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________________ जैनहितैषी [भाग १३ दर्शनसार-विवेचनाका यहाँ तक कि गधे जैसे नीच जीवके प्रति भी प्रणाम नमस्कार करना उनका धर्म है। यह परिशिष्ट। विवेकरहित तपस्वियोंका मत है । दर्शनसारका लेख छप चुकनेके बाद इसके २ भावसंग्रहमें मस्करिपूरणका कुछ अधिक सम्बन्धमें हमें और भी कुछ बातें ऐसा मालूम परिचय दिया है । परिचयकी गाथायें ये हैं:हुई हैं, जिनका प्रकाशित कर देना उचित जान पड़ता है। मसयरि-पूरणरिसिणो, १ राजवार्तिक अध्याय ८, सूत्र १, वार्तिक उप्पण्णो पासणाहतित्थम्मि । सिरिवीरसमवसरणे, १२ में वसिष्ठ, पराशर, जतुकर्ण, वाल्मीकि, अगहियझुणिणा नियत्तेण ॥ १७६ ॥ व्यास, रोमहर्षि, सत्यदत्त आदिको वैनयिक बत बहिणिग्गएण उत्तं, लाया है। लक्षण दिया है-'सर्वदेवतानां मझं एयारसांगधारिस्स। सर्वसमयानां च समदर्शनं वैनयिकत्वम् ।' णिग्गइ झुणी ण, अरहो, अर्थात् सब देवोंको और सब मतोंको समान णिग्गय विस्सास सीसस्स ॥१७७॥ दृष्टिसे देखना वैनयिक मिथ्यात्व है । इस वैन ण मुणइ जिणकहियसुयं, यिक मिथ्यात्वका स्वरूप * भावसंग्रहमें इस संपइ दिक्खाय गहिय गोयमओ। प्रकार बतलाया है: विप्पो वेयभासी, वेणइयमिच्छदिही, तम्हा मोक्खं ण णाणाओ॥१७८॥ हवइ फुडं तावसो हु अण्णाणी। अण्णाणाओ मोक्खं निग्गुणजणं पि विणओ, एवं लोयाण पयडमाणो हु। पउज्जमाणो हु गयविवेओ॥८८॥ देवो अ णत्थि कोई, विणयादो इह मोक्खं, सुण्णं झाएह इच्छाए ॥ १७९ ॥ किजइ पुणु तेण गद्दहाईणं । इनमेंसे १७८ वी गाथाका अर्थ ठीक नहीं अमुणिय गुणागुणण य, बैठता । ऐसा मालूम होता है कि, बीचमें एकाध विणयं मिच्छत्तनडिएण ॥ ८९॥ __ अभिप्राय यह है कि इस मतके अनयायी गाथा छूट गई है । भावार्थ यह है कि, पार्वविनय करनेसे मोक्ष मानते हैं । गुण और अव- नाथके तीर्थमें मस्करि-पूरण ऋषि उत्पन्न हुआ। गुणसे उन्हें कोई मतलब नहीं। सबके प्रति- वार भगवानकी समवसरणसभासें जब वह *यह ग्रन्थ हमें हालहीमें जयपुरके एक सज्जनकी " उनकी दिव्य ध्वनिको ग्रहण किये विना ही कृपासे प्राप्त हुआ है । इसकी एक प्रति दक्खन ला " लौट आया, वाणीको धारण करनेवाले योग्यकालेज पूनाके पुस्तकालयमें भी यह है। छोटासा पात्रके अभावसे जब भगवानकी वाणी नहीं प्राकृत गाथाबद्ध ग्रन्थ है। इसकी श्लोकसंख्या ७७० खिरी, तब उसने बाहर निकल कर कहा कि है । जयपुरकी प्रतिके लिखे जानेका समय पुस्तकके मैं ग्यारह अंगका ज्ञाता हूँ, तो भी दिव्य ध्वनि अन्तमें 'ज्येष्ठ सुदि १२ शुक्र संवत् १५५८' दिया हुआ है। इसके रचयिता विमलसेन गणिके शिष्य मानता है, जिसने अभी हाल ही दीक्षा ग्रहण देवसेन हैं । दर्शनसारके कर्ता देवसेन और ये एक ही - की है और वेदोंका अभ्यास करनेवाला ब्राह्मण हैं, ऐसा इस ग्रन्थकी रचनाशैलीसे और इसके भीतर जो श्वेताम्बरादि मतोंका स्वरूप दिया है, उससे है, वह गोतम ( इन्द्रभूति ) इसके लिए योग्य मालूम होता है। । समझा गया । अतः जान पड़ता है कि ज्ञानसे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522836
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size12 MB
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