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________________ . जैन हितैषी [ भाग १३ उपर्युक्त सारा कथन भरतमहाराजके समयसे गौरव प्राप्त कर लिया है, वे उत्तम द्विजतो मिलान नहीं खाता है, किन्तु पंचम काल और वर्णान्तःपाती नहीं हो सकते हैं, अर्थात् किसी श्रीजिनसेनाचार्यके समयके बिलकुल अनुकूल प्रकार वर्णसे गिरे हुए नहीं माने जा है; जब कि जैनके विरोधी ब्राह्मणोंका बड़ामारी सकते हैं, किन्तु जो क्षमा शौच आदि गुणोंके । जोर था और जब कि वे जौनयोंके साथ हदसे धारी हैं, संतोषी हैं, उत्तम और निर्दोष आचरणन्यादा द्वेष करते थे। मालूम होताहै कि, इसही रूपी आभूषणोंसे भूषित हैं, वे ही सब वर्गों में द्वेषकी अग्निसे भड़ककर और अमोघवर्ष जैसे उत्तम हैं और जो निंद्य आचरण करनेवाले हैं, जैनराजाका आश्रय पाकर ही आचार्य महाराजने पापरूप आरम्भमें सदा लगे रहते हैं और सदा इस ब्राह्मणोंकी निन्दा की है और राजाओंको भी पशुओंका घात किया करते हैं वे किसी तरह इनके विरुद्ध भड़कानेकी कोशिश की है; परन्तु भी द्विज नहीं माने जा सकते हैं । हिंसामय ऐसी कोशिश करते हुए भी आचार्य महाराजके धर्मको मानकर जो पशुओंका घात करते हैं और हृदयमें इन मिथ्यात्वी ब्राह्मणोंकी परम्परागत पाप शास्त्रोंसे आजीविका करते हैं, नहीं मालूम जातिका प्रभाव और जैन ब्राह्मणोंकी नवीन उनकी क्या दुर्गति होगी । जो अधर्मस्वरूप उत्पत्तिका खयाल बराबर बना रहा है । देखिए धर्मको मानते हैं मैं उनके सिवाय और किसीको भरतमहाराज अपने बनाये हुए ब्राह्मणोंको कर्म-चांडाल नहीं समझता हूँ । जो निर्दय होकर पूर्वोक्त उत्तर सिखानेके पश्चात् क्या समझाते हैं:- पशुओंको मारते हैं वे पापरूप कार्योंके पण्डित "सच्ची क्रिया करनेवाले ब्राह्मणोंके हृदयसे हैं, लुटेरे हैं, धर्मात्मा लोगोंसे अलग हैं और जातिवादका खयाल दूर करनेके लिए-अर्थात् राजा लोगोंके द्वारा दंड देनेके योग्य हैं। पशुजैन ब्राह्मणोंके हृदयसे इस बातका संकोच हटा- ओंकी हिंसा करनेके कारण जो राक्षसोंसे भी के लिए कि हम नवीन ब्राह्मण बनते हैं और अधिक निर्दय हैं, यदि ऐसे लोग ही ऊँचे मिथ्यात्वी ब्राह्मण परम्परासे ब्राह्मण संतानमें माने जावेंगे तो दुःखके साथ कहना पड़ता है कि, उत्पन्न होते हुए चले आते हैं, इस कारण जातिके बेचारे धार्मिक लोग व्यर्थ ही मारे गये । अपब्राह्मण हैं-मैं तुमको मैं फिर समझाता हूँ कि, नेको द्विज कहलानेवाले ये लोग पापाचरण जो ब्रह्माकी सन्तान हो उसे ब्राह्मण कहते हैं करते हैं, इस वास्ते बुद्धिमान लोग इनको कृष्ण और स्वयम्भू भगवान् जिनद्रदेव ब्रह्मा हैं । आ- वर्गमें गिनते हैं, अर्थात् इनको भील म्लेच्छ त्माके सम्यग्दर्शन आदि गुणोंके बढ़ानेवाले होनेके समझते हैं और जैनियोंका आचरण निर्मल है, कारण वे जिनेंद्रदेव आदि परम ब्रह्मा हैं और मुनीश्वर इसवास्ते इनको शुक्ल वर्गमें शामिल करते हैं, लोग यह मानते हैं कि परम ब्रह्म या केवल ज्ञान अर्थात् इनको आर्य मानते हैं। द्विजोंकी शुद्धि उनहीके आधीन है । हरिणका चमड़ा रखनेवाला श्रुति, स्मृति, पुराण, चारित्र, मंत्र और क्रियाजटा दाढ़ी आदि जिसके चिह्न हैं, जिसने ओंसे और देवताओंका चिह्न धारण करने और कामके वश होकर गधेका मुँह बनाया और कामका नाश करनेसे होती है । जो अत्यंत ब्रह्मचर्यसे भ्रष्ट हुआ, वह ब्रह्मा नहीं हो सकता विशुद्ध वृत्तिको धारण करते हैं, उनको शुक्लवर्गी है । इस वास्ते जिन्होंने दिव्य मूर्तिवाले जिनेन्द्र- मानना चाहिए और बाकी सबको शुद्धतासे देवके निर्मल ज्ञानरूपी गर्भसे जन्म लिया है वे बाह्य समझना चाहिए। उनकी शुद्धि और अशुद्धि ही द्विज हैं । व्रत, मंत्र आदि संस्कारोंसें जिन्होंने न्याय-अन्यायरूप. प्रवृत्तिसे जाननी चाहिए । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522836
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size12 MB
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