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________________ ४१४ जैनहितैषी [भाग १३ अपने पतिकी गोदमें बैठी हुई और मस्तीसे के युद्धके समय पर्व ४४ में ग्रन्थकर्त्ताने फिर घूमती हुई कोई कामवती स्त्री कामदेवके मोहन रात्रिक्रीडाका वर्णन किया है:अस्त्रसे घायल हो रही थी। खण्डनादेव कान्तानां ज्वलितो मदनानलः । १८७ वें श्लोकका यह वाक्य कि वे स्त्रियाँ जाज्वलीत्ययमेतेनेत्यत्यजन्मधु काश्चन ॥ २८८ ॥ शराबके पीये विना ही उन्मत हो गई थीं यदि वृथाभिमानविध्वंसी नापरं मधुना विना। कलहान्तरिताः काश्चित्सखीभिरति पायिताः ॥२८९।। भारतवर्षकी आजकलकी भले घरोंकी स्त्रियोंके : प्रेम नः कृत्रिमः नैतत्किमनेनेसि काश्चन । लिए कहा जाय, तो मेरी समझमें बहुत ही दूरादेव त्यजन् स्निग्धाः श्राविकेवासवादिकं ॥ २९० ॥ अनुचित और असभ्यताका सूचक समझा जाय। म ।" मधु द्विगुणितं स्वादु पीतं कान्तकरार्पितं । हाँ, यदि यूरोपकी मेमोंके वास्ते ऐसा कहा जाय, कान्ताभिः कामदुर्वारमातङ्गमदवर्द्धनम् ॥ २९१ ॥ तो शायद बुरा न समझा जाय । क्योंकि अर्थात-कामकी आग तो जली थी, पतिके उनमेंसे कोई कोई शराब पीती हैं और उनके १ वियोगसे; परन्तु उस वियोगिनीने शराबका पुरुष तो अवश्य ही पीते हैं । यह विचार करके पीना छोड़ दिया, उसने समझा कि यह आग बड़ा आश्चर्य होता है कि आदिपुराणके कर्त्ताने इस शराबसे ही प्रज्वलित हुई है। कितनी ही सतयुगके प्रारंभकी आर्यस्त्रियोंके लिए ऐसा कथन कलहान्तरिता स्त्रियोंको-जिन्होंने पतिके साथ क्यों कर दिया। , कलह की थी और इस कारण जिनके पति चले अच्छा अब जरा आगे और भी चलिए। गये थे-उनकी सखियोंने खूब शराव पिला दी; मधौ मधुमदारक्तलोचनामास्खलतिम् । कारण व्यर्थक अभिमानको नष्ट करनेके लिए बहु मेने प्रियः कान्तां मूर्तामिव मदश्रियम्॥११९॥ शराबसे अच्छी कोई चीज नहीं है । जब हमारा -पर्व ३७ । प्रेम बनावटी नहीं है, तब हमें शराब पीनेकी अर्थात् भरत महाराज वसन्त ऋतुमें अपनी क्या आवश्यकता है, इस खयालसे बहुतही स्त्रिउस पटरानीको-जिसके नेत्र मदिराके मदसे योंने शराबको श्राविकाओंके समान, दूरहीसे लाल हो रहे थे और जिसकी चाल डगमगा रही छोड़ दिया था। कितनी ही स्त्रियाँ दुर्निवार कामथी-मूर्तमान मदकी शोभाके समान बहुत रूपी हाथीके मदको बढ़ानेवाले और अपने मानते थे-बहुत ही प्यार करते थे। पतिके हाथसे दिये हुए स्वादिष्ट मद्यको दूना पी इस श्लोकमें 'मधमद' शब्द आया है जि- गई थीं। सका अर्थ 'शराबका नशा ' होता है। आँखों- इन श्लोकोंमेंसे पहले, दूसरे और चौथे श्लोकका लाल होना और चालका डगमगाना ये दो में शराबके लिए 'मधु' शब्द आया है और बातें इस शराबके पीनेको और भी स्पष्ट कर तीसरे श्लोकमें 'आसव ' शब्द आया है। देती हैं। परन्तु भरत महाराजकी पटरानीके इससे इनके पूर्वमें आये हुए श्लोकोंके मधु और विषयमें इस प्रकारकी कल्पना करनेको भी जी आसब आदि शब्दोंका अर्थ और भी अच्छी नहीं चाहता है। कहीं ग्रन्थकर्त्ताने ऐसी बातें तरहसे स्पष्ट हो जाता है। यह सन्देह नहीं रहता अपने कवित्वका उत्कर्ष दिखालनेके लिए ही कि, इनके कुछ और ही अर्थ होंगे। तो नहीं लिख दी हैं ? २९० नम्बरके श्लोकसे यह मालूम होता है कि आगे जयकुमार और अर्ककीर्ति (भरतपुत्र) जिन स्त्रियोंके सम्बन्धमें यह कथन किया गया Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522836
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size12 MB
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