________________
अङ्क ९-१० ] पुस्तक-परिचय ।
४२९ कुछ चर्चा हुई है और इनके मुश्किलसे पढ़े अच्छी उपयोगी पुस्तक लिखनेके लिए हम जाने आदिके सम्बन्धमें जितनी घटनायें हुई हार्दिक धन्यवाद देते हैं। हैं उन सबका इतिहास भी इस पुस्तकमें दिया २ हर्षचरित भाषा। लेखक, पं० प्यारेलाल गया है । कोई ५० वर्ष तक तो यह लेख शर्मा दीक्षित, प्रकाशक, मनोरमा कार्यालय, अच्छी तरहसे पढ़ा ही नहीं गया था और इसके मंडी धनौरा (यू.पी.)। आकार डबल क्राउन सोलह सिवाय कि यह बौद्धोंका है, किसीने इसके पेजी । पृष्ठ संख्या ८० । मूल्य आठ आने ।
जैन होनेके विषयमें तो कल्पना भी नहीं की थी। संस्कृत कादम्बरीके कर्ता 'बाणभट्ट' संस्कृतके सबसे पहले गुजरातके सुप्रसिद्ध इतिहासज्ञ पं० सुप्रसिद्ध कवि हो गये हैं । गद्यकाव्यकी रचनामें भगवानलाल इन्द्रजीने इन लेखोंको अच्छी तो वे बेजोड़ समझे जाते हैं । उन्होंने अपने तरह पढ़ा और इनके एक एक शब्द पर टीका आश्रयदाता राजा हर्षवर्द्धनके नामको अमर बना टिप्पणी करके इनके सम्पूर्ण आभिप्रायको प्रका- देनेके लिए 'हर्षचरित' नामका भी एक काव्य शित किया। पुस्तकमें पं० भगवानलालजीके लिखा था। संस्कृतमें जो थोड़ेसे ऐतिहासिक लेखका पूरा अनुवाद दिया गया है। साथ ही श्रीयुत काव्य हैं, हर्षचरित भी उनमें से एक है। इसमें पं० केशवलाल ध्रुव महाशयका लेख भी अन्तमें कविने अपने वंशका, अपना, महाराज हर्षवर्द्धनके जोड़ दिया गया है, जिसमें खारवेलके इतिहास- वंशका और उनके यशका विस्तारसे परिचय पर कुछ और भी नया प्रकाश डाला गया है। दिया है । 'हर्ष' भारतवर्षका सुप्रसिद्ध सम्राट कलिंगदेशके इतिहासादिके सम्बन्धमें और भी हो गया है । उसके समान प्रबलप्रतापी और जो जो जानने योग्य बातें मिल सकी हैं, आदर्श राजा बहुत ही कम हुए हैं । चीनको सम्पादक महाशयने उन सबका इस पुस्तकमें प्रसिद्ध यात्री हुएनसंग इसीके समयमै यहाँ यथास्थान संग्रह कर दिया है। गरज यह कि आया था। उसने अपने यात्राविवरणमें जिन उक्त लेखोंके मर्मको समझनेके लिए जो कुछ बातोंका जिक्र किया है, उनमें से अनेक बातें साधनसामग्री चाहिए वह सब इस सुसम्पादित हर्षचरितसे मिलती हैं । इस पुस्तकमें उसी पुस्तकमें संग्रह कर दी गई है । पुस्तककी संस्कृत 'हर्षचरित' का सारांश लिखा गया है । भाषा गुजराती है । अच्छा होता, यदि यह मूलमें जो लम्बे लम्बे समास और विशेषण हैं, उन्हें हिन्दीमें भी प्रकाशित हो जाती । जैन विद्वा- छोड़कर केवल कथाभागका ही यह अनुवाद नोको इसकी एक एक प्रति अवश्य मँगा लेना है। अच्छा होता, यदि इसमें मूलका कुछ रसचाहिए । यह श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों भाग भी लाया जाता । ऐसा करनेसे लोग इसे सम्प्रदायके अनुयायियोंके कामकी चीज है। उत्कण्ठाके साथ पढ़ते । भूमिकामें महाराजा हर्ष क्यों कि ये लेख उस समयके हैं, जब शायद और बाणका कुछ ऐतिहासिक परिचय अवश्य दिगम्बर और श्वेताम्बर ये दो भेद ही जैन- ही दिया जाना चाहिए था। इसके बिना साधाधर्ममें नहीं हुए थे । इससे इस बातका पता रण पाठक नहीं समझ सकेंगे कि यह ग्रन्थ लगाने के भी साधन मिलेंगे कि आजसे २१०० कितने महत्त्वका है। वर्ष पहले जैनधर्मका स्वरूप वर्तमान दिगम्बर ३वेदान्तकाविजयमंत्र-लेखक और प्रकासम्प्रदायसे अधिक समानता रखता था या शक, स्वामी सत्यदेव परिव्राजक, जानसेनगंज, श्वेताम्बर सम्प्रदायसे । मुनि महोदयको ऐसी प्रयाग । पृष्ठसंख्या २८ । मूल्य- डेड आना
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org