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________________ जैनहितैषी [माग १३ इसके प्रारंभके १६ पृष्ठोंमें स्वामीजीका एक ५ स्वराज्यकी पात्रता और इंग्लैण्डके व्याख्यान है, जिसमें वेदान्तके-आत्मा अजर स्वराज्यका इतिहास । अनुवादक, पं० रामेअमर है, सदा सत्यपथ पर आरूढ रहना और श्वर पाठक और प्रकाशक, ' ग्रन्थप्रकाशक एक आत्माका अन्यान्य आत्माओंके साथ घनिष्ठ समिति' काशी। डबल काउन सोलहपेजी साइज। सम्बन्ध है,-इन तीन• सिद्धान्तों पर विचार पृष्ठसंख्या ५४ । मूल्य पाँच आने । पुस्तकमें किया है और बतलाया है कि, ये सिद्धान्त ही दो लेख हैं । पहला ४४ पृष्ठका है। कलकत्तेके भारतवासियोंकी विजयके मंत्र हैं । इनके अनु- सुप्रसिद्ध अँगरेजी पत्र ‘माडर्न रिव्यू के सम्पासार चलनेसे वे जीवनयात्रामें कभी नहीं हार दक श्रीयुक्त रामानन्द चट्टोपाध्यायने एक सकते। आत्मवादी पौर्वात्य और प्रकृतिवादी Towards Home Rule नामकी पुस्तक लिखी पाश्चात्य लोगोंका इस शताब्दिमें एक बड़ा है। यह उसीके पहले लेखका अनवाद है। भीषण संग्राम होनेवाला है । उसमें हमारी जीत इसमें यह अच्छी तरहसे सिद्ध कर दिया गया अवश्य होगी, यदि हम वेदान्तके असली है कि भारतमें स्वराज्यको प्राप्त करनेकी यथेष्ट सिद्धान्तोंके पथ पर चलने लगे । स्वार्थी लोगोंने पात्रता है। हमारे हितशत्रुओंकी औरसे जो वेदान्त के असली सिद्धान्तोंको बिगाड़ डाला है। थोथी और अविचारितरम्य दलीलें यह सिद्ध आदि । व्याख्यानके आगेके पृष्ठोंमें आत्मवशी करनेके लिए दी जाती हैं कि भारतवासी या संयमी योद्धाके लक्षण भगवद्गीताके कुछ स्वराज्य पानेके योग्य नहीं हैं, उनके युक्तियुक्त श्लोक उद्धृत करके और उनका स्पष्टीकरण और मुँहतोड़ उत्तर देनेमें खकन कोई बात करके बतलाये हैं। पुस्तक अच्छी है। यदि उठा नहीं रखी । जो लोग स्वराज्यसम्बन्धी वेदान्त के बिगड़े हुए रूपका और असली रुएका आन्दोलन के विद्धमें हैं, अथवा जो यह समझते अन्तर भी शास्त्रीय पद्धति बतला दिया गया है कि भारत इसके योग्य नहीं है, उन्हें इस होता, तो यह और भी कारकी चीज होती लेखको अवश्य पढ़ जाना चाहिए । मूल पुस्तक और इसका प्रभाव भी कुछ अधिक गहरा अन्यान्य लेख भी शीघ्र प्रकाशित होने चाहिएँ। पड़ता। अनुवाद मजेका हुआ है। भाव समझने में कोई ४ मनुष्यजीवनके कार्तव्य । लेखक और दिक्कत नहीं पड़ती। दूसरा १० पजा लेख प्रकाशक, बाबू सूरजमलजी जैन, मल्हार गंज, केसरीके सम्पादकः श्रीयुत नरसिंह चिन्तामणि इन्दौर । पृष्ठसंख्या ६४ । मूल्य पाँच आने । केलकरके लिखे हुए मराठी निमयका अनुवाद इसमें सच्चरित्रता, आचरण और आदतोंका है। यह अनुवाद अच्छा नहीं हुा । भाषामे सम्बन्ध, मितव्ययिता, स्वच्छता, परोपकार, मराठीपन मौजूद है। कहीं कहीं मूल लेकका उदारता, कठिनाई और विद्याभ्यास आदि १६ अभिप्राय मुश्किल से समझमें आता है । पुस्तकके विषयों पर छोटे छोटे पाट हैं और वे लेखकने टाइटिलपेज पर तो पाठकजी अनुवादकर्ता प्रकट अपने विचारोंके अनुसार स्वतन्त्र लिखे हैं। किये गये हैं, परन्तु पहले लसके ऊपः अमराजैसा कि 'बक्तव्य' में स्वीकार किया गया है, वतीके वकील श्रीयुत जयराम के.सव असनारेका पुस्तकमें शृंखलाबद्ध विचार नहीं हैं, फिर भी नाम है । मालूम नहीं, इसका कारण क्या है। वे उपयोगी और शिक्षाप्रद हैं । विद्यार्थियों और ६ राष्ट्रीय शिक्षा । प्रकाशक, 'अन्यप्रकायुवकोंको इनसे बहुत लाभ हो सकता है। शक समिति' काशी। श्रीमती बीसेण्टके साथी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522836
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size12 MB
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