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________________ जैनहितैषी [भाग १३ सम्बन्धमें नीचे लिखे दो श्लोक उद्धत किये कमलमाल पद्मासनी, गये हैं। पर यह नहीं लिखा कि ये किस ग्रन्थसे द्राविडजती सुमीत ॥३॥ लिये गये हैं। कुछ अशुद्ध और अस्पष्ट भी रुद्राक्षत्रकूकण्ठधर, जान पड़ते हैं: मानस्तंभविशेष। पूर्वस्यां वामनेनैव दाक्षिण द्राविड जानिये, धर्मचक्र भुजशेष ॥४॥ ___ मदनेन च दक्षिणे। पंच द्राविड मान ये, पश्चिमस्यां मुसंडेन तिलक मान (2) रुद्राक्ष । कुलकेनोत्तरेऽपि तत् ॥ माल भस्म मालै जपै, मस्कपूरणमासाद्य त्रिकसूत्री कोपीन (2)॥५॥ चत्वारोऽपि दिवानिशम् । उत्तर द्राविड जानिये, अज्ञानमतमासाद्य (?) काल चतुर्थज भेक । लोकानुभ्रशतामय (?)॥ पंचमके दो भेद जुत, -, अर्थात् पूर्वदिशामें वामनने, दक्षिणमें मदनने, कल्प अकल्प अनेक ॥६॥ पश्चिममें मुसण्डने और उत्तरमें कुलकने मस्क- दुसरे दोहेमें द्राविड संघकी प्रतिमाका स्वरूप पूरणके अज्ञान मतका प्रचार किया और लोगोंको यह बतलाया है कि, वह अर्धपल्यंकासन होती भ्रष्ट किया । वचनिकाकारका कथन है कि ये है, उसके मस्तक पर सर्पके पाँच फण होते हैं, वह सिंहासन पर स्थित होती है और तीन ३ द्राविड़ संघके विषयमें दर्शनसारकी छत्र उसके ऊपर रहते हैं । इसमें यह नहीं कहा वचनिकाके कर्ता एक जगह जिनसंहिताका है कि, वह वस्त्र और आभूषणोंसे युक्त होती प्रमाण देते हुए कहते हैं कि 'सभूषणं सवस्त्रं है। पर जिनसंहिताका उक्त श्लोकार्ध द्राविड स्यात् बिम्बं द्राविडसंघजम्'-द्रविड़ संघकी प्रतिमाको वस्त्राभूषणसहित बतलाता है । प्रतिमायें वस्त्र और आभूषणसहित होती हैं। मालूम नहीं, यह जिनसंहिता किसकी बनाई लिखा है-“ जो बिम्ब गहणां पहस्यो होय हुई है और कहाँ तक प्रामाणिक है। अभी तक तथा अर्ध पल्यंकासन निम्रन्थ हो है सो द्राविड़ हमें इस विषयमें बहुत सन्देह है कि, द्राविड संघका है। " आगे किसी ग्रन्थसे नीचे लिखे संघ सग्रन्थ प्रतिमाओंका पूजक होगा। दोहे उद्धृत किये हैं: उक्त छह दोहे भी मालूम नहीं किस ग्रन्थके तैल पान प्रासुक कहैं, हैं । वचनिकाकारने इन्हें कहींसे उठाकर रख - लवण खान है निन्द्य। दिया है, पर यह नहीं लिखा कि इनका भातनको यह (?) धौतजल, रचयिता कौन है । अन्तके चार श्लोकोंमें सदा पान अनवद्य ॥१॥ द्राविड़ संघके यतियोंका वेश बतलाया है और सिंहासन छत्रत्रयी, __ आसन अर्ध पल्यंक। उनके कई भेद किये हैं; परन्तु दोहोंकी रचना पंचफणी प्रतिमा जहाँ, इतनी अस्पष्ट है, और प्रतिके लेखकने भी उन्हें द्राविड संघ सवंक ॥२॥ कुछ ऐसा अस्पष्ट कर दिया है, कि उनका पूरा उत्तरीय अरु अंशु अध, पूरा अभिप्राय समझमें नहीं आता । इतना उज्ज्वलदोय पुनीत । मालूम होता है कि इस संधके यति वस्त्र पहनते Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522836
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size12 MB
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