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________________ - जैनहितैषी [ भाग १३ __ जाय । असामियोंको आपने मालगुजारीकी रसीद चाँदपारके किसान अपने गाँव पर पहुँचकर तो नहीं दी है ? पण्डित दुर्गानाथसे अपनी रामकहानी कह ही दुर्गानाथ (कुछ डरते हुए)-जी नहीं, रहे थे कि कुँवरसाहबका दूत पहुँचा और खबर रसीदें तैयार हैं, केवल आपके हस्ताक्षरोंकी देर है। दी कि सरकारने आपको अभी बुलाया है। कुँवरसाहब ( कुछ संतुष्ट होकर )-यह दुर्गानाथने असामियोंको परितोष दिया और बहुत अच्छा हुआ । शकुन अच्छे हैं । आप घोड़ेपर सवार होकर दरबारमें हाजिर हुए। अब आप इन रसीदोंको चिरागअलीके सिपुर्द - कुँवरसाहबकी आँखें लाल थीं। मुखकी कीजिए । इन लोगों पर बकाया लगानकी आकृति भयंकर हो रही थी। कई मुख्तार और नालिश की जायेंगी, फस्ल नीलाम करा लूँगा। चपरासी बैठे हुए आग पर तेल डाल रहे थे। जब भूखों मरेंगे तब सूझेगी। जो रुपया अबपंडितजीको देखते ही कुँवरसाहब बोले-चाँद- तक वसूल हो चुका है, वह बीज और ऋणके पार वालोंकी हरकत अपने देखी ? खातेमें चढ़ा लीजिए । आपको केवल यही __पंडितजीने नम्रभावसे कहा-जी हाँ सुनकर गबाही देनी होगी कि यह रुपया मालगुजारीके बहुत शोक हुआ ! यह तो ऐसे सरकश न थे। मदमें नहीं कर्जके मदसे वसूल हुआ है । बस । ___ कुँवरसाहन--यह सब आपहीके आगमनका दुर्गानाथ चिन्तित हो गये । सोचने लगे फल है । आप अभी स्कूलके लड़के हैं । आप कि क्या यहाँ भी उसी आपत्तिका सामना करना क्या जानें कि संसारमें कैसे रहना होता है। पड़ेगा, जिससे बचने के लिए, इतने सोच विचायदि आपका बर्ताव असामियोंके साथ ऐसा ही रके बाद, यह शान्तिकुटीर ग्रहण किया था । रहा तो फिर मैं जमींदारी कर चुका । यह सब क्या जान बूझ कर इन गरीबोंकी गर्दन पर छुरी आपकी करनी है । मैंने इसी दरवाजे पर असा- फेरूँ, इस लिए कि मेरी नौकरी बनी रहे । नहीं, मियोंको बाँध बाँध कर उलटे लटका दिया है यह मुझसे न होगा । बोले-क्या मेरी शहादत और किसीने चूतक न की। आज उनका यह बिना काम न चलेगा ? साहस कि मेरे ही आदमी पर हाथ चलायें। कुँवर साहड (कोधसे )-क्या इतना कहने में ___ दुर्गानाथ (कुछ दबते हुए)-महाशय, इसमें भी आपको कोई उज्र है ? मेरा क्या अपराध ? मैंने तो जबसे सुना है दुर्गानाथ (द्विविधा में पड़े हुए)-जी यों तो मैंने तभीसे स्वयं सोचमें पड़ा हूँ। आपका नमक खाया है। आपकी प्रत्येक आज्ञाका कुँवरसाहब-आपका अपराध नहीं तो किसका पालन करना मुझे उचित है, किन्तु न्यायालयमें है ? आपहीने तो इनको सर चढ़ाया। बेगार बन्द मैंने गवाही कभी नहीं दी है। सम्भव है कि यह कर दी, आपही उनके साथ भाईचारेका बर्ताव कार्य मुझसे न हो सके। अतः मुझे लो क्षमा करते हैं, उनके साथ हँसी मजाक करते हैं । ये ही कर दिया जाय। छोटे आदमी इस बर्तावकी कदर क्या जानें। कुँवर साहब ( शासन के द्वंगसे)-यह काम किताबी बातें स्कूलोंहीके लिए हैं। दुनियाके आपको करना पड़ेगा । इसमें हाँ-नहींकी आव्यवहारका कानून दूसरा है । अच्छा जो वश्यकता नहीं । आग आपने लगाई है, हुआ सो हुआ। अब मैं चाहता हूँ कि इन बुझावेगा कौन? . बदमाशोंको इस सरकशीका मजा चखाया दुर्गानाथ ( दृढ़ताके साथ )-मैं झूठ कदापि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522836
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size12 MB
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