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________________ ४६६ जैनहितैषी [भाग १३ गुलामगीरी ही दिखलाई देगी । क्या आप इस खर्चियाँ बन्द कर देंगे । हम एक ऐसी बातर्फी समय जितने जैनियोंको देखते हैं, उन सबको ओर पाठकोंका ध्यान आकर्षित करना चाहते जैनधर्मके अनुयायी समझते हैं ? यदि आप ऐसा हैं जिसका उस धर्मसे सम्बन्ध है जिस समझते हैं तो कहना होगा कि आप रीति-रवा- धर्मके ये लोग अपनेको स्वाभाविक 'रक्षक' जाके अनुसरणको ही धर्म समझते हैं। वास्तवमें समझते हैं । स्वर्गीय सेठजी दिगम्बर सम्प्रदायके ये लोग जैनधर्मके नहीं; किन्तु उन रीति-रवा- शुद्धाम्नायी तेरहपंथी जैनी थे और जहाँ तक जोंका अनुसरण कर रहे हैं, जो जैनी कहलाने- हम जानते हैं उनके उत्तराधिकारी पुत्र सेठ वालोंकी जातिमें बहुत समयसे चले आ रहे हैं। टीकमचन्दजी भी इसी आनायके माननेवाले वे यह नहीं सोचते और सोचना पसन्द भी नहीं हैं । यह वह आम्नाय है, जिसको बात बातमें करते कि ये सब रीति-रवाज जैनधर्मके अन- मिथ्यात्वके अनुमोदनका और धर्मके जानेका कूल हैं या नहीं। यही कारण है जो उनमें ऐसे डर लगा रहता है और जिसे केवल जैनेतरोंकी बीसों रीति-रवाज चल रहे हैं, जो जैनधर्मसे ही नहीं श्वेताम्बरादि जैनियोंकी शिक्षा संस्थासर्वथा प्रतिकूल हैं; पर ऐसे नये रीति-रवाज ओंमें भी कुछ देनेमें आगा पीछा सोचना पड़ता नहीं चल सकते जो जैनधर्मके अनकल हैं और है । इसी आम्नायके अगुए सेठजीके इस नुक्तेमें सब तरहसे आवश्यक हैं। रीति-रवाजोंका यह ब्राह्मणों को भोजन कराया गया और उन्हें चलाना और बन्द करना जीवित समाजोंमें होता लगभग पाँच हजार रुपया दक्षिणामें दिया गया। . है; पर हमारे समाजकी जीवनी शक्ति मर्जित ब्राह्मणोंके सहस्रावधि आशीर्वादोंसे आशा है कि हो रही है। वह एक कुंभारके चक्रके समान सेठजीकी परलोकगत आत्माको बहुत शान्ति पूर्व प्रेरित शक्तिसे केवल एक ही मिलेगी ! सुनते हैं, खंडेलवाल समाजके और जा रहा है। उसमें अपनी दिशा बदलनेकी भी कई धनियोंने इस प्रकारके आशीर्वाद सम्पादन शक्ति नहीं है । समाजके शुभचिंतकोंको अपने ' किये हैं । उनमें यह रीति परम्परासे चली प्रयत्नोंका चरम उद्देश्य ' इसी शक्तिको प्राप्त - आ रही है। माप्त रीति-रवाजोंकी-गुलामगीरीका यह एक नोट करा देना' बनाना चाहिए। _ करने लायक उदाहरण है। बम्बईमें अभी थोड़े ही दिन पहले अजमेरके स्वर्गवासी धनिक राय बहादुर सेठ नेमीचन्दजीका ६ उपवासोंका मूल्य । नुक्ता (तेरहीं) हुआ था। सेठजीकी बम्बईमें बम्बईम बम्बईमें जयपुरकी तरफके एक ब्रह्मचारी भी एक दूकान है, इस कारण यहाँ भी इस प्रतिवर्ष आया करते हैं । आपका नाम पं० 'काज' का करना आवश्यक समझा गया । मलचन्दजी है। आप किसी भट्टारकके शिष्य शायद कलकत्ता, आगरा आदिस्थानोंमें भी- हैं शायद इसी लिए 'पण्डित' कहलाते हैं । जहाँ जहाँ सेठजीकी बड़ी दूकानें हैं-इसी तरहके भदारकोंके शिष्योंका यह एक मौरूसी पद ' है। नुक्ते किये गये होंगे। पर इनके विषयमें हम यों 'पंडिताई' से आपका जरा भी सम्बन्ध कुछ नहीं कहना चाहते । देशकी वर्तमान दरि- नहीं है। आप यहाँके गुलालबाड़ीके बीसपंथी द्रतासे सर्वथा अपरिचित और धनकी उपयो- मन्दिरमें ठहरा करते हैं और सोलह कारणके ३२ गिताको न समझनेवाले इन धनियोंसे हमें अभी उपवास किया करते हैं । पर इन उपवासोंके आशा भी नहीं है कि, ये इस प्रकार की फिजूल- फलको आप अपने पास नहीं रखते, उदारतापूर्वक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522836
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size12 MB
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