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________________ अङ्क ९-१०] पछतावा। चाकर हैं; सरकारने हमको पाला-पोसा है । अब कठोरता और निर्दयतासे जो काम कभी न हुआ भी हमारे ऊपर ही निगाह रहे। * वह धर्म और न्यायने पूरा कर दिखाया। कुँवरसाहबका उत्साह बढ़ा। समझे कि जबसे ये लोग मुकद्दमा जीत कर आये पंडितके चले जानेसे इन सबोंके होश ठिकाने तभीसे उनको रुपया चुकानेकी धुनि सवार थी। हुए हैं। अब किसका सहारा लेंगे। उसी खुर्रा- पंडितजीको वे यथार्थमें देवता समझते थे। टने इन सबोंको बहका दिया था। कड़ककर उनकी रुपया चुका देनेके लिए विशेष आज्ञा बोले-वे तुम्हारे सहायक पंडित कहाँ गये? थी। किसीने अन्न बेचा, किसीने बैल, किसीने वे आ जाते तो जरा उनकी खबर ली जाती। गहने बन्धक रक्खे। यह सब कुछ सहन किया, ___ यह सुनकर मलूकाकी आँखोंमें आँसू भर परन्तु पंडितजीकी बात न टाली। कुँवरसाहबके आये । बोला-सरकार उनको कुछ न कहें। मनमें पंडितजीके प्रति जो बुरे विचार थे वे वे आदमी नहीं, देवता थे । जवानीकी सौगन्ध सब मिट गये । लेकिन उन्होंने सदासे कठोहै,जो उन्होंने आपकी कोई निन्दा की हो । वे रतासे काम लेना सीखा था। उन्हीं नियमों पर बेचारे तो हम लोगोंको बार बार समझाते थे वे चलते थे । न्याय तथा सत्यता पर उनका कि देखो, मालिकसे बिगाड़ करना अच्छी बात विश्वास न था। किन्तु आज उन्हें प्रत्यक्ष देख नहीं । हमसे कभी एक लोटा पानीके खादार पड़ा कि सत्यता और कोमलतामें बहुत बड़ी नहीं हुए । चलते चलते हम लोगोंसे कह गये कि शक्ति है। मालिकका जो कुछ तुम्हारे जिम्मे निकले, ये असामी मेरे हाथसे निकल गये थे। मैं , चुका देना । आप हमारे मालिक हैं । हमने इनका क्या बिगाड़ सकता था ? अवश्य यह आपका बहुत खाया पिया है । अब हमारी पंडित सच्चा और धर्मात्मा पुरुष था । उसमें यही विनती सरकारसे है कि हमारा हिसाब किताब दूरदर्शिता न हो, कालज्ञान न हो, किन्तु इसमें कोई देखकर जो कुछ हमारे ऊपर निकले बताया जाय। सन्देह नहीं कि वह निस्पृह और सच्चा पुरुष था। हम एक एक कौड़ी चुका देंगे तब पानी पियेंगे। . कुँवरसाहब सन्न हो गये। इन्हीं रुपयोंके लिए कैसी ही अच्छी वस्तु क्यों न हो, जब तक कई बार खेत कटवाने पड़े थे । कितनी बार हमको उसकी आवश्यकता नहीं होती तब तक घरोंमें आग लगवाई। अनेक बार मारपीट की। हमारी दृष्टिमें उसका गौरव नहीं होता। हरी कैसे केसे दंड दिये । और आज ये सब आपसे दूब भी किसी समय अशर्फियोंके मोल बिक आव सारा हिसाब किताब साफ करने आये हैं ! जाती है । कुँवरसाहबका काम एक निस्पृह यह क्या जादू है ! मनुष्यके विना रुक नहीं सकता था । अतएव . मुख्तार आमसाहबने कागजात खोले और पंडितजीके इस सर्वोत्तम कार्यकी प्रशंसा किसी असामियोंने अपनी अपनी पोटलियाँ । जिसके कविकी कवितासे अधिक न हुई। चाँदपारके जिम्मे जितना निकला, बे-कान पूछ हिलाये असामियोंने तो अपने मालिकको कभी किसी उसने द्रव्य सामने रख दिया। देखते देखते सामने प्रकारका कष्ट न पहुँचाया, किन्तु अन्य रुपयोंका ढेर लग गया । ६०० रुपया बातकी इलाकोंवाले असामी उसी पुराने ही ढंगसे चलते थे। बातमें वसल होगये । किसीके जिम्मे कुछ बाकी उन इलाकोंमें रगड़-झगड़ सदैव मची रहती न रहा । यह सत्यता और न्यायकी विजय थी। थी। अदालत, मारपीट, डाँट-डपट सदा लगी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522836
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size12 MB
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