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________________ ४६८ विक्रम संवत् ९५३ में बतलाई गई है। संवत् ९०९ के बने हुए ग्रन्थमें उसकी उत्पत्तिका लिखा जाना असंगत मालूम होता था, परन्तु जब दर्शनसार ९९० में बना है, तब इस शंकाके लिए कोई स्थान नहीं रहता । वचनिकामें एक बात और भी लिखी है । वह यह कि देवसेन मुनि वि० संवत् ९५९ में हुए हैं। मालूम नहीं यह समय देवसेनके जन्मका है या उनके मुनि होनेका, और इसके लिए आधार क्या है । ९ बैरिस्टर साहब का पत्र | हरदोई, ता. १९ - ८ - १७ प्यारे प्रेमीजी, जैनहितैषी के वर्तमान अंककी बाबत मैं आपका आभारी हूँ, और उसके लिए आपको धन्यवाद देता हूँ । 'दर्शन सारविवेचना' नामका आपका लेख बड़ा ही चित्ताकर्षक है । इस लेख के अंतमें आपने उस भविष्यवाणी पर अश्रद्धा प्रगट की है जो पंचमकालके अंत में अग्निका नाश हो जाने के सम्बंध में है । कुछ समय बीता जब मैंने कहीं पर इस भविष्यद्वाणीको पढ़ा था, तब मुझे भी आश्चर्य हुआ था, परन्तु अब मैं इस नतीजे पर पहुँच गया हूँ कि इस कथनमें कोई भी बात बेहूदा या असंभव नहीं है । संभवतः इस कथनका जो कुछ अभि'प्राय है वह यह है कि कोई ईंधन या लकड़ी नहीं बचेगी, इस वास्ते अग्नि जलाना असंभव हो जायगा । ऐसा मालूम होता है कि इस 'कालके अंत में वनस्पतिके अभाव में मनुष्यों को और जो कुछ मिलेगा वह खाना पड़ेगा, और इस लिए सब लोग मांसाहारी हो जायँगे । उनको कपास भी नहीं मिलेगा और इस वास्ते नंगे ही रहेंगे । और जहाँ तक धर्म और राजासे सम्बंध है उनका हास अभीसे होता जाता है । मेरे खयाल में हम अब भी यह बात स्पष्टरूपसे देख सकते हैं कि दुनिया निकृष्टतम अवस्थाकी ओर तेजीसे जारही है और अब कुछ थोड़ीसी ही और ऐसी दावानलोंकी जरूरत रह जैनहितैषी - Jain Education International [ भाग १३ गई है, जैसा कि योरुपका वर्त्तमान युद्ध, जिससे हम रसातलको पहुँच जायँ । यदि आप मेरी इस रायको छापना पसंद करें तो आप इसका समुचित हिन्दी शब्दोंमें अनुवाद करके उसे हितैषीके आगामी अंक में प्रकाशित कर देवें । मैं आशा करता हूँ कि आप त्रिलोकसारका हिन्दी अनुवाद शीघ्र ही प्रकाशित करेंगे। मैं उसके दर्शनों के लिए बड़ा ही उत्कंठित हूँ । आपका – चम्पतराय जैन, बैरिष्टर-एट-ला । बैरिस्टर साहबकी आज्ञानुसार उनके पत्रका हिन्दी अनुवाद प्रकाशित कर दिया जाता है। यह बात समझमें नहीं आती कि इस कालके अन्तमें वनस्पतिका सर्वथा नाश कैसे हो जायगा । इसका अर्थ यह होगा कि वनस्पतिजीवोंकी सृष्टिका ही अभाव हो जायगा । ह नहीं । इसके सिवाय त्रैलोक्यसारकी अद्भुतकी वनस्पतिका नहीं । आशा है कि बैरिस्टर साहब हुई गाथाओं का नाश हो जाना लिखा है, नेकी कृपा करेंगे । इस विषय में कुछ विस्तारसे और सप्रमाण लिख जरूरत । एक ऐसे चतुर विद्यार्थीकी जरूरत है जो श्रीयुत बाबू जुगल किशोरजी मुख्तार देवबन्द जि० सहारनपुर के पास रहकर उनसे जैनधर्म के ग्रंथोंको पढ़ने की इच्छा रखता हो और साथ ही पबलिक सेवा करनेका जिसका भाव हो । ऐसे विद्यार्थीको सात रुपये मासिक वजीफा ( स्कालर्शिप ) दिया जायगा । धर्मग्रंथों का अध्ययन करानेके साथ साथ उससे लिखने पढ़नेसम्बन्धी कुछ पबलिक सेवाका काम भी लिया जा जो विद्यार्थी जाना चाहे उसे अपनी योग्यता आदिका परिचय देते हुए उक्त बाबू साहब से पत्रव्यवहार करना चाहिए । For Personal & Private Use Only -सम्पादक । www.jainelibrary.org
SR No.522836
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size12 MB
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