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________________ ४३८ । . जैनहितैषी [भाग १३ किन्तु उनके मुखसे पहला वाक्य निकला था में विश्वासघात कर ही गया । यह अच्छा कि मजिस्ट्रेटने उनकी ओर तीव्र दृष्टि से देखा । हुआ कि पं० दुर्गानाथ मजिस्ट्रेटका फैसला वकील साहब बगलें झाँकने लगे । मुख्तार सुनते ही मुख्तार आमको कुंजियाँ और कागज आमने उनकी ओर घूर कर देखा । अहलमद, पत्र सुपुर्द कर चलते हुए । नहीं तो उन्हें इस पेशकार आदि सबके सब उनकी ओर आश्च- कार्यके फलमें कुछ दिन हल्दी और गुड़ पीनेर्यकी दृष्टिसे देखने लगे। की आवश्यकता पड़ती ! न्यायाधीशने तीव्र स्वरमें कहा-तुम जानते कँवरसाहबका लेन देन विशेष अधिक था ! हो कि मजिस्ट्रेट के सामने खड़े हो ? चाँदपार बहुत बड़ा इलाका था । वहाँके असादुर्गानाथ (दृढ़तापूर्वक)-जी हाँ भली भांति मियोंपर कई सौ रुपये बाकी थे। उन्हें विश्वास जानता हूँ। हो गया कि अब रुपया डूब जायगा । वसूल न्याया०-तुम्हारे ऊपर असत्य भाषणका होनेकी कोई आशा नहीं। इस पंडितने असाअभियोग लगाया जाता है। मियोंको बिल्कुल बिगाड़ दिया । अब उन्हें दुर्गानाथ-अवश्य । यदि मेरा कथन मेरा क्या डर । अपने कारिन्दों और मंत्रियोंसे झूठा हो।। सम्मति ली । उन्होंने भी यही कहा-अब वकीलने कहा-जान पड़ता है किसानोंके वसूल होनेकी कोई सूरत नहीं । कागजात दूध घी और भेंट आदिने यह कायापलट कर न्यायालयमें पेश किये जायें तो इनकम टैक्स दी है । और न्यायाधीशकी ओर सार्थक लग जायगा । किन्तु रुपया वसूल होना कठिन दृष्टिसे देखा। है। उजरदारियाँ होंगी। कहीं हिसाबमें कोई ___ दुर्गानाथ-आपको इन वस्तुओंका अधिक भूल निकल आई तो रही सही साख भी जाती तजरुवा होगा । मुझे तो अपनी रुखी रोटियाँ रहेगी और दूसरे इलाकोंका रुपया भी मारा । ही अधिक प्यारी हैं। जायगा। __न्यायाधीश-तो इन असामियोंने सब रुपया बेबाक कर दिया है ? __ दूसरे दिन कुँवरसाहब पूजा पाठसे नि-- दुर्गानाथ-जी हाँ, इनके जिम्मे लगान- श्चिन्त हो अपने चौपालमें बैठे, तो क्या देखते की एक कौड़ी भी बाकी नहीं है। हैं कि चाँदपारके असामी झुंडके झुंड चले आ. न्यायालय-रसीदें क्यों नहीं दी ? रहे हैं। उन्हें यह देखकर भय हुआ कि कहीं . दुर्गानाथ-मेरे मालिककी आज्ञा । ये सब कुछ उपद्रव तो न करें, किन्तु कि का आगे मजिस्ट्रेटने नालिशें डिसमिस कर दीं। आगे आता था। उसने दूरहीसे झुककर वन्दना कुँवर साहबको ज्यों ही इस पराजयकी खबर की । ठाकुर साहबको ऐसा आश्चर्य हुआ, मानों मिली, उनके कोपकी मात्रा सीमासे बाहर हो गई। कोई स्वप्न देख रहे हों। उन्होंने पंडित दुर्गानाथको सैकड़ों कुवाक्य कहे-नमकहराम, विश्वासघाती, दुष्ट । ओह मलूकाने सामने आकर विनयपूर्वक कहामैंने उसका कितना आदर किया, किन्तु सरकार, हम लोगोंसे जो, कुछ भूलचूक हुई कुत्तेकी पूँछ कहीं सीधी हो सकती है ! अन्त- उसे क्षमा किया जाय । हम लोग सब हजूर के .. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522836
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size12 MB
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