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________________ अङ्क ९-१० ] “ भी जाते रहे हों, तो उनका निराकरण इन ग्रन्थोंके बन जानेसे हो गया होगा, यह बात नहीं मानी जा सकती । इनके बन जाने पर भी तो यह कहनेकी गुंजाइश बनी ही रही होगी कि इनके लक्षणग्रन्थ अभी हालहीके, अर्थात् ग्यारहवीं शताब्दिके बने हुए हैं, अतएव इनका सम्प्रदाय प्राचीन नहीं, अर्वाचीन ही है । इन ग्रन्थोंके बन जानेसे केवल इस आक्षेपको अवश्य ही स्थान नहीं रहा होगा कि श्वेताम्बर सम्प्रदायमें शब्द और न्यायके लक्षणग्रन्थ नहीं हैं । इससे अधिक और किसी आक्षेपके निवारणकी आशा इनसे नहीं की जा सकती । छव्वास सहि' आदि गाथा किसी दिगम्बरी ग्रन्थपरसे उध्दृत की गई है, ऐसा जान पड़ता है; परन्तु उसमें यह हेतु श्वेताम्बरदर्शनकी अर्वाचीनता सिद्ध नहीं की गई है कि श्वेताम्बरोंमें लक्षणग्रन्थ नहीं हैं, कारण वे अर्वाचीन हैं | यह तो परम्परासे चली आई केवल एक कथा है । इस तरह विचार करनेसे मालूम होता है कि ग्रन्थकर्त्ताने जो अपने ग्रन्थके रचे जानेका कारण बतलाया है, वह सर्वोशमें ठीक नहीं है । वास्तवमें इस कारका इतना ही अंश ठीक जान पड़ता है कि ग्रन्थकर्ताको अपने यहाँकी यह कमी - लक्षण - ग्रन्थ नहीं हैं, यह त्रुटि - खटक गई, इससे उन्होंने अपने सम्प्रदायका अगौरव समझा और अन्तमें इस दिशा में प्रयत्न किया । देकर इस Jain Education International ४२३ श्रीजिनेश्वरसूरिके वाक्योंसे विक्रमकी ग्यारहवीं शताब्दिके लगभगके और उसके आगेकी शताब्दियोंके जैनविद्वानोंके उन भावोंका आभास मिलता है जिनके वशवर्ती होकर उन्होंने सैकड़ों अनुकरणमूलक ग्रन्थों की रचना की है। व्याकरण, छन्द, काव्य, कोश, अलंकार आदि विषय ऐसे हैं कि इनसे किसी धर्मका कोई विशेष सम्बन्ध नहीं है; परन्तु वह समय ऐसा था, जैनों और जैनतरोंका पारस्परिक सम्बन्ध इतना विच्छिन्न हो रहा था, और असहिष्णुता इतनी बढ़ रही थी कि जैनोंको इन विषयोंके भी स्वतन्त्र ग्रन्थ रचनेकी प्रतीत हुई । उन्हें यह असह्य हो गया हमारे धर्म के अनुयायी दूसरोंके बनाये हुए थ पढ़ें। अपने यहाँ भी सब विषयोंके ग्रन्थ बनने चाहिए, यह भावना उनमें बराबर बढ़ती गई और इसने उन्हें जैनतरोंसे सर्वथा पृथ दिया । हमारी समझमें जैनविद्वानोंका यह पृथक् पृथक् विषयों पर ग्रन्थ लिखने का प्रयत्न उक्त भावनाके वशवत होकर नहीं, किन्तु समूचे भारतीय साहित्यको उन्नत बनानेकी दृष्टिसे होता तो बहुत अच्छा होता, उसकी कमनीयता और महनीयता कुछ और ही होती और वह केवल जैनोंके लिए ही नहीं, किन्तु जैनतरोंके लिए भी अभिमानकी वस्तु होती । - सम्पादक । प्रमालक्षण । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522836
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size12 MB
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