीका परम भक्त था । भरत महाराजका उपर्युक्त उपदेश आदिपुराणकर्ता आचार्य महाराज और राजा * मिलता है अमोघवर्षके समय से अक्षर अ जब कि ब्राह्मणोंका सारे ही भारतमें पूरा पूरा जोर हो रहा था, वे सर्वथा पूजे जाते थे, न उनसे किसी प्रकारका कर लिया जाता था और न उनको दंड दिया जाता था; सारे भारतमें उनकी ऐसी मान्यता होनेके कारण राजा अमोघवर्षक राज्यमें भी उनका अन्य प्रजासे कुछ अधिक माना जाना और उनसे कर न लिया जाना कुछ आश्वर्यकी बात नहीं है; परन्तु जैनी राजाके राज्यमें भी जैनधर्मके For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522836
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size12 MB
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