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________________ जैनहितैषी [भाग १३ समाजसुधारमें सबसे अधिक कहता है और जो कुछ वह कहता है वह - युक्तिसंगत भी है या नहीं। डरकन लागासह डर किन लोगोंसे है ? नई बातकी सफलताके लिए सबसे कठिन ( लेखक, श्रीयुत बाबू निहालकरणजी और सबसे अधिक आवश्यक कार्य यही है कि सेठी एम. एस. सी.।) मनुष्यके इस डरको किसी न किसी प्रकार जैनसमाजमें सामाजिक सुधारका कार्य मिटाया जावे और ऐसा प्रयत्न किया जावे कि बहुत दिनोंसे प्रारम्भ हो चुका है और उस कार्य कमसे कम वह नई बातको सुनने तो लगे। यदि सुनकर उस पर विचार करना भी प्रारम्भ में सफलता भी बहुत हुई है; किन्तु प्रायः जन कर दे तब तो बहुत ही अच्छी बात हो। साधारण यह समझता है कि इतना सब प्रयत्न सर्वथा निष्फल हुआ है। कारण इसका वे यह यही दशा समाजसुधारके कार्यकी है । एक समय था जब इन बातोंको सुनकर लोग केवल बतलाते हैं कि न तो अभीतक कोई विवाह हँसते थे। फिर हँसते हँसते गाली गलौज करऐसे प्रचलित हुए कि जिनमें वर और कन्याका नेका अवसर आया। ऐसे भी अनेक महात्मा वयस बाल्यकालसे परे समझा जावे, न वृद्ध विवाह रुके हैं, न विधवाओंकी दशा कुछ प्रगट हुए जो धर्मकी दुहाई देकर उनका विरोध गट सुघरी है, न मृत्युके उपलक्ष्यमें आनन्दभोजोंकी करने लगे । अब ऐसा समय है कि इन सब कमी हुई है, न भिन्न भिन्न जैन जातियोंमें पार बातोंको छोड़कर समाज यह प्रयत्न करने लगा स्परिक विवाहसम्बंधका सूत्रपात हुआ है, न व्यर्थ है कि युक्तिद्वारा इन सुधारोंका खंडन किया न्ययहीकी ओर समाजकी दृष्टि गई है और न जाय । गाली गलौज सर्वथा बन्द नहीं हुए हैं धार्मिक समझे जानेवाले मेलोंहीका कुछ सुधार और न कभी हो ही सकते हैं; किन्तु इसमें हुआ है । यह सब सच है परन्तु इसके सत्य सन्देह नहीं कि अब उन प्रश्नों पर विचार करना होने पर भी यह कहना उचित नहीं कि इतने प्रारम्भ हो गया है । चाहे विचार किसी भी दिनोंका प्रयत्न सर्वथा निष्फल हुआ। बुद्धिसे किया जावे, किन्तु जब कोई युक्तिद्वारा दोष निकालनेका प्रयत्न करेगा तब यह अनि मनुष्यका स्वभाव है कि वह सदा नई बातके वार्य है कि उसे उसकी उत्तमताका भी ज्ञान करनेसे डरता है; इस पर यदि कोई कह दे कि हो जायगा। फिर चाहे वह दिखलानेको विरोध इस नई बातमें अमुक दोष है, अमुक कमी है करता ही रहे, किन्तु आन्तरिक विश्वासके विरुद्ध तब तो यह डर और भी अधिक हो जाता है। कोई भी मनुष्य बलपूर्वक कोई बात नहीं कह विशेष कर इस धर्मप्रधान भारतवर्ष में यदि सकता । अशिक्षित समाजको प्रसन्न रखनेके कोई उनसे कह दे कि इसमें तो धर्मका घात लिए वह कितना ही अधिक विरोध करनेका प्रहोता है तब उससे इतना डर लगने लगता है यत्न करे, किन्तु उसके विरोधमें स्वाभाविकता. कि उसका नाम सुनकर ही कानपर हाथ रखने- और सत्य न होनेसे उसका प्रभाव किसी पर पड़ को जी चाहता है । उस समय यह भी देखनेका नहीं सकता और पड़ भी जाय तो ठहर नहीं ध्यान नहीं करता कि दोष दिखानेवाला और सकता । अधार्मिक बतलानेवाला कौन है, उसकी यदि इस दशा पर समाजसुधार पहुँच चुका योग्यता कितनी है, वह किस नीयतसे ऐसा है तब यह कैसे कहा जा सकता है कि सफलता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522836
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size12 MB
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