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________________ ४२८ जैनहितैषी [ भाग १३ । सारे जैनसमाजमें एकाध जाति ऐसी भी निकल अंक११में 'खण्डगिरि और कलिंगाधिपति खारवेल' सकती है जिसमें विवाहयोग्य पुरुषों और नामका एक लेख प्रकाशित किया था । हितैषीके कन्याओंकी संख्या बराबर हो और सबके साथ नियमित पाठकोंको उसका स्मरण होगा। उस लेखसम्बन्ध करनेसे उसे यह हानि हो कि उसकी का मूल इन्हीं लेखोंमें है । इन लेखोंने-विशेषकन्यायें दूसरी जातियोंमें अधिक चली जायँ करके हाथी गुफावाले लेखने-जैनधर्मके इतिहासऔर उसके यहाँके कुछ पुरुष कुंआरे रह जायें। पर एक अपूर्व प्रकाश डाला है । ईसवी सनसे अवश्य ही यह उस एक जातिके लिए हानिका कोई २०० वर्ष पहले कलिंगदेशमें महामेघकार्य है. परन्त जैसा कि पहले भी कहा जा वाहन खारवेल नामका एक बहुत ही प्रतापी चुका है हमें इस विषयमें समग्र जैनसमाजके राजा होगया है। भिक्षुराज भी इसका नाम था। लाभपर अधिक दृष्टि रखनी चाहिए । समाजके इसे राजा नहीं, महाराजा अथवा सम्राट् कहना कार्यमें व्यक्तियों को अपने स्वार्थोंका बलि देना चाहिए। क्योंकि इसने प्रबलप्रतापादित ही पड़ता है। उन्हें यह सोचकर सन्तोष करना मगध देश पर चढ़ाईकी थी और उसे जीत लिया पड़ता है कि समाजका जो लाभ है, उसमें था । लेखमें खारवेलका जन्मसे लेकर ३८ हमारा भी हिस्सा है। वर्षकी अवस्थातकका जीवन वृत्तान्त दिया जो सज्जन इस विषयके विरोधी हैं, उन्हें है । यद्यपि लेखके अनेक अंश खंडित हो अपने और और विरोधोंको भी उपस्थित करना गये हैं; फिर भी वह बतलाता है कि उस चाहिए जिससे उन पर विचार किया जा सके समय उड़ीसाका प्रधान धर्म जैन था । खारवेल और यह विषय अच्छी तरहसे निर्णीत हो जाय! जैनधर्मका परम श्रद्धालु और प्रचारक था। उसने सिंहासन पर बैठनेके दूसरे वर्षमें विदर्भ पुस्तक-परिचय । ( बरार) और महाराष्ट्रमें जैनधर्मके प्रचारका प्रयत्न किया, १२ वें वर्षमें मगध पर चढ़ाई की और उसमें विजय प्राप्त करके वह आदिनाथ १ प्राचीनजैनलेखसंग्रह ( प्रथम भाग)। भगवान्की उस प्रतिमाको वापस लेकर लौटा सम्पादक, श्रीयुत मुनि जिनविजयजी और जिसे कि नन्द राजा कलिंगसे ले गया था । प्रकाशक, आत्मानन्द जैनसभा, भावनगर । इस प्रतिमाको खारवेलने एक बड़ा भारी मन्दिर डिमाई आठ पेजी साइज । पृष्ठसंख्या १००। बनवाकर उसमें स्थापित कराई । राज्यके तेरहवें मूल्य आठ आना । उड़ीसा प्रान्तमें कटकके वर्षमें उसने कुमारी (खण्डगिरि ) पर्वत पर समीप भुवनेश्वर नामका एक प्रसिद्ध स्थान है। देश देशके महाविद्वानों और जैनसाधुओंको वहाँसे कोई ४-५ मीलके अन्तर पर खण्डगिरि बुलाकर एक बड़ी भारी सभा की। उसकी पट्ट और उदयगिरि नामकी दो पहाड़ियाँ हैं। इन राणीने जैनसाधुओंके रहनेके लिए गुफायें दोनों पहाड़ियोंके शिखरों पर कई छोटी बड़ी बनवाई । ये सब लेख प्राकृत भाषामं है और गुफायें हैं। इन गुफाओंमेंसे हाथी गुहाका प्रसिद्ध इनकी लिपि अशोकके समयकी लिपिसे मिलती शिलालेख और दूसरे तीन छोटे छोटे लेख अनेक जुलती हुई है। सबसे पहले एक साहबको सन् टीकाओं और टिप्पणियों सहित इस पुस्तकमें १८३० में इन लेखोंका पता लगा था। प्रकाशित किये गये हैं। हमने जैनहितैषी भाग ९ तबसे अबतक इनके विषय में विद्वानोंमें जो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522836
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size12 MB
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