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९-१०] हमारे देशका व्यभिचार।
४२७ व्याभिचार, सो उसका जाँचना मनुष्यकी स्त्रीसे पतिवता रहनेकी आशा करना व्यर्थ है । शक्तिसे बाहर है । ईश्वर ही उसकी सच्ची जाँच सम्भव है कि उसे अपने घरका हाल कभी न कर सकता है।
मालूम हो; पर बगलका पड़ोसी उसका कच्चा इस देशमें समाजका ऐसा कड़ा नियम है, चिट्ठा कह सकता है। इसके लिए ऐसी कड़ी सामाजिक सजायें रक्खी सबके ऊपर भारतमें २ करोड ६४ लाखसे गई हैं कि ऐसे लोगोंका प्रत्यक्ष पता लगाना कठिन अधिक विधवायें हैं। मैं इनके आचरण पर ही नहीं, असम्भव है । पर अनुभव अवश्य किया आक्षेप नहीं करता । पर विचार करनेकी बात आ सकता है।
है कि इनमेंसे प्रायः सभी मूर्खा हैं, देव, शास्त्र, ___ पहले घरकी मजदूरिनोंको ले लीजिए । ये धर्म और ज्ञानसे सर्वथा अनभिज्ञ हैं । केवल यह विवाहिता तो अवश्य होती हैं, पर युवावस्थामें जानती हैं कि उनके कुलमें विधवाविवाह नहीं अपने मालिकके घर, किसी न किसी नवयुवक होता । उन्हींका हृदय प्रश्न करता है कि क्यों सरदारकी शिकार होनेसे शायद ही बचती हैं। नहीं होता ? इसका वे कुछ उत्तर नहीं दे हाँ अवस्था ढल जाने पर चुपचाप अपने पतिके सकतीं। केवल भाग्यमें लिखा है, कर्म फूट गया साथ पतिव्रता बन कर बैठ रहती हैं । सेन्ससके है, आदि कह कह कर मनकी तरंगोंको सुपरिन्टेन्डन्टने लिखा है कि,-"मजदूरिनोंमेंसे शान्त करती हैं। पर इन स्त्रियोंकी शैतान बहुत सी तो सचमुच ही वेश्यायें हैं।" पण्डों, पुरोहितों या ऐसे ही अन्य पाखण्डियोंसे
इसी तरह दूकानों पर बैठनेवाली स्त्रियोंको भेट हो जाने पर, और मौका मिलने पर, अर्ध वेश्या समझना चाहिए; कमसे कम कुच- भाग्यके बलसे ये कबतक कामदेवसे लड़ सकती रित्र स्त्रियोंमें तो इनकी गिनती अवश्य होनी हैं ? आखिर तो मूर्खा स्त्री ही ठहरी न, उनकी चाहिए।
कमजोरी उन्हें यह समझा कर सन्तोष कर दक्षिणभारत ( मद्रास आदि) में बालिका- लेनेके लिए लाचार कर देती है कि-" यह ओंको मंदिरमें देवसेवा निमित्त चढ़ा देनेकी दुराचार भी विधाताने उनके भाग्यमें लिख रक्खा चाल है । वहाँ उन्हें 'विभूतिन' कहते हैं। हो। गावे स्वयं धर्माच्युत नहीं हो रही हैं, बल्कि दे तीर्थयात्रा करती हुई, इस प्रान्त तक आ यह उनके दुर्भाग्यका परिणाम है-जिस दुर्भाजाती हैं और अपनी सञ्चरित्रताका परिचय दे ग्यने, उन्हें जर्जर पतिकी पत्नी बनाया, और जाती हैं।
उसे भी न रहने दिया, वही भाग्य पिशाच उन्हें ___ उन विवाहित पुरुषोंकी स्त्रियाँ-जो अत्यन्त आज इस गढ़ेमें झोंक रहा है। चलो, यह भी सही निर्बल हैं, रोगी हैं, वृद्ध या शक्तिहीन हैं, और 'विधिका लिखा को मेटनहारा '-" बस खतम । जिन्होंने जान बूझ कर व्याह करके स्त्रियोंके हाँ, यह बहुत जरूरी बात अवश्य है कि कहीं गले पर छुरियाँ चलाई हैं.-कबतक पातिव्रत बात खुल न जाय, नहीं तो जन्म जन्मान्तर, धर्म निबाह सकती हैं ? अथवा उन अनाचारी पुश्त दरपुश्तके लिए खानदान भरको जातिच्युत अत्याचारियोंकी स्त्रियाँ, जो अपना घर छोड़ होना पड़ेगा । सो, इसके लिए जबतक तीर्थयाकर बाजारकी हवा खाते हैं, कबतक और कहाँ आके लिए द्रव्य, पापोंको धोनेवाली बड़ी बड़ी । निरादरता सहती हुई पतिव्रता रहेंगी। जो नदियाँ, घरकी पुरानी चालकी संडासें, या
पुरुष श्रीभक्त नहीं, श्यागामी है, उसे अपनी अन्धे कुएं मौजूद हैं, इससे भी भय नहीं।
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