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अङ्क ९-१०].
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विविध प्रसङ्ग। .
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किसी धनी श्रावकके लिए उत्सर्ग कर दिया करते ७ महात्मा गाँधीका हिन्दी हैं । इस फलके लेनेवालेको पारणेके दिन थोड़ी
पुस्तकालय । सी चाँदी भेट करनी पड़ती है । पहले वर्ष सेठ ।
___हमारे पाठक महात्मा गाँधी और उनके चन्नीलाल हेमचन्द जरीवालेने १००१) देकर अहमदाबादके 'सत्याग्रहाश्रम' से परिचित और दूसरे वर्ष स्वर्गीय सेठ माणिकचन्दजीके हैं। गाँधीजी इस समय हिन्दीको राष्ट्रभाषा परिवारवालोंने ५०१) रु० देकर यह पुण्यसम्पादन बनाने और उसका प्रचार करनेका आन्दोलन किया था। गतवर्ष जब कोई तैयार न हुआ तो कर रहे हैं। गुजरातके भिन्न भिन्न स्थानोंमें सेठ चुन्नीलालजीने ही फिर ५०१) रु० भेट किये। वे हिन्दीकी पाठशालायें खोलना चाहते हैं, जिनइस वर्ष उनके भाई सेठ प्रभुदासजीने १०१ ) के द्वारा सर्वसाधारणको हिन्दीकी शिक्षा दी रु० देकर महाराजको पारणा कराया है। जायगी । आपने अपने आश्रमके प्रत्येक विद्याइसके सिवाय पंचायतकी ओरसे भी कुछ चन्दा ।
के लिए हिन्दीका पढ़ना आवश्यक कर दिया करा दिया गया है। विना कुछ भेट लिये आप
है । आपकी इच्छा है कि, आश्रममें हिन्दीका
'एक अच्छा पुस्तकालय भी स्थापित किया 'पारणा नहीं करते । करना भी न चाहिए; जाय । इस पुस्तकालयसे अन्य प्रान्तवासियोंका नहीं तो फिर इतने बड़े तपका महत्त्व ही क्या ध्यान हिन्दीकी ओर विशेष रूपसे आकर्षित रहे ! सुनते हैं, आप अपने निवासस्थानके पास होगा और वे हिन्दीकी अच्छी अच्छी पुस्तकोंसे एक मन्दिर बनवा रहे हैं और ये रुपये उसीके थोड़े बहुत परिचित अवश्य हो जाया करेंगे । लिए संग्रह कर रहे हैं । यद्यपि इस बात पर दूसरे प्रान्तोंके लोग गाँधीजीसे मिलनेके लिए विश्वास करनेका कोई कारण नहीं है; अभीतक निरन्तर ही आया करते हैं । उनके कारण इस किसीने भी यह तलाश नहीं किया है कि मन्दिर समय आश्रम एक तीर्थस्थान बन रहा है । हम बन रहा है या नहीं, और यदि मन्दिर बन रहा अपने हिन्दीप्रेमी पाठकों और पुस्तकप्रकाशकोका है, तो उसमें कितने रुपये लगे हैं सरसा
और पंडित- .
ध्यान इस ओर आकर्षित करते हैं । आशा जीके उदर-मन्दिरमें कितने समा गये हैं, फिर भी
है कि, वे उक्त पुस्तकालयके लिए हिन्दीकी
अच्छी अच्छी पुस्तकें भेजनेकी उदारता दिखला यदि मान लिया जाय कि सब रुपया मंदिर, वेंगे और इस हिन्दीप्रचारके कार्यमें अवश्य ही लगेंगे, तो प्रश्न यह है कि मन्दिरके निमित्त सहायक होंगे। भी इस तरह 'मुँडचिरियों' के समान जबर्दस्ती रदर्शनसारकी रचनाका समय। रुपया वसूल करनेमें कौनसा धर्म है ? इसका
सा धर्म है । इसका दर्शनसारकी ५० वीं गाथाके अर्थमें हमने अनुमोदन तो हमारी समझमें कोई भी धर्मज्ञ उसके बननेका समय विक्रम संवत् ९०९ लिखा नहीं कर सकता । यह कोई श्रेष्ठ आचार नहीं, है; परन्तु उसकी वचनिकाके कर्ता पं० शिवजीकिन्तु अत्याचार है । पर इसमें हम पण्डितजीका लालने संवत ९९० लिखा है । गाथाके 'णवसए कोई दोष नहीं देखते । उन्हें प्राप्ति होती है, णवए' पदकी छाया 'नवशते नवके । न करके इसलिए वे ऐसा करते हैं । दोष है हमारे भोले 'नवशते नवतौ । करने से यह अर्थ ठीक बैठ. भाइयोंका-श्रद्धालु श्रावकोंका, जो इस जाता है। वास्तवमें होना मी यही चाहिए। तरहके दानमें पुण्य समझते हैं और ऐसे लोगोंको संवत् ९९० मान लेनेसे माथुर संघकी उत्पत्ति इस तरहके अत्याचार करनेके लिए और भी आदिके सम्बन्धमें जो शंकायें की गई हैं उनका अधिक उत्साहित करते हैं।
भी समाधान हो जाता है । माथुर संघकी उत्पत्ति
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